October 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-064 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चौंसठवाँ अध्याय देवान्तक से युद्ध में सिद्धिसेना की पराजय अथः चतुःषष्टितमोऽध्यायः बालचरितेऽष्टसिद्धिपराजय ब्रह्माजी कहते हैं — [ हे मुने!] कालान्तक दैत्य और प्राकाम्य का परस्पर युद्ध हो रहा था और जब कालान्तक प्राकाम्य पर विजय पाने ही वाला था, तभी वशित्व ने वेगपूर्वक वहाँ पहुँचकर प्राकाम्य की सहायता की और अपने हाथ की फुर्ती से कालान्तक के मस्तक पर एक पर्वत-शिखर से प्रहार किया। उस [ प्रहार]-से कालान्तक सहसा भूमि पर गिर पड़ा ॥ १-२१/२ ॥ तब कालान्तक को रक्त से लथपथ और दो भागों में विभाजित देखकर दैत्यसेना में महान् हाहाकार फैल गया। तदनन्तर मुसल नामक दैत्यपति और भल्ल नाम का एक अन्य असुर प्राकाम्य [नामक सिद्धि] एवं महिमा हो गये। उस समय शस्त्र से प्रहार करने वाले अनेक दैत्य नामवाली सिद्धि — ये चारों उत्साहपूर्वक युद्धहेतु उद्यत प्राकाम्य से युद्ध करने लगे ॥ ३–५ ॥ उस युद्ध में असंख्य देवता मरकर टूटे हुए वृक्ष की भाँति गिर पड़े। रक्तरूपी जल को प्रवाहित करने वाली वहाँ सहस्रों नदियाँ बहने लगीं ॥ ६ ॥ तब ईशिता, वशिता और विभूति [नामक सिद्धियाँ ] वहाँ आ गयीं और युद्ध में उस प्राकाम्य की सहायता करने लगीं। उन सिद्धियों ने उन चारों दैत्यों पर चार पर्वत गिराये, जिससे वे चूर-चूर हो गये और उन्होंने अत्यन्त दुर्लभ स्वर्ग को प्राप्त किया ॥ ७-८ ॥ युद्ध में अणिमा ने बलपूर्वक कर्दम की चोटी पकड़कर सहसा उसे पटक दिया, जिससे वह सौ टुकड़ों में विभक्तहोकर चूर-चूर हो गया। उसके मुख से रक्त का स्राव होने लगा तथा उसने भूमि पर लुढ़कते हुए प्राण त्याग दिये। तदनन्तर महिमा, लघिमा और गरिमा ने यक्ष्मासुर, तालजंघ तथा दीर्घदन्त पर वृक्षसमूहों से प्रहार किया । तब घण्टासुर, रक्तकेश और दुर्जय नामवाले महाबलशाली दैत्य लम्बी साँस लेते हुए अपनी सम्पूर्ण सेनाओं के साथ आये ॥ ९-१११/२ ॥ उन [दैत्यों]-के द्वारा अपनी सेना को मारा जाता देखकर वशिता आदि सिद्धियों ने उनके मस्तक पर अपनी मुष्टिका का कठोर प्रहार किया, जिससे वे भी भूमिपर गिर गये और सैकड़ों खण्डों में विभक्त होकर चूर-चूर हो गये ॥ १२-१३ ॥ तब वे सभी अपनी शक्ति से विजय प्राप्त करके गर्जना करने लगीं। ‘विनायक विजयी हुए’ – ऐसा वे सब कहने लगीं। अन्य अल्प बलवाले भी बहुत से दैत्य उनके द्वारा विनष्ट कर दिये गये, तब पुनः सभी श्रेष्ठ दैत्यवीर एकत्र होकर सिद्धिसेना का विनाश करने लगे ॥ १४-१५ ॥ उस समय दोनों सेनाओं में मारो, मार डालो, बाँध लो, सावधान हो जाओ – इस प्रकार का महान् कोलाहल होने लगा। तदनन्तर शस्त्रों के आपस में टकराने से अग्नि उत्पन्न गयी । योद्धा शस्त्रों के टूट जाने पर क्रोधित होकर मल्लयुद्ध करने लगे ॥ १६-१७ ॥ पुनः एक-दूसरे का विनाश करनेवाला, अनियन्त्रित और भयंकर युद्ध होने लगा। तभी सूर्य अस्त हो गये । महान् अन्धकार से चारों ओर सभी दिशाएँ व्याप्त हो गयीं, तब [अग्निगर्भा ] दिव्य [प्रकाशमान] औषधियों को हाथ में ग्रहणकर वे परस्पर प्रहार करने लगे ॥ १८-१९ ॥ वह भयंकर युद्ध तीन दिन-रात लगातार चलता रहा। उस समय दसों दिशाओं में वीरों को बहा ले जाने वाली रक्त की नदियाँ बहने लगीं ॥ २० ॥ वे नदियाँ ढालरूपी कछुवों, खड्गरूपी मछलियों, हाथीरूपी मगरमच्छों, शवरूपी काष्ठों, शिररूपी कमलों और केशरूपी शैवालों से सुशोभित हो रही थीं। वे कायरों को भय देनेवाली और वीरों के महान् हर्ष को विशेषरूप से बढ़ाने वाली थीं ॥ २११/२ ॥ तब बलवान् देवताओं के सदा विजयी होने पर देवान्तक चिन्ता करते हुए अपने मन में विचार करने लगा कि मैंने अपने पराक्रम से समस्त देवसमूहों पर विजय प्राप्त की, फिर इस बालक की जन-सामान्य को मोहित करने वाली तुच्छ माया मेरे समक्ष क्या है ? मैं अभी अष्टसिद्धियों और उनकी सम्पूर्ण सेना का नाश कर डालूँगा और इस बालक विनायक को पकड़कर अपने भवन चला जाऊँगा ॥ २२–२४१/२ ॥ ऐसा कहकर हाथ में खड्ग लिये वह अपनी गर्जना से दिशाओं को गुंजायमान करता हुआ तथा सम्पूर्ण शत्रुसेना को खड्ग-प्रहार से मारता हुआ वहाँ आया। [उस समय] देवता उसके भय से मूर्च्छित होकर भूतल पर गिर पड़े ॥ २५-२६ ॥ उनमें से कुछ देवताओं ने भगवान् विनायक का स्मरण करते हुए प्राण त्याग दिये। कुछ रक्तप्रवाहिनी नदियों में बह गये और कुछ देवता स्वर्गलोक में चले गये ॥ २७ ॥ कुछ देवताओं ने उस दैत्य को देखते ही अपने प्राण त्याग दिये। तब तितर-बितर हुई वह देवसेना दसों दिशाओं में भाग गयी। उस दैत्य ने भी हाथ में खड्ग लेकर [भागती हुई] देवसेना पर पीछे से प्रहार कर उसे मार डाला। यह देखकर गरिमा ने वृक्षोंसहित एक पर्वत को उस दैत्य के शरीर पर फेंका, [परंतु] उसने उसे अपनी तलवार से सैकड़ों टुकड़ों में काट डाला ॥ २८-२९१/२ ॥ तब आठों सिद्धियों ने क्षुभित होकर उसपर बहुत-से पर्वतों से प्रहार किया, [परंतु] उसने अपने खड्ग-प्रहार से कुशलतापूर्वक उन्हें शीघ्र ही टुकड़े-टुकड़े कर दिये । तत्पश्चात् महिमा [नामक सिद्धि] उछलकर उसके कन्धे पर सवार हो गयी और उस दैत्य के हाथ से शीघ्र ही खड्ग को छीनकर अन्तर्धान हो गयी। तदनन्तर उसने बलपूर्वक उस दैत्य के मस्तक पर उसी खड्ग से प्रहार किया, परंतु यह आश्चर्य की बात थी कि उस प्रहार से मस्तक तो अप्रभावित रहा, जबकि खड्ग सैकड़ों टुकड़ों में विभक्त हो गया! ॥ ३०–३२१/२ ॥ तब खड्ग के भग्न हो जाने पर वह दैत्य (देवान्तक) बाणों की वर्षा करने लगा। उसने एक-एक सिद्धि को बत्तीस-बत्तीस बाणों से मारकर व्याकुल कर दिया । तदनन्तर वे भूमि पर गिर पड़ीं। आठों सिद्धियों के [रणभूमि में ] गिर जाने पर देवता [देवान्तक से] युद्ध करने लगे। उधर वे सिद्धियाँ भी एक मुहूर्त में सावधान हो गयीं और भगवान् विनायक के पास गयीं ॥ ३३–३५ ॥ तब उस [युद्ध-सम्बन्धी ] सम्पूर्ण वृत्तान्त को जानकर बुद्धि ने [भगवान्] विनायक से कहा — ‘उसका विचार कैसे उचित हो सकता है, जिसके पास बुद्धि ही न हो । आपकी सिद्धियाँ पराजित हो चुकी हैं, इसलिये आप मुझे आज्ञा दीजिये। मैं उस दैत्य से युद्ध करने के लिये जाऊँगी और उसका पराक्रम देखूँगी’ ॥ ३६-३७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में’ ‘सिद्धिसेना की पराजय का वर्णन’ नामक चौंसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६४ ॥ Content is available only for registered users. 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