श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-067
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
सड़सठवाँ अध्याय
विनायक और देवान्तक का युद्ध
अथः सप्तषष्टितमोऽध्यायः
अस्त्रयुद्धं

ब्रह्माजी कहते हैं — उस सम्पूर्ण वृत्तान्त को जानकर विनायक अपने मन में महान् आश्चर्य करने लगे। तब वे क्रोधित तथा युद्ध के लिये उद्यत होकर सिंह पर सवार हुए। तदनन्तर उन्होंने अपने गर्जन से आकाश और दिशाओं को ध्वनित करते हुए सभी लोगों के मन को और पर्वतों को भी कम्पायमान कर दिया ॥ १-२ ॥ वे बड़े वेग से देवान्तक के समीप गये। तब वह दैत्य देवान्तक उनसे हँसकर कहने लगा — ॥ ३ ॥

दैत्य बोला — शुष्क तालुवाले हे बालक! तुम तो अभी मक्खन खाने में ही समर्थ हो, कैसे तुम युद्ध के लिये चले आये? तुम यहाँ मत रुको, जाओ और माता का स्तनपान करो। हे बालक ! तुम तो अदिति [-के गर्भ]- से कश्यप द्वारा उत्पन्न हो, फिर इस प्रकार की मूर्खता को कैसे प्राप्त हो रहे हो, जो आज देवान्तक से युद्ध करने की इच्छा कर रहे हो? मुझे देखकर तो काल भी भयभीत हो जाता है, तुम व्यर्थ ही मरने की इच्छा कर रहे हो । तुम्हारा शरीर अत्यन्त कोमल है, अतः तुम तो मेरे लिये एक ग्रासमात्र होओगे ॥ ४-६ ॥

ब्रह्माजी कहते हैं — दैत्य [देवान्तक] – के इस प्रकार के वचन सुनकर क्रोध से अरुण नेत्रों वाले विनायक ने मुख से अग्निका-सा वमन करते हुए हँसकर कहा — ॥ ७ ॥

भगवान् [विनायक ] बोले — तुम मद्यपान कारण उन्मत्त और सन्निपात से ग्रस्त हो, इसीलिये मूर्खतावश असम्बद्ध, युक्तिहीन प्रलाप कर रहे हो ॥ ८ ॥ अग्नि की छोटी-सी चिनगारी भी वायु से प्रेरित होकर सब कुछ जला डालती है। अरे दैत्याधम! तुम्हारे वाक्य से प्रेरित होकर ही मैं तुम्हें मार डालूँगा, तुम मुझे नहीं जानते हो। अब तुम ऐसी बुद्धि का त्याग कर दो कि मेरा अन्त करने वाला कोई नहीं है। मैं सनातन ब्रह्म हूँ और तुम्हारे वध के लिये ही अवतीर्ण हुआ हूँ ॥ ९-१० ॥ शिवजी द्वारा प्राप्त वरदान के अहंकार से तुमने सबको पीड़ित किया है। उस वरदान की अवधि आ गयी है । बुद्धिहीन होने के कारण तुम इसे समझ नहीं पा रहे हो । हे दुर्मते! त्रैलोक्य को पीड़ा देने से तुम्हारे द्वारा जो पाप हुआ है, उसे कहना व्यर्थ है, अब तुम अपने पुरुषार्थ का प्रदर्शन करो ॥ ११-१२ ॥ शक्ति के गुह्यांग से निकलने वाला तुम्हारे अतिरिक्त कौन ऐसा होगा, जो अपना मुख दिखलायेगा ! यदि तुम युद्ध करने की इच्छा रखते हो तो मुझपर प्रहार करो और मेरे प्रहार को सहन करो। तुम अपनी मूर्खता के वश में होकर कल होने वाली अपनी मृत्यु की आज ही इच्छा कर रहे हो ॥ १३१/२

ब्रह्माजी कहते हैं — उस दैत्य से इस प्रकार कहकर भगवान् विनायक ने [अपने] धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी ॥ १४ ॥ भगवान् विनायक ने उस [ देवान्तक] – को नरान्तक की गति अर्थात् मृत्यु देने की इच्छा से अपने धनुष की टंकार की, जिससे तीनों लोक कम्पित हो उठे ॥ १५ ॥ उन्होंने धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींचकर उस दैत्य पर बाण छोड़ा, परंतु दैत्य द्वारा सैकड़ों टुकड़े कर दिये जाने पर वह बाण भूमि पर गिर पड़ा ॥ १६ ॥ तदनन्तर दैत्य ने धनुषको  प्रत्यंचायुक्त करके बहुत- से बाणों का प्रहार किया, उसके धनुष की टंकार से पर्वत और दिशाएँ गूँज उठीं। तब विघ्नराज विनायक ने हुंकार- मात्र से उन बाणों को गिरा दिया और पुनः उस दैत्याधिपति पर बहुत-से बाणों से प्रहार किया ॥ १७-१८ ॥

उन देवाधिदेव ने एक बाण से उसका मुकुट और दो बाणों से दोनों कानों के कुण्डल भूमि पर गिरा दिये तथा दो बाणों से उसकी दोनों भुजाएँ काट डालीं ॥ १९ ॥ उन्होंने एक बाण से उसके ललाट पर प्रहार किया, तब वह दैत्य क्रोधान्वित होकर दाँतों को चबाने लगा। उसने अपनी आँखें फैलाकर विनायक पर और भी बहुत- से बाण छोड़े, जिनसे आकाश और दिशाएँ आच्छादित हो गयीं ॥ २०१/२

उन बाणों को भगवान् विनायक ने आकाश में ही एक ही बाण से काट डाला और क्षणमात्र में स्वयं एक बाणमय मण्डप का निर्माण किया। उस समय घोर अन्धकार छा जाने पर भी वे दोनों परस्पर युद्ध करते रहे ॥ २१-२२ ॥ क्रोधित होकर उन दोनों ने एक-दूसरे की बाणवृष्टि को अपनी शरवर्षा द्वारा काट डाला। इस प्रकार उन दोनों ने सैकड़ों बार एक-दूसरे की बाणवृष्टि का निवारण किया। तदनन्तर उस दैत्य देवान्तक ने एक सौ आठ बार महामन्त्र (अघोरमन्त्र) – का जप करके शीघ्र ही एक बाण को वारणास्त्र से अभिमन्त्रित किया ॥ २३-२४ ॥ उसे छोड़ने पर करोड़ों की संख्या में हाथी उत्पन्न हो गये, जो चार दाँतों वाले, पर्वत के समान [विशाल ] एवं मेरु और मन्दराचल को भी चूर्ण कर देने वाले थे ॥ २५ ॥ जिनके मद के प्रवाह से चारों ओर नदियाँ प्रवाहित होने लगीं तथा जिनके चिंग्घाड़मात्र से तीनों लोक वैसे ही निनादित हो रहे थे, जैसे कि वर्षाकाल में बादलों के गरजने से ॥ २६१/२

हे महामुने! वे हाथी देवताओं की सेना को निरन्तर नष्ट कर रहे थे। वे दसों दिशाओं में भाग रहे देवसैनिकों का पीछा कर रहे थे। वे पैरों से कुचलकर, सूँड़ के द्वारा और दाँतों के अग्रभाग से वीरों को मार डाल रहे थे ॥ २७-२८ ॥ सेना को इस प्रकार से नष्ट होता हुआ देखकर भगवान् विनायक ने सिंहास्त्र का प्रयोग किया, तब सैकड़ों- हजारों की संख्या में सिंह उत्पन्न हो गये । उनके सिंहनाद से हाथी पृथ्वी पर गिर पड़े। तब उन सिंहों ने हाथियों के गण्डस्थल को फाड़ डाला ॥ २९-३० ॥ सिंहों के गर्जन, हाथियों के चिंघाड़ और दैत्यों के अनेक प्रकार के शब्दों से तीनों लोक काँपने लगे तथा सभी देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३१ ॥ वे सिंह उछल-उछलकर हाथियों के कुम्भस्थल पर गिर रहे थे। इस प्रकार सिंहसमूहों के द्वारा वे सभी हाथी मार डाले गये । [ सिंहों द्वारा मारे गये वे हाथी ] इन्द्र द्वारा वज्र-प्रहार से गिराये गये पर्वतों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। तदनन्तर वे सिंह दसों दिशाओं में जाकर दैत्यों का भक्षण करने लगे ॥ ३२-३३ ॥

तब सम्पूर्ण सेना के मारे जाने पर देवान्तक चिन्तित हो उठा। ‘यह कश्यप का पुत्र बालक होते हुए भी बलवान् दिखायी दे रहा है, अतः अब मैं इसे निश्चित ही यमलोक का दर्शन कराऊँगा’ — ऐसा कहकर दैत्यराज ने पुनः एक बाण को अभिमन्त्रित किया ॥ ३४-३५ ॥ तदनन्तर शार्दूलों को उत्पन्न करने वाले उस बाण को धनुष पर चढ़ाकर उसने कान तक धनुष को खींचकर उसे देवताओं की सेना पर छोड़ दिया। आकाश और दिशाओं को निनादित करता हुआ वह बाण शीघ्र ही [देवसेना में] गया। उसके पंख की वायु से टूटकर वृक्षसमूह गिर पड़े। तब [उस बाण से] अनेक शार्दूलसमूह प्रकट हो गये । उन शार्दूलों ने सिंहों का भक्षण कर डाला । तदनन्तर वे सब शार्दूल अन्तर्हित हो गये ॥ ३६–३८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘अस्त्रयुद्ध का वर्णन’ नामक सड़सठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६७ ॥

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