October 18, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-068 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ अड़सठवाँ अध्याय विनायक और देवान्तक के युद्ध का वर्णन अथः अष्टषष्टितमोऽध्यायः भयानकास्त्रयुद्ध ब्रह्माजी कहते हैं —तदनन्तर दैत्य देवान्तक ने दो बाणों को आदरपूर्वक अभिमन्त्रित किया। उसने एक बाण को निद्रास्त्र से तथा दूसरे को गन्धर्वास्त्र से अभिमन्त्रित किया ॥ १ ॥ उसने बायें घुटने को आगेकर और धनुष की डोरी को खींचकर उन दोनों बाणों को छोड़ दिया। उनके शब्द से सहसा तीनों लोक काँपने लगे। उनमें से एक बाण सेना में और दूसरा देवाधिदेव विनायक के निकट गिरा ॥ २१/२ ॥ तब भगवान् विनायक ने अपने समक्ष ताल और मृदंग [बजाकर ] गान करते हुए गन्धर्वों और अनेक प्रकार के विचित्र नृत्य करती हुई अप्सराओं को देखा। उस समय उनके हाथों से शस्त्र गिर गये और उन्हें इसका पता भी न चला ॥ ३-४ ॥ वे [गायन और वादन की] मनोहर ध्वनि से मोहित हो गये थे और उन्हें अपने कर्तव्य का भी ज्ञान न रहा । निद्रास्त्र से विमोहित होकर सभी सैनिक भी सो गये ॥ ५ ॥ रात्रि का आरम्भ होते ही जैसे बालक अस्त-व्यस्त रूप से सो जाते हैं, वैसे ही वे सिद्धियाँ भी वहाँ लज्जारहित होकर सो गयी थीं ॥ ६ ॥ देवान्तक ने जब [विनायक और देवसेना की] यह स्थिति देखी तो उसने हर्ष प्रकट करते हुए गर्जना की। तदनन्तर उस बलशाली ने महान् देवसेना के चारों ओर वीर सैनिकों से युक्त बहुत-से गुल्मों 1 (सैनिक टुकड़ियों)- को स्थापित कर दिया ॥ ७१/२ ॥ [तदुपरान्त ] उसने भूमि का संस्कार करके एक त्रिकोण कुण्ड का निर्माण किया। तत्पश्चात् रक्त से भरे हुए सौ कलशों को प्रयत्नपूर्वक मँगवाया और स्नान कर अनेक प्रेतों से युक्त आसन पर पद्मासन लगाकर आदरपूर्वक बैठ गया ॥ ८-९ ॥ उसने सैकड़ों दैत्यों को मारकर विशाल मांसराशि एकत्र की और विधिपूर्वक अग्निस्थापन करके उस दैत्य देवान्तक ने अभिचार-कर्म करना प्रारम्भ किया ॥ १० ॥ उसने दिगम्बर (वस्त्रहीन) होकर मन्त्र पढ़ते हुए मांस की आहुतियाँ देना प्रारम्भ किया। एक हजार आहुतियाँ देने के अनन्तर उसने बलिदान देकर पूर्णाहुति की। तब उसने कुण्ड के मध्य भाग में एक शक्ति को देखा, जो क्षुधातुर थी। उसने उसे खाने के लिये नरमांस और पीने के लिये उन [रक्त से भरे हुए सौ] कलशों को दिया ॥ ११-१२ ॥ तब भी अतृप्त जानकर उसने उसे अन्य प्रेतों को अर्पित किया, तब वह भयंकर शक्ति [उस कुण्ड से] बाहर आयी। उसके बाल आकाश का स्पर्श कर रहे थे। और नेत्र विशाल गड्ढों के समान थे। रक्तवर्ण और अतीव भयंकर मुखवाली उस शक्ति ने दसों दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कहा — ‘रक्त-मांस से मैं तृप्त हो गयी हूँ, अब तुम्हें कोई भय नहीं है’॥ १३–१४१/२ ॥ तब उस दैत्य ने भी उसे प्रणामकर भक्तिभाव से षोडश उपचारों द्वारा उसका पूजन किया और उसके सम्मुख साष्टांग प्रणाम किया ॥ १५१/२ ॥ तदनन्तर दिव्य वस्त्र धारण किये हुए और अनेक प्रकार के अलंकारों से विभूषित देवान्तक ने उस देवी की गोद में बैठकर भयंकर गर्जना की। वह देवी भी उसके साथ उड़कर आकाश में स्थित हो गयी ॥ १६-१७ ॥ वह देवी (शक्ति) अनेक प्रकार के शस्त्र धारण की हुई थी और वह देवान्तक भी धनुष-बाण धारण किये हुए था। उस समय उस रौद्रकेतुपुत्र देवान्तक ने परम प्रसन्न होकर उस शक्ति से कहा — ‘यह कश्यप का पुत्र बालक होते हुए भी पहले से ही बहुत बलवान् है; अब इस समय मेरा उस दुष्ट के प्रति क्या कर्तव्य हो सकता है?’ ॥ १८-१९ ॥ [तब उस शक्ति ने कहा — ] ‘मैं अभी तुम्हारे सामने ही [उसकी ] सम्पूर्ण सेना का नाश किये देती हूँ।’ जब वह दैत्येन्द्र से इस प्रकार कह रही थी, तभी काशिराज ने उसके वचनों को सुन लिया ॥ २० ॥ तदनन्तर राजा ने विनायक के पास जाकर उन्हें आदरपूर्वक बोधित करते हुए कहा — ॥ २०१/२ ॥ काशिराज बोले — [हे प्रभो !] आप तो भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता हैं, फिर भी आप उस दैत्यरचित गान्धर्वी माया को क्यों नहीं जान पा रहे हैं ? और आप उसमें आसक्त क्यों हो जा रहे हैं ? देवान्तक ने अभिचार-कर्म के द्वारा राक्षसी – सदृश इस माया का निर्माण किया है । वह आपकी सेना का नाश कर डालेगी, अतः आप सावधानचित्त हो जाइये ॥ २१-२२१/२ ॥ ब्रह्माजी कहते हैं — तब काशिराज के इस प्रकार के वचन सुनकर सावधान हुए चित्तवाले सर्वव्यापक भगवान् विनायक ने ज्ञानदृष्टि से देखकर जान लिया कि यह सब माया द्वारा रचित है। तब उन्होंने [अपने तरकस से] दो बाण निकालकर उन्हें घण्टास्त्र और खगास्त्र के मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके धनुष को कान तक खींचकर छोड़ दिया । अत्यन्त वेगवाले और सुनहरे पंखोंवाले वे दोनों बाण मेघ के समान गर्जना करते हुए वायुवेग से चले और उन्होंने सहसा सूर्यमण्डल को आच्छादित कर दिया ॥ २३-२६ ॥ [उस समय] घण्टास्त्र से महान् घण्टानाद होने लगा, जो सबको विमोहित कर देने वाला था। तब उस घण्टा-नाद को सुनकर सभी सैनिक उठकर खड़े हो गये ॥ २७ ॥ तब [निद्रास्त्र के प्रभाव से मुक्त] सिद्धियाँ और सभी वीर हाथों में शस्त्र धारणकर युद्ध करने लगे। भगवान् विनायक ने दूसरा बाण देवान्तक की सेना को लक्ष्य करके छोड़ा। तब उस खगास्त्र [ नामक बाण ] – से महान् बलसम्पन्न अनेक प्रकार के रूपों वाले पक्षी प्रकट हो गये। हे मुने! उनके पंखों की वायु के वेग से वह गन्धर्वास्त्र वैसे ही नष्ट हो गया, जैसे सूर्य के सारथी अरुण के उदय (अरुणोदय) होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है। तदनन्तर उन पक्षियों ने सभी दैत्य सैनिकों का भक्षण कर लिया ॥ २८-३० ॥ कुछ दैत्य उन पक्षियों के पंखों के आघात से मर गये, तो कुछ उनकी चोंचों के अग्रभाग से क्षत-विक्षत हो गये तथा कुछ दैत्य भयसे प्राण त्यागकर गिर गये ॥ ३१ ॥ उस समय दैत्यसेनाओं में सब ओर महान् हाहाकार होने लगा। तब देवान्तक ने क्रोधित होकर खड्गास्त्र का प्रयोग किया ॥ ३२ ॥ उसकी ध्वनि सुनकर सागर – जैसी विशाल सेना और दिशाओं को धारण करने वाले हाथी क्षुब्ध हो उठे। उस अस्त्र से असंख्य खड्ग निकल आये ॥ ३३ ॥ उस समय दोनों सेनाओं के टकराने से वे खड्ग अग्नि के समान दाहक हो उठे। तब उस अग्नि से जलकर देवता धरती पर गिर पड़े ॥ ३४ ॥ [उस अस्त्र के प्रभाव से] कुछ पक्षी मारे गये और कुछ अग्निदग्ध हो गये तथा अन्य पक्षी अन्तर्धान हो गये। उस समय उन असंख्य खड्गों की प्रभा से दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं, और उस (प्रभा) – ने सैनिकों के नेत्रों की ज्योति का हरण कर लिया। [ उस समय ] खड्गों की वृष्टि से मारे गये देवता पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ३५-३६ ॥ उनमें से कुछ देवताओं की भुजाएँ कट गयी थीं, तो कुछ के मस्तक और कुछ के हाथ कट गये थे । अन्य देवता पेट, घुटने और पीठ पर खड्ग के प्रहार से आहत होकर मर गये और देवताओं के मृत शरीरों पर गिर पड़े। इस प्रकार अष्टसिद्धियों द्वारा निर्मित सम्पूर्ण सेना [उस अस्त्र द्वारा] विनष्ट हो गयी ॥ ३७-३८ ॥ उस समय दसों दिशाओं में रक्त की नदियाँ बहने लगीं और उनमें शव बहने लगे। तब विनायक ने उस दैत्य के अद्भुत पराक्रम को देखकर [अपने तरकस से ] एक सुदृढ़ बाण को निकालकर उसे वज्रास्त्र से अभिमन्त्रित किया और महान् गर्जना करते हुए उसे दैत्यसेना में छोड़ दिया ॥ ३९-४० ॥ उस बाण के शब्द से पर्वत और वृक्ष [टूटकर ] पृथ्वी पर गिर पड़े। उस अस्त्र से निकली अग्नि के संयोग से दिशाएँ जलने लगीं। उस अस्त्र ने अपने तेज से सूर्यमण्डल को आच्छादित कर लिया। उसके तेज से कुछ पक्षी दग्ध होकर मर गये ॥ ४१-४२ ॥ उस वज्रास्त्र से खड्गास्त्र सहसा हजारों टुकड़ों में टूट गया। तदनन्तर उस वज्रास्त्र ने अनेक वज्रों के द्वारा दैत्यसेना को जला डाला ॥ ४३ ॥ वज्र की धार [- के स्पर्शमात्र] – से हजारों दैत्य मर जा रहे थे । दैत्यगण जहाँ-जहाँ [भागकर] जाते थे, वहाँ-वहाँ वह वज्रास्त्र जाकर उनपर गिरता था ॥ ४४ ॥ उसने दैत्यों के मस्तकों, पैरों, हाथों, कन्धों और जंघाओं को चूर-चूर कर डाला। पृथ्वी का भेदनकर जो दैत्य [पाताल में] चले गये थे, उनको भी उस वज्रास्त्र ने मार डाला। इस प्रकार तीक्ष्ण [धारवाले] सहस्रों वज्रों द्वारा सभी दैत्य मार डाले गये । तदनन्तर वे सभी वज्र सब ओर से देवान्तक की ओर चले ॥ ४५-४६ ॥ तब उसने भी एक बाण लेकर उसे प्रयत्नपूर्वक रौद्रास्त्र से अभिमन्त्रित किया और उसे धनुष पर चढ़ाकर तथा [कान तक] खींचकर शत्रुसेना पर छोड़ दिया। [भगवान्] शिव के मंगलमय नाम से अंकित उस बाण ने आकाश और दिशाओं-विदिशाओं को भी निनादित कर दिया । प्रलयकालीन अग्नि के सदृश वह बाण अग्निकणों का वमन कर रहा था। उसके भय से भूलोक और देवलोक के प्राणी दसों दिशाओं में पलायन कर गये ॥ ४७–४९ ॥ उस समय विनायक की सेना में महान् कोलाहल होने लगा। उस बाण के गिरने पर उसमें से एक पुरुष प्रकट हुआ, जो देखने में अत्यन्त भयंकर था । ऐसा लगता था, मानो वह अपने भयंकर मुख से तीनों लोकों को अपना ग्रास बना लेगा। वह [सिर पर] जटा धारण किये बड़े-बड़े हाथ-पैरों वाला और विशाल पेट वाला था ॥ ५०-५१ ॥ उसका नीचे का ओष्ठ पृथ्वी को और ऊपर का ओष्ठ आकाश को स्पर्श कर रहा था, उसकी जिह्वा पर्वत-जैसी थी। उस भयंकर पुरुष ने क्षणभर में वज्रास्त्र का भक्षण कर लिया। तदनन्तर विशाल शरीर वाला वह पुरुष क्षणभर में विनायक के वध की इच्छा से उनके समीप पहुँच गया। तब [भगवान्] विनायक ने तत्क्षण ही ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया ॥ ५२-५३ ॥ उन देवाधिदेव विनायक ने शताक्षरी मन्त्र से एक तीव्रगामी बाण को अभिमन्त्रितकर उसे [धनुष पर चढ़ाकर और] कान तक खींचकर सहसा छोड़ दिया ॥ ५४ ॥ उस बाण से उत्पन्न कर्कश ध्वनि से तीनों लोक काँप उठे। उससे निकले अग्निकणों से सभी दिशाएँ दग्ध हो उठीं। उस समय कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । उस ब्रह्मास्त्र से भी वैसा ही एक पुरुष उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त भयंकर था। वे दोनों पुरुष एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से युद्ध करते हुए आकाश में चले गये ॥ ५५-५६ ॥ उन दोनों महाबलशालियों ने [वहाँ ] अनेक प्रकार से मल्लयुद्ध किया, तदुपरान्त क्षणभर में वे दोनों अन्तर्धान हो गये और फिर कहीं भी नहीं दिखायी दिये ॥ ५७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘अस्त्रयुद्ध’ नामक अड़सठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६८ ॥ 1. महाभारत (आदिपर्व २ । १९-२० ) – में गुल्मकी परिभाषा इस प्रकार दी गयी है — एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः । त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः । त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ॥ अर्थात् एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े – इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है। इसी पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान् पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं और तीन सेनामुखों को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है। इस प्रकार एक गुल्म में ९ हाथी, ९ रथ, २६ घुड़सवार और ४५ पैदल सैनिक होते हैं। Content is available only for registered users. 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