October 19, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-069 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ उनहत्तरवाँ अध्याय विनायक और देवान्तक के युद्ध का वर्णन अथः एकोनसप्ततितमोऽध्यायः मायाप्रदर्शनं ब्रह्माजी कहते हैं — तब देवान्तक अत्यन्त विस्मित होकर अपने मन में विचार करने लगा कि इस विनायक का निवारण करने के लिये मैं जैसे-जैसे माया का प्रयोग कर रहा हूँ, वैसे-वैसे ही यह बालक भी अपने पुरुषार्थ का प्रदर्शन कर रहा है। कब यह मृत्यु को प्राप्त होगा और कब मैं विगतश्रम होकर सो सकूँगा ? ॥ १-२ ॥ इस प्रकार चिन्तित उस देवान्तक ने अपने धनुष को प्रत्यंचायुक्त किया और एक भयंकर बाण को अभिमन्त्रित करके विनायक पर छोड़ दिया ॥ ३ ॥ उस अभिमन्त्रित बाण ने सर्वव्यापक [परमात्मा] विनायक पर असंख्य बाणों की वर्षा की। [तदनन्तर] देवान्तक ने एक भयंकर शक्ति का निर्माण किया, जो त्रिलोकी को ग्रास बनाने के लिये उद्यत थी ॥ ४ ॥ विघ्नराज विनायक ने उस शक्ति को और उसकी गोद में बैठे दैत्यश्रेष्ठ देवान्तक को देखा, जो बहुत-से तीक्ष्ण बाणसमूहों की वर्षा कर रहा था ॥ ५ ॥ तब अष्ट सिद्धियाँ शीघ्र उड़कर गयीं और उस शक्ति को बलपूर्वक पकड़कर उसे विनायक के पास लाने लगीं। जब वे उसे ला रही थीं, तभी वह उनके हाथ से निकलकर भाग गयी। तब वे सब क्रुद्ध होकर दैत्यपति देवान्तक को ही उसके सिर के बाल पकड़कर विनायक के पास ले आयीं ॥ ६-७ ॥ तब उस दैत्य ने अणिमा पर दृढ़तापूर्वक मुष्टि का-प्रहार किया, उस मुष्टिकाघात से वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। तब लघिमा, गरिमा और वशिमा ने उस पर तब तक लातों से प्रहार किया, जब तक कि उसने शीघ्रतापूर्वक उन सबके चरणों को पृथक्-पृथक् पकड़ नहीं लिया । तदनन्तर वह दैत्य जबतक उन्हें पृथ्वी पर पटकता, उससे पहले ही वे निकल गयीं ॥ ८–१० ॥ तब प्राकाम्य और भूति ने उसे बलपूर्वक मारा तो वह दैत्य मुख से अग्निवमन करता हुआ भूतल पर गिर पड़ा। तदनन्तर क्षणभर में चेतना प्राप्त करके वह एक शक्तिशाली घोड़े पर सवार हो गया। उसने शस्त्र हाथ में लेकर वायुवेग से विनायक पर प्रहार किया ॥ ११-१२ ॥ तलवार के दृढ़ आघात से देव विनायक कुछ मूर्च्छित- से हो गये, परंतु पलक झपकने मात्र में सावधान होकर वे उस दैत्यराज के प्रति इस प्रकार दौड़े, जैसे हिरण्यकशिपु का वध करने के लिये विष्णु और वृत्रासुर का वध करने के लिये शचीपति इन्द्र दौड़े थे ॥ १३१/२ ॥ वे अपने चारों हाथों में बाण, कमल, पाश और अंकुश धारण किये थे और वीरोचित शोभा से अत्यन्त प्रकाशमान होकर सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने मेघसदृश गर्जना करके अपने चारों आयुधों से उस दैत्य श्रेष्ठ देवान्तक पर वेगपूर्वक प्रहार किया, परंतु फिर भी वह विचलित नहीं हुआ। तब अपने शस्त्रों को व्यर्थ हुआ देखकर विनायक अत्यन्त आश्चर्य को प्राप्त हुए और माना कि इस दैत्य का शरीर वज्र के सारभाग से बना हुआ है ॥ १४–१६१/२ ॥ तदनन्तर देवाधिदेव विनायक ने उस महान् अस्त्र को ग्रहण किया, जो वज्र को भी चूर्ण कर सकता था और जिसे [विनायक के द्वारा पूर्व में मारे गये] धूम्राक्ष [सूर्योपासना के फलस्वरूप ] सूर्यमण्डल से प्राप्त किया था। उन्होंने दैत्य देवान्तक पर उसी अस्त्र से प्रहार किया, किंतु [देवान्तक की शारीरिक दृढ़ता के कारण] उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ १७-१८ ॥ उससे उसका एक रोम भी विचलित नहीं हुआ — यह एक महान् आश्चर्य की बात थी! तदनन्तर उन दोनों ने अनेक शस्त्रों से एक-दूसरे के सिर, पीठ, हृदय और भुजाओं पर प्रहार किया। तब उन शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न अग्नि पृथ्वी को जलाने लगी, परंतु वे दोनों [उससे] भयभीत नहीं हुए और युद्ध करते रहे। आधी रात हो जाने और अँधेरा फैल जाने पर भी उन्होंने युद्ध बन्द नहीं किया ॥ १९–२१ ॥ तदनन्तर वे दोनों कृत्रिम प्रकाश में परस्पर युद्ध करने लगे। तब रौद्रकेतु ने देवताओं को विमोहित करने वाली माया का प्रयोग किया ॥ २२ ॥ उसने सुन्दर स्वरूपवाली अदिति की रचनाकर उसे दैत्य देवान्तक के हाथ में दे दिया। वह कमलनयनी पीन पयोधरों वाली और भालदेश पर रक्तवर्ण के कुंकुम का आलेप किये हुए थी। उसके गले में मुक्ताहार, हाथों में सुन्दर कंगन और शरीर पर दिव्य वस्त्र शोभायमान थे। स्वर्णाभूषणों से विभूषित और दिव्य कंचुकी धारण किये वह सौन्दर्यलहरी के समान थी ॥ २३-२४ ॥ दैत्य के हाथ में पड़ी वह विनायक को देखकर रुदन करने लगी और उनसे बोली — ‘दौड़ो-दौड़ो, मैं संकट में हूँ, तुम देख क्या रहे हो ?’ ॥ २५ ॥ वह ऐसा कह ही रही थी कि उस दैत्य ने बलात् उसकी कंचुकी फाड़ डाली तथा उस मदोन्मत्त चित्तवाले दैत्य ने उसके वस्त्रों को भी खींच लिया। तब उस [[मायारचित] अदिति ने उच्च स्वर में विनायकदेव से कहा — ‘तुम्हारा पुरुषार्थ कहाँ चला गया? अरे निष्ठुर ! लोकलज्जा के भय से तुम शीघ्र मुझे [इस दैत्य से] छुड़ाओ’ ॥ २६-२७ ॥ अदिति को ऐसी अवस्था में देखकर आँसुओं से विनायक का कण्ठ भर आया, वे क्रोधित हो उठे, उन्हें कुछ भी स्मरण नहीं रहा और न वे कुछ विचार ही कर सके, शस्त्र उनके हाथों से गिर गये ॥ २८ ॥ वे सोचने लगे कि यह मेरी माता इसके हाथ में कैसे आ गयी? उस पुत्र के जन्म को धिक्कार है, जिसकी जननी इस प्रकार की दुरवस्था को प्राप्त हो ॥ २९ ॥ देवताओं की जननी होते हुए भी वह कैसे इस दुष्ट के चंगुल में पड़ गयी ? गणनायक को इस प्रकार शोक करते देखकर स्वयं काशिराज भी अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और साथ ही नगर में स्थित लोग भी । तब उस देवान्तक ने विनायक देव की बहुत प्रकार से निन्दा की — ‘अरे! तेरे जन्म को धिक्कार है, आज तेरा पौरुष कहाँ गया ? तू प्राण क्यों नहीं त्याग देता? तू तो निर्लज्ज है, जो इस समय भी संसार में अपना मुख दिखा रहा है। अरे दुष्ट! मैं तेरे समक्ष ही इसके शरीर से इसका सिर काटकर इसे मार डालता हूँ ‘ ॥ ३०-३२१/२ ॥ ब्रह्माजी कहते हैं — देवान्तक के इस प्रकार के निष्ठुर वचनों को सुनकर [विनायकदेव ने] मन में विचार किया कि यह सत्य ही कह रहा है, अब मुझे प्राणत्याग के लिये क्या करना चाहिये- ‘विषपान या पाशबन्धन ? अथवा मृत्यु की प्राप्ति के लिये मुझे उदर में शस्त्राघात कर लेना चाहिये ?’ जब वे दुःख और शोक से समन्वित होकर इस प्रकार विचार कर ही रहे थे, तभी विनायक ने आकाशवाणी सुनी ॥ ३३-३५१/२ ॥ आकाशवाणी ने कहा — हे देव! यह जान लो कि यह [अदिति] दुष्टबुद्धि दैत्य द्वारा माया से रची गयी है। अतः संयतचित्त होकर अपने शत्रु का वध करो। तब उस अदिति को मायामयी जानकर वे विनायक सावधान हो गये ॥ ३६-३७ ॥ महाबुद्धिमान् विनायक हर्षित हो गये और दैत्य देवान्तक को मार डालने के लिये उद्यत हो गये। उन्होंने उस वरदान का स्मरण किया, जो भगवान् शंकर ने उस दुरात्मा को दिया था कि उषाकाल के बिना सभी शस्त्रास्त्र तुम पर व्यर्थ हो जायँगे। इस प्रकार उसको प्राप्त वर को जानकर विनायक प्रात:काल होने पर युद्ध के लिये गये ॥ ३८-३९ ॥ उस दैत्य ने भी [रात्रिकालीन ] युद्ध की समाप्ति पर [उषाकाल में] लाल-लाल आँखोंवाले, मुकुट से सुशोभित और उज्ज्वल कुण्डल धारण किये विनायक को अपने सम्मुख देखा ॥ ४० ॥ दाँतों की कान्ति से वे अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे, मोतियों की माला से विभूषित थे । वे दिव्य वस्त्र धारण किये हुए थे और अत्यन्त कान्तिमान् थे । उन सर्वव्यापक प्रभु की सूँड़ आकाश का स्पर्श कर रही थी । विनायक के [ ऐसे] रूप को देखकर देवान्तक भयभीत और अत्यन्त विस्मित होकर [बोल पड़ा] — अरे ! यह आधा मनुष्य का और आधा हाथी के जैसे शरीर वाला कौन है ? ॥ ४१-४२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘विनायक और देवान्तक के युद्ध का वर्णन’ नामक उनहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६९ ॥ Content is available only for registered users. 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