श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-074
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
चौहत्तरवाँ अध्याय
राजा चक्रपाणि के पुत्र सिन्धु द्वारा भगवान् सूर्य की आराधना और उनसे विभिन्न वरों की प्राप्ति
अथः चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
वरप्रदानं

ब्रह्माजी बोले — राजा चक्रपाणि की रानी के द्वारा समुद्र में उस गर्भ के छोड़ दिये जाने पर उस गर्भ से एक बालक उत्पन्न हुआ, जो महान् बलशाली, तेजसम्पन्न, विकराल मुख वाला, विस्तृत मस्तक वाला एवं तीन नेत्रों वाला था। वह लाल रंग के बालों की जटाओं से सम्पन्न था। उसने हाथ में चक्र तथा त्रिशूल लिया हुआ था । उस बालक के रुदन से तीनों लोक काँप उठे ॥ १-२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ व्यासजी! उस बालक के हाथ घुटनों तक लम्बे थे। उसने तीनों लोकों पर आक्रमण कर उन पर विजय प्राप्त करने की अभिलाषा की। उस बालक के भय से समुद्री जीव-जन्तुओं सहित समुद्र क्षुब्ध हो उठा, समुद्र में स्थित उस बालक ने समुद्र को सुखा-सा डाला ॥ ३१/२

समुद्र बोला — यह राजपुत्र सूर्यदेव से समुत्पन्न है, इसे मैं राजदरबार में ले जाऊँगा ॥ ४ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर वह द्विजरूपधारी समुद्र उस बालक को लेकर राजभवन में गया और राजा तथा रानी के आगे उसे रखकर वह कहने लगा — ॥ ५ ॥

[हे राजन्!] आपकी पत्नी ने अपने गर्भ के दुस्सह होने के कारण मेरे अन्दर वह गर्भ छोड़ दिया था। उसी गर्भ से यह अत्यन्त उग्र बालक उत्पन्न हुआ है, जो सम्पूर्ण लोक के लिये महान् भय उत्पन्न करने वाला है । इसने उत्पन्न होते ही मुख से जो पहली ध्वनि की, उससे तीनों लोक काँप उठे। इसे मैं अपनी आँखों से देख तक नहीं सकता, अतः मैं इसे यहाँ आपके पास ले आया हूँ ॥ ६-७ ॥

ऐसा कहकर बालक को वहाँ छोड़कर वह समुद्र अन्तर्हित हो गया। तब राजभार्या ने उसे दोनों हाथों से पकड़कर अपनी गोद में बैठा लिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ उस बालक को प्रेमपूर्वक स्तनपान कराया। पुत्र के दर्शन से वे दोनों राजा एवं रानी उसी प्रकार अत्यन्त आनन्दित हुए, जैसे कि चिरकाल तक योग-साधना में निरत रहने वाला साधक ब्रह्मरूपी अमृत को पाकर आनन्दित होता है ॥ ८-९१/२

तदनन्तर राजा ने ब्राह्मणों तथा अपने मित्रगणों को आमन्त्रण करके बुलवाया। राजा तथा रानी ने उसका यथाविधि जातकर्म संस्कार करवाया और ज्योतिर्विदों के साथ परामर्श करके उस बालक का ‘सिन्धु’ यह मंगलदायक नाम रखा । तदनन्तर हर्षसमन्वित हुए राजा ने अनेकों ब्राह्मणों को अनेकविध दान तथा विविध वस्त्र प्रदान किये ॥ १०-१२ ॥ उस समय नगर अनेक प्रकार की पताकाओं से अलंकृत था और सभी प्रकार के वाद्य बज रहे थे। राजा घर-घर में शर्करा भिजवायी। सभी लोगों के चले जाने पर राजा और रानी ने स्नेहवश पुकारने के लिये उसका ‘रक्तांग’ यह नाम रखा । तदनन्तर दोनों अमात्यों ने कहा —‘चूँकि यह उग्रा का पुत्र है और उग्र मुद्रा धारण करनेवाला है, अतः यह ‘उग्रेक्षण’ इस नाम से भी प्रसिद्ध होगा ‘॥ १३–१५ ॥

नगरनिवासियों ने उसका ‘विप्रप्रसादन’ यह नाम रखा और उन सभी पुरवासियों ने राजा को अनेक-अनेक प्रकार की भेंट प्रदान की। राजा ने भी उस समय उन सभी को उपहार प्रदान किये। वह बालक उसी प्रकार बढ़ने लगा, जैसे शुक्ल पक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा वृद्धि को प्राप्त होता है ॥ १६-१७ ॥ जिस प्रकार वायु के वेग से अग्नि क्षणभर में ही बढ़ने लगती है, वैसे ही वह बालक अपने तेज के प्रभाव से बढ़ता हुआ आकाशमण्डल का स्पर्श करने लगा ॥ १८ ॥ दिन-प्रतिदिन खेल – खेल में वह बालक घर के समीप के बहुत से वृक्षों को बायें हाथ की हथेली से उखाड़कर गिरा देता था। जंगल में क्रीडा करते हुए उसने पर्वतों तथा वृक्षों को चूर-चूर कर डाला। ऐसे ही एक बार उसने चन्द्र में दिखायी देनेवाले हिरण को उछलकर क्षणभर में पकड़ लिया ॥ १९-२० ॥ एक बार किसी हथिनी के द्वारा जल में उतरने के ही मार्ग को अवरुद्ध कर दिये जाने पर इस बालक ने मुष्टिका के प्रहार से उसके गण्डस्थल को भेद डाला, जिससे वह गिर पड़ी। उसके इस प्रकार के अद्भुत कर्मों को देखकर लोग अत्यन्त विस्मय में पड़ गये। उसके अतिमानवीय बल पराक्रम को देखकर उसके माता और पिता अत्यन्त प्रसन्न थे ॥ २१-२२ ॥

इस प्रकार के कर्मों को करता हुआ वह सिन्धु नामक महाबली बालक वृद्धि को प्राप्त होने लगा । तदुपरान्त [एक दिन] वह अपने पिता से बोला कि हे राजन्! मैं तप करने के लिये जाता हूँ। मैं तप अनुष्ठान के द्वारा स्वर्गलोक, भूलोक तथा रसातललोक पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधीन कर लूँगा। मेरा ऐसा मानना है कि यहाँ घर पर रहकर तो मेरी आयु व्यर्थ ही बीत जायगी ॥ २३-२४ ॥

उसका ऐसा वचन सुनकर उसके माता-पिता उससे बोले — [हे वत्स!] पिता अपने पुत्र के उत्कर्ष के लिये नित्य ही प्रार्थना किया करते हैं और तुम्हारी माता भी व्रत, दान, उपवास – पूजा आदि के द्वारा सभी देवताओं को मनाती ही रहती हैं। इस प्रकार से उनकी अनुमति प्राप्तकर उन्हें प्रणामकर वह वन की ओर चल पड़ा ॥ २५-२६ ॥ वहाँ घूमते हुए उसने कमलों से समन्वित एक सरोवर देखा। वहाँ जनशून्य स्थान देखकर उसका मन प्रसन्न हो गया और उसने वहीं ठहरने का निश्चय किया । वह पैर के एक अँगूठे के बल पर भूमि पर खड़े होकर दोनों हृदयदेश में हाथों को ऊपर उठाकर भगवान् सूर्य का ध्यान करते हुए शुक्राचार्यजी द्वारा उपदिष्ट उस मन्त्र का जप करते हुए पर्वत के समान अडिग हो गया ॥ २७-२८ ॥ वह दाहिने घुटने पर अपना बायाँ पैर रखकर दोनों हाथों की अंजलि को लगाकर उसी स्थिति में रहकर सतत भगवान् सूर्य का ध्यान करता था ॥ २९ ॥

शीत, वात, घाम एवं जलवृष्टियों को दृढ़तापूर्वक सहन करते हुए वह केवल वायु का आहार करने लगा। उसका शरीर वल्मीक का ढेर बन गया था ॥ ३० ॥ शरीर के केवल अस्थिमात्र शेष रह जाने पर भी वह उस महामन्त्र के जप में तल्लीन था । इसी प्रकार साधना करते हुए उसे दो हजार वर्ष व्यतीत हो गये ॥ ३१ ॥ उस समय उस सिन्धु के शरीर से प्रकट होने वाली आभा से सूर्यदेव सन्तप्त हो उठे। इस प्रकार का उग्र तप देखकर भगवान् सूर्य प्रकट हो गये ॥ ३२ ॥

वे बोले — इस समय मैं तुम्हारे साधनानुष्ठान से अत्यन्त प्रसन्न हूँ । तुम अपने मन में जो भी कामना हो, उसे माँगो, मैं जीवित रहने तक वह वरदान तुम्हें दूँगा ॥ ३३ ॥

भगवान् सूर्य द्वारा स्फुट रूप से कहे गये उस वचन को सुनकर सिन्धु ने शारीरिक चेतना को प्राप्तकर अपने सामने प्रभु भगवान् सूर्य को प्रत्यक्ष देखा । तब वह उनके चरणकमलों में प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार स्तुति करने लगा ॥ ३४१/२

नमस्ते दीननाथाय नमस्ते सर्वसाक्षिणे ॥ ३५ ॥
नमस्ते त्रिदशेशाय ब्रह्मविष्णुशिवात्मने ।
नमस्ते विश्ववन्द्याय नमस्ते विश्वहेतवे ॥ ३६ ॥
नमस्ते वृष्टिबीजाय सस्योत्पादनहेतवे ।
परब्रह्मस्वरूपाय सृष्टिस्थित्यन्तहेतवे ॥ ३७ ॥
गुणातीताय गुरवे गुणक्षोभविधायिने ।
सर्वज्ञाय ज्ञानदात्रे सर्वस्य पतये नमः ॥ ३८ ॥

सिन्धु बोला — हे दीनों के स्वामी ! आपको नमस्कार है। सर्वसाक्षी भगवान् भास्कर को नमस्कार है। देवताओं के स्वामी को नमस्कार है, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इस प्रकार त्रिदेवस्वरूप सूर्य को नमस्कार है। समस्त विश्व के लिये वन्दनीय को नमस्कार है। विश्व के कारणस्वरूप आप भगवान् सूर्य को नमस्कार है ॥ ३५-३६ ॥ वृष्टि के कारणरूप भगवान् सूर्य को नमस्कार है। फसलों की उत्पत्ति के हेतुभूत आपको नमस्कार है, परब्रह्म स्वरूप को नमस्कार है और सृष्टि, पालन तथा संहार के कारणरूप आपको नमस्कार है ॥ ३७ ॥ आप गुणातीत हैं, आपको नमस्कार है । गुरुरूप आपको नमस्कार है। सत्त्वादि तीन गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले आपको नमस्कार है। सर्वज्ञ, ज्ञान प्रदान करने वाले और सभी के स्वामीरूप आपको नमस्कार है ॥ ३८ ॥

हे देव! आज मेरा जन्म लेना धन्य हो गया, मेरा वंश धन्य हो गया, मेरे माता-पिता धन्य हो गये और मेरी तपस्या भी धन्य हो गयी, जो कि आपका मुझे प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ है ॥ ३९ ॥ हे दिनेश ! यदि आप मुझे वर प्रदान करना चाहते हैं, तो किसी से भी मेरी मृत्यु न हो – यह वरदान आप मुझे प्रदान करें। आपकी कृपा से मैं संग्राम में सभी देवताओं पर विजय प्राप्त करूँ। इस समय जो देवता हैं, उनसे मेरी मृत्यु न हो ॥ ४०१/२

ब्रह्माजी बोले — उस सिन्धु के द्वारा इस प्रकार के माँगे गये वरदानों को सुनकर सन्तुष्ट हुए भगवान् सूर्य तपस्यानुष्ठान से अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले अपने उस भक्त से बोले ॥ ४१ ॥

सूर्य बोले — मेरे वचनों के अनुसार तुम्हें न तो देवयोनियों से, न मनुष्यों से, न तिर्यक् योनि के पशु- पक्षियों से, न नागों से ही कोई भय होगा। न तो दिन, न रात्रि, न उषाकाल और न सन्ध्याकाल – इस प्रकार किसी भी समय तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। हे राजपुत्र ! इस अमृत के पात्र को ग्रहण करो । यह जबतक तुम्हारे कण्ठदेश से लगा रहेगा, तबतक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी ॥ ४२–४४ ॥ इस अमृतपात्र को जो कोई भी तुमसे अलग कर लेगा, उसी के हाथों तुम्हारी मृत्यु होगी। ऐसा कोई देवता, जब अवतार ग्रहण करेगा, जो अपने केशों के अग्रभाग से स्वर्ग को हिला डाले और जिसके अंगुष्ठ के नख के अग्रभाग में करोड़ों ब्रह्माण्ड समाये हुए हों, वे ही प्रभु तुम्हें मार सकते हैं। अन्य किसी से कभी तुम्हें भय करने की आवश्यकता नहीं है ॥ ४५-४६ ॥ मेरे वरदान के प्रभाव से सब कोई तुम्हारे लिये तृण के समान हो जायँगे। मैंने तुम्हें तीनों लोकों का राज्य प्रदान कर दिया है — इसमें कोई सन्देह करने की आवश्यकता नहीं ॥ ४७ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार अनेक प्रकार के वरदान देकर भगवान् सूर्य अन्तर्धान हो गये। तब वह सिन्धु भी अत्यन्त आनन्दमग्न होकर अपने भवन को चला गया ॥ ४८ ॥ तब माता एवं पिता ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उसके मस्तक को सूँघा, और वे दोनों उससे कहने लगे — ‘हे पुत्र! तुम्हारे वियोग में हमने अन्न का परित्याग कर दिया है। चिन्ता के कारण हम दोनों अत्यन्त कृश हो गये हैं। तुम हमारी इस दशा को देखो।’ तदनन्तर माता-पिता के चरणों में प्रणाम करके अत्यन्त हर्षित होकर पुत्र सिन्धु ने कहा — ॥ ४९-५० ॥

भगवान् सवितादेव ने प्रसन्न होकर मुझे तीनों लोकों का स्वामित्व प्रदान किया है। उनके वर से मैं तीनों लोकों को अपने वशीभूत कर लूँगा । अतः आप लोगों को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है ॥ ५१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘वरप्रदान’ नामक चौहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७४ ॥

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