श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-076
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
छिहत्तरवाँ अध्याय
सिन्धुसेना से पराजित देवों का वैकुण्ठलोक में विष्णु की शरण में जाना, देवताओं को आश्वस्तकर भगवान् विष्णु का गरुड़ पर आरूढ़ हो देवताओंसहित वहाँ आना, दैत्यसेना तथा देवसेना का युद्
अथः षट्सप्ततितमोऽध्यायः
देवदानवयुद्धवर्णनं

ब्रह्माजी बोले — देवताओं के साथ देवराज इन्द्र ने वैकुण्ठलोक में सुखपूर्वक आसन पर बैठे हुए भगवान् विष्णु के समीप आकर उन्हें प्रणाम किया और अपने आगमन का प्रयोजन बतलाया ॥ १ ॥

इन्द्र बोले — हे गोविन्द ! सिन्धुदैत्य द्वारा की गयी हमारी इस दुर्दशा को क्या आप नहीं जानते हैं? हमारी अमरावतीपुरी पर दुष्टों ने आक्रमण किया है ॥ २ ॥ यद्यपि देवताओं को साथ लेकर मैंने उसके साथ यथाशक्ति युद्ध किया, किंतु जब उस दैत्य सिन्धु को जीता नहीं जा सका, तभी मैं आपकी शरण में आया हूँ । हे जगदीश्वर ! आपके बिना हमारी कोई गति नहीं है । आप ही सर्वदा हमारी गति हैं। आप इस दैत्य सिन्धु का वध करें और हमें अपने-अपने स्थानों को प्राप्त करायें ॥ ३-४ ॥

ब्रह्माजी बोले — इन्द्र के वचन सुनकर भगवान् विष्णु चिन्ता तथा आश्चर्य से समन्वित हो गये और इन्द्र से बोले — आप लोगों को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, मैं क्षणभर में ही उस असुर सिन्धु पर विजय प्राप्त कर लूँगा।’ ॥ ५ ॥

ऐसा कहकर भगवान् हृषीकेश अपने वाहन गरुड़ पर आरूढ़ हुए। उस समय उस गरुड़ की उड़ान से तीनों लोक प्रकम्पित हो उठे ॥ ६ ॥ पक्षियों से समन्वित वृक्ष भूमि पर गिर पड़े। उस समय भगवान् विष्णु मुकुट तथा कुण्डल धारण किये हुए थे और वनमाला से विभूषित थे ॥ ७ ॥ कौस्तुभमणि की आभा से उनका वक्ष:स्थल सुशोभित हो रहा था। उन्होंने कस्तूरी का उज्वल तिलक लगाया हुआ था। वे अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए थे। इस प्रकार से सुसज्जित भगवान् विष्णु इन्द्रनगरी अमरावती में गये। गरुड़ के आसन पर आरूढ़ भगवान् विष्णुसहित सभी देवगणों को आया हुआ जानकर असुर अपने हाथों में विविध प्रकार के शस्त्र धारणकर युद्ध के लिये आ पहुँचे ॥ ८-९ ॥

तब महापराक्रमशाली दैत्य सिन्धु भी युद्ध करने की इच्छा से हाथ में धनुष, तूणीर तथा चक्र लेकर घोड़े पर सवार होकर अत्यन्त रोष करता हुआ वहाँ आया ॥ १० ॥ इसके पश्चात् कुबेर, वरुण, वायु, अग्नि, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, मंगल, दोनों अश्विनीकुमार तथा कामदेव भी युद्धस्थल में आये । सिन्धु दैत्य के सामने ही देवताओं तथा दैत्यों में द्वन्द्व युद्ध चल पड़ा। उस युद्ध में दैत्य प्रचण्ड का वरुण के साथ, यक्षराज कुबेर का कमल दैत्य के साथ, सौ यज्ञ करने वाले इन्द्र का वृत्रासुर के साथ, निशुम्भ का वायु के साथ और शुम्भ दैत्य का शक्तिसम्पन्न विष्णु के साथ मल्लयुद्ध हुआ ॥ ११–१३ ॥ इसी प्रकार अग्निदेव ने चण्ड के साथ और चन्द्रमा ने मुण्ड के साथ भीषण युद्ध किया। मंगल का कदम्ब के साथ, शम्बरासुर का कामदेव के साथ एवं दोनों अश्विनीकुमारों का कालदैत्य के साथ युद्ध हुआ। सभी सैनिकों ने शस्त्रों तथा अस्त्रों के आघात से एक-दूसरे के मर्मस्थानों पर अनेक बार चोट पहुँचायी ॥ १४-१५ ॥

युद्ध के मतवाले कुछ योद्धा मल्लयुद्ध कर रहे थे, कुछ दूसरे शस्त्रों के आघात से परस्पर चोट पहुँचा रहे थे। कुछ वीर मृत्यु को प्राप्त हो गये, कुछ मरणासन्न अवस्था वाले हो गये और कुछ शरीर के अंगों के कट जाने पर भी इधर- उधर गति कर रहे थे। कभी वे दूसरे को पराजित कर देते तो कभी स्वयं पराजित हो जाते थे ॥ १६-१७ ॥ तदनन्तर वृत्रासुर ने अपनी मुष्टिका प्रहार से इन्द्र के ऊपर आघात किया। तदनन्तर वे दोनों बड़े वेग से अपने- अपने मस्तक से दूसरे के मस्तक पर चोट पहुँचाने लगे ॥ १८ ॥ इसी प्रकार हाथ से हाथ को, पैर से पैर को मारने और वक्षःस्थल से वक्षःस्थल पर टक्कर मारने लगे । तदनन्तर इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर पर प्रहार किया ॥ १९ ॥ वज्र के आघात से वह भूमि पर गिर पड़ा और उसे जोर की मूर्च्छा आ गयी। थोड़ी ही देर में चेतना प्राप्तकर वृत्रासुर ने वज्र के समान कठोर मुष्टि के आघात से इन्द्र पर प्रहार किया, उस चोट से वे मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। उनके मुख से रक्त की धारा बह चली, वे जब तक भागते, उससे पहले ही सभी दिशाओं से युद्ध की इच्छा करने वाले दैत्य वहाँ आ पहुँचे। तब उनका वैसा बल- पराक्रम देखकर इन्द्र अन्तर्धान हो गये ॥ २०–२२ ॥

इस प्रकार जो-जो भी देवता असुरों से द्वन्द्वयुद्ध कर रहे थे, उन सभी का अभिमान चूर-चूर हो गया और वे युद्धस्थल से पलायन कर गये ॥ २३ ॥ इस प्रकार सभी देवताओं के पलायन कर जाने पर भगवान् विष्णु ने अपने वाहन गरुड को प्रेरित किया। वे अपने सुदर्शनचक्र की दीप्ति से तथा अपनी दीप्ति से सभी दिशा-विदिशाओं को प्रभासित करते हुए वहाँ आये और उन्होंने अपने चक्र की धार से अनेकों दैत्यसमूहों पर प्रहार किया। उस प्रहारसे कुछ दैत्यों के मुख कट गये, किसी की गर्दन धड़ से अलग हो गयी ॥ २४-२५ ॥ कुछ दैत्यों के सौ भागों में टुकड़े हो गये और कोई घुटना, जंघा तथा बाहु से रहित हो गये। कुछ उनकी शरण में चले गये, उन्हें भगवान् विष्णु ने नहीं मारा ॥ २६ ॥ भगवान् विष्णु के हाथों मारे गये वे सभी महाबली दैत्य मुक्ति को प्राप्त हुए। वहाँ शीघ्र ही रणांगण में मेद तथा मांस बहाने वाली नदियाँ प्रवाहित होने लगीं ॥ २७ ॥

तदनन्तर भगवान् विष्णु ने शंख बजाया, जिसकी तीव्र ध्वनि ने सम्पूर्ण जगत् को निनादित कर दिया। इस प्रकार भगवान् विष्णु द्वारा सबके ऊपर विजय प्राप्त कर लेने पर वे शुम्भ आदि सभी दैत्य उस द्वन्द्व-युद्ध को करना छोड़कर उनके साथ युद्ध करने के लिये आ गये ॥ २८१/२

तब भगवान् श्रीहरि ने विराट्रूप धारण किया और चण्ड, मुण्ड, निशुम्भ तथा शुम्भ नामक उन चारों दैत्यों को पकड़कर और घुमाकर उसी प्रकार दूरस्थित श्रेष्ठ नदी के मध्य में फेंक दिया, जैसे कोई मनुष्य भिन्दिपाल के द्वारा पत्थर ( – के गोल टुकड़े) – को फेंक देता है । वे कुछ देर के लिये मूर्च्छित हुए, किंतु फिर सचेत होकर अपनी दैत्यसेना में आ गये ॥ २९–३१ ॥ तदनन्तर श्रीहरि ने बिना घबड़ाये दैत्य प्रचण्ड के हृदय में, वृत्रासुर की पीठ में, काल, कमल एवं भौमासुर के सिर में मुष्टि से प्रहार किया । कदम्बासुर पर चक्र से आघात किया। उन माधव ने कोलासुर के हृदय में गदा से प्रहार किया ॥ ३२-३३ ॥

तदनन्तर वह सिन्धु नामक दैत्य भयंकर कोलाहल ध्वनि द्वारा दिशाओं एवं विदिशाओं को निनादित करते हुए शीघ्र ही दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा और बोला — ‘हे विष्णु ! मैंने तुम्हारा बलपौरुष देख लिया ॥ ३४ ॥ अब तुम मेरा भी पौरुष देखो, अब तुम यहाँ से जा नहीं सकते हो। मेरी नजरों के सामने से आज तक कभी भी कोई शत्रु जीवित रहकर नहीं गया है ॥ ३५ ॥ तुम तो भूत, भविष्य तथा वर्तमानकाल की सब बातों को जानने वाले हो, तुमने पूर्व में इस विषय में विचार क्यों नहीं किया? जिसके शब्दमात्र से तीनों लोक अत्यन्त प्रकम्पित हो उठते हैं, उसकी नगरी में तुम सूर्य के आगे जुगनू के समान क्यों चले आये हो?’ ॥ ३६१/२

इस प्रकार का मिथ्या प्रलाप करते हुए उस दैत्याधिपति सिन्धु से देवता बोले — ‘जो वीर होते हैं, वे डींग नहीं हाँकते, बल्कि पौरुष दिखलाते हैं। हमें भगवान् विष्णु की आज्ञा प्राप्त नहीं है, नहीं तो अबतक तुम्हारे सैकड़ों टुकड़े हो गये होते ‘ ॥ ३७-३८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘विष्णु का रणभूमि में युद्धार्थ आगमन’ नामक छिहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७६ ॥

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