श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-078
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
अठहत्तरवाँ अध्याय
बृहस्पति के कथनानुसार देवताओं का माघमास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को संकष्ट चतुर्थी व्रत करना तथा स्तुति द्वारा विनायकदेव को प्रसन्न करना, संकष्टहरस्तोत्र की महिमा, प्रसन्न हो विनायकदेव का देवों को वरदान देना और चारों युगों में होने वाले अपने स्वरूप का परिचय देना
अथः अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
सुरर्धिवरप्रदानं

ब्रह्माजी बोले — अत्यन्त पराक्रमशाली दैत्य सिन्धु के द्वारा बन्धन में डाले गये वे सभी देवता बड़े ही उत्सुक होकर उस दैत्य के वध के उपाय के विषय में ही हर समय सोचा करते थे ॥ १ ॥

इन्द्र बोले — सभी जनों के अभिमत को जानकर ही ‘क्या करना चाहिये’— इसका निश्चय करना चाहिये । अतः जिसका जैसा भी मत हो, उसे आज आप सब बतायें ॥ २ ॥

ब्रह्माजी बोले — देवराज इन्द्र का यह वचन सुनकर ब्रह्मा आदि सभी देवताओं ने कहा — ‘ईश्वर ही सब कुछ करनेवाला है, वह निश्चित ही कल्याण करेगा ॥ ३ ॥ वे परमेश्वर जिस उपाय से सन्तुष्ट हों, वैसा प्रयत्न करना चाहिये। वे निश्चित ही इस दैत्यराज सिन्धु को पराजित करके हम सबको अपना-अपना पद अवश्य ही प्रदान करेंगे।’ ॥ ४ ॥

तदनन्तर वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ बृहस्पति बोले — ‘वे विभु स्वल्पमात्र सेवा-पूजा से भी तत्क्षण ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः असुरों का विनाश करने वाले तथा इस चराचर जगत् के गुरु की शीघ्र ही सभी देवताओं द्वारा प्रार्थना की जानी चाहिये ‘ ॥ ५१/२

देवता बोले — हे वाचस्पति ! आप यह बतलाइये कि आपकी दृष्टि में इस समय किस देव की प्रार्थना की जानी चाहिये, हम सब लोग अपने-अपने पद की प्राप्ति के लिये उन देवता को निश्चित ही प्रसन्न करेंगे ॥ ६१/२

बृहस्पति बोले — त्रिदेवों के रूप में स्थित जो परमेश्वर ब्रह्मा बनकर सृष्टि करते हैं, विष्णु बनकर उसका पालन एवं रक्षण करते हैं तथा शिव बनकर उसका विनाश करते हैं। जो निर्बीजि हैं अर्थात् जिनकी उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है। जो समस्त सृष्टि के बीजरूप हैं, सभी प्रकार की वाणियों से अगोचर हैं, नित्य हैं, ब्रह्ममय हैं, ज्योतिःस्वरूप हैं और शास्त्रकगम्य हैं ॥ ७-८ ॥ जो आदि-मध्य तथा अन्त से रहित हैं, निर्गुण हैं, विकाररहित हैं, बहुत रूप वाले तथा एक रूप वाले हैं । सभी लोग जिनका नाम लेकर सभी कार्यों में अपने अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त करते हैं और जो भक्तिपूर्वक पूजित होने पर संकट का विनाश करते हैं। वे विनायक देव ही [पूजनीय] हैं ॥ ९-१० ॥ आप सभी उनकी आराधना करें, वे आपके कार्यों को सिद्ध करेंगे। हे देवो! इस समय यह माघमास का कृष्णपक्ष प्रारम्भ हुआ है। इस माघमास के कृष्णपक्ष की मंगलवारयुक्त चतुर्थी तिथि इन विघ्नविनाशक विनायक की प्रिय तिथि है। वे ही विनायक प्रकट हो करके सिन्धु दैत्य का वधकर आप लोगों को अपने-अपने पद प्रदान करेंगे। इसमें कोई संदेह करने की आवश्यकता नहीं है। जो-जो भी जिस-जिस वस्तु की कामना करता है, वे उस-उस अभीष्ट पदार्थ को प्रदान करते हैं ॥ ११-१३ ॥

देवता बोले — हे गुरो ! हे मुने! आपने बहुत अच्छी बात कही है, जिसे सुनकर हमें तृप्ति हुई है । आप इस समय हमारे लिये महान् विपत्तिरूपा महानदी से पार उतारने के लिये नाविक बने हैं ॥ १४ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर इन्द्र, वरुण, कुबेर, मधुसूदन विष्णु, बृहस्पति, मंगल, चन्द्रमा, सूर्य, यम, अग्नि, वायु तथा ब्रह्मा आदि वे सभी देवता पंचामृत, सुगन्धित द्रव्य, माला, शमी दूर्वा, पंचपल्लव, वन में उत्पन्न विविध प्रकार के फल तथा विभिन्न [स्थानों की ] कंकड़-पत्थर आदि से रहित मिट्टी को लेकर उस गण्डकी नदी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने अनेक वृक्षों को काटकर उनसे एक विशाल मण्डप बनाया ॥ १५–१७ ॥ लताओं तथा केले के स्तम्भों से उस मण्डप को सुशीतल और छायादार बनाया । तदनन्तर स्नानकर सन्ध्यावन्दनादि नित्य क्रियाओं को सम्पन्न करके अत्यन्त सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया ॥ १८ ॥

विनायक की वे मूर्तियाँ सिंह के ऊपर आरूढ़ थीं, उनकी दस-दस भुजाएँ थीं । उन दस हाथों में दस आयुध विद्यमान थे। उन मूर्तियों का मुख हाथी की सूँड़ से युक्त था। वे नाना प्रकार के वस्त्र एवं आभूषणों से सुसज्जित थीं। प्रत्येक मूर्ति के समीप ही सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो पत्नियाँ शोभित थीं। सभी मूर्तियाँ किरीट तथा कुण्डलों से प्रकाशित हो रही थीं। उन्होंने पीले वस्त्र का परिधान धारण कर रखा था । सर्पों के आभूषण से वे विभूषित थीं ॥ १९-२० ॥

उस मण्डप के मध्य में उन मूर्तियों की यथाविधि प्राणप्रतिष्ठापूर्वक स्थापना करके देवताओं ने सोलह उपचारों के द्वारा अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया ॥ २१ ॥ उन्होंने पञ्चामृत, शुद्धजल, वस्त्र, सुगन्धित चन्दन, दीपक, विविध प्रकार के नैवेद्य, फलों तथा मंगल आरती के द्वारा सिद्धि-बुद्धिसहित भगवान् विनायक का पूजन करके उनके मन्त्र का जप किया और भगवान् सूर्य अस्ताचल चले जाने पर उन देवों ने सवितादेव की प्रसन्नता के लिये सन्ध्या – वन्दन किया, तदनन्तर प्रभु विनायक की स्तुति की ॥ २२-२३ ॥

॥ ॥ देव कृत मयूरेश्वर संकष्टहरस्तोत्र ॥
॥ सर्वे ऊचुः ॥
दीननाथ दयासिन्धो योगिहृत्पद्मसंस्थित ।
अनादिमध्यरहितस्वरूपाय नमो नमः ॥ २४ ॥
जगद्भास चिदाभास ज्ञानगम्य नमो नमः ।
मुनिमानसविष्टाय नमो दैत्यविघातिने ॥ २५ ॥
त्रिलोकेश गुणातीत गुणक्षोभ नभो नमः ।
त्रैलोक्यपालन विभो विश्वव्यापिन् नमो नमः ॥ २६ ॥
मायातीताय भक्तानां कामपूराय ते नमः ।
सोमसूर्याग्निनेत्राय नमो विश्वम्भराय ते ॥ २७ ॥
अमेयशक्तये तुभ्यं नमस्ते चन्द्रमौलये ।
चन्द्रगौराय शुद्धाय शुद्धज्ञानकृते नमः ॥ २८ ॥

देवता बोले — हे दीनों के स्वामी! हे दयासागर ! हे योगियों के हृदयकमल में निवास करने वाले ! आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित स्वरूप वाले हैं। आपको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ २४ ॥ हे जगत् को प्रकाशित करने वाले ! हे चित्स्वरूप! हे ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने वाले! आपको बार-बार नमस्कार है। मुनियों के मानसपटल में विराजमान रहने वाले को नमस्कार है । दैत्यों का विनाश करने वाले को नमस्कार है। हे तीनों लोकों के स्वामी! हे तीनों गुणों से परे रहने वाले! हे सत्त्वादि गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले! आपको बार-बार नमस्कार है। हे विभो ! आप तीनों लोकों का पालन करने वाले हैं और सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हैं, आपको बार-बार नमस्कार है ॥ २५-२६ ॥ माया से अतीत रहने वाले तथा भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले! आपको नमस्कार है। चन्द्रमा, सूर्य तथा अग्नि – ये आपके तीन नेत्र हैं, ऐसे आप त्रिनेत्र को नमस्कार है। आप विश्व का भरण-पोषण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है । अपरिमित शक्तिवाले आपको नमस्कार है, चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले आप चन्द्रमौलि को नमस्कार है । आप चन्द्रमा के समान गौर वर्णवाले हैं, शुद्ध हैं और विशुद्ध ज्ञान प्रदान करने वाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ २७-२८ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उसी समय उनके समक्ष तेज का एक पुंज प्रकट हुआ। उसे देखते ही सभी की आँखें चौंधिया गयीं और उस समय वे देवता अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये ॥ २९ ॥ फिर उनपर कृपा करने की दृष्टि से वे विनायकदेव सौम्य तेज वाले हो गये। तब उन देवताओं ने देवेश्वर विनायक का दर्शन किया, वे सिंह के आसन पर विराजमान थे। उनके दस हाथ थे, उनमें वे दस प्रकार के आयुध धारण किये हुए थे। उन्होंने मस्तक पर दिव्य मुकुट धारण कर रखा था। नाना प्रकार की वेश-भूषा से वे बड़े ही मनोरम लग रहे थे। वे अपने वक्ष पर धारण की हुई मोतियों की सुन्दर माला से सुशोभित हो रहे थे ॥ ३०-३१ ॥ उन्होंने अपने शरीर पर दिव्य सुगन्धित द्रव्यों का अनुलेपन किया हुआ था । उनके उदरदेश में करधनी के रूप में सर्प बँधा हुआ था। उनके पैरों में छोटे-छोटे घुँघरू बँधे थे, जिनसे सुन्दर ध्वनि हो रही थी और अपने मस्तक पर कस्तूरी का तिलक धारण करने से वे अत्यन्त उज्ज्वल हो रहे थे। इस प्रकार के स्वरूप वाले उन प्रभु विनायकदेव का दर्शन करके देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और वे कहने लगे ॥ ३२१/२

हमने गुरुदेव बृहस्पतिजी के कथनानुसार जिस स्वरूपवाले प्रभु का ध्यान किया था, ये वे ही विनायक हैं। आज वाणी तथा मन से सर्वथा अगोचर उन्हीं देव का हम साक्षात् दर्शन कर रहे हैं । हे देवो! आज हमारा जन्म लेना धन्य हो गया, हमारी दृष्टि धन्य हो गयी। हमारा तप तथा दान भी आज धन्य हो गया ॥ ३३-३४ ॥

तदनन्तर वे विनायकदेव उन देवताओं से बोले — मैं आज आप लोगों की स्तुति से अत्यन्त तृप्त हो गया हूँ, आप लोगों द्वारा की गयी पूजा, भक्ति तथा किये गये संकष्टीव्रत से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ ॥ ३५ ॥ यह स्तोत्र ‘संकष्टहरस्तोत्र’ के नाम से विख्यात होगा । हे देवो ! जो इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह मेरे लिये सम्माननीय होगा ॥ ३६ ॥ ऐसे उस भक्त के दर्शन से यक्ष-राक्षस विनष्ट हो जायँगे। वह यहाँ विविध भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मुक्तिपद को प्राप्त करेगा ॥ ३७ ॥

आप लोग मेरे वचन को पुनः सुनें। आप लोग सिन्धु दैत्य द्वारा पीड़ित किये गये हैं । यज्ञ-यागादि तथा वेद आदि से वंचित हो जाने पर आप मेरी शरण में आये हैं। आप लोगों को गण्डकीनगर में उस दैत्य सिन्धु ने बन्दी बनाकर रखा है। आप लोग स्वाहाकार, स्वधाकार से रहित हो गये हैं। अत: उस सिन्धु दैत्य का वध करने के लिये मेरा अब दूसरा अवतार होगा ॥ ३८-३९ ॥

हे देवो! मैं अब देवी पार्वती के घर में अवतरित होऊँगा और ‘मयूरेश्वर’ इस नाम से मैं ख्याति प्राप्त करूँगा । तब मेरे द्वारा उस सिन्धु दैत्य का वध किये जाने पर आप लोगों को [अपने-अपने] पदों तथा स्थानों की प्राप्ति होगी। इसमें कोई सन्देह नहीं है । हे देवताओ ! सत्ययुग में जो मेरा अवतार हुआ, वह सिंह पर आरूढ़ था । उसकी दस भुजाएँ थीं, उसका स्वरूप अत्यन्त तेजस्वी था और वह ‘विनायक’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ४०–४११/२

[अब इस] त्रेतायुग में मैं छः भुजाओं वाला तथा चन्द्रमा के समान वर्णवाला होऊँगा, मेरा वाहन मोर होगा और मेरा ‘मयूरेश्वर’ यह नाम होगा । द्वापरयुग में मेरा विग्रह रक्तवर्ण का होगा। मेरी चार भुजाएँ होंगी। मेरा वाहन मूषक होगा और मेरा नाम ‘गजानन’ होगा ॥ ४२-४३ ॥ हे देवो! तदनन्तर कलियुग के आने पर मेरा वर्ण श्याम होगा। मेरी मूर्ति पत्थर की होगी और मैं ‘धूम्रकेतु’ इस नाम से विख्यात होऊँगा । हे देवो! मैं आपके मनोभिलषित कार्य की शीघ्र ही सिद्धि करूँगा ॥ ४४१/२

ब्रह्माजी बोले — उन देवताओं से इस प्रकार कहकर वे विनायकदेव वहीँ अन्तर्धान हो गये । हम लोगों का कार्य निश्चित ही सम्पन्न होगा — ऐसा समझकर देवताओं को बड़ा ही आनन्द हुआ ॥ ४५१/२

जो इस श्रेष्ठ आख्यान का श्रवण करता है अथवा अन्य किसी को सुनाता है अथवा भगवान् विनायक का ध्यान करके परम श्रद्धा-भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, वह अपनी सभी मनोकामनाओं को प्राप्त कर लेता है और मृत्यु के अनन्तर ब्रह्म में लीन हो जाता है ॥ ४६–४७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘देवताओं को समृद्धि का वर प्रदान करने का वर्णन’ नामक अठहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७८ ॥

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