श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-085
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पचासीवाँ अध्याय
महर्षि मरीचि का पार्वतीपुत्र का दर्शन करने के लिये आना, मरीचि द्वारा देवी पार्वती से विनायक के परब्रह्मस्वरूपका प्रतिपादन, बालक की रक्षा के लिये महर्षि का गणेशकवच बतलाना, गणेशकवच का माहात्म्य तथा उसकी उपदेश-परम्परा
अथः पञ्चाशीतितमोऽध्याययः
गणेशकवचं

ब्रह्माजी बोले — विनायक के पाँचवें मास के आरम्भ होनेपर मुनियों के मुख से देवी पार्वती के महान् बलशाली पुत्र का समाचार सुनकर महर्षि मरीचि उसको देखने के लिये आये ॥ १ ॥ महर्षि मरीचि भूत-भविष्य तथा वर्तमान तीनों कालों के ज्ञाता थे। मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में उनकी समान दृष्टि थी। वे वेद एवं शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाले थे। यह अपना है, यह पराया है — इस प्रकार की भेददृष्टि से वे परे थे। वे मन से ही जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करने में समर्थ थे। उनका दर्शन करके पार्वती ने अपनी सखियों के सहित उनके चरणों में विनम्र प्रणाम किया ॥ २-३ ॥ उन्हें आसन पर विराजमान करके भक्ति – श्रद्धापूर्वक उनके चरणों का प्रक्षालन किया और उस पवित्र जल का प्रसन्नतापूर्वक पान करने के साथ ही उससे अपने सारे घर का भी सेचनकर उसे पवित्र किया ॥ ४ ॥ देवी पार्वती ने सोलह उपचारों के द्वारा भगवद्बुद्धि से उनका पूजन किया और वे प्रसन्नतापूर्वक बोलीं — आज आपके दुर्लभ चरणों का मुझे भाग्यवश दर्शन प्राप्त हुआ है ॥ ५ ॥

मुनि मरीचि बोले — हे देवि ! मेरा मन निरन्तर आत्मचिन्तन में लगा रहता है, मैं कहीं आता-जाता नहीं हूँ। किंतु अकस्मात् ही आपका पुत्र मेरे ध्यान में आ गया। इसीलिये मैं आपके पुत्र के, आपके तथा भगवान् शिव के दर्शन की अभिलाषा से यहाँ आया हूँ ॥ ६१/२

ब्रह्माजी बोले — महर्षि मरीचिके इस प्रकारके वचनोंको सुनकर गौरी पार्वतीका मन अत्यन्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने अपने पुत्र विनायकको उनकी गोदमें बैठा दिया। फिर वे उनसे कहने लगीं- आज आपका दर्शनकर मेरा महान् भाग्य सफल हो गया है। आज मुझे परम पुण्यकी प्राप्ति हुई है और भविष्यमें भी शुभ ही होगा ॥ ७–८१/२

मुनि बोले — हे गौरी! आपका यह पुत्र मुझे परब्रह्मस्वरूप प्रतीत होता है। मूलाधार आदि षट्चक्रों के भेदन में जो योगनिष्ठ महर्षि निरन्तर संलग्न रहते हैं और मात्र वायु का सेवन करते हुए जिन परमात्मा उपासना करते रहते हैं, वे ही आपके पुत्र के रूप में अवतरित हुए हैं ॥ ९-१० ॥ सत्त्व, रज तथा तम — इन तीनों गुणों के भेद से जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के नाम से तीन विग्रह धारणकर सृष्टि, पालन तथा संहार — इन तीन क्रियाओं को सम्पन्न करते हैं और जिनकी सत्ता से ही शेषनाग भी इस पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं, वे ही परमात्मा आपके पुत्ररूप में अवतरित हुए हैं ॥ ११ ॥ ये ही अणुरूप तथा स्थूलरूप हैं और सत्ताईस तत्त्वों के भी कर्ता हैं। यह चराचर सम्पूर्ण जगत् इन्हीं का रूप है। ये सभी प्रकार के कर्म करने वाले हैं ॥ १२ ॥

ये सत्ययुग में दस भुजाओं वाले तथा सिंह पर आरूढ़ रहते हैं, तब इनका नाम ‘विनायक’ होता है। त्रेतायुग में इनकी छ: भुजाएँ और इनका वाहन मोर होता है। इनकी आभा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल होती है और तब इनका नाम ‘मयूरेश’ होता है। उस समय ये अनेकों दैत्यों का वध करते हैं। द्वापरयुग में ये देव चार भुजाओं वाले और रक्तवर्ण वाले होते हैं। इस युग में इनका ‘गजानन’ यह नाम प्रसिद्ध है। कलियुग में ये धूम्र वर्णवाले रहते हैं, इनकी दो भुजाएँ रहती हैं, ये सभी दैत्यों का वध करते हैं और ‘धूम्रकेतु’ इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त होते हैं। हे गौरी! आपको दैत्यों से सदा ही इनकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १३–१५१/२

पार्वतीजी बोलीं — हे मुनिसत्तम! यह गणेश अत्यन्त चंचल है; यह बाल्यावस्था में ही असुरों का संहार कर रहा है। आगे चलकर यह न जाने क्या करेगा? दैत्य अनेक प्रकार के रूपोंवाले, दुष्ट, खल स्वभाववाले और सज्जनों तथा देवताओं से द्रोह करने वाले हैं। अतः रक्षा के लिये इसके कण्ठ में आप कुछ बाँध दीजिये ॥ १६-१७१/२

॥ मुनिरुवाच ॥
ध्यायेत् सिंहगतं विनायकममुं दिग्बाहुमाद्ये युगे
त्रेत्रायां तु मयूरवाहनमिमं षड्बाहुकं सिद्धिदम् ।
द्वापारे तु गजाननं युगभुजं रक्ताङ्गरागं विभुम्
तुर्ये तु द्विभुजं सिताङ्गरुचिरं सर्वार्थदं सर्वदा ॥ १८ ॥
विनायकः शिखां पातु परमात्मा परात्परः ।
अतिसुन्दरकायस्तु मस्तकं सुमहोत्कटः ॥ १९ ॥
ललाटं काश्यपः पातु भ्रूयुगं तु महोदरः ।
नयने भालचन्द्रस्तु गजास्यत्वोष्ठपल्लवौ ॥ २० ॥
जिह्वां पातु गणक्रीडश्चिबुकं गिरिजासुतः ।
वाचं विनायकः पातु दन्तान् रक्षतु दुर्मुखः ॥ २१ ॥
श्रवणौ पाशपाणिस्तु नासिकां चिन्तितार्थदः ।
गणेशस्तु मुखं कण्ठं पातु देवो गणञ्जयः ॥ २२ ॥
स्कन्धौ पातु गजस्कन्धः स्तनो विघ्नविनाशनः ।
हृदयं गणनाथस्तु हेरम्बो जठरं महान ॥ २३ ॥
धराधरः पातु पार्श्वे पृष्ठं विघ्नहरः शुभः ।
लिङ्गं गुह्यं सदा पातु वक्रतुण्डो महाबलः ॥ २४ ॥
गणक्रीडो जानुजङ्घा ऊरूमण्डलमूर्तिमान् । (जानुजङ्घे ऊरूमङ्गलमूर्तिमान्)
एकदन्तो महाबुद्धिः पादौ गुल्फो सदाऽवतु ॥ २५ ॥
क्षिप्रप्रसादनो बाहू पाणी आशाप्रपूरकः ।
अङ्गुलीश्च नखान् पातु पद्महस्तोऽरिनाशनः ॥ २६ ॥
सर्वाङ्गानि मयूरेशो विश्वव्यापी सदाऽवतु ।
अनुक्तमपि यत्स्थानं धूमकेतुः सदाऽवतु ॥ २७ ॥
आमोदस्त्वग्रतः पातु प्रमोदः पृष्ठतोऽवतु ।
प्राच्यां रक्षतु बुद्धीश आग्नेय्यां सिद्धिदायकः ॥ २८ ॥
दक्षिणस्यामुमापुत्रो नैऋत्यां तु गणेश्वरः ।
प्रतीच्यां विघ्नहर्ताऽव्याद् वायव्यां गजकर्णकः ॥ २९ ॥
कौबेर्य्यां निधिपः पायादीशान्यामीशनन्दनः ।
दिवाऽव्यादेकदन्तस्तु रात्रौ सन्ध्यासु विघ्नहृत् ॥ ३० ॥
राक्षसासुरवेतालग्रहभूतपिशाचतः ।
पाशाङ्कुशधरः पातु रजः सत्त्वं तमः स्मृतिम् ॥ ३१ ॥
ज्ञानं धर्मं च लक्ष्मीं च लज्जां कीर्तिं दयां कुलम् ।
वपुर्धनं च धान्यं च गृहं दारान् सुतान् सखीन् ॥ ३२ ॥
सर्वायुधधरः पौत्रान् मयूरेशोऽवतात्सदा ।
कपिलोऽजाविकं पातु गवाश्वं विकटोऽवतु ॥ ३३ ॥
भूर्जपत्रे लिखित्वेदं यः कण्ठे धारयेत्सुधीः ।
न भयं जायते तस्य यक्षरक्षः पिशाचतः ॥ ३४ ॥

मुनि बोले — हे पार्वति ! सत्ययुग में आठ भुजा वाले सिंहारूढ विनायक का, त्रेतायुग में छः भुजा वाले सिद्धिप्रदायक तथा मयूरवाहन विनायक का, द्वापर में रक्त वर्णवाले सुगन्धित द्रव्य के लेप से विभूषित चार भुजाओं वाले प्रभु गजानन का और कलियुग में उज्ज्वल वर्ण वाले, सुन्दर दो भुजाओं से युक्त तथा सर्वदा सभी कामनाएँ पूर्ण करने वाले गणेश का ध्यान करना चाहिये ॥ १८-१९ ॥

परात्पर परमात्मा विनायक शिखा की रक्षा करें, अति सुन्दर शरीर वाले सुमहोत्कट मस्तक की रक्षा करें ॥ २० ॥ कश्यपपुत्र ललाट की रक्षा करें, महोदर भ्रूयुगों की रक्षा करें, भालचन्द्र दोनों नेत्रों की रक्षा करें और गजानन कोमल ओष्ठों की रक्षा करें ॥ २१ ॥ गणक्रीड जिह्वा की रक्षा करें, गिरिजासुत चिबुक की रक्षा करें, विनायक वाणी की रक्षा करें तथा दुर्मुख दाँतों की रक्षा करें। पाशपाणि कानों की रक्षा करें, नासिका की रक्षा चिन्तितार्थद करें, गणेश मुख की रक्षा करें एवं भगवान् गणंजय कण्ठ की रक्षा करें ॥ २२-२३ ॥ गजस्कन्ध स्कन्धों की रक्षा करें, विघ्नविनाशन स्तनों की रक्षा करें, गणनाथ हृदय की रक्षा करें और महान् हेरम्ब जठर की रक्षा करें ॥ २४ ॥ धराधर पार्श्वो की रक्षा करें, मंगलमय विघ्नहर पृष्ठ की रक्षा करें और महाबल वक्रतुण्ड लिंग तथा गुह्यदेश की सदा रक्षा करें। गणक्रीड जानु तथा जंघों की रक्षा करें, मंगलमूर्तिमान् ऊरू की रक्षा करें और महाबुद्धिमान् एकदन्त चरणों तथा गुल्फों की सदा रक्षा करें ॥ २५-२६ ॥ क्षिप्रप्रसादन बाहुओं की रक्षा करें, आशाप्रपूरक हाथों की रक्षा करें और हाथ में कमल लिये हुए अरिनाशन अंगुलियों और नखों की रक्षा करें ॥ २७ ॥ विश्वव्यापी मयूरेश सभी अंगों की सदा रक्षा करें और जिन स्थानों का उल्लेख नहीं किया गया है, उनकी भी रक्षा सदा धूम्रकेतु करें। आमोद आगे से रक्षा करें, प्रमोद पीछे से रक्षा करें, बुद्धीश पूर्व में रक्षा करें और सिद्धिदायक आग्नेय दिशा में रक्षा करें ॥ २८-२९ ॥ उमापुत्र दक्षिण दिशा में रक्षा करें, नैर्ऋत्यकोण में गणेश्वर रक्षा करें, विघ्नहर्ता पश्चिम दिशा में एवं गजकर्णक वायव्य दिशा में रक्षा करें ॥ ३० ॥ निधिपति उत्तर दिशा में रक्षा करें, ईशनन्दन ईशान दिशा में रक्षा करें, इलानन्दन दिवा में रक्षा करें तथा रात्रि और सन्ध्याकालों में विघ्नहृत् रक्षा करें। राक्षस, असुर, वेताल ग्रह, भूत, पिशाच से और सत्त्व-रज-तम गुणों से स्मृति की पाशांकुशधर रक्षा करें ॥ ३१-३२ ॥ ज्ञान, धर्म, लक्ष्मी, लज्जा, कीर्ति, दया, कुल, शरीर, धन-धान्य, गृह, स्त्री- पुत्र तथा मित्रों की एवं पौत्रों की सर्वदा रक्षा सभी प्रकार के अस्त्र धारण करने वाले मयूरेश करें। कपिल भेड़-बकरों की रक्षा करें और विकट गाय [हाथी]-घोड़ों की रक्षा करें ॥ ३३-३४ ॥

जो विद्वान् भूर्जपत्र में इसे लिख करके कण्ठ में धारण करता है, उसको यक्ष, राक्षस तथा पिशाचों से भय नहीं होता है। जो तीनों सन्ध्या – कालों में इसका जप करता है, उसका शरीर हीरे की भाँति कठोर हो जाता है । जो व्यक्ति यात्राकाल में इसका पाठ करता है, उसे निर्विघ्नतापूर्वक फल प्राप्त होता है ॥ ३५-३६ ॥ जो युद्धकाल में इसका पाठ करता है, वह निश्चितरूप से विजय प्राप्त करता है। मारण, उच्चाटन, आकर्षण, स्तम्भन तथा मोहनादि कर्म के लिये यदि साधक इक्कीस दिनपर्यन्त प्रतिदिन सात बार इसका जप करे तो वह उन-उन वांछित फलों को प्राप्त कर लेता है, इसमें भी संशय नहीं है। जो इक्कीस दिन तक इस मन्त्र का इक्कीस बार पाठ करता है, वह राजा के द्वारा वध के लिये आदेशप्राप्त और कारागार में बन्द किये गये व्यक्ति को भी शीघ्र ही मुक्त करा लेता है ॥ ३७-३९ ॥

राजा के दर्शन के समय जो व्यक्ति इस मन्त्र का तीन बार पाठ करता है, वह राजा को वश में करके मन्त्रियों को तथा राजसभा को जीत लेता है ॥ ४० ॥ यह गणेशकवच सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और सभी प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करने वाला है । इस गणेशकवच को महर्षि कश्यप ने मुद्गल ऋषि से कहा और उन्होंने महर्षि माण्डव्य से कहा और माण्डव्य ने इस सर्वसिद्धिप्रद कवच को कृपा करके मुझसे कहा है । इस शुभ कवच को श्रद्धावान्‌ को ही देना चाहिये, भक्तिहीन व्यक्ति को कभी भी नहीं देना चाहिये। इस कवच के द्वारा इस (बालक) – की रक्षा की गयी है, इस कारण से राक्षस, असुर, वेताल, दैत्य, दानव आदि से होने वाली किसी प्रकार की भी बाधा इसे नहीं हो सकती है ॥ ४१-४३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘गणेशकवचवर्णन’ नामक पचासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८५ ॥

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