October 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-087 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ सतासीवाँ अध्याय बालक विनायक द्वारा शतमाहिषा नामक राक्षसी और कमठासुर का वध, इस आख्यान के श्रवण और श्रावण का माहात्म्य व्योमासुर का वध अथः सप्ताशीतितमोऽध्यायः कमठासुरवध ब्रह्माजी बोले — व्योमासुर की बहन उसकी मृत्यु के दुःखद समाचार से अत्यन्त दुखी हो गयी। वह अमावस्या के दिन सायंकाल के समय उत्पन्न हुई थी । उत्पन्न होते ही वह भूख से अत्यन्त व्याकुल हो गयी। उसने उसी समय सौ महान् बलशाली भैंसों को खा डाला था। उसके बाल अत्यन्त विकराल थे और ओष्ठ अत्यन्त लम्बे थे । उसकी नाक ताड़ वृक्ष के समान लम्बी थी और उसका मुख एक विशाल गुफा के समान था ॥ १-२ ॥ उसके दाँत हल के समान मोटे एवं लम्बे, नेत्र कूप के समान अत्यन्त गहरे थे तथा बड़े-बड़े कानों के द्वारा वह आच्छादित थी। उसके स्तन अतिदीर्घ थे, स्वरूप महाभयावह था और उस दुष्टा के केश भूतल का स्पर्श करते थे ॥ ३ ॥ उसके बाहु विशाल थे । नाभि अत्यन्त गहरी थी । उसकी त्वचा मगरमच्छ के समान कर्कश थी । उत्पन्न होते ही सौ भैंसे खा जाने के कारण उस समय लोगों ने उस दुष्ट मनोभाव वाली राक्षसी का ‘शतमाहिषा’ यह सार्थक नाम रखा। अपने बन्धुओं का हित करने वाली वह शतमाहिषा अपने भाई का वध करने वाले को मारने की दृष्टि से वहाँ आयी ॥ ४-५ ॥ उस समय वह अत्यन्त सुरूपवान्, मनोहर तथा सुलक्षण अंगों वाली बनकर आयी । उसने अनेक आभूषण धारण कर रखे थे। उसका वर्ण गौर था, अवस्था उसकी सोलह वर्ष की-सी थी, सोलह शृंगार करके वह अपने कटाक्ष द्वारा सबको मोहित कर रही थी । इस प्रकार की सुन्दर युवती बनकर वह शतमाहिषा मन में दूषित भाव रखकर पार्वती के शुभ भवन में गयी ॥ ६-७ ॥ वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले उसने देवी पार्वती को विनयपूर्वक प्रणाम किया और बड़े ही आदरभाव से वह उनसे कहने लगी कि आज मैं धन्य हो गयी, कृतार्थ हो गयी। आज मैंने अपना अभीष्ट फल प्राप्त कर लिया है, जो कि मैं जगन्माता, सर्वदेवमयी, कल्याणी, सबके द्वारा ध्येय, सर्वसिद्धिस्वरूपा, सभी कारणों की भी कारणरूपा एवं संसार को मोहित करने में अत्यन्त दक्ष आपका बड़े ही पुण्य के फलस्वरूप दर्शन कर रही हूँ ॥ ८-९१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उसकी इस प्रकार की बात सुनकर देवी गिरिजा उससे बोलीं — हे वरांगने ! उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई हूँ। तुम किसकी पुत्री हो ? कहाँ से आयी हो? किस कारण से यहाँ आयी हो? मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूरी करूँगी। मुझे सत्य-सत्य बतलाओ ॥ १०-१११/२ ॥ शतमाहिषा बोली — मैं बहुत समय से पति के वियोग से दुखी हूँ। इसी कारण मैं आपकी शरण में आयी हूँ। हे गिरिजा ! आपने यह सुना ही होगा कि अमरावती नायक देवराज इन्द्र को असुर सिन्धु द्वारा पराजित कर दिया गया है और वे कहीं जाकर छिप गये हैं, उन्हीं के साथ ही दूसरे सभी देवता भी छिप गये हैं ॥ १२-१३ ॥ हे देवि ! आप बड़ी भाग्यशालिनी हैं, जो कि आपका शिव से वियोग नहीं हुआ है । अन्य सभी दुःख तो सहे जा सकते हैं, किंतु पति वियोग से होने वाला दुःख तो असहनीय होता है ॥ १४ ॥ पार्वतीजी बोलीं — हे सुभगे ! मेरा यह बालक बलपूर्वक सभी असुरों को मार डालेगा और सभी देवताओं को बन्धनमुक्त कर देगा। तुम कुछ समय तक प्रतीक्षा करो। इसी कार्य की सिद्धि के लिये पृथ्वी का भार उतारने के लिये एवं मुनियों की रक्षा करने के लिये भगवान् गुणेश ने मेरे घर में अवतार धारण किया है ॥ १५-१६ ॥ ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर देवी पार्वती ने अपनी सखियों के द्वारा उसके पाद प्रक्षालित करवाये, कुमकुम आदि से उसकी पूजा करवायी और आदरपूर्वक उसे भोजन करवाया। वह भी भोजन करने के अनन्तर देवी पार्वती की शय्या पर सो गयी और उनकी सखियों से बोली — हे सखियो! तुम लोग पार्वती के पुत्र को मेरे समीप ले आओ ॥ १७-१८ ॥ सभी सखियों ने उसपर विश्वास करके बालक को उसके हाथ में सौंप दिया। वह बड़े ही प्रेम से बालक का मुख-चुम्बन तथा हिलाने-डुलाने के द्वारा अपना प्यार जताने लगी ॥ १९ ॥ शिव के पुत्र उन सर्वज्ञ गुणेश ने उस राक्षसी के मारने के मनोभाव को जानकर और यह ‘युवती तो एक राक्षसी है’ — ऐसा समझकर अपने दोनों हाथों से उसके कानों तथा नासिका को पकड़ लिया और फिर अपने शरीर को महान् पर्वत के समान भारी बना लिया और उसके शरीर पर गिरा दिया। श्वास के रुक जाने के कारण वह व्याकुल हो उठी तथा अपने पैरों को बार-बार शिशु गुणेश पर पटकने लगी। तदनन्तर वह ‘छोड़ो-छोड़ो’ इस प्रकार कहती हुई बोल उठी — मैं तो कौतूहल देखने यहाँ आयी थी । अरे दुष्ट बालक ! तुम मुझ निरपराध स्त्री को क्यों मार रहे हो, मैं तो तुम्हारी माता पार्वती के समान हूँ ॥ २०-२२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उसके क्रन्दन की ध्वनि सुनकर देवी पार्वती अपनी सखियों के साथ अपने पुत्र को छुड़ाने के लिये वहाँ आयीं। किंतु जब वे उसे छुड़ा नहीं पायीं तो बालक से बोलीं — तुम इसे मत मारो, शीघ्र ही छोड़ दो, यह देवराज इन्द्र की प्रिय रानी है ॥ २३-२४ ॥ माता पार्वती के इस प्रकार के वचनों को सुनकर बालक गुणेश ने उस समय उसे दूर फेंक दिया और खेल के बहाने से वे उसके ऊपर एक बार कूदे और फिर सहसा उठ भी गये। गुणेश ने उस राक्षसी के नाक-कान नोच लिये, जिससे वह रक्त से लथपथ हो गयी और उनके पैर के प्रहार से उसने क्षणभर में प्राण त्याग दिये ॥ २५-२६ ॥ पार्वती उसके प्रति स्नेहनिर्भर हो जाने के कारण उसके प्राण निकल जाने पर अत्यन्त शोक में पड़ गयीं । वे बोलीं — इस चंचल बालक ने अपयश प्राप्त किया है। शची की मृत्यु की बात सुनकर इन्द्र यहाँ आकर न जाने क्या करेगा! ॥ २७१/२ ॥ तदनन्तर देवी पार्वती ने आगे जाकर देखा तो वह एक अमंगलकारिणी राक्षसी थी ॥ २८ ॥ उसका शरीर दस योजन विस्तार वाला था। उसके गिरने से वहाँ की भूमि तथा वृक्ष छिन्न-भिन्न हो गये थे । अब तो देवी पार्वती ने शोक को त्याग दिया। वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं और अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगीं ॥ २९ ॥ तदनन्तर वे पार्वती चोट आदि से रहित अपने पुत्र को लेकर भवन में चली गयीं। वे देवी पार्वती आश्चर्यचकित थीं और बालक के पौरुष को देखकर सशंकित भी थीं। पार्वती उस बालक के पौरुष को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं। उनकी सखियों ने नाक-कान कटी हुई उस राक्षसी को देखा ॥ ३०-३१ ॥ कहाँ तो इसका बालपन और कहाँ इस शिशु का बल-पराक्रम, ऐसा कहती हुई वे सभी परस्पर ताली बजाते हुए हँसने लगीं ॥ ३२ ॥ तदनन्तर प्रमथगणों ने वहाँ आकर उस राक्षसी को दूर फेंक दिया। इस प्रकार उस अरिष्ट के नष्ट हो जाने पर गौरी पार्वती ने अत्यन्त श्रद्धाभक्तिपूर्वक विविध दान दिये ॥ ३३ ॥ इसके पश्चात् सातवाँ मास लगने पर [एक समय] जब सभी लोग सो रहे थे, सम्पूर्ण दसों दिशाओं के मण्डल सब ओर से अन्धकार से ढके हुए थे। उस समय अर्धरात्रि की वेला में वन्य पशुओं तथा मेढकों की ध्वनि शब्दायमान हो रही थी। देवी पार्वती शय्या में दिव्य बिस्तर पर सोयी हुई थीं, उनकी सभी सखियाँ और सेवकगण भी निद्रा में निमग्न थे। उसी समय कमठासुर नामक दुष्ट राक्षस ने वहाँ आकर अपने शरीर की छाया से देवी पार्वती के अत्यन्त अद्भुत आँगन को आच्छादित कर दिया ॥ ३४–३६१/२ ॥ उस असुर के स्पर्श करने मात्र से सहसा ही वज्र- समूह चूर-चूर हो जाता था। उसका शरीर पौर्णमासी के चन्द्रमा के समान अत्यन्त शीतल था। सूर्य के उदित होने पर लोग उसकी पीठ पर विचरण करने लगे थे । कुछ लोग स्नान करने के अनन्तर जप करने के लिये उसके ऊपर बैठ गये थे, कुछ लोग [उसी के ऊपर] सो रहे थे और उस असुर का शरीर अत्यन्त चिकना होने के कारण कुछ लोग फिसलकर गिर रहे थे ॥ ३७–३९ ॥ बालिकाओं ने उसके शरीर पर जल छिड़ककर गोबर से रंगोली बना ली थी । तदनन्तर पार्वती बालक को लेकर तभी बाहर आयीं ॥ ४० ॥ पार्वती ने उसी असुर के ऊपर बहुमूल्य बिस्तर बिछाकर उस बिस्तर पर अपने पुत्र को सुलाया और सखियों को उसकी रक्षा के लिये वहाँ नियुक्तकर वे भगवान् शिव की सेवामें चली गयीं ॥ ४१ ॥ यह जानकर उस कमठ नामक असुर ने अपनी पीठ हिलायी । ‘क्या यहाँ भूकम्प आ गया है, अथवा कोई अरिष्ट होनेवाला है’ — आश्चर्यचकित मनवाले वहाँ स्थित शिवगण इस प्रकार बोलने लगे। जो उसकी पीठ पर सोये हुए थे, वे ‘क्या हुआ’ ऐसा कहते हुए जग पड़े ॥ ४२-४३ ॥ उसी समय उस सर्वज्ञ बालक गुणेश ने करवट बदलते हुए अपने पेट को उसकी पीठ में लगा दिया और जोर से उसे दबाया। इस प्रकार बालक ने चौदह भुवनों के भार के बराबर भारवाला बनकर उसके ऊपर अपने को रखा। इससे उस कंमठासुर की श्वासवायु रुकने लगी । तब वह छटपटाकर अपने शरीर के अंगों को इधर-उधर चलाने लगा ॥ ४४-४५ ॥ उस असुर के इस प्रकार के दबे हुए शरीर से बहुत मात्रा में रक्त बह चला। उस कमठासुर ने उठने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह वहाँ से उठ नहीं सका ॥ ४६ ॥ तदनन्तर वहाँ पर सुखपूर्वक बैठे हुए जो गण थे, वे सभी वहाँ से चले गये। वे कहने लगे — यह कौन-सा अरिष्ट उत्पन्न हो गया? क्या फिर से भूमि में कम्पन होने लगा। पार्वती की जो-जो भी सखियाँ तथा बालिकाएँ थीं, वे सभी उनकी सेवामें लग गयीं और कहने लगीं — हे माता ! उठिये, आपके बालक को या तो कोई असुर उठा ले गया होगा अथवा मृत्यु को प्राप्त हो गया होगा ॥ ४७-४८ ॥ तब पार्वती तेजी से दौड़ पड़ीं और उन गौरी ने बाहर निश्चल पड़े हुए अपने बालक को देखा। जब वे उस बालक को उठाने के लिये उद्यत हुईं तो वे उसे पृथ्वी के समान भार वाला जानकर मन मसोसकर रह गयीं । तदनन्तर उस बालक ने एकाएक उस असुर को मसल डाला, फलस्वरूप वह मर गया ॥ ४९-५० ॥ तब पार्वती ने देखा कि वह कमठासुर दस योजन विस्तारवाला था, वह अपना मुख फैलाये हुए था, और बहुत-सा रक्त वमन कर रहा था ॥ ५१ ॥ उस कमठासुर ने गिरते समय वहाँ के वनों, आश्रमों और नाना प्रकार के वृक्षों को एकाएक तोड़ डाला। इसके पश्चात् माता पार्वती ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को स्तनपान कराया। वे अपने मन में सोचने लगीं कि नाना प्रकार की माया करने वाले असुरों की माया को जाना नहीं जा सकता। भगवान् त्रिलोचन शंकर की कृपा से मैंने अपने पुत्र को पुनः प्राप्त किया है । जो कि इसने यमराज से भी अधिक बलशाली कमठासुर को मार डाला ॥ ५२-५३१/२ ॥ उसी समय देवी पार्वती की सखियाँ और उनके गण वहाँ आ पहुँचे और वे बालक की कुशल पूछने लगे ॥ ५४ ॥ देवी गौरी ने उनको प्रसन्नतापूर्वक बतलाया कि सब कुशल से है। तब गणों ने उस असुर कमठ के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें बहुत दूर ले जाकर छोड़ दिया ॥ ५५ ॥ उस समय देवगणों ने उस बालक पर फूलों की वर्षा की। जो इस श्रेष्ठ आख्यान को सुनेगा अथवा सुनायेगा वह सभी प्रकार के अरिष्टों से मुक्त हो जायगा और अपनी सभी मनोभिलषित कामनाओं को प्राप्त कर लेगा ॥ ५६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘कमठासुर के वध का वर्णन’ नामक सतासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८७ ॥ Content is available only for registered users. 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