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॥ श्रीजानकीजीवनाष्टकम् ॥

[‘श्रीजानकीजीवनाष्टकम्’ अज्ञातकर्तृक एक अत्यन्त भावपूर्ण प्राचीन स्तोत्र है । वस्तुतः अध्यात्मरामायण की विषयवस्तु पर आधारित इस स्तोत्र के प्रारम्भिक सात श्लोक क्रमशः उसके सात काण्ड का साररूप हैं तथा अन्तिम श्लोक उपसंहाररूप है । इस स्तोत्र का पाठ करने से अध्यात्मरामायण की सम्पूर्ण विषयवस्तु का साररूप पुण्यस्मरण मानसपटल पर सहज अंकित हो जाता है)

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आलोक्य यस्यातिललामलीलां सद्भाग्यभाजौ पितरौ कृतार्थी ।
तमर्भकं दर्पकदर्पचौरं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ १ ॥

श्रुत्वैव यो भूपतिमात्तवाचं वनं गतस्तेन न नोदितोऽपि ।
तं लीलयाह्लादविषादशून्यं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ २ ॥

जटायुषो दीनदशां विलोक्य प्रियावियोगप्रभवं च शोकम् ।
यो वै विसस्मारतमार्द्रचित्तं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ ३ ॥

यो वालिना ध्वस्तबलं सुकण्ठं न्ययोजयद्राजपदे कपीनाम् ।
तं स्वीयसन्तापसुतप्तचित्तं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ ४ ॥

यद्ध्याननिर्धूतवियोगवह्निर्विदेहबाला विबुधारिवन्याम् ।
प्राणान्दधे प्राणमयं प्रभुं तं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ ५ ॥

यस्यातिवीर्याम्बुधिवीचिराजौ वंश्यैरहो वैश्रवणो विलीनः ।
तं वैरिविध्वंसनशीललीलं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ ६ ॥

यद्रूपराकेशमयूखमालानुरञ्जिता राजरमापि रेजे ।
तं राघवेन्द्रं विबुधेन्द्रवन्द्यं श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ ७ ॥

एवं कृता येन विचित्रलीला मायामनुष्येण नृपच्छलेन ।
तं वै मरालं मुनिमानसानां श्रीजानकीजीवनमानतोऽस्मि ॥ ८ ॥

जिनकी अतिशय ललित लीलाओं का अवलोकनकर सौभाग्य-भाजन माता-पिता-महाराज दशरथ एवं देवी कौसल्या कृतार्थ हो गये, जो कन्दर्प के दर्प का हरण करनेवाले हैं तथा शिशुरूप में शोभायमान हो रहे हैं, उन जानकी-जीवन श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
[महाराज दशरथ के] द्वारा वनवास हेतु स्पष्टरूप से न कहे जाने पर भी केवल इतना सुनकर कि महाराज वचनबद्ध हैं ‘ जो [पिता के वचन-गौरव के रक्षणार्थ] वन चले गये, जो स्वभावतः आह्लाद और विषाद से परे हैं; तथापि लीला के अनुरूप आह्लादित अथवा दुखित होने का नाट्य करते हैं, उन जानकी-जीवन श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ २ ॥
जटायु की दीन दशा को देखकर जिनको अपनी प्रियतमा सीता का विरहजनित शोक ही विस्मृत हो गया, उन करुणाविगलित हृदयवाले जानकी-जीवन श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥
जिन्होंने बालि के द्वारा विनष्ट की गयी सामर्थ्यवाले सुग्रीव को वानरों का अधिपति बना दिया । जिनका चित्त अपने आत्मीयजनों के [अल्पतम] सन्ताप से [ भी अत्यधिक] सन्तप्त हो उठता है, उन जानकी-जीवन श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४ ॥
देवशत्रु रावण की वाटिका में वियोगरूपी अग्नि में जल रही विदेह-नन्दिनी जिनके ध्यानरूपी जल से धुलकर शीतल हो गयीं और उन्होंने प्राण धारण कर लिये । उन प्राणस्वरूप, जानकी-जीवन प्रभु श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ५ ॥
अहो ! जिनके अलौकिक पराक्रमरूप सागर की लहरों में अपने बन्धु-बान्धवोंसहित विश्रवापुत्र रावण विलीन हो गया, जिन्होंने लीलावश शत्रुओं का संहार करनेवाला स्वभाव धारण कर रखा है, उन जानकी-जीवन श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ६ ॥
जिनके सौन्दर्यरूप चन्द्रमा की किरणमाला से अनुरंजित [अयोध्या की] राजलक्ष्मी अत्यधिक शोभा से सम्पन्न हुई, जो देवताओंसहित देवराज इन्द्र के भी वन्दनीय हैं, उन रघुकुल-शिरोमणि जानकी-जीवन प्रभु श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ७ ॥
अपनी माया से मनुष्यरूप में अवतीर्ण होकर राजा के रूप में जिन्होंने [सेतुबन्ध, रावणवध आदि] इस प्रकारकी चित्र-विचित्र लीलाओं को सम्पन्न किया, मुनिजनों के मनरूपी मानसरोवर में राजहंस की भाँति स्वछन्द विहार करनेवाले उन जानकी-जीवन प्रभु श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ८ ॥

 

 

 

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