श्रीदुर्गा-सप्तशती
(क) दुर्गा-सप्तशती

श्रीमार्कण्डेय पुराणान्तर्गत सात सौ पद्यों का इसमें समावेश होने से इसे “सप्तशती” का नाम दिया गया है। वैसे इसमें सात सतियों की प्रधानता होने से इसे “सप्तसती” भी कहते हैं।
दुर्गा सप्तशती में ७०० मन्त्र हैं, किन्तु वे उवाचमन्त्र, अर्ध-श्लोक एवं त्रिपाद-श्लोकों के संग्रह से पूर्ण होते हैं। हजारों वर्षों से लाखों मनुष्यों के द्वारा पाठ होते रहने के कारण इसके पाठ्यांशों में भी बहुधा अन्तर होता आया है। कात्यायनी-तन्त्र, चिदम्बर-संहिता, मरीचि-तन्त्र, रुद्रयामल आदि अनेकों तन्त्रों में इसके सम्बन्ध में विभिन्न निर्देश भी प्राप्त होते हैं।
Durga-Puja ‘सप्तशती’ के १३ अध्यायों में ५३५ श्लोक, ५७ उवाच, ४२ अर्द्ध-श्लोक, २२ अवदान हैं। इस प्रकार उसकी श्लोक-संख्या ५७८, मन्त्र-संख्या ७०० और अक्षर-संख्या ९,५३१ है। इसी प्रकार ‘देवी-कवच’ की ५५।।, ‘अर्गला’ की २३, ‘कीलक’ की १४, ‘प्राधानिक’ की ३०।।, ‘वैकृतिक’ की ३९ और मूर्ति-रहस्य’ की २५ श्लोक-संख्या है।
‘श्रीदुर्गा-सप्तशती’ के इस प्रकार के महत्त्व का एक परिणाम यह हुआ कि उसमें अनेक पाठान्तर हो गए हैं। ऐसे पाठ-भेदों की संख्या ३१३ है। इसके सिवा २९ श्लोक और ७ अर्द्ध-श्लोक आज भी ज्ञात हैं, जो ‘सप्तशती’ के मूल-पाठ से निकल गए हैं।
इसके अतिरिक्त अनेक अन्य रुपों में भी इसका अस्तित्व है, यथा- सप्त-श्लोकी, त्रयोदश-श्लोकी, बीज-दुर्गा, बीज-त्रय-चण्डी, लघु-चण्डी इत्यादि।
तन्त्र-शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्त्व प्रतिपादित करने के कारण तान्त्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। आगमों में आम्नाय-मूलक उपासना-पद्धति पर अधिक बल दिया गया है। तद्दनुसार दुर्गा-सप्तशती को “पश्चिमाम्नायात्मिका” कहा गया है; परन्तु प्रकारान्तर से यह “सर्वाम्नायात्मिका” भी सिद्ध की गई है। पाठकर्ता अपने-अपने आम्नायों के अनुसार इसके पाठ-प्रकारों में अनेक-विध तान्त्रिक-प्रक्रियाओं का समावेश करके सद्यः-सिद्धि प्राप्त करते हैं। मनोकामनानुसार इसके एक पाठ से लेकर एक लाख पाठ तक किए जाते हैं और मन्त्रों के द्वारा हवन किए जाते हैं।
(ख) चरित्र-त्रय की सात-सात शक्तियाँ
१॰ प्रथम चरित्र की शक्तियां –
काली, तारा, छिन्ना, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला तथा कुब्जिका।
२॰ द्वितीय चरित्र की शक्तियां –
लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती और सरस्वती।
३॰ तृतीय चरित्र की शक्तियां –
ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, वाराही, नारसिंही तथा कौमारी।
(ग) अंगानुष्ठान-क्रम
क॰ श्रीदुर्गा-सप्तशती के पाठ में मार्कण्डेय-पुराणोक्त ७०० पद्य मन्त्रों का पाठ करने से पूर्व तदंगत्वेन किये जाने वाले पाठ और न्यासों के सम्बन्ध में अनेक क्रम प्राप्त होते हैं। सामान्यतः कवच, अर्गला, कीलक, रात्रि-सूक्त, न्यास-सहित नवार्ण, मूल-पाठ, न्यास-सहित नवार्ण-मन्त्र, देवी-सूक्त तथा रहस्य-त्रय का पाठ करते हैं। किन्तु भास्करराय मखी के अनुसार कवच, अर्गला, कीलक, न्यास-सहित नवार्ण, रात्रि-सूक्त, मूल-पाठ, न्यास-सहित नवार्ण-मन्त्र, देवी-सूक्त तथा रहस्य-त्रय करना चाहिए। इस प्रकार यह ‘दशांग-युत-सप्तशती पाठ’ माना जाता है।
ख॰ शास्त्रों में यह वचन भी आता है कि शक्ति के साथ भैरव की उपासना भी अनिवार्य है। भैरव के अभाव में शक्ति का अंग पूर्ण नहीं होता। “यतिदण्डेश्वर्य-विधान” के अनुसार –
शक्तयः सर्वदा सेव्या भैरवेण समन्विताः।
इसके अनुसार साधक-सम्प्रदाय में अष्टोत्तरशतनाम रुप बटुक भैरव की नामावली का पाठ दुर्गा-सप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है -१॰ आदि में नवार्ण-मन्त्र जप से पूर्व पाठ (“भैरवो भूतनाथश्च” से प्रभविष्णुरितीव हि” तक अथवा नमोऽन्त नामावली)। २॰ प्रत्येक चरित्र के आद्यन्त में १-१ पाठ। ३॰ प्रत्येक उवाच मन्त्र के आस-पास सम्पुट देकर पाठ।
इनके अतिरिक्त प्रत्येक अध्याय के आद्यान्त में भी पाठ किया जा सकता है।
ग॰ भैरव-नामावली के समान ही कामना-भेद से अन्य मन्त्र, नामावली, सूक्त आदि के प्रयोग भी होते हैं।
घ॰ रात्रि-सूक्त (विश्वेश्वरीं जगद्धात्री॰) और देवी-सूक्त (नमो दैव्यै महादैव्यै॰) के पाठों के प्रकार में वैदिक-सूक्तों के पाठ भी प्रचलित हैं, जिनमें “रात्री व्यख्यदायती” इत्यादि ऋग्वेद के मं॰ १०, अ॰ १०, सूक्त १२७, मन्त्र १ से ८ तक रात्रि-सूक्त और “अहं रुद्रेभिर्वसुभिः” आदि ऋग्वेदोक्त ८ मन्त्रों का भी पाठ होता है। कुछ प्राचीन पाण्डु-लिपियों में इन दोनों वैदिक-सूक्तों के मन्त्रों की संख्या ८-८ से बढ़ कर पूरे सूक्त के पाठ को भी निर्देशित किया है।
ड॰ एक अन्य पद्धति के अनुसार “त्रिसूक्त” -(महा-काली, महा-लक्ष्मी व महा-सरस्वती) भी पठनीय माने गये हैं। ये सूक्त आरम्भ में तीनों कवचार्गलाकीलक के पश्चात् प्रयुक्त होते हैं, जबकि कुछ विद्वान् इनका पाठ प्रत्येक चरित्र के साथ के आरम्भ में करते हैं। ये सूक्त भी पाठान्तरों के साथ उपलब्ध हैं।
च॰ कतिपय पद्धतियों में “देव्यथर्वशीर्ष” का पाठ भी होता है।
छ॰ रहस्य-त्रय का पाठ कुछ विद्वान् आवश्यक नहीं मानते हैं, इसके स्थान पर कश्मीर में “लघु-स्तव” का पाठ किया जाता है। उसी प्रकार कहीं स्वेष्ट-स्तोत्र का ही पाठ कर लिया जाता है।
ज॰ “सिद्ध-कुंजिका-स्तोत्र” का पाठ भी अन्त में होता है।
झ॰ जब सप्तशती का पाठ दशांग, द्वादशांग आदि क्रम से आगे बढ़ता हुआ चौबीस अंग तक पहुंचता है, तो उसमें “चण्डिका-दल” और “चण्डिका-हृदय” का पाठ भी बढ़ जाता है। यदि इसी क्रम को अधिक महत्त्वपूर्ण बनाया जाता है, तो उसमें प्रारम्भ में तो १॰ रक्षोघ्न-सूक्त, २॰ ‘यो भूतानाम्’ आदि ८ मन्त्र, ३॰ अथर्वशीर्ष, ४॰ श्री-सूक्त, ५॰ रुद्र-सूक्त तथा अन्त में ६॰ वास्तु-सूक्त और ‘सद्योजातादि’ पाँच मन्त्रों का पाठ भी समाविष्ट कर लेते हैं। इस प्रकार २४, ३० और ५९ अंग तक के पाठों का विधान है।

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