April 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-20 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-विंशोऽध्यायः बीसवाँ अध्याय सत्यवती का राजा शन्तनु से विवाह तथा दो पुत्रों का जन्म, राजा शन्तनु की मृत्यु, चित्रांगद का राजा बनना तथा उसकी मृत्यु, विचित्रवीर्य का काशिराज की कन्याओं से विवाह और क्षयरोग से मृत्यु, व्यासजी द्वारा धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर की उत्पत्ति धृतराष्ट्रादीनामुत्पत्तिवर्णनम् ॥ ऋषय ऊचुः ॥ शुकस्तु परमां सिद्धिमाप्तवान्देवसत्तमः । किं चकार ततो व्यासस्तन्नो ब्रूहि सविस्तरम् ॥ १ ॥ ऋषियों ने कहा — [ हे सूतजी !] शुकदेवजी को जब परम सिद्धि प्राप्त हो गयी तब देवश्रेष्ठ व्यासजी ने क्या किया ? यह सब विस्तारपूर्वक हमसे कहिये ॥ १ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ शिष्या व्यासस्य येऽप्यासन्वेदाभ्यासपरायणाः । आज्ञामादाय ते सर्वे गताः पूर्वं महीतले ॥ २ ॥ असितो देवलश्चैव वैशम्पायन एव च । जैमिनिश्च सुमन्तुश्च गताः सर्वे तपोधनाः ॥ ३ ॥ तानेतान्वीक्ष्य पुत्रं च लोकान्तरितमप्युत । व्यासः शोकसमाक्रान्तो गमनायाकरोन्मतिम् ॥ ४ ॥ सस्मार मनसा व्यासस्तां निषादसुतां शुभाम् । मातरं जाह्नवीतीरे मुक्तां शोकसमन्विताम् ॥ ५ ॥ सूतजी बोले — उस समय व्यासजी के जितने वेदपाठी शिष्य थे, वे सब व्यासजी की आज्ञा पाकर पहले ही भूमण्डल में इधर-उधर चले गये थे ॥ २ ॥ असित, देवल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु आदि सभी तपोधन मुनि चले गये थे। उन ऋषियों को अन्यत्र तथा अपने पुत्र शुकदेव को अन्तरिक्ष में गया हुआ देखकर शोकाकुल व्यासजी ने वहाँ से चले जाने का विचार किया ॥ ३-४ ॥ उसी समय व्यासजी ने मन-ही-मन निषादकन्या अपनी कल्याणकारिणी माता का स्मरण किया, जिन्हें उन्होंने शोकावस्था में गंगाजी के तट पर ही छोड़ दिया था ॥ ५ ॥ स्मृत्वा सत्यवतीं व्यासस्त्यक्त्वा तं पर्वतोत्तमम् । आजगाम महातेजा जन्मस्थानं स्वकं मुनिः ॥ ६ ॥ द्वीपं प्राप्याथ पप्रच्छ क्व गता सा वरानना । निषादास्तं समाचख्युर्दत्ता राज्ञे तु कन्यका ॥ ७ ॥ दाशराजोऽपि सम्पूज्य व्यासं प्रीतिपुरःसरम् । स्वागतेनाभिसत्कृत्य प्रोवाच विहिताञ्जलिः ॥ ८ ॥ अपनी माता सत्यवती का स्मरण करके उस श्रेष्ठ पर्वत को त्यागकर महातेजस्वी व्यासजी अपने जन्मस्थान पर चले आये ॥ ६ ॥ इस प्रकार उन्होंने उस द्वीप पर जाकर लोगों से पूछा कि “वे सुन्दर मुख वाली [मेरी माता] कहाँ चली गयीं ?’ तब निषादों ने बताया कि उस कन्या का तो निषादराज ने राजा [ शन्तनु ]-से विवाह कर दिया। तत्पश्चात् निषादराज ने व्यासजी का प्रेमपूर्वक पूजन एवं सत्कार करके हाथ जोड़कर कहा — ॥ ७-८ ॥ ॥ दाशराज उवाच ॥ अद्य मे सफलं जन्म पावितं नः कुलं मुने । देवानामपि दुर्दर्शं यज्जातं तव दर्शनम् ॥ ९ ॥ यदर्थमागतोऽसि त्वं तद्ब्रूहि द्विजसत्तम । अपि दारा धनं पुत्रास्त्वदायत्तमिदं विभो ॥ १० ॥ दाशराज बोला — हे मुने! मेरा जन्म सफल हो गया और हमारा कुल पवित्र हो गया जो कि आज देवताओं के लिये दुर्लभ आपका दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ९ ॥ हे विप्रवर! आप जिस काम से आये हैं, वह बताइये। हे विभो! धन, पुत्र, कलत्र आदि-यह सब आपके अधीन है ॥ १० ॥ सरस्वत्यास्तटे रम्ये चकाराश्रममण्डलम् । व्यासस्तपःसमायुक्तस्तत्रैवास समाहितः ॥ ११ ॥ सत्यवत्याः सुतौ जातौ शन्तनोरमितद्युतेः । मत्वा तौ भ्रातरौ व्यासः सुखमाप वने स्थितः ॥ १२ ॥ चित्राङ्गदः प्रथमजो रूपवाञ्छत्रुतापनः । बभूव नृपतेः पुत्रः सर्वलक्षणसंयुतः ॥ १३ ॥ विचित्रवीर्यनामासौ द्वितीयः समजायत । सोऽपि सर्वगुणोपेतः शन्तनोः सुखवर्धनः ॥ १४ ॥ गाङ्गेयः प्रथमस्तस्य महावीरो बलाधिकः । तथैव तौ सुतौ जातौ सत्यवत्यां महाबलौ ॥ १५ ॥ शन्तनुस्तान्सुतान्वीक्ष्य सर्वलक्षणसंयुतान् । अमंस्ताजय्यमात्मानं देवादीनां महामनाः ॥ १६ ॥ [निषादराज के प्रार्थना करने पर] व्यासजी ने सरस्वती नदी के सुन्दर तट पर अपना आश्रम बनाया और सावधान-चित्त हो वे पुनः तप करते हुए वहाँ रहने लगे ॥ ११ ॥ अपूर्व तेजस्वी महाराज शन्तनु को सत्यवती के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुए। इन दोनों को अपना भाई मानकर वनवासी व्यासजी अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १२ ॥ उनमें राजा का पहला पुत्र चित्रांगद रूपवान्, शत्रुओं को कष्ट देने वाला तथा सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न था। शन्तनु के दूसरे पुत्र का नाम विचित्रवीर्य था। वह भी सर्वगुणसम्पन्न एवं शन्तनु के लिये सुखवर्द्धक हुआ ॥ १३-१४ ॥ इसके पूर्व उन राजा शन्तनु को गंगा से भीष्म नामक बलशाली एवं पराक्रमी पुत्र पैदा हुआ था। उसी प्रकार सत्यवती से दो पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १५ ॥ उन सर्वलक्षणसम्पन्न तीनों पुत्रों को देखकर महामना शन्तनु अपने आपको देवताओं से अजेय समझने लगे थे ॥ १६ ॥ अथ कालेन कियता शन्तनुः कालपर्ययात् । तत्याज देहं धर्मात्मा देही जीर्णमिवाम्बरम् ॥ १७ ॥ कालधर्मगते राज्ञि भीष्मश्चक्रे विधानतः । प्रेतकार्याणि सर्वाणि दानानि विविधानि च ॥ १८ ॥ चित्राङ्गदं ततो राज्ये स्थापयामास वीर्यवान् । स्वयं न कृतवान् राज्यं तस्माद्देवव्रतोऽभवत् ॥ १९ ॥ चित्राङ्गदस्तु वीर्येण प्रमत्तः परदुःखदः । बभूव बलवान्वीरः सत्यवत्यात्मजः शुचिः ॥ २० ॥ अथैकदा महाबाहुः सैन्येन महतावृतः । प्रचचार वनोद्देशात्पश्यन्वध्यान्मृगान् रुरून् ॥ २१ ॥ चित्राङ्गदस्तु गन्धर्वो दृष्ट्वा तं मार्गगं नृपम् । उत्ततारान्तिकं भूमेर्विमानवरमास्थितः ॥ २२ ॥ कुछ समय बीतने पर यथासमय धर्मात्मा शन्तनु ने उसी प्रकार अपना शरीर त्याग दिया, जिस प्रकार कोई मनुष्य अपना पुराना वस्त्र छोड़ देता है। शन्तनु के काल के वशीभूत हो जाने पर भीष्म ने विधिवत् उनके समस्त प्रेतकार्यं किये और विविध प्रकार के दान दिये ॥ १७-१८ ॥ तदनन्तर पराक्रमी भीष्म ने चित्रांगद को राज्यसिंहासन पर बैठाया। उन्होंने स्वयं राज्य नहीं किया, इसी कारण उनका नाम देवव्रत हुआ ॥ १९ ॥ सत्यवतीपुत्र चित्रांगद बलगर्वित, शत्रुसन्तापकर्ता, बलशाली, वीर तथा पवित्र थे ॥ २० ॥ महाबाहु चित्रांगद एक बार महान् सेना से युक्त होकर आखेट के लिये वन में गये। वहाँ वध्य रुरुमृगों को खोजते हुए वे विविध वन-प्रदेशों में घूम रहे थे। मार्ग में उन राजा को जाता हुआ देखकर चित्रांगद नामक एक गन्धर्व अपने सुन्दर विमान से भूमि पर उनके समीप उतर पड़ा ॥ २१-२२ ॥ तत्राभूच्च महद्युद्धं तयोः सदृशवीर्ययोः । कुरुक्षेत्रे महास्थाने त्रीणि वर्षाणि तापसाः ॥ २३ ॥ इन्द्रलोकमवापाशु गन्धर्वेण हतो रणे । भीष्मः श्रुत्वा चकाराशु तस्यौर्ध्वदैहिकं तदा ॥ २४ ॥ गाङ्गेयः कृतशोकस्तु मन्त्रिभिः परिवारितः । विचित्रवीर्यनामानं राज्येशं च चकार ह ॥ २५ ॥ मन्त्रिभिर्बोधिता पश्चाद्गुरुभिश्च महात्मभिः । स्वपुत्रं राज्यगं दृष्ट्वा पुत्रशोकहतापि च ॥ २६ ॥ सत्यवत्यतिसन्तुष्टा बभूव वरवर्णिनी । व्यासोऽपि भ्रातरं श्रुत्वा राजानं मुदितोऽभवत् ॥ २७ ॥ सूतजी बोले — हे तपस्वियो! उस समय कुरुक्षेत्र के उस विशाल मैदान में तीन वर्ष तक समान बलवाले उन दोनों में घमासान युद्ध होता रहा ॥ २३ ॥ अन्त में उस गन्धर्व के द्वारा राजा चित्रांगद युद्ध में मारे गये और उन्हें शीघ्र ही इन्द्रलोक प्राप्त हुआ। यह सुनकर भीष्म ने उसी समय चित्रांगद का और्ध्वदैहिक संस्कार किया ॥ २४ ॥ तत्पश्चात् मन्त्रियों ने भीष्म को समझा-बुझाकर शोकरहित किया । उन्होंने छोटे भाई विचित्रवीर्य को राजा बना दिया ॥ २५ ॥ मन्त्रियों, गुरुजनों एवं महात्माओं के समझाने के बाद शुभलक्षणा राजमाता सत्यवती अपने [ज्येष्ठ] पुत्र को मृत्यु से शोकाकुल होती हुई भी अपने छोटे पुत्र विचित्रवीर्य को राजसिंहासन पर बैठा देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। व्यासजी भी अपने भ्राता के राजा होने का समाचार पाकर प्रसन्न हुए ॥ २६-२७ ॥ यौवनं परमं प्राप्तः सत्यवत्याः सुतः शुभः । चकार चिन्तां भीष्मोऽपि विवाहार्थं कनीयसः ॥ २८ ॥ काशिराजसुतास्तिस्रः सर्वलक्षणसंयुताः । तेन राज्ञा विवाहार्थं स्थापिताश्च स्वयंवरे ॥ २९ ॥ राजानो राजपुत्राश्च समाहूताः सहस्रशः । इच्छास्वयंवरार्थं वै पूज्यमानाः समागताः ॥ ३० ॥ तत्र भीष्मो महातेजास्ता जहार बलेन वै । निर्मथ्य राजकं सर्वं रथेनैकेन वीर्यवान् ॥ ३१ ॥ स जित्वा पार्थिवान्सर्वांस्ताश्चादाय महारथः । बाहुवीर्येण तेजस्वी ह्याससाद गजाह्वयम् ॥ ३२ ॥ मातृवद्भगिनीवच्च पुत्रीवच्चिन्तयन्किल । तिस्रः समानयामास कन्यका वामलोचनाः ॥ ३३ ॥ सत्यवत्यै निवेद्याशु द्विजानाहूय सत्वरः । दैवज्ञान्वेदविदुषः पर्यपृच्छच्छुभं दिनम् ॥ ३४ ॥ जब सत्यवती के सुन्दर पुत्र विचित्रवीर्य पूर्ण युवा हुए तब भीष्म अपने कनिष्ठ भ्राता के विवाह की चिन्ता करने लगे ॥ २८ ॥ उन दिनों काशिराज की तीन कन्याएँ थीं – जो सभी शुभलक्षणों से युक्त थीं; उन राजा ने विवाह के लिये उनका स्वयंवर रचाया ॥ २९ ॥ हजारों पूज्यमान राजा तथा राजकुमार आमन्त्रित होकर उस इच्छास्वयंवर में उपस्थित हुए थे तथा पराक्रमी भीष्म ने अकेले ही रथ पर बैठकर सभी राजाओं को रौंदकर बलपूर्वक उन कन्याओं का हरण कर लिया। वे महारथी तथा तेजस्वी भीष्म अपने बाहुबल से उन सभी राजाओं को जीतकर उन कन्याओं को लेकर हस्तिनापुर चले आये ॥ ३०-३२ ॥ सुन्दर नेत्रोंवाली उन तीनों राजकुमारियों में माता, भगिनी एवं पुत्री की भावना रखते हुए भीष्म उन्हें ले आये और उन्हें सत्यवती को सौंपकर शीप्रतापूर्वक ज्योतिर्विदों तथा वेद के विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर उनसे विवाह का शुभ मुहूर्त पूछा ॥ ३३-३४ ॥ कृत्वा विवाहसम्भारं यदा वै भ्रातरं निजम् । विचित्रवीर्यं धर्मिष्ठं विवाहयति ता यदा ॥ ३५ ॥ तदा ज्येष्ठाप्युवाचेदं कन्यका जाह्नवीसुतम् । लज्जमानासितापाङ्गी तिसॄणां चारुलोचना ॥ ३६ ॥ गङ्गापुत्र कुरुश्रेष्ठ धर्मज्ञ कुलदीपक । मया स्वयंवरे शाल्वो वृतोऽस्ति मनसा नृपः ॥ ३७ ॥ वृताहं तेन राज्ञा वै चित्ते प्रेमसमाकुले । यथायोग्यं कुरुष्वाद्य कुलस्यास्य परन्तप ॥ ३८ ॥ तेनाहं वृतपूर्वाऽस्मि त्वं च धर्मभृतां वरः । बलवानसि गाङ्गेय यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३९ ॥ विवाह की तैयारी करके अपने छोटे भाई धर्मात्मा विचित्रवीर्य के साथ उन कन्याओं का विवाह करने को जब भीष्म उद्यत हुए तब उन तीनों में सबसे बड़ी एवं सुन्दर नेत्रों वाली कन्या ने गंगापुत्र भीष्म से लज्जित होते हुए इस प्रकार प्रार्थना की । हे गंगापुत्र! हे कुरुश्रेष्ठ! हे धर्मज्ञ! हे कुलदीपक! मैंने स्वयंवर में मन-ही-मन राजा शाल्व का पतिरूप में वरण कर लिया था। उन राजा ने भी प्रेमपूर्वक हृदय से मुझे अपनी पत्नी मान लिया था। हे परन्तप! अब आप इस कुल की परम्परा के अनुसार जैसा उचित हो, वैसा कीजिये। उन्होंने पहले से ही मुझे वरण कर लिया है। हे गांगेय! आप धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तथा बलवान् हैं; आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये ॥ ३५-३९ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ एवमुक्तस्तया तत्र कन्यया कुरुनन्दनः । अपृच्छत् ब्राह्मणान्वृद्धान्मातरं सचिवांस्तथा ॥ ४० ॥ सर्वेषां मतमाज्ञाय गाङ्गेयो धर्मवित्तमः । गच्छेति कन्यकां प्राह यथारुचि वरानने ॥ ४१ ॥ विसर्जिताथ सा तेन गता शाल्वनिकेतनम् । उवाच तं वरारोहा राजानं मनसेप्सितम् ॥ ४२ ॥ विनिर्मुक्तास्मि भीष्मेण त्वन्मनस्केति धर्मतः । आगतास्मि महाराज गृहाणाद्य करं मम ॥ ४३ ॥ धर्मपत्नी तवात्यन्तं भवामि नृपसत्तम । चिन्तितोऽसि मया पूर्वं त्वयाहं नात्र संशयः ॥ ४४ ॥ सूतजी बोले — इस प्रकार उस कन्या के कहने पर कुरुनन्दन भीष्मजी ने कुलवृद्धों, ब्राह्मणों, माता सत्यवती तथा मन्त्रियों से इस विषय में परामर्श किया। सबकी अनुमति प्राप्त करके धर्मज्ञ गंगापुत्र ने उस कन्या से कहा — हे वरानने ! तुम स्वेच्छापूर्वक जा सकती हो ॥ ४०-४१ ॥ भीष्म से विदा होकर वह सुन्दरी कन्या राजा शाल्व के घर गयी और अपने मन की अभीष्ट बात उनसे कहने लगी — हे महाराज! आपके प्रति आसक्तचित्त जानकर भीष्म ने मुझे धर्मपूर्वक मुक्त कर दिया है। अब मैं आ गयी हूँ; आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये। मैं आपकी पूर्णरूप से धर्मपत्नी होऊँगी; मैंने पूर्व मै आपको चाहा है और आपने मुझे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४२-४४ ॥ ॥ शाल्व उवाच ॥ गृहीता त्वं वरारोहे भीष्मेण पश्यतो मम । रथे संस्थापिता तेन न ग्रहीष्ये करं तव ॥ ४५ ॥ परोच्छिष्टां च कः कन्यां गृह्णाति मतिमान्नरः । अतोऽहं न ग्रहीष्यामि त्यक्तां भीष्मेण मातृवत् ॥ ४६ ॥ रुदती विलपन्ती सा त्यक्ता तेन महात्मना । पुनर्भीष्मं समागत्य रुदती चेदमब्रवीत् ॥ ४७ ॥ शाल्वो मुक्तां त्वया वीर न गृह्णाति गृहाण माम् । धर्मज्ञोऽसि महाभाग मरिष्याम्यन्यथा ह्यहम् ॥ ४८ ॥ शाल्व ने कहा — हे सुन्दरि! मेरे देखते-देखते भीष्म ने तुम्हें पकडा और अपने रथ पर बैठा लिया था, अतः अब मैं तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं कर सकता । कौन बुद्धिमान् मनुष्य दूसरे के द्वारा उच्छिष्ट कन्या को स्वीकार करेगा ? अतः भीष्म के द्वारा मातृभावना से भी त्यागी गयी तुम्हें मैं स्वीकार नहीं करूँगा ॥ ४५-४६ ॥ महात्मा शाल्व ने रोती तथा विलाप करती उस कन्या का त्याग कर दिया और वह पुनः भीष्म के यहाँ आकर रोती हुई इस प्रकार कहने लगी — हे वीर! आपके त्याग देने के कारण शाल्व भी मुझे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। हे महाभाग! आप धर्मज्ञ हैं, इसलिये आप मुझे स्वीकार कीजिये, अन्यथा मैं प्राण दे दूँगी ॥ ४७-४८ ॥ ॥ भीष्म उवाच ॥ अन्यचित्तां कथं त्वां वै गृह्णामि वरवर्णिनि । पितरं स्वं वरारोहे व्रज शीघ्नं निराकुला ॥ ४९ ॥ भीष्म बोले — हे वरवर्णिनि! तुम दूसरे पर आसक्त चित्तवाली हो, अतः मैं तुम्हें कैसे स्वीकार करूं? हे वरारोहे! अब तुम चिन्ता त्यागकर शीघ्र अपने पिता के पास चली जाओ ॥ ४९ ॥ तथोक्ता सा तु भीष्मेण जगाम वनमेव हि । तपश्चकार विजने तीर्थे परमपावने ॥ ५० ॥ द्वे भार्ये चातिरूपाढ्ये तस्य राज्ञो बभूवतुः । अम्बालिका चाम्बिका च काशिराजसुते शुभे ॥ ५१ ॥ राजा विचित्रवीर्योऽसौ ताभ्यां सह महाबलः । रेमे नानाविहारैश्च गृहे चोपवने तथा ॥ ५२ ॥ वर्षाणि नव राजेन्द्रः कुर्वन् क्रीडा मनोरमाम् । प्रापासौ मरणं भूयो गृहीतो राजयक्ष्मणा ॥ ५३ ॥ मृते पुत्रेऽतिदुःखार्ता जाता सत्यवती तदा । कारयामास पुत्रस्य प्रेतकार्याणि मन्त्रिभिः ॥ ५४ ॥ भीष्ममाह तदैकान्ते वचनं चातिदुःखिता । राज्यं कुरु महाभाग पितुस्ते शन्तनोः सुत ॥ ५५ ॥ भ्रातुर्भार्यां गृहाण त्वं वंशञ्च परिरक्षय । यथा न नाशमायाति ययातेर्वंश इत्युत ॥ ५६ ॥ भीष्म के ऐसा कहने पर वह [ अपने पिता के घर न जाकर] वन में चली गयी और वहाँ किसी निर्जन एवं परम पवित्र तीर्थ में तप करने लगी ॥ ५० ॥ काशिराज की अन्य दो रूपवती तथा कल्याणमयी कन्याएँ अम्बिका एवं अम्बालिका विचित्रवीर्य की रानियाँ बन गयीं ॥ ५१ ॥ महाबली राजा विचित्रवीर्य भी उन दोनों के साथ कभी राजभवन में और कभी उपवन में आनन्दपूर्वक विहार करने लगे ॥ ५२ ॥ इस प्रकार पूरे नौ वर्ष तक मनोहर क्रीडा करते हुए राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा रोग से ग्रसित हो गये और अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुए ॥ ५३ ॥ उस समय पुत्र के मर जाने पर माता सत्यवती को बडा दुःख हुआ और उन्होंने मन्त्रियों द्वारा पुत्र के सभी प्रेतकर्म सम्पन्न कराये ॥ ५४ ॥ तत्पश्चात् एक दिन अत्यन्त दुःखी होकर सत्यवती ने भीष्म से एकान्त में कहा — हे महाभाग! हे पुत्र! अब तुम अपने पिता शन्तनु का राज्य सम्भालो और अपनी भ्रातृजाया को स्वीकार करो और अपने वंश की रक्षा करो, जिससे महाराज ययाति का वंश नष्ट न हो जाय ॥ ५५-५६ ॥ ॥ भीष्म उवाच ॥ प्रतिज्ञा मे श्रुता मातः पित्रर्थे या मया कृता । नाहं राज्यं करिष्यामि न चाहं दारसंग्रहम् ॥ ५७ ॥ भीष्म बोले — हे माता! अपने पिताजी के लिये मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे तो आप सुन चुकी हैं। अतः मैं न तो राज्य ग्रहण करूँगा और न तो विवाह ही करूँगा ॥ ५७ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ तदा चिन्तातुरा जाता कथं वंशो भवेदिति । नालसाद्धि सुखं मह्यं समुत्पन्ने ह्यराजके ॥ ५८ ॥ गाङ्गेयस्तामुवाचेदं मा चिन्तां कुरु भामिनि । पुत्रं विचित्रवीर्यस्य क्षेत्रजं चोपपादय ॥ ५९ ॥ कुलीनं द्विजमाहूय वध्वा सह नियोजय । नात्र दोषोऽस्ति वेदेऽपि कुलरक्षाविधौ किल ॥ ६० ॥ पौत्रं चैवं समुत्पाद्य राज्यं देहि शुचिस्मिते । अहं च पालयिष्यामि तस्य शासनमेव हि ॥ ६१ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कानीनं स्वसुतं मुनिम् । जगाम मनसा व्यासं द्वैपायनमकल्मषम् ॥ ६२ ॥ स्मृतमात्रस्ततो व्यास आजगाम स तापसः । कृत्वा प्रणामं मात्रेऽथ संस्थितो दीप्तिमान्मुनिः ॥ ६३ ॥ सूतजी बोले — तब सत्यवती चिन्तित हो गयीं कि अब वंश कैसे चलेगा ? अपने कर्तव्य के प्रति यदि मैं उदासीन रहूँ तो अराजकता के व्याप्त होने पर मुझे सुख कैसे प्राप्त होगा ?॥ ५८ ॥ [इस प्रकार माता को चिन्तित देखकर] भीष्म ने उनसे कहा — हे भामिनि! आप चिन्ता न करें। विचित्रवीर्य की पत्नी के गर्भ से क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न कराइये। किसी कुलीन विद्वान् ब्राह्मण को बुलाकर वधू के साथ नियोग कराइये। इसमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि वंशरक्षा का विधान वेद में भी है। हे प्रसन्नवदने ! इस प्रकार पौत्र उत्पन्न कराकर आप उसी को राज्य सौंप दीजिये, मैं उसके राज्यशासन का सम्यक् संरक्षण करता रहूँगा ॥ ५९-६९ ॥ भीष्म की वह बात सुनकर सत्यवती ने अपनी कुमारी अवस्था में उत्पन्न अपने निर्दोष पुत्र द्वैपायन व्यासमुनि का स्मरण किया ॥ ६२ ॥ स्मरण करते ही तपस्वी व्यासजी वहाँ आ पहुँचे और माता को प्रणाम करके वे तेजस्वी मुनि सामने खड़े हो गये ॥ ६३ ॥ भीष्मेण पूजितः कामं सत्यवत्या च मानितः । तस्थौ तत्र महातेजा विधूमोऽग्निरिवापरः ॥ ६४ ॥ तमुवाच मुनिं माता पुत्रमुत्पादयाधुना । क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य सुन्दरं तव वीर्यजम् ॥ ६५ ॥ व्यासः श्रुत्वा वचो मातुराप्तवाक्यममन्यत । ओमित्युक्त्वा स्थितस्तत्र ऋतुकालमचिन्तयत् ॥ ६६ ॥ अम्बिका च यदा स्नाता नारी ऋतुमती तदा । सङ्गं प्राप्य मुनेः पुत्रमसूतान्धं महाबलम् ॥ ६७ ॥ जन्मान्धं च सुतं वीक्ष्य दुःखिता सत्यवत्यपि । द्वितीयां च वधूमाह पुत्रमुत्पादयाशु वै ॥ ६८ ॥ ऋतुकालेऽथ सम्प्राप्ते व्यासेन सह सङ्गता । तथा चाम्बालिका रात्रौ गर्भं नारी दधार सा ॥ ६९ ॥ सोऽपि पाण्डुः सुतो जातो राज्ययोग्यो न सम्मतः । पुत्रार्थे प्रेरयामास वर्षान्ते च पुनर्वधूम् ॥ ७० ॥ आहूय च ततो व्यासं सम्प्रार्थ्य मुनिसत्तमम् । प्रेषयामास रात्रौ सा शयनागारमुत्तमम् ॥ ७१ ॥ न गता च वधूस्तत्र प्रेष्या सम्प्रेषिता तया । तस्यां च विदुरो जातो दास्यां धर्मांशतः शुभः ॥ ७२ ॥ भीष्म ने उनको भलीभाँति पूजा की और माता सत्यवती ने भी आदर किया। उस समय महातेजस्वी व्यासजी वहाँ इस प्रकार सुशोभित हुए मानो धूमरहित साक्षात् दूसरे अग्निदेव ही हों ॥ ६४ ॥ माता सत्यवती ने व्यासमुनि से कहा — इस समय तुम विचित्रवीर्य के क्षेत्र में अपने तेज से सुन्दर पुत्र उत्पन्न करो ॥ ६५ ॥ माता का वचन सुनकर व्यासजी ने उसे आप्तवाक्य माना और “ठीक है’-कहकर वे वहीं पर ठहर गये और ऋतुकाल की प्रतीक्षा करने लगे ॥ ६६ ॥ जब अम्बिका ऋतुमती होकर स्नान कर चुकी तब उसने मुनि व्यासजी के तेज से एक पुत्र उत्पन्न किया, जो महाबली और जन्मान्ध था। उस बालक को जन्मान्ध देखकर सत्यवती को बड़ा दुःख हुआ। तब उन्होंने दूसरी वधू अम्बालिका से कहा कि तुम भी शीघ्र एक पुत्र उत्पन्न करो ॥ ६७-६८ ॥ ऋतुकाल प्राप्त होने पर उस अम्बालिका ने व्यासजी से गर्भ धारण किया। उससे उत्पन्न पुत्र भी पाण्डुरोग से ग्रसित होने के कारण राजा होने के योग्य नहीं था। इसलिये माता ने वधू अम्बालिका को एक वर्ष के बाद पुनः एक पुत्र के लिये प्रेरित किया। माता सत्यवती ने मुनिश्रेष्ठ व्यासजी का आह्वानकर उनसे इसके लिये प्रार्थना की, परंतु उसने स्वयं न जाकर अपनी दासी को भेज दिया। उस दासी के गर्भ से धर्म के अंश से युक्त शुभ विदुर उत्पन्न हुए ॥ ६९-७२ ॥ एवं व्यासेन ते पुत्रा धृतराष्ट्रादयस्त्रयः । उत्पादिता महावीरा वंशरक्षणहेतवे ॥ ७३ ॥ एतद्वः सर्वमाख्यातं तस्य वंशसमुद्भवम् । व्यासेन रक्षितो वंशो भ्रातृधर्मविदानघाः ॥ ७४ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे धृतराष्ट्रादीनामुत्पत्तिवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ इस प्रकार वंश की रक्षा के लिये व्यासजी ने धृतराष्ट्र आदि तीन महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न किये । भ्रातृ-धर्म को जानने वाले व्यासजी ने ऐसा करके वंश की रक्षा को। हे पुण्यात्मा मुनिजनो! इस प्रकार उनकी बंशोत्पत्ति से सम्बन्धित समस्त कथानक मैंने आपलोगों से कह दिया ॥ ७३-७४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘धृतराष्ट्रादि की उत्पत्ति का वर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ ॥ प्रथमः स्कन्धः समाप्तः ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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