श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-11
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः
ग्यारहवाँ अध्याय
महिषासुर का अपने मन्त्रियों से विचार-विमर्श करना और ताम्र को भगवती के पास भेजना
ताम्रकृतं देवीं प्रति विस्रंसनवचनवर्णनम्

व्यासजी बोले मन्त्री की यह बात सुनकर मदोन्मत्त राजा महिषासुर अपने वयोवृद्ध मन्त्रियों को बुलाकर उनसे यह वचन कहने लगा ॥ १ ॥

राजा बोला हे मन्त्रिगण ! आप लोग निर्भीकतापूर्वक मुझे शीघ्र बतायें कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? आप लोग इस कार्य में प्रवीण हैं, साथ ही साम तथा दण्ड आदि नीतियों में भी कुशल हैं। कहीं देवताओं के द्वारा रची गयी शाम्बरी माया के रूप में तो यह नहीं आयी हुई है ? अतः आप लोग मुझे यह बतायें कि इस समय किस नीति का सहारा लिया जाय ? ॥ २-३ ॥

मन्त्रिगण बोले हे नृपश्रेष्ठ ! बुद्धिमान् लोगों को सदा सत्य और प्रिय बोलना चाहिये तथा सम्यक् विचार करके हितकर कार्य करना चाहिये ॥ ४ ॥ हे राजन् ! सत्य वचन कल्याणकारी होता है और प्रिय वचन [प्रायः ] अहितकर होता है। इस लोक में अप्रिय वचन भी मनुष्यों के लिये उसी प्रकार हितकारक होता है, जैसे औषधि अरुचिकर होते हुए भी मनुष्यों के रोगों का नाश करने वाली होती है ॥ ५ ॥ हे पृथिवीपते ! सत्य बात को सुनने तथा मानने वाला दुर्लभ है। सत्य बोलने वाला तो परम दुर्लभ है; किंतु चाटुकारितापूर्ण बातें करने वाले बहुत से लोग हैं ॥ ६ ॥ हे राजन् ! इस गूढ़ विषय में हम लोग कुछ कैसे कह सकते हैं, और फिर इस त्रिलोकी में भविष्य में होने वाले शुभ अथवा अशुभ परिणाम के विषय में कौन जान सकता है ? ॥ ७ ॥

राजा बोला आप लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार अलग-अलग विचार प्रकट करें। जिसका जो भाव होगा, उसे सुनकर मैं स्वयं विचार करूँगा; क्योंकि बुद्धिमान् | पुरुषों को चाहिये कि अनेक लोगों के मन्तव्य सुनकर और फिर उन पर बार-बार विचार करके उनमें से अपने लिये जो कल्याणप्रद हो, उसी काम को करें ॥ ८-९ ॥

व्यासजी बोले उसकी यह बात सुनकर महाबली विरूपाक्ष राजा महिष को प्रसन्न करते हुए शीघ्र कहने लगा ॥ १० ॥

विरूपाक्ष बोला हे राजन् ! वह बेचारी स्त्री मदमत्त होकर जो कुछ बोल रही है, उन बातों को आप केवल धमकीभर समझें ॥ ११ ॥ यह जानते हुए कि झूठ और साहस स्त्रियों की आदत होती है, भला कौन एक स्त्री के कहे हुए युद्धोन्मादी कठोर वाक्यों से डरेगा ? ॥ १२ ॥ हे राजन् ! तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करके भी आज आप स्त्री के भय से ग्रस्त हो गये हैं! उसकी अधीनता स्वीकार कर लेने पर इस लोक में अवश्य ही आप जैसे वीर की अपकीर्ति होगी ॥ १३ ॥ अतएव हे महाराज ! मैं अकेला ही उस चण्डिका से युद्ध करने के लिये जा रहा हूँ और उसे निश्चितरूप से मार डालूँगा। अब आप भयमुक्त हो जायँ ॥ १४ ॥ अपनी सेना के साथ वहाँ जाकर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से मैं उस दुःसह तथा प्रचण्ड पराक्रम-सम्पन्न चण्डिका का निश्चय ही वध कर दूँगा अथवा उसे नागपाश में बाँधकर जीवित दशा में ही आपके पास ले आऊँगा, जिससे वह सदा के लिये आपकी वशवर्तिनी हो जाय । हे राजन् ! अब आप मेरा पराक्रम देखिये ॥ १५-१६ ॥

व्यासजी बोले विरूपाक्षकी बात सुनकर दुर्धर ने कहा हे राजन् ! बुद्धिमान् विरूपाक्ष ने यथार्थ बात कही है। प्रतिभासम्पन्न आप अब मेरी भी उत्तम बात सुन लें। अनुमान से ऐसा प्रतीत होता है कि सुन्दर दाँतों वाली यह स्त्री कामातुर है। अपने रूप के गर्व में चूर इस प्रकार की नायिकाएँ अपने प्रिय को डरा-धमकाकर वश में करने का प्रयास करती हैं; वैसे ही यह सुन्दरी भी आपको धमकाकर अपने वश में करना चाहती है ॥ १७–१९ ॥ यह तो मानिनी स्त्रियों का हाव-भाव होता है और रस का महान् ज्ञाता ही उस हाव भाव को समझ पाता है। स्वयं पर आसक्त प्रेमी के प्रति किसी स्त्री की ऐसी वक्रोक्ति होती ही है, जिसे कामशास्त्र का विद्वान् कोई विरला पुरुष ही समझ पाता है। जैसे उसने कहा है ‘मैं तुम्हें युद्धक्षेत्र में बाणों से मार डालूंगी’, इस कथन में बहुत बड़ा रहस्य निहित है, जिसे रहस्यविद् ही भलीभाँति समझ सकते हैं । मानिनी स्त्रियों के बाण तो उनके कटाक्ष ही कहे गये हैं । हे राजन् ! उसके अन्य व्यंग्यपूर्ण वचनों को पुष्पांजलि समझना चाहिये; क्योंकि कटाक्ष को छोड़कर वह अन्य प्रकार के बाण भला आप पर क्या चला सकेगी ? जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि में आप पर बाण चलाने की शक्ति नहीं है, तब वैसी स्त्रियों में अन्य बाण चलाने की शक्ति कहाँ है ? उसने अमात्य से जो कहा था ‘ हे मन्द ! मैं तुम्हारे राजा को अपने नेत्रबाणों से बेध डालूंगी’ इस कथन का तात्पर्य उन रसज्ञान से विहीन मन्त्री ने विपरीत ही समझ लिया था ॥ २०–२४१/२

उसने प्रधान अमात्य से जो यह कहा था कि ‘मैं तुम्हारे स्वामी को रणमयी शय्या पर गिरा दूँगी’ १/२ इस कथन का तात्पर्य उस स्त्री के द्वारा विपरीत रतिक्रीडा का किया जाना समझना चाहिये। साथ ही उसने जो यह बात कही थी कि ‘मैं उन्हें प्राणहीन कर दूँगी’ १/२ तो [ हे राजन् ! ] पुरुषों में वीर्य को ही प्राण कहा गया है, अतः उस स्त्री के कथन का तात्पर्य आपको वीर्यहीन कर देने से है, इसके अतिरिक्त  दूसरी बात नहीं ॥ २५-२६१/२

हे राजन् ! व्यंग्यभरे इस कथन के द्वारा वह सुन्दरी आपको पति के रूप में वरण करना चाहती है। रसशास्त्र के विद्वानों को विचारपूर्वक इस कथन का अभिप्राय भलीभाँति जान लेना चाहिये। हे महाराज! ऐसा जानकर आपको उसके प्रति रसमय व्यवहार करना चाहिये। हे राजन् ! साम (प्रिय वचन) और दान (प्रलोभन आदि ) – ये ही दो उपाय उसे वश में करने के हैं, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है। रुष्ट अथवा मदगर्वित कोई भी मानिनी स्त्री इन उपायों से वशवर्तिनी हो जाती है। उसी प्रकार के मधुर वचनों से प्रसन्न करके मैं उसे आपके पास ले आऊँगा । हे राजन् ! बहुत कहने से क्या लाभ ! अभी वहाँ जाकर मैं उस स्त्री को एक दासी की भाँति सदा के लिये आपके वश में कर दूँगा ॥ २७–३०१/२

व्यासजी बोले दुर्धर की यह बात सुनकर तत्त्वविद् ताम्र बोला हे राजन् ! अब आप मेरे द्वारा कही गयी बात सुनिये जो तर्कयुक्त, धर्म से ओतप्रोत, रसमय तथा नीति से भरी हुई है ॥ ३१-३२ ॥ हे मानद ! यह बुद्धिसम्पन्न स्त्री न कामातुर है, न आप पर आसक्त है और न तो उसने व्यंग्यपूर्ण बातें ही कही हैं ॥ ३३ ॥ हे महाबाहो ! यह तो महान् आश्चर्य है कि एक अत्यधिक रूपवती और मनोहर स्त्री बिना किसी का आश्रय लिये अकेली ही युद्धहेतु आयी हुई है। अठारह भुजाओं से सम्पन्न ऐसी पराक्रमशालिनी तथा सुन्दर स्त्री किसी के भी द्वारा तीनों लोकों में न तो देखी गयी और न तो सुनी ही गयी। उसने अनेक प्रकार के सुदृढ़ आयुध धारण कर रखे हैं। हे राजन्! इससे मैं तो यह मानता हूँ कि समय ने सब कुछ हमारे विपरीत कर दिया है ॥ ३४-३६ ॥ मैंने रात में अपशकुनसूचक अनेक स्वप्न देखे हैं, इससे मैं तो यह समझता हूँ कि अब निश्चय ही हमारा विनाश आ चुका है ॥ ३७ ॥ मैंने आज ही उषाकाल में स्वप्न देखा कि काले वस्त्र धारण किये एक स्त्री घर के आँगन में रुदन कर रही है। यह विनाशसूचक स्वप्न विचारणीय है ॥ ३८ ॥ हे राजन् ! आजकल घर-घर में भयानक पक्षी रोया करते हैं और घर-घर में विविध प्रकार के उपद्रव होते रहते हैं। इससे मैं तो यह समझता हूँ कि इसमें निश्चितरूप से कुछ और ही कारण है, तभी तो युद्ध के लिये कृतसंकल्प यह स्त्री आपको ललकार रही है ॥ ३९-४० ॥ हे राजन् ! यह न तो मानुषी, न गान्धर्वी और न आसुरी ही है; अपितु इसे देवताओं की रची हुई मोहकरी माया समझना चाहिये ॥ ४१ ॥ अतः मेरा यह दृढ़ मत है कि इस समय कायरता नहीं प्रदर्शित करनी चाहिये, अपितु हर तरह से युद्ध करना चाहिये; जो होना होगा वह होगा। भविष्य में विधाता के द्वारा किये जाने वाले शुभ या अशुभ के बारे में कौन जानता है ? अतः विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि बुद्धिपूर्वक धैर्य धारण करके समय की प्रतीक्षा करें ॥ ४२-४३ ॥ हे नरेश ! प्राणियों का जन्म तथा मरण दैव के अधीन है । तीनों लोकों में कोई भी व्यक्ति इसके विपरीत कुछ भी करने में समर्थ नहीं है ॥ ४४ ॥

महिष बोला हे महाभाग ! हे ताम्र ! युद्ध के लिये दृढ़ निश्चय करके तुम जाओ और धर्मपूर्वक उस मानिनी स्त्री को जीतकर यहाँ ले आओ ॥ ४५ ॥ यदि संग्राम में वह स्त्री तुम्हारे अधीन न हो सके, तब तुम उसे मार डालना; नहीं तो जहाँतक सम्भव हो, प्रयत्नपूर्वक उसका सम्मान करना ॥ ४६ ॥ हे सर्वज्ञ ! तुम पराक्रमी तथा कामशास्त्र के पूर्ण विद्वान् हो, अतः किसी भी युक्ति से उस सुन्दरी पर विजय प्राप्त करना ॥ ४७ ॥ हे वीर! हे महाबाहो ! विशाल सेना के साथ तुम वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ और वहाँ पहुँचकर बार-बार चिन्तन- मनन करके इसका पता लगाओ कि यह किसलिये आयी हुई है? तुम यह भी ज्ञात करना कि वह कामभाव अथवा वैरभाव – किस भाव से आयी है और वह किसकी माया है ? ॥ ४८-४९ ॥ आरम्भ में इन बातों की जानकारी कर लेने पर तुम यह पता करना कि वह क्या करना चाहती है? तत्पश्चात् उसकी सबलता तथा निर्बलता को भलीभाँति समझकर ही उसके साथ तुम युद्ध करना ॥ ५० ॥ तुम उसके समक्ष न तो कायरता प्रदर्शित करना और न बिलकुल निर्दयता का ही व्यवहार करना। उसकी जैसी मनोदशा देखना, उसी के अनुसार उससे बर्ताव करना ॥ ५१ ॥

व्यासजी बोले महिषासुर की यह बात सुनकर काल के वशीभूत वह ताम्र राजा महिष को प्रणाम करके सेना के साथ चल पड़ा। चलते समय मार्ग में यम का द्वार दिखलाने वाले अत्यन्त भयानक अपशकुनों को देख-देखकर वह बहुत विस्मित तथा भयभीत होता था ॥ ५२-५३ ॥ देवी के समीप पहुँचकर उसने देखा कि वे सिंह पर सवार हैं, वे विविध प्रकार के आयुधों से विभूषित हैं तथा सभी देवता उनकी स्तुति कर रहे हैं। तदनन्तर उस ताम्र ने विनम्र भाव से खड़े होकर सामनीति का आश्रय लेकर मधुर वाणी में शान्तिपूर्वक देवी से यह वचन कहा हे देवि ! दैत्यों के अधिपति तथा विशाल सींगों वाले राजा महिष आपके रूप तथा गुण पर मोहित होकर आपसे विवाह करने की अभिलाषा रखते हैं ॥ ५४-५६ ॥ विशाल नयनों तथा सुकुमार अंगोंवाली हे सुन्दरि ! देवताओं के लिये भी अजेय उन महिष से आप प्रेम कीजिये और उन्हें पतिरूप में प्राप्त करके अद्भुत नन्दनवन में विहार कीजिये ॥ ५७ ॥ सभी प्रकार के सुखों के निधानस्वरूप इस सर्वांगसुन्दर शरीर को प्राप्त करके हर तरह सुख भोगना चाहिये और दुःख का तिरस्कार करना चाहिये, यही बात सर्वमान्य है ॥ ५८ ॥

हे करभोरु! आपने अपने हाथों में ये आयुध किसलिये धारण कर रखे हैं ? कमल के समान कोमल आपके ये हाथ तो पुष्पों के गेंद धारण करने योग्य हैं ॥ ५९ ॥ भौंहरूपी धनुष के रहते आपको यह धनुष धारण करने से क्या प्रयोजन है और जब आपके पास ये कटाक्षरूपी बाण हैं तो फिर व्यर्थ बाणों को धारण करने से क्या लाभ? ॥ ६० ॥ इस संसार में युद्ध दुःखदायी होता है, अतः ज्ञानीजन को युद्ध नहीं करना चाहिये। राज्य तथा धन के लोलुप लोग ही परस्पर युद्ध करते हैं ॥ ६१ ॥ पुष्पों से भी युद्ध नहीं करना चाहिये, फिर तीक्ष्ण बाणों से युद्ध की बात ही क्या ? अपने अंगों का छिद जाना भला किसकी प्रसन्नता का कारण बन सकता है ? अतएव हे तन्वंगि! आप कृपा करें और देवताओं तथा दानवों के द्वारा पूजित मेरे स्वामी महिष को पति के रूप में स्वीकार कर लें ॥ ६२-६३ ॥ वे आपके सभी वांछित मनोरथ पूर्ण कर देंगे और उन्हें पतिरूप में पाकर आप सदा के लिये उनकी पटरानी बन जायँगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६४ ॥ हे देवि ! आप मेरी बात मान लें, इससे आपको उत्तम सुख मिलेगा। कष्ट पाकर भी संग्राम में विजय का सन्देह बना रहता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ६५ ॥ हे सुन्दरि ! आप राजनीति भलीभाँति जानती हैं, अतः हजारों-हजारों वर्षों तक राज्यसुख का भोग करें ॥ ६६ ॥ आपको तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा; वह भी राजा बनेगा। इस प्रकार आप युवावस्था में क्रीड़ासुख प्राप्त करके वृद्धावस्था में आनन्द प्राप्त करेंगी ॥ ६७ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘ताम्रकृत देवी के प्रति विस्त्रंसनवचनवर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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