April 22, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-14 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-चतुर्दशोऽध्यायः चौदहवाँ अध्याय चिक्षुर और ताम्र का रणभूमि में आना, देवी से उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवी द्वारा उनका वध ताम्रचिक्षुराख्यवधवर्णनम् व्यासजी बोले — हे राजन् ! दुर्मुख मार दिया गया — यह सुनकर महिषासुर क्रोध से मूर्च्छित हो गया और दानवों से बार-बार कहने लगा — ‘यह क्या हो गया ?’ दुर्मुख और बाष्कल तो बड़े शूरवीर दानव थे। एक सुकुमार नारी ने उन्हें रणभूमि में मार डाला, यह तो महान् आश्चर्य है! दैव का विधान तो देखो ॥ १-२ ॥ समय बड़ा बलवान् होता है, वही परतन्त्र मनुष्यों के पुण्य तथा पाप के अनुसार सदा उनके सुखों-दुःखों का निर्माण करता है ॥ ३ ॥ ये दोनों ही श्रेष्ठ दानव मार डाले गये हैं, अब इसके बाद क्या करना चाहिये ? इस विषम स्थिति में सब लोग विचार करके जो उचित हो, बतायें ॥ ४ ॥ व्यासजी बोले — हे राजेन्द्र ! इस प्रकार महाशक्तिशाली महिषासुर के कहने पर उसके महारथी सेनाध्यक्ष चिक्षुर ने कहा — हे राजन् ! स्त्री को मार डालने में चिन्ता किस बात की! मैं उसे मार डालूँगा ॥ ५१/२ ॥ ऐसा कहकर वह चिक्षुराख्य रथ पर बैठकर दूसरे महाबली ताम्र को अपना अंगरक्षक बनाकर सेना की तुमुल ध्वनि से आकाश एवं दिशाओं को निनादित करता हुआ युद्ध के लिये चल पड़ा ॥ ६-७ ॥ उसे आता हुआ देखकर कल्याणमयी भगवती ने अद्भुत शङ्ख ध्वनि, घण्टानाद तथा धनुष की टंकार की। उस ध्वनि से भी राक्षस भयभीत हो गये। ‘यह क्या’ – ऐसा कहते हुए भय से काँपने लगे तथा भाग खड़े हुए ॥ ८-९ ॥ उन्हें भागते हुए देखकर चिक्षुराख्य ने अत्यन्त क्रोधित किर कहा — तुम्हारे सामने कौन सा भय आ गया ? मैं इस मदोन्मत्त नारी को आज ही बाणों द्वारा मार डालूँगा। हे दैत्यो! तुम लोग भय छोड़कर लड़ाई के मोर्चे पर डटे रहो ॥ १०-११ ॥ ऐसा कहकर उस पराक्रमी दैत्यश्रेष्ठ चिक्षुर ने हाथ में धनुष उठा लिया और युद्धभूमि में आकर वह निश्चिन्ततापूर्वक भगवती से कहने लगा — हे विशालाक्षि ! अन्य साधारण मनुष्यों को भयभीत करती हुई तुम क्यों गरज रही हो? तुम्हारा यह व्यर्थ गर्जन सुनकर मैं भयभीत नहीं हो सकता ॥ १२-१३ ॥ हे सुलोचने ! स्त्री का वध करना पाप है तथा इससे जगत् में अपकीर्ति होती है — यह जानकर मेरा चित्त तुम्हें मारने से विचलित हो रहा है । हे सुन्दरि ! तुम जैसी स्त्रियों के कटाक्षों तथा हाव भावों से समर का कार्य सम्पन्न हो जाता है; कभी कहीं भी शस्त्रों द्वारा स्त्री का युद्ध नहीं हुआ है ॥ १४-१५ ॥ हे सुन्दरि ! तुम्हें तो पुष्प से भी युद्ध नहीं करना चाहिये, तब फिर तीक्ष्ण बाणों से युद्ध की बात ही क्या; क्योंकि तुम्हारी जैसी सुन्दरियों के शरीर में मालती की पंखुड़ी भी पीड़ा उत्पन्न कर सकती है ॥ १६ ॥ इस संसार में क्षात्रधर्मानुयायी लोगों के जन्म को धिक्कार है; क्योंकि वे बड़े प्यार से पाले गये अपने शरीर को भी तीक्ष्ण बाणों से छिदवाते हैं ! ॥ १७ ॥ तेल की मालि शसे, फूलों की हवा से तथा स्वादिष्ट भोजन आदि से पोषित इस प्रिय शरीर को शत्रुओं के बाणों से बिंधवाते हैं। तलवार की धार से अपना शरीर कटवाकर मनुष्य धनवान् होना चाहते हैं। ऐसे धन को धिक्कार है जो प्रारम्भ में ही दुःख देनेवाला होता है; तो बाद में क्या वह सुख देने वाला हो सकता है ? ॥ १८-१९ ॥ सुन्दरि ! तुम भी मूर्ख ही हो, तभी तो सम्भोगजन्य सुख को त्यागकर युद्ध की इच्छा कर रही हो । युद्ध में तुम कौन-सा लाभ समझ रही हो ? ॥ २० ॥ युद्ध में तलवारें चलती हैं, गदा का प्रहार होता है और बाणों से शरीर का बेधन किया जाता है । मृत्यु के अन्त में सियार अपने मुँह से नोच-नोचकर उस देह का संस्कार करते हैं ॥ २१ ॥ धूर्त कवियों ने उसी युद्ध की अत्यन्त प्रशंसा की है कि रणभूमि में मरने वालों को स्वर्ग प्राप्त होता है। उनका यह कहना केवल अर्थवादमात्र है ॥ २२ ॥ अतः हे वरारोहे ! तुम्हारा मन जहाँ लगे, वहाँ चली जाओ अथवा तुम देवताओं का दमन करने वाले मेरे स्वामी महाराज महिषासुर को स्वीकार कर लो ॥ २३ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार बोलते हुए उस दैत्य से भगवती जगदम्बा ने कहा — मूर्ख ! तुम अपने को बुद्धिमान् पण्डित के समान मानकर व्यर्थ क्यों बोल रहे हो ? तुम न तो नीतिशास्त्र जानते हो, न आन्वीक्षिकी विद्या ही जानते हो, तुमने कभी न वृद्धों की सेवा की है और न तो तुम्हारी बुद्धि ही धर्मपरायण है ॥ २४-२५ ॥ क्योंकि तुम मूर्ख की सेवामें लगे रहते हो, अत: तुम भी मूर्ख हो । जब तुम्हें राजधर्म ही ज्ञात नहीं, तब मेरे सामने क्यों व्यर्थ बकवाद कर रहे हो ? ॥ २६ ॥ संग्राम में महिषासुर का वध करके समरांगण को रुधिर से पंकमय बनाकर अपना यश स्तम्भ सुदृढ़ स्थापितकर मैं सुखपूर्वक चली जाऊँगी ॥ २७ ॥ देवताओं को दुःख देने वाले इस दुराचारी तथा मदोन्मत्त दानव को मैं अवश्य मार डालूंगी। तुम सावधान होकर युद्ध करो। हे मूर्ख ! यदि तुम्हें तथा महिषासुर को जीने की अभिलाषा हो तो सभी दानव पाताललोक को शीघ्र ही चले जायँ; अन्यथा यदि तुम लोगों के मन में मरने की इच्छा हो तो तुरंत युद्ध करो। यह मेरा संकल्प है कि मैं सभी दानवों को मार डालूँगी ॥ २८-३० ॥ व्यासजी बोले — देवी का वचन सुनकर बल के अभिमान से युक्त वह दैत्य उन पर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा, मानो दूसरे मेघ ही जल की धारा बरसा रहे हों ॥ ३१ ॥ तब भगवती ने अपने तीक्ष्ण बाणों द्वारा उसके सभी बाण काट डाले और विषधर सर्प के समान विषैले बाणों से उस पर प्रहार किया। उन दोनों में परस्पर विस्मयकारी युद्ध होने लगा। जगदम्बा ने अपने वाहन सिंह पर से ही उस दैत्य पर गदा से प्रहार किया ॥ ३२-३३ ॥ गदा से अत्यधिक आहत होने के कारण वह दुष्टात्मा दैत्य मूर्च्छित हो गया और दो मुहूर्त तक पाषाण की भाँति रथ पर ही पड़ा रहा ॥ ३४ ॥ इस प्रकार उसे मूर्च्छित देखकर शत्रुसेना को नष्ट कर डालने वाला ताम्र नामक दैत्य चण्डिका से लड़ने के लिये वेगपूर्वक रण में उपस्थित हो गया ॥ ३५ ॥ उसे आते देखकर भगवती चण्डिका उससे हँसती हुई बोलीं — अरे दानवश्रेष्ठ ! आओ-आओ, अभी तुम्हें यमलोक भेज देती हूँ ॥ ३६ ॥ निर्बल और समाप्त आयुवाले तुम लोगों के यहाँ आने से क्या लाभ? वह मूर्ख महिषासुर घर में रहकर अपने जीने का कौन-सा उपाय कर रहा है? देवताओं के शत्रु दुष्टात्मा तथा पापी महिषासुर का संहार किये बिना तुम मूर्खो को मारने से मुझे क्या लाभ होगा? इससे तो मेरा परिश्रम भी व्यर्थ हो जायगा, अतः तुमलोग घर पर जाकर महिषासुर को यहाँ भेज दो, जिससे वह मन्दबुद्धि भी मैं जिस रूप में स्थित हूँ, उसमें मुझको देख ले ॥ ३७-३९ ॥ भगवती का वचन सुनकर वह ताम्र कुपित हो धनुष को कान तक खींचकर उनपर बाणों की वर्षा करने लगा ॥ ४० ॥ देवताओं के शत्रु उस दैत्य को मारने की इच्छावाली ताम्राक्षी भगवती भी धनुष खींचकर उसके ऊपर वेगपूर्वक बाण छोड़ने लगीं ॥ ४१ ॥ इतने में बलवान् चिक्षुर भी मूर्च्छा त्यागकर उठ खड़ा हुआ और तुरंत धनुष तथा बाण लेकर देवी के सामने आकर खड़ा हो गया ॥ ४२ ॥ चिक्षुराख्य और ताम्र दोनों ही अत्यन्त उग्र बलवान् और महान् वीर थे। अब वे दोनों ही मिलकर भगवती जगदम्बा से रण में युद्ध करने लगे ॥ ४३ ॥ तब महामाया क्रोधित होकर बाणसमूहों की वर्षा करने लगीं, और उन्होंने अपने बाणों के प्रहार से सभी दानवों के कवच छिन्न-भिन्न कर दिये ॥ ४४ ॥ उन बाणों से आहत होकर सभी असुर क्रोध से व्याकुल हो गये तथा रोषपूर्वक देवी पर बाण समूह छोड़ने लगे। उस समय समस्त रणभूमि में भगवती के बाणों से घायल सभी राक्षस ऐसे सुशोभित होने लगे, जैसे वसन्त ऋतु में वन में किंशुक के लाल पुष्प दिखायी पड़ते हों ॥ ४५-४६ ॥ उस समरभूमि में ताम्र के साथ देवी का भीषण युद्ध होने लगा। इसे देखने वाले जो देवता आकाश में स्थित थे, वे आश्चर्यचकित हो गये ॥ ४७ ॥ उसी समय ताम्र ने लोहे का बना हुआ एक सुदृढ़ तथा भयंकर मूसल लेकर देवी के सिंह के सिर पर प्रहार किया और वह जोर से हँसने तथा गरजने लगा ॥ ४८ ॥ तब उसे गरजता हुआ देखकर भगवती क्रोधित हो गयीं और उन्होंने तुरंत अपनी तेज धारवाली तलवार से उसका मस्तक काट डाला ॥ ४९ ॥ सिर कट जाने पर भी वह मस्तकविहीन बलशाली ताम्र मूसल लिये हुए कुछ क्षण तक घूमता रहा, इसके बाद वह समरांगण में गिर पड़ा ॥ ५० ॥ ताम्र को गिरा हुआ देखकर महाबली चिक्षुराख्य खड्ग लेकर बड़े वेग से चण्डिका की ओर झपटा ॥ ५१ ॥ हाथ में तलवार लिये उस दानव को रण में अपनी ओर आते देखकर देवी ने भी तुरंत पाँच बाणों से उसपर प्रहार किया ॥ ५२ ॥ भगवती ने एक बाण से उसका खड्ग काट दिया, दूसरे से उसका हाथ काट दिया और अन्य बाणों से उसका मस्तक कण्ठ से अलग कर दिया ॥ ५३ ॥ इस प्रकार युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले उन दोनों क्रूर राक्षसों का वध हो गया, तब उन दोनों की सेना भयभीत होकर चारों दिशाओं में शीघ्रतापूर्वक भाग चली ॥ ५४ ॥ उन दोनों दानवों को रण में मारा गया देखकर आकाश में विराजमान सम्पूर्ण देवता आह्लादित हो गये और प्रसन्नतापूर्वक भगवती की जयध्वनि करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे । ऋषि, देवता, गन्धर्व, वेताल, सिद्ध और चारण — वे सब ‘देवी की जय, अम्बिका की जय’ ऐसा बार – बार बोलने लगे ॥ ५५-५६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘ताम्र एवं चिक्षुर का वधवर्णन’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ Content is available only for registered users. 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