April 23, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-16 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-षोडशोऽध्यायः सोलहवाँ अध्याय महिषासुर का रणभूमि में आना तथा देवी से प्रणय-याचना करना महिषद्वारा देवीप्रबोधनम् व्यासजी बोले — उन सैनिकों की बात सुनकर राजा महिष क्रोधित हो उठा और उसने सारथि से कहा —हजार गधों से जुते हुए, ध्वजा तथा पताकाओं से सुशोभित, अनेक प्रकार के आयुधों से परिपूर्ण, सुन्दर चक्कों तथा जुसे विभूषित तथा प्रकाशमान मेरा अद्भुत रथ तुरंत ले आओ ॥ १-२ ॥ सारथि ने भी तत्क्षण रथ लाकर उससे कहा — हे राजन् ! सुसज्जित करके रथ ला दिया गया; यह सुसज्जित होकर द्वार पर खड़ा है ॥ ३१/२ ॥ रथ के आने की बात सुनकर महाबली दानवराज महिष मनुष्य का रूप धारण करके युद्धभूमि में जाने को तैयार हुआ। उसने अपने मन में सोचा कि यदि मैं अपने महिषरूप में जाऊँगा तो देवी मुझ श्रृंगयुक्त महिष को देखकर अवश्य उदास हो जायगी। स्त्रियों को सुन्दर रूप और चातुर्य अत्यन्त प्रिय होता है। अतः आकर्षक रूप तथा चातुर्य से सम्पन्न होकर मैं उसके पास जाऊँगा, जिससे मुझे देखते ही वह युवती प्रेमयुक्त – मोहित हो जायगी। मुझे भी इसी स्थिति में सुख होगा, अन्य किसी स्वरूप से नहीं ॥ ४–७१/२ ॥ मन में ऐसा विचार करके महाबली वह दानवेन्द्र महिषरूप छोड़कर एक सुन्दर पुरुष बन गया। वह सभी प्रकार के आयुध को धारण किये हुए था, वह ऐश्वर्यसम्पन्न था, वह सुन्दर आभूषणों से अलंकृत था, उसने दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे। केयूर और हार पहने तथा हाथ में धनुष-बाण धारण किये रथ पर बैठा हुआ वह कान्तिमान् दैत्य दूसरे कामदेव के सदृश प्रतीत हो रहा था । मानिनी सुन्दरियों का भी मन हर लेने वाला ऐसा सुन्दर रूप बनाकर वह मदोन्मत्त दैत्य अपनी विशाल सेना के साथ देवी की ओर चला ॥ ८-११ ॥ अनेक वीरों से घिरे हुए उस दैत्यराज महिषासुर को आया हुआ देखकर देवी ने अपना शंख बजाया ॥ १२ ॥ लोगों को आश्चर्यचकित कर देने वाली उस शंखध्वनि को सुनकर भगवती के पास आकर वह दैत्य हँसता हुआ उनसे कहने लगा – ॥ १३ ॥ हे देवि ! इस परिवर्तनशील जगत् में रहने वाला व्यक्ति वह स्त्री अथवा पुरुष चाहे कोई भी हो, सब प्रकार से सुख ही चाहता है। इस लोक में सुख मनुष्यों को संयोग में ही प्राप्त होता है, वियोग में सुख होता ही नहीं। संयोग भी अनेक प्रकार का होता है। उन भेदों को बताता हूँ, सुनो। कहीं उत्तम प्रीति के कारण संयोग हो जाता है और कहीं स्वभावतः संयोग हो जाता है, इनमें सर्वप्रथम मैं प्रीति से उत्पन्न होने वाले संयोग के विषय में अपनी बुद्धि के अनुसार बता रहा हूँ ॥ १४–१६ ॥ माता-पिता का पुत्र के साथ होने वाला संयोग उत्तम कहा गया है। भाई का भाई के साथ संयोग किसी प्रयोजन से होता है, अतः वह मध्यम माना गया है। उत्तम सुख प्रदान करने के कारण पहले प्रकार के संयोग को उत्तम तथा उससे कम सुख प्रदान करने के कारण [दूसरे प्रकार के] संयोग को मध्यम कहा गया है ॥ १७-१८ ॥ विविध विचारों से युक्त चित्तवाले तथा प्रसंगवश एकत्रित नौका में बैठे हुए लोगों के मिलने को विद्वानों ने स्वाभाविक संयोग कहा है। बहुत कम समय के लिये सुख प्रदान करने के कारण विद्वानों के द्वारा इसे कनिष्ठ संयोग कहा गया है॥ १९१/२ ॥ अत्युत्तम संयोग संसार में सदा सुखदायक होता है । हे कान्ते ! समान अवस्था वाले स्त्री-पुरुष का जो संयोग है, वही अत्युत्तम कहा गया है । अत्युत्तम सुख प्रदान करने के कारण ही उसे उस प्रकार का संयोग कहा गया है। चातुर्य, रूप, वेष, कुल, शील, गुण आदि में समानता रहने पर परस्पर सुख की अभिवद्धि कही जाती है ॥ २०-२२१/२ ॥ यदि तुम मुझ वी रके साथ संयोग करोगी तो तुम्हें अत्युत्तम सुख की प्राप्ति होगी, इसमें सन्देह नहीं है। हे प्रिये ! मैं अपनी रुचि के अनुसार अनेक प्रकार के रूप धारण कर लेता हूँ। मैंने इन्द्र आदि सभी देवताओं को संग्राम में जीत लिया है। मेरे भवन में इस समय जो भी दिव्य रत्न हैं, उन सबका तुम उपभोग करो; अथवा इच्छानुसार उसका दान करो। अब तुम मेरी पटरानी बन जाओ । हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारा दास हूँ ॥ २३-२६ ॥ तुम्हारे कहने से मैं देवताओं से वैर करना भी छोड़ दूँगा; इसमें सन्देह नही है । तुम्हें जैसे भी सुख मिलेगा, मैं वही करूँगा । हे विशालनयने ! अब तुम मुझे आज्ञा दो और मैं उसका पालन करूँ। हे मधुरभाषिणि! मेरा मन तुम्हारे रूप पर मोहित हो गया है ॥ २७-२८ ॥ हे सुन्दरि ! मैं [तुम्हें पाने के लिये ] व्याकुल हूँ, इसलिये इस समय तुम्हारी शरण में आया हूँ । हे रम्भोरु ! कामबाण से आहत मुझ शरणागत की रक्षा करो। शरण में आये हुए की रक्षा करना सभी धर्मों में उत्तम धर्म है। श्याम नेत्रोंवाली हे कृशोदरि ! मैं तुम्हारा सेवक हूँ। मैं मरणपर्यन्त सत्य वचन का पालन करूँगा, इसके विपरीत नहीं करूँगा । हे तन्वंगि ! नानाविध आयुधों को त्यागकर मैं तुम्हारे चरणों में अवनत हूँ ॥ २९-३१ ॥ हे विशालाक्षि ! मैं कामदेव के बाणों द्वारा सन्तप्त हो रहा हूँ, अतः तुम मेरे ऊपर दया करो। हे सुन्दरि ! जन्म से लेकर आज तक मैंने ब्रह्मा आदि देवताओं के समक्ष भी दीनता नहीं प्रदर्शित की, किंतु तुम्हारे समक्ष आज उसे प्रकट कर रहा हूँ । ब्रह्मा आदि देवता समरांगण में मेरे चरित्र को जानते हैं । हे भामिनि ! वही मैं आज तुम्हारी दासता स्वीकार करता हूँ, मेरी ओर देखो ॥ ३२-३३१/२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहते हुए उस दैत्य महिषासुर से हँसकर अनुपम सौन्दर्यमयी भगवती मुसकान के साथ यह वचन कहने लगीं ॥ ३४१/२ ॥ देवी बोलीं — मैं परमपुरुष के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष को नहीं चाहती। हे दैत्य ! मैं उनकी इच्छाशक्ति हूँ, मैं ही सारे संसार की सृष्टि करती हूँ। वे विश्वात्मा मुझे देख रहे हैं; मैं उनकी कल्याणमयी प्रकृति हूँ । निरन्तर उनके सांनिध्य के कारण ही मुझमें शाश्वत चेतना है । वैसे तो मैं जड़ हूँ, किंतु उन्हीं के संयोग से मैं चेतनायुक्त हो जाती हूँ जैसे चुम्बक के संयोग से साधारण लोहे में भी चेतना उत्पन्न हो जाती है ॥ ३५-३७१/२ ॥ मेरे मन में कभी भी विषयभोग की इच्छा नहीं होती। हे मन्दबुद्धि ! तुम मूर्ख हो जो कि स्त्री संग करना चाहते हो; पुरुष को बाँधने के लिये स्त्री जंजीर कही गयी है। लोहे से बँधा हुआ मनुष्य बन्धनमुक्त हो भी सकता है, किंतु स्त्री के बन्धन में बँधा हुआ प्राणी कभी नहीं छूटता। हे मूर्ख ! मूत्रागार (गुह्य अंग ) — का सेवन क्यों करना चाहते हो ? सुख के लिये मन में शान्ति धारण करो । शान्ति से ही तुम सुख प्राप्त कर सकोगे। स्त्रीसंग से बहुत दुःख मिलता है — इस बात को जानते हुए भी तुम अज्ञानी क्यों बनते हो ? ॥ ३८-४१ ॥ तुम देवताओं के साथ वैरभाव छोड़ दो और पृथ्वी पर इच्छानुसार विचरण करो। यदि जीवित रहने की तुम्हारी अभिलाषा हो तो पाताललोक चले जाओ अथवा मेरे साथ युद्ध करो। इस समय मुझमें पूर्ण शक्ति विद्यमान है। हे दानव ! सभी देवताओं ने तुम्हारा नाश करने के लिये मुझे यहाँ भेजा है ॥ ४२-४३ ॥ मैं तुमसे यह सत्य कह रही हूँ, तुमने वाणी द्वारा सौहार्दपूर्ण भाव प्रदर्शित किया है, अतः मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ । अब तुम जीवित रहते ही सुखपूर्वक यहाँ से चले जाओ । केवल सात पग साथ चलने पर ही सज्जनों में मैत्री हो जाती है, इसी कारण मैं तुम्हें जीवित छोड़ दे रही हूँ । हे वीर! यदि मरने की ही इच्छा हो तो तुम मेरे साथ आनन्दसे युद्ध कर सकते हो। हे महाबाहो ! मैं तुम्हें युद्ध में मार डालूँगी; इसमें संशय नहीं है ॥ ४४-४५१/२ ॥ व्यासजी बोले — भगवती का यह वचन सुनकर काम से मोहित दानव [पुनः ] मधुर वाणी में मीठी बातें करने लगा — हे सुन्दरि ! हे सुमुखि ! कोमल, सुन्दर अंगोंवाली तथा पुरुषों को मोह लेने वाली तुझ युवती के ऊपर प्रहार करने में मुझे भय लगता है। हे कमललोचने ! विष्णु, शिव आदि बड़े-बड़े देवताओं और सब लोकपालों पर विजय प्राप्त करके क्या अब तुम्हारे साथ मेरा युद्ध करना उचित होगा ? ॥ ४६–४८१/२ ॥ हे सुन्दर अंगोंवाली ! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ विवाह कर लो और मेरा सेवन करो; अन्यथा तुम जहाँ से आयी हो, उसी देश में इच्छानुसार चली जाओ। मैं तुम्हारे साथ मित्रता कर चुका हूँ, इसलिये तुम पर प्रहार नहीं करूँगा। यह मैंने तुम्हारे लिये हितकर तथा कल्याणकारी बात बतायी है; इसलिये तुम सुखपूर्वक यहाँ से चली जाओ । सुन्दर नेत्रोंवाली तुझ रमणी का वध करने से मेरी कौन-सी गरिमा बढ़ जायगी ? स्त्रीहत्या, बालहत्या और ब्रह्महत्या का पाप बहुत ही जघन्य होता है ॥ ४९–५११/२ ॥ हे वरानने! वैसे तो मैं तुम्हें बलपूर्वक पकड़कर अपने घर निश्चितरूप से ले जा सकता हूँ, किंतु बलप्रयोग से मुझे सच्चा सुख नहीं मिलेगा, उसमें भोगसुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अतएव हे सुकेशि ! मैं बहुत विनीतभाव से तुमसे कह रहा हूँ कि जैसे पुरुष को अपनी प्रिया के मुखकमल के बिना सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार स्त्रियों को भी पुरुष के बिना सुख नहीं मिलता ॥ ५२-५४ ॥ संयोग में सुख उत्पन्न होता है और वियोग में दुःख । तुम सुन्दर, रूपवती और सभी आभूषणों से अलंकृत हो । [ यह सब होते हुये भी] तुझमें चतुरता क्यों नहीं है, जिससे तुम मुझे स्वीकार नहीं कर रही हो? इस तरह भोगों को छोड़ देने का परामर्श तुम्हें किसने दिया है ? हे मधुरभाषिणि! [ ऐसा करके] किसी शत्रु ने तुम्हें धोखा दिया है ॥ ५५-५६१/२ ॥ हे कान्ते ! अब तुम यह आग्रह छोड़ दो और अत्यन्त सुन्दर कार्य करने में तत्पर हो जाओ। विवाह सम्पन्न हो जाने पर तुम्हें और मुझे दोनों को सुख प्राप्त होगा । विष्णु लक्ष्मी साथ, ब्रह्मा सावित्री के साथ, शंकर पार्वती के साथ तथा इन्द्र शची के साथ रहकर ही सुशोभित होते हैं। पति के बिना कौन स्त्री चिरस्थायी सुख प्राप्त कर सकती है ? हे सुन्दरि ! [ कौन सा ऐसा कारण है ] जिससे तुम मुझ जैसे उत्तम पुरुष को अपना पति नहीं बना रही हो ? ॥ ५७–५९१/२ ॥ हे कान्ते ! न जाने मन्दबुद्धि कामदेव इस समय कहाँ चला गया जो अपने अत्यन्त कोमल तथा मादक पंचबाणों से तुम्हें आहत नहीं कर रहा है। हे सुन्दरि ! मुझे तो लगता है कि कामदेव भी तुम्हारे ऊपर दयालु हो गया है और तुम्हें अबला समझते हुए वह अपने बाण नहीं छोड़ रहा है। हे तिरछी चितवनवाली सुन्दरि ! सम्भव है उस कामदेव को भी मेरे साथ कुछ शत्रुता हो, इसीलिये वह तुम्हारे ऊपर बाण न चलाता हो। अथवा यह भी हो सकता है कि मेरे सुख का नाश करने वाले मेरे शत्रु देवताओं ने उस कामदेव को मना कर दिया हो, इसीलिये वह तुम्हारे ऊपर [ अपने बाणों से ] प्रहार नहीं कर रहा है ॥ ६०-६३१/२ ॥ हे मृगशावक के समान नेत्रोंवाली ! मुझे त्यागकर तुम मन्दोदरी की भाँति पश्चात्ताप करोगी, हे तन्वंगि! पतिरूप में प्राप्त सुन्दर तथा अनुकूल राजा का त्याग करके बाद में वह मन्दोदरी जब कामार्त तथा मोह से व्याकुल अन्तःकरण वाली हो गयी, तब उसने एक धूर्त को अपना पति बना लिया था ॥ ६४-६५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘महिषासुर द्वारा देवीप्रबोधन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ Content is available only for registered users. 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