श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-18
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः
अठारहवाँ अध्याय
दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुर का वध
महिषासुरवधः

महिष बोला — उस मन्दोदरी की इन्दुमती नाम की एक छोटी बहन थी, जो समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा अत्यन्त रूपवती थी। जब वह विवाह के योग्य हुई, तब उसके विवाह की तैयारी होने लगी। उसका स्वयंवर रचाया गया, स्वयंवर के मण्डप में अनेक देशों के राजा एकत्रित हुए ॥ १-२ ॥ इन्दुमती ने उनमें से एक कुलीन, बलशाली, रूपवान्, शीलवान् तथा समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न राजा का वरण कर लिया ॥ ३ ॥

उसी समय वह मन्दोदरी दैवयोग से एक धूर्त, शठ तथा चातुर्यसम्पन्न राजा को देखकर कामातुर हो उठी और उस पर मोहित हो गयी ॥ ४ ॥

उस कोमलांगी ने अपने पिता से कहा — हे पिताजी ! अब आप मेरा भी विवाह कर दीजिये । मद्रदेश के राजा को यहाँ देखकर अब मेरी भी विवाह करने की इच्छा हो गयी है ॥ ५ ॥

पुत्री ने एकान्त में अपने पिता से जो कुछ कहा था, उसे सुनकर राजा चन्द्रसेन प्रसन्नमन से उसके भी विवाहकार्य की व्यवस्था में संलग्न हो गये ॥ ६ ॥ तत्पश्चात् मद्रदेश के उन राजा को अपने घर बुलाकर उन्होंने वैवाहिक विधि के अनुसार उन्हें अपनी कन्या मन्दोदरी सौंप दी और बहुत-सा वैवाहिक उपहार प्रदान किया ॥ ७ ॥ मद्रनरेश चारुदेष्ण भी उस सुन्दरी को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और सन्तुष्ट होकर स्त्री के साथ अपने घर चला गया ॥ ८ ॥ राजाओं में श्रेष्ठ वह चारुदेष्ण बहुत दिनों तक उस कामिनी के साथ रमण करता रहा। एक दिन वह किसी दासी के साथ एकान्त में रमण कर रहा था। सैरन्ध्री ने यह बात मन्दोदरी को बता दी और उसने स्वयं जाकर पति को [उस स्थिति में] देख लिया। तब उसने मुसकराकर क्रोध के साथ राजा को बहुत उपालम्भ दिया ॥ ९-१० ॥ इसके बाद पुनः किसी दिन मन्दोदरी ने राजा को एक रूपवती दासी के साथ एकान्त में क्रीड़ाविहार करते हुए देख लिया । [ यह देखकर ] उस समय उसे महान् कष्ट हुआ ॥ ११ ॥

वह सोचने लगी कि जब मैंने इसे स्वयंवर में देखा था, तब मैं इस शठ के विषय में ऐसा नहीं समझ पायी थी । मैंने मोहवश यह क्या कर डाला? इस राजा ने तो मुझे ठग लिया ॥ १२ ॥ अब मैं क्या करूँ; केवल सन्ताप ही मिला। ऐसे निर्लज्ज, निर्दयी और धूर्त पति के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है! अब मेरे जीवन को धिक्कार है ॥ १३ ॥ आज से मैं संसार में पति के साथ सहवास से प्राप्त होने वाले सारे सुख का त्याग कर रही हूँ; अब मैंने सन्तोष कर लिया ॥ १४ ॥ मैंने वह काम कर डाला, जिसे मुझे नहीं करना चाहिये था, इसीलिये वह मेरे लिये कष्टदायक सिद्ध हुआ । अब यदि मैं देहत्याग करती हूँ तो वह दुस्तर आत्महत्या के समान होगा। यदि पिता के घर चली जाऊँ तो वहाँ भी सुख नहीं मिलेगा और वहाँ पर मैं अपनी सखियों की हँसी का पात्र बनी रहूँगी; इसमें कोई संशय नहीं है। अतः वैराग्ययुक्त होकर भोगविलास के सुख का परित्याग करके कालयोग से मुझे यहीं पर निवास करना चाहिये ॥ १५–१७ ॥

महिष बोला — ऐसा विचार करके वह नारी सांसारिक सुख का परित्याग करके दुःख तथा शोक सन्तप्त रहती हुई अपने पति के घर पर ही रह गयी ॥ १८ ॥ अतः हे कल्याणि ! उसी प्रकार तुम भी मुझ राजा पति का अनादर करके पुनः कामातुर होने पर किसी अन्य मूर्ख तथा कायर पुरुष का आश्रय ग्रहण करोगी ॥ १९ ॥ अतः स्त्रियों के लिये परम हितकारी तथा सच्ची मेरी यह बात मान लो । इसे न मानकर तुम बहुत कष्ट उठाओगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २० ॥

देवी बोलीं — हे मन्दबुद्धि ! अब तुम पाताललोक भाग जाओ अथवा मेरे साथ युद्ध करो। मैं तुम्हें तथा सभी असुरों को मारकर सुखपूर्वक यहाँ से चली जाऊँगी ॥ २१ ॥ हे दानव ! जब-जब साधु पुरुषों पर संकट आता है, तब-तब उनकी रक्षा के लिये मैं देह धारण करती हूँ ॥ २२ ॥ हे दैत्य! वास्तव में मैं निराकार और अजन्मा हूँ, तथापि देवताओं की रक्षा करने के लिये रूप और जन्म धारण करती हूँ; यह तुम निश्चित समझ लो ॥ २३ ॥ मैं सत्य कहती हूँ कि देवताओं ने तुम्हारा वध करने के लिये मुझसे प्रार्थना की थी। हे महिष! तुझे मारकर मैं सर्वथा निश्चिन्त हो जाऊँगी ॥ २४ ॥ अतएव अब तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा असुरों की निवासभूमि पाताललोक को चले जाओ। अब मैं तुम्हें निश्चय ही मार डालूंगी, मैं यह बिलकुल सच कह रही हूँ ॥ २५ ॥

व्यासजी बोले — देवी के ऐसा कहनेपर महिषासुर धनुष लेकर युद्ध करने की इच्छा से संग्रामभूमि में डट गया ॥ २६ ॥ वह पत्थर पर घिसकर नुकीले बनाये गये बाणों को कान तक खींचकर बड़े वेग से छोड़ने लगा। तब भगवती ने कुपित होकर अपने लौहमुख बाणों से उसके बाणों को काट डाला ॥ २७ ॥ अब देवी और दानव महिष में भीषण संग्राम होने लगा। वह युद्ध अपनी-अपनी विजय चाहने वाले देवताओं और दानवों के लिये बड़ा भयदायक था ॥ २८ ॥ उसी समय दुर्धर नामक दैत्य बीच में आकर भगवती को कुपित करता हुआ उनपर अतिशय दारुण और विषैले बाणों की वर्षा करने लगा ॥ २९ ॥ तब भगवती ने क्रोधित होकर उसपर तीक्ष्ण बाणों के द्वारा प्रहार किया, जिससे दुर्धर प्राणहीन होकर पर्वतशिखर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ ३० ॥ दुर्धर को मृत देखकर शस्त्रों का महान् ज्ञाता त्रिनेत्र रणभूमिमें आकर सात बाणों से भगवती परमेश्वरी पर आघात करने लगा ॥ ३१ ॥ वे बाण देवी के पास पहुँच भी नहीं पाये थे कि बीच ही में उन्होंने अपने बाणों से उन बाणों को काट दिया। तत्पश्चात् जगदम्बा ने अपने त्रिशूल से त्रिनेत्र को मार डाला ॥ ३२ ॥

तब त्रिनेत्र को मारा गया देखकर तुरंत अन्धक आ गया और उसने अपनी लौहमयी गदा से सिंह के मस्तक पर प्रहार कर दिया, किंतु सिंह क्रोध में भरकर अपने तीक्ष्ण नखों के प्रहार से उस महान् बलशाली दानव का वध करके उसका मांस खाने लगा ॥ ३३-३४ ॥ उन्हें रण में मारा गया देखकर महिषासुर को बहुत आश्चर्य हुआ । अतएव वह और भी वेग के साथ अति तीक्ष्ण और पत्थर की सान पर चढ़ाकर तीक्ष्ण किये हुए बाणों को छोड़ने लगा ॥ ३५ ॥ किंतु भगवती ने उन बाणों को अपने पास पहुँचने के पहले ही अपने बाणों से काटकर उनके दो टुकड़े कर दिये । इसी समय जगदम्बा ने महिषासुर के वक्ष पर अपनी गदा से आघात किया ॥ ३६ ॥ देवताओं को दुःख देने वाला महिष गदा से घायल होकर मूर्च्छित हो गया। किंतु उस वेदना को सहन करके वह पापी उठ खड़ा हुआ और पुनः तुरंत आकर उसने कोपाविष्ट होकर अपनी गदा से सिंह के मस्तक पर प्रहार कर दिया। तब सिंह भी नखों के आघात से उस महान् असुर को विदीर्ण करने लगा ॥ ३७-३८ ॥ तब महिषासुर ने मानवरूप त्यागकर सिंह का रूप धारण कर लिया और वह अपने नखों से भगवती के मतवाले सिंह को चीरने लगा ॥ ३९ ॥

उसे सिंहरूप में देखकर भगवती क्रोधित हो उठीं और अपने लौहमुख, तीक्ष्ण, क्रूर एवं सर्पसदृश बाणों से उसे बींधने लगीं ॥ ४० ॥ तदनन्तर सिंहरूप त्यागकर महिषासुर ने मद बहाते हुए हाथी का रूप धारण करके अपनी सूँड़ से एक विशाल शैलशिखर उठाकर चण्डिका पर फेंका ॥ ४१ ॥ उस पर्वतशिखर को आते देखकर भगवती जगदम्बा ने पत्थर पर घिसकर तेज किये गये बाणों से उसे तिल-तिल करके काट डाला और वे बड़ी जोर से अट्टहास करने लगीं ॥ ४२ ॥ उस समय देवी का सिंह उछलकर उसके मस्तक पर चढ़ बैठा और अपने तीक्ष्ण नखों से उस गजरूपधारी महिष को विदीर्ण करने लगा ॥ ४३ ॥ अब महिष ने क्रोधपूर्वक उस सिंह को मारने के विचार से हाथी का रूप त्यागकर अत्यन्त भीषण और बलवान् आठ पैरोंवाले शरभ का रूप धारण कर लिया ॥ ४४ ॥ उस शरभ को देखकर जगदम्बा ने अतिशय क्रोध में भरकर उसके मस्तक पर खड्ग से आघात किया । तब उसने भी भगवती पर प्रहार किया ॥ ४५ ॥ अब उन दोनों में महाभयंकर युद्ध होने लगा। उसी समय उसने महिषरूप धारण करके अपनी सींगों से देवी के ऊपर आघात किया ॥ ४६ ॥ विकराल रूपवाला तथा भयानक वह महान् असुर अपनी पूँछ के घुमाने तथा सींगों से कोमल अंगोंवाली देवी पर प्रहार करने लगा ॥ ४७ ॥ वह पापी अपनी पूँछ से पर्वतों को सींग पर रखकर बड़े वेग से घुमाता हुआ हँसकर अति प्रसन्नतापूर्वक भगवती के ऊपर फेंकने लगा ॥ ४८ ॥

बल से उन्मत्त उस दानव ने भगवती से कहा — हे देवि ! ठहरो । रूप और यौवन से सम्पन्न तुमको मैं आज मार डालूँगा ॥ ४९ ॥ तुम मूर्ख हो जो कि मदमत्त हो मेरे साथ युद्ध कर रही हो। तुम अज्ञानवश अपने को व्यर्थ ही बलवती समझकर मुखर हो रही हो ॥ ५० ॥ तुम्हें मारनेके बाद मैं उन सब कपटपण्डित देवताओंको मार डालूँगा, जो शठ देवतागण एक स्त्रीको आगे करके मुझे जीतना चाहते हैं ॥ ५१ ॥

देवी बोलीं —अरे मूर्ख ! व्यर्थ अभिमान मत करो, रणभूमि में ठहर जाओ, ठहर जाओ। तुम्हें मारकर मैं देवताओं को निर्भय बना दूँगी ॥ ५२ ॥ अरे अधम ! मैं अभी मधुर मद्य पीकर देवताओं के लिये दुःखदायी और मुनियों को भयभीत करने वाले तुझ पापी को रण में काट डालूँगी ॥ ५३ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा कहकर क्रोधपूर्वक उस दैत्य को मार डालने के विचार से भगवती मद्यपूर्ण सोने का पात्र लेकर बारम्बार उसे पीने लगीं ॥ ५४ ॥ उस मीठे द्राक्षारस को पीकर भगवती बड़े वेग से अपना त्रिशूल उठाकर देवताओं को हर्षित करती हुई उस दानव पर झपटीं ॥ ५५ ॥ उस समय देवता प्रेमपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे और पुष्पवर्षा करने लगे। वे दुन्दुभियों की ध्वनि के साथ देवी की जय हो – ऐसा बार-बार कहने लगे ॥ ५६ ॥ सभी ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व, पिशाच, नाग, चारण और किन्नरगण आकाशमण्डल में स्थित होकर उस युद्ध को देखकर आनन्दित हो रहे थे ॥ ५७ ॥ कपटकार्य में प्रवीण वह महिषासुर रणभूमि में बार- बार विविध प्रकार के मायामय शरीर धारण करके भगवती पर प्रहार करने लगा ॥ ५८ ॥ तब क्रोध से लाल नेत्र करके चण्डिका ने अपने तीक्ष्ण त्रिशूल से उस पापी के हृदयदेश पर बलपूर्वक आघात किया ॥ ५९ ॥ उससे आहत होकर महिषासुर भूमि पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया, किंतु मुहूर्तभर बाद पुनः उठकर अपने पैरों से वेगपूर्वक देवी चामुण्डा को मारने लगा। इस प्रकार पदप्रहारों से देवी को चोट पहुँचाकर वह बारम्बार हँसने लगा और देवताओं को भयभीत कर देने वाली भीषण ध्वनि करके चिल्लाने लगा ॥ ६०-६१ ॥

तदनन्तर भगवती ने हजार अरों और सुन्दर नाभिवाला एक उत्कृष्ट चक्र हाथ में लेकर अपने समक्ष खड़े महिषासुर से उच्च स्वर में कहा — अरे मदान्ध ! तुम्हारे गले को काट डालने वाले इस चक्र की ओर देखो। तनिक देर और ठहरकर अब तुम यमलोक के लिये प्रस्थान कर दो ॥ ६२-६३ ॥

ऐसा कहकर जगदम्बा ने युद्धभूमि में उस दारुण चक्र को चला दिया। तब चक्र से उस दानव का सिर कट गया। उस समय उसके कण्ठ की नली से इस प्रकार उष्ण रक्त बहने लगा, जैसे गेरु आदि से युक्त लाल पानी का झरना बड़े वेग के साथ पर्वत से गिर रहा हो। [मस्तक कट जानेपर ] उस दानव का धड़ घूमता हुआ भूमि पर गिर पड़ा। उस समय देवताओं के [मुख से] सुख की वृद्धि करने वाला विजयघोष होने लगा ॥ ६४-६६ ॥ अब भगवती का महाबली सिंह मानो भूख से व्याकुल होकर रणभूमि में भागते हुए दानवों को खाने लगा ॥ ६७ ॥ हे नृप ! क्रूर महिषासुर के मर जाने पर जो कोई दानव मरने से शेष बच गये थे, वे भय से सन्त्रस्त होकर पाताल चले गये ॥ ६८ ॥ उसके मर जाने पर भूमण्डलपर जो भी देवता, मुनिगण, मनुष्य और साधुजन थे, वे परम आनन्दित हो गये ॥ ६९ ॥

भगवती चण्डिका भी रणभूमि छोड़कर एक पवित्र स्थान में विराजमान हो गयीं। देवता भी उन सुख प्रदान करने वाली भगवती की स्तुति करने की इच्छा से शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे ॥ ७० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘महिषासुरवध’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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