श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-07
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ षष्ठोऽध्यायः
सातवाँ अध्याय
ब्रह्माजी का भगवान् विष्णु तथा भगवती योगनिद्रा की स्तुति करना
विष्णुप्रबोधः

॥ सूत उवाच ॥
तौ वीक्ष्य बलिनौ ब्रह्मा तदोपायानचिन्तयत् ।
सामदानभिदादींश्च युद्धान्तान्सर्वतन्त्रवित् ॥ १ ॥
न जानेऽहं बलं नूनमेतयोर्वा यथातथम् ।
अज्ञाते तु बले कामं नैव युद्धं प्रशस्यते ॥ २ ॥
स्तुतिं करोमि चेदद्य दुष्टयोर्मदमत्तयोः ।
प्रकाशितं भवेन्नूनं निर्बलत्वं मया स्वयम् ॥ ३ ॥
वधिष्यति तदैकोऽपि निर्बलत्वे प्रकाशिते ।
दानं नैवाद्य योग्यं वा भेदः कार्यो मया कथम् ॥ ४ ॥
विष्णुं प्रबोधयाम्यद्य शेषे सुप्तं जनार्दनम् ।
चतुर्भुजं महावीर्यं दुःखहा स भविष्यति ॥ ५ ॥
इति सञ्चिन्त्य मनसा पद्मनालगतोऽब्जजः ।
जगाम शरणं विष्णुं मनसा दुःखनाशकम् ॥ ६ ॥
तुष्टाव बोधनार्थं तं शुभैः सम्बोधनैर्हरिम् ।
नारायणं जगन्नाथं निस्पन्दं योगनिद्रया ॥ ७ ॥

सूतजी बोले — तदनन्तर उन दोनों वीरों को देखकर सर्वशास्त्रवेत्ता ब्रह्माजी साम, दान, भेद आदि नीतियों के माध्यम से युद्धकी समाप्ति के उपायों को सोचने लगे ॥ १ ॥

इनके वास्तविक बल का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। नीति के अनुसार जिसके बल की जानकारी न हो, उसके साथ युद्ध करना कदापि उचित नहीं होता ॥ २ ॥ यदि मैं इस समय इन मदोन्मत्त दुष्ट दानवों की स्तुति करता हूँ तो इससे स्वयं मेरे द्वारा अपनी निर्बलता प्रकाशित होगी। निर्बलता प्रदर्शित करने पर इनमें से कोई एक ही मेरा वध कर देगा। इनके साथ इस समय मैं न तो दाननीति और न तो भेदनीति को ही उपयुक्त समझ रहा हूँ । अतः इस समय उचित यही है कि मैं शेषनाग पर सोये हुए चतुर्भुज एवं पराक्रमी भगवान् विष्णु को जगाऊँ। वे मेरी विपत्ति अवश्य ही दूर करेंगे ॥ ३-५ ॥

मन में ऐसा सोचकर कमलनाल का आश्रय लेकर पद्मयोनि ब्रह्माजी मन-ही-मन दुःखनाशक विष्णु के शरणागत हो गये ॥ ६ ॥ वे शुभ सम्बोधनों द्वारा योगनिद्रा के कारण स्पन्दनरहित उन नारायण जगत्पति भगवान् विष्णु को जगाने के लिये उनकी स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥
दीननाथ हरे विष्णो वामनोत्तिष्ठ माधव ।
भक्तार्तिहृद्धृषीकेश सर्वावास जगत्पते ॥ ८ ॥
अन्तर्यामिन्नमेयात्मन्वासुदेव जगत्पते ।
दुष्टारिनाशनैकाग्रचित्त चक्रगदाधर ॥ ९ ॥
सर्वज्ञ सर्वलोकेश सर्वशक्तिसमन्वित ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ देवेश दुःखनाशन पाहि माम् ॥ १० ॥
विश्वम्भर विशालाक्ष पुण्यश्रवणकीर्तन ।
जगद्योने निराकार सर्गस्थित्यन्तकारक ॥ ११ ॥
इमौ दैत्यौ महाराज हन्तुकामौ मदोद्धतौ ।
न जानास्यखिलाधार कथं मां सङ्कटे गतम् ॥ १२ ॥
उपेक्षसेऽतिदुःखार्तं यदि मां शरणं गतम् ।
पालकत्वं महाविष्णो निराधारं भवेत्ततः ॥ १३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे दीनानाथ ! हे हरे ! हे विष्णो! हे वामन ! हे माधव ! भक्तों की पीड़ा हरने वाले हे हृषीकेश ! हे सर्वव्यापिन् ! हे जगत्पते! हे अनन्तस्वरूप ! हे वासुदेव ! हे अन्तर्यामिन्! हे जगत् के स्वामी! हे दुष्टों तथा शत्रुओं का संहार करने में एकाग्र चित्तवाले! हे चक्रधर! हे गदाधर ! हे सर्वज्ञ! हे सर्वलोकेश ! हे सर्वशक्तिसम्पन्न! हे देवेश ! हे दुःखनाशन! अब आप उठिये, उठिये और मेरी रक्षा कीजिये ॥ ८-१० ॥ हे विश्वम्भर ! हे विशालाक्ष ! हे पुण्यश्रवणकीर्तन ! हे जगत्स्रष्टा ! हे निराकार ! हे सृष्टि पालन-संहार के कारक ! हे महाराज ! ये दोनों मदोन्मत्त दानव मेरा वध करना चाहते हैं। हे सर्वाधार ! मैं इस समय संकटग्रस्त हूँ; क्या आप यह नहीं जानते ? ॥ ११-१२ ॥ हे महाविष्णो! मैं इस समय दुःख से अत्यधिक पीड़ित हूँ और आपके शरणागत हूँ। ऐसी स्थिति में यदि आप मेरी उपेक्षा करेंगे तो आपका जगत् पालन का नियम निरर्थक हो जायगा ॥ १३ ॥

एवं स्तुतोऽपि भगवान् न बुबोध यदा हरिः ।
योगनिद्रासमाक्रान्तस्तदा ब्रह्मा ह्यचिन्तयत् ॥ १४ ॥
नूनं शक्तिसमाक्रान्तो विष्णुर्निद्रावशं गतः ।
जजागार न धर्मात्मा किं करोम्यद्य दुःखितः ॥ १५ ॥
हन्तुकामावुभौ प्राप्तौ दानवौ मदगर्वितौ ।
किं करोमि क्व गच्छामि नास्ति मे शरणं क्वचित् ॥ १६ ॥

इस प्रकार स्तुति करने पर भी जब योगनिद्रा में लीन भगवान् विष्णु नहीं जगे, तब ब्रह्माजी ने विचार किया कि भगवान् विष्णु अवश्य ही शक्ति के अधीन होकर योगनिद्रा के वश में हो गये हैं, जिससे ये धर्मात्मा नहीं जग रहे हैं। अब दुःख से पीड़ित मैं इस समय क्या करूँ ? अहंकार के मद में चूर वे दोनों दानव मुझे मारने के उद्देश्य से यहाँ आ गये हैं। अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? अब तो मुझे शरण देने वाला कोई भी नहीं है ॥ १४- १६ ॥

इति संचिन्त्य मनसा निश्चयं प्रतिपद्य च ।
तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः ॥ १७ ॥
विचार्य मनसाप्येवं शक्तिर्मे रक्षणे क्षमा ।
यया ह्यचेतनो विष्णुः कृतोऽस्ति स्पन्दवर्जितः ॥ १८ ॥
व्यसुर्यथा न जानाति गुणाच्छब्दादिकानिह ।
तथा हरिर्न जानाति निद्रामीलितलोचनः ॥ १९ ॥
न जहाति यतो निद्रां बहुधा संस्तुतोऽप्यसौ ।
मन्ये नास्य वशे निद्रा निद्रयायं वशीकृतः ॥ २० ॥
यो यस्य वशमापन्तः स तस्य किङ्करः किल ।
तस्माच्च योगनिद्रेयं स्वामिनी मापतेर्हरेः ॥ २१ ॥
सिन्धुजाया अपि वशे यया स्वामी वशीकृतः ।
नूनं जगदिदं सर्वं भगवत्या वशीकृतम् ॥ २२ ॥
अहं विष्णुस्तथा शम्भुः सावित्री च रमाप्युमा ।
सर्वे वयं वशे यस्या नात्र किञ्चिद्विचारणा ॥ २३ ॥
हरिरप्यवशः शेते यथान्यः प्राकृतो जनः ।
ययाभिभूतः का वार्ता किलान्येषां महात्मनाम् ॥ २४ ॥
स्तौम्यद्य योगनिद्रां वै यया मुक्तो जनार्दनः ।
घटयिष्यति युद्धे च वासुदेवः सनातनः ॥ २५ ॥
इति कृत्वा मतिं ब्रह्मा पद्मनालस्थितस्तदा ।
तुष्टाव योगनिद्रां तां विष्णोरङ्गेषु संस्थिताम् ॥ २६ ॥

इस प्रकार मन-ही-मन सोचते हुए वे एक निष्कर्ष पर पहुँचकर एकाग्रचित्त हो उन भगवती योगनिद्रा की स्तुति करने लगे ॥ १७ ॥ उन्होंने अपने मन में यह दृढ विचार रख लिया कि वे ही महाशक्ति मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं; जिन्होंने भगवान् विष्णु को भी चेतनाहीन तथा निःस्पन्द कर दिया है ॥ १८ ॥ इस लोक में जैसे मृत प्राणी को शब्द आदि गुणों का आभास नहीं हो पाता, उसी प्रकार निद्रा के कारण अपने नेत्र मूँदे हुए भगवान् विष्णु कुछ भी जान सकने में असमर्थ हैं ॥ १९ ॥ मेरे द्वारा नानाविध स्तुति किये जाने पर भी भगवान् विष्णु निद्रा का त्याग नहीं कर रहे हैं। अतएव मैं मानता हूँ कि निद्रा इनके अधीन नहीं है, अपितु निद्रा के द्वारा ही ये वशीभूत कर लिये गये हैं ॥ २० ॥ जो प्राणी जिस किसी के वश में हो जाता है, वह निश्चय ही उसी का दास बन जाता है। अतः ये योगनिद्रा ही लक्ष्मीपति विष्णु की स्वामिनी हो गयी हैं ॥ २१ ॥ जिस शक्ति के द्वारा सिन्धुपुत्री लक्ष्मी के वश में रहने वाले भगवान् विष्णु भी वशीभूत कर लिये गये हैं, उन्हीं भगवती ने निश्चितरूपसे इस जगत् को अपने अधीन कर रखा है ॥ २२ ॥ मैं (ब्रह्मा), विष्णु, शंकर, सावित्री, लक्ष्मी एवं पार्वती हम सभी उन्हीं के अधीन हैं; इसमें कुछ भी संशय नहीं है ॥ २३ ॥ भगवान् विष्णु भी जिस शक्ति के वशीभूत होकर विवश हुए-से उसी प्रकार सो रहे हैं जिस प्रकार एक सामान्य प्राणी सोता है, तब अन्य महापुरुषों के विषय में क्या कहा जाय ? ॥ २४ ॥ अतः अब मैं योगनिद्रा का ही स्तवन करूँगा जिनकी कृपा से निद्रामुक्त होकर जनार्दन, सनातन भगवान् वासुदेव युद्ध के लिये उद्योग करेंगे ॥ २५ ॥ तदनन्तर ऐसा निश्चयकर कमलनाल पर विराजमान ब्रह्माजी भगवान् विष्णु के अंगों में व्याप्त उन योगनिद्रा की स्तुति करने लगे ॥ २६ ॥

॥ ब्रह्मा कृत योगनिद्रा स्तुति ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥
देवि त्वमस्य जगतः किल कारणं हि
ज्ञातं मया सकलवेदवचोभिरम्ब ।
यद्विष्णुरप्यखिललोकविवेककर्ता
निद्रावशं च गमितः पुरुषोत्तमोऽद्य ॥ २७ ॥
को वेद ते जननि मोहविलासलीलां
मूढोऽस्म्यहं हरिरयं विवशश्च शेते ।
ईदृक्तया सकलभूतमनोनिवासे
विद्वत्तमो विबुधकोटिषु निर्गुणायाः ॥ २८ ॥
सांख्या वदन्ति पुरुषं प्रकृतिं च यां तां
चैतन्यभावरहितां जगतश्च कर्त्रीम् ।
किं तादृशासि कथमत्र जगन्निवास-
श्चैतन्यताविरहितो विहितस्त्वयाद्य ॥ २९ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवि ! इस जगत् का कारण आप ही हैं; वेदवाक्यों से मुझे ऐसा ज्ञात हुआ है। हे अम्ब! आपकी ही शक्ति से सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान देने वाले पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु भी इस समय योगनिद्रा के वश में हो गये हैं ॥ २७ ॥ हे माता ! समग्र लोक को मोहित कर देनेवाली आपकी लीला को कौन जान सकता है? आपकी इस लीला से मैं तो मूढ़ हो गया हूँ और ये विष्णु परवश होकर सो रहे हैं । हे समस्त प्राणियों के मन में निवास करने वाली भगवति! करोड़ों देवताओं में भी ऐसा कौन विज्ञ है, जो ऐसी आप निर्गुणा का रहस्य जान सके ? ॥ २८ ॥ सांख्यशास्त्र के विद्वान् पुरुष और प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं। इनमें वे अचेतन प्रकृति को ही जगत् को उत्पन्न करने वाली बताते हैं। तो फिर क्या आप वैसी ही अचेतन हैं ? किंतु यदि आप जड होतीं तो इन जगदाधार विष्णु को इस समय चेतनारहित कैसे कर देतीं ? ॥ २९ ॥

नाट्यं तनोषि सगुणा विविधप्रकारं
नो वेत्ति कोऽपि तव कृत्यविधानयोगम् ।
ध्यायन्ति यां मुनिगणा नियतं त्रिकालं
सन्ध्येति नाम परिकल्प्य गुणान् भवानि ॥ ३० ॥
बुद्धिर्हि बोधकरणा जगतां सदा त्वं
श्रीश्चासि देवि सततं सुखदा सुराणाम् ।
कीर्तिस्तथा मतिधृती किल कान्तिरेव
श्रद्धा रतिश्च सकलेषु जनेषु मातः ॥ ३१ ॥
नातः परं किल वितर्कशतैः प्रमाणं
प्राप्तं मया यदिह दुःखगतिं गतेन ।
त्वं चात्र सर्वजगतां जननीति सत्यं
निद्रालुतां वितरता हरिणात्र दृष्टम् ॥ ३२ ॥
त्वं देवि वेदविदुषामपि दुर्विभाव्या
वेदोऽपि नूनमखिलार्थतया न वेद ।
यस्मात्त्वदुद्‌भवमसौ श्रुतिराप्नुवाना
प्रत्यक्षमेव सकलं तव कार्यमेतत् ॥ ३३ ॥
कस्ते चरित्रमखिलं भुवि वेद धीमा-
न्नाहं हरिर्न च भवो न सुरास्तथान्ये ।
ज्ञातुं क्षमाश्च मुनयो न ममात्मजाश्च
दुर्वाच्य एव महिमा तव सर्वलोके ॥ ३४ ॥

हे महामाये ! आप सगुण रूप धारणकर नानाविध लीलाएँ करती रहती हैं, अतः आपके रहस्यमय कार्यों का सम्यक् ज्ञान करने में भला कौन समर्थ है ? हे भवानि ! मुनिगण ‘सन्ध्या’ नाम से आपके गुणों को परिकल्पित करके तीनों समय (प्रातः, मध्याह्न, सायं) निश्चितरूप से आपका ही ध्यान करते हैं ॥ ३० ॥ हे देवि ! आप बुद्धिस्वरूपा होकर समस्त लोक को ज्ञान देती हैं और लक्ष्मीरूप से सदैव देवताओंको सुख प्रदान करती हैं। हे माता ! सम्पूर्ण प्राणियों में कीर्ति, मति, धृति, कान्ति, श्रद्धा एवं रतिरूप में आप ही विद्यमान हैं ॥ ३१ ॥ हे देवि ! प्रगाढ निद्रा के वशीभूत विष्णु को देखकर विषम दुःख की स्थिति को प्राप्त हुए मुझको यह प्रमाण मिल गया कि आप ही निस्सन्देह सम्पूर्ण जगत् की जननी हैं। इस विषय में अब सैकड़ों तर्क-वितर्क की कोई आवश्यकता नहीं है ॥ ३२ ॥ हे देवि ! आप वेदशास्त्रों के पारदर्शी विद्वानों की समझ से भी परे हैं और वेद भी आपको पूर्णरूप से नहीं जानते; क्योंकि उन वेदों की उत्पत्ति का भी कारण आप ही हैं । आपका यह सम्पूर्ण रहस्यमय क्रिया-कलाप सबको प्रत्यक्ष दिखायी देता है ॥ ३३ ॥ इस संसार में कौन ऐसा बुद्धिमान् प्राणी है, जो आपके सम्पूर्ण चरित्र को जानने में समर्थ है ? स्वयं मैं (ब्रह्मा), विष्णु, शंकर, देवगण, अन्य मुनिवृन्द तथा मेरे तत्त्वज्ञ पुत्र- लोग भी उसे नहीं जान सके हैं। सम्पूर्ण लोक में आपकी महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता है ॥ ३४ ॥

यज्ञेषु देवि यदि नाम न ते वदन्ति
स्वाहेति वेदविदुषो हवने कृतेऽपि ।
न प्राप्नुवन्ति सततं मखभागधेयं
देवास्त्वमेव विबुधेष्वपि वृत्तिदासि ॥ ३५ ॥
त्राता वयं भगवति प्रथमं त्वया वै
देवारिसम्भवभयादधुना तथैव ।
भीतोऽस्मि देवि वरदे शरणं गतोऽस्मि
घोरं निरीक्ष्य मधुना सह कैटभं च ॥ ३६ ॥
नो वेत्ति विष्णुरधुना मम दुःखमेत-
ज्जाने त्वयात्मविवशीकृतदेहयष्टिः ।
मुञ्चादिदेवमथवा जहि दानवेन्द्रौ
यद्‌रोचते तव कुरुष्व महानुभावे ॥ ३७ ॥
जानन्ति ये न तव देवि परं प्रभावं
ध्यायन्ति ते हरिहरावपि मन्दचित्ताः ।
ज्ञातं मयाद्य जननि प्रकटं प्रमाणं
यद्विष्णुरप्यतितरां विवशोऽथ शेते ॥ ३८ ॥
सिन्धूद्‌भवापि न हरिं प्रतिबोधितुं वै
शक्ता पतिं तव वशानुगमद्य शक्त्या ।
मन्ये त्वया भगवति प्रसभं रमापि
प्रस्वापिता न बुबुधे विवशीकृतेव ॥ ३९ ॥
धन्यास्त एव भुवि भक्तिपरास्तवांघ्रौ
त्यक्त्वान्यदेवभजनं त्वयि लीनभावाः ।
कुर्वन्ति देवि भजनं सकलं निकामं
ज्ञात्वा समस्तजननीं किल कामधेनुम् ॥ ४० ॥

हे देवि ! यदि यज्ञों में वैदिक विद्वान् हवनकार्य के समय आपके ‘स्वाहा’ नाम का उच्चारण न करें तो देवगण अपना यज्ञभाग नहीं प्राप्त कर सकते। अतएव आप ही देवताओं का भी भरण-पोषण करती हैं ॥ ३५ ॥ हे भगवति! आपने पहले भी समय-समय पर दैत्यों द्वारा उत्पन्न किये गये भयों से हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार इस समय भी हमारी रक्षा करें, मैं आपकी शरण में हूँ । हे देवि ! हे वरदे ! मधु के साथ भयानक इस कैटभ को देखकर मैं अत्यन्त भयाक्रान्त हूँ ॥ ३६ ॥ आपकी योगमाया ने भगवान् विष्णु के शरीर के सभी अवयवों को अपने वश में कर रखा है, अतः वे मेरी इस विषम विपत्ति को नहीं जान रहे हैं। हे महानुभावे ! या तो इस समय आप आदिदेव को मुक्त कर दें अथवा इन दोनों महादैत्यों का वध कर दें; इनमें से आपको जो उचित जान पड़े, वह कीजिये ॥ ३७ ॥ हे देवि ! जो मन्दबुद्धि प्राणी आपकी विशिष्ट महिमा को नहीं जानते, वे ही विष्णु तथा शंकर आदि की आराधना करते हैं । हे जननि ! आज प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में मैं आपकी महिमा देख रहा हूँ कि भगवान् विष्णु भी प्रगाढ़ निद्रा के वशीभूत होकर सो रहे हैं ॥ ३८ ॥ आपकी शक्ति के वश में पड़े अपने पति भगवान् विष्णु को इस समय सिन्धुसुता लक्ष्मी भी नहीं जगा सकतीं; क्योंकि हे भगवति ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आपने ही बलपूर्वक लक्ष्मी को भी शयन करने के लिये विवश कर दिया है, जिससे वे भी नहीं जग रही हैं ॥ ३९ ॥ हे देवि ! इस संसार में वे ही प्राणी धन्य हैं जो आपके चरणों में भक्तिभाव रखते हैं, अन्य देवताओं की उपासना त्यागकर आपके ध्यान में लीन रहते हैं और आपको ही सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करने वाली कामधेनु तथा समस्त लोक की जननी मानकर आपका भजन करते हैं ॥ ४० ॥

धीकान्तिकीर्तिशुभवृत्तिगुणादयस्ते
विष्णोर्गुणास्तु परिहृत्य गताः क्व चाद्य ।
बन्दीकृतो हरिरसौ ननु निद्रयात्र
शक्त्या तवैव भगवत्यतिमानवत्याः ॥ ४१ ॥
त्वं शक्तिरेव जगतामखिलप्रभावा
त्वन्निर्मितं च सकलं खलु भावमात्रम् ।
त्वं क्रीडसे निजविनिर्मितमोहजाले
नाट्ये यथा विहरते स्वकृते नटो वै ॥ ४२ ॥
विष्णुस्त्वया प्रकटितः प्रथमं युगादौ
दत्ता च शक्तिरमला खलु पालनाय ।
त्रातं च सर्वमखिलं विवशीकृतोऽद्य
यद्‌रोचते तव तथाम्ब करोषि नूनम् ॥ ४३ ॥
सृष्ट्वात्र मां भगवति प्रविनाशितुं चे-
न्नेच्छास्ति ते कुरु दयां परिहृत्य मौनम् ।
कस्मादिमौ प्रकटितौ किल कालरूपौ
यद्वा भवानि हसितुं नु किमिच्छसे माम् ॥ ४४ ॥
ज्ञातं मया तव विचेष्टितमद्‌भुतं वै
कृत्वाखिलं जगदिदं रमसे स्वतन्त्रा ।
लीनं करोषि सकलं किल मां तथैव
हन्तुं त्वमिच्छसि भवानि किमत्र चित्रम् ॥ ४५ ॥
कामं कुरुष्व वधमद्य ममैव मात-
र्दुःखं न मे मरणजं जगदम्बिकेऽत्र ।
कर्ता त्वयैव विहितः प्रथमं स चायं
दैत्याहतोऽथ मृत इत्ययशो गरिष्ठम् ॥ ४६ ॥
उत्तिष्ठ देवि कुरु रूपमिहाद्‌भुतं त्वं
मां वा त्विमौ जहि यथेच्छसि बाललीले ।
नो चेत्प्रबोधय हरिं निहनेदिमौ य-
स्त्वत्साध्यमेतदखिलं किल कार्यजातम् ॥ ४७ ॥

बुद्धि, कान्ति, यश, शुभ वृत्ति आदि गुण इस समय भगवान् विष्णु का परित्यागकर कहाँ चले गये ? हे भगवति ! अतिशय मान वाली आपकी ही शक्ति से ये भगवान् विष्णु इस समय निद्रा के वशवर्ती हो गये हैं ॥ ४१ ॥ अखिल प्रभाववाली आप ही जगत् की एकमात्र शक्ति हैं और आपके द्वारा रचा गया सब कुछ आपकी लीला ही है। जैसे कोई नट अपने ही द्वारा निर्मित नाट्य में अभिनय करता है, उसी प्रकार आप भी अपने ही द्वारा निर्मित मोहजाल में नानाविध लीलाएँ करती रहती हैं ॥ ४२ ॥ युग के आरम्भ में आपने सर्वप्रथम विष्णु का सृजन किया, सबके पालन के लिये उन्हें निर्मल शक्ति प्रदान की और इस प्रकार समस्त जगत् की रक्षा की। उन्हीं भगवान् विष्णु को निद्राभिभूतकर आपने इस समय सुला दिया है। हे अम्ब! आपको जो उचित जान पड़ता है, आप निश्चितरूप से वही किया करती हैं ॥ ४३ ॥ हे भगवति ! यदि आप मेरी सृष्टि करके मुझे नष्ट कर देने की इच्छा नहीं रखतीं तो अपना यह मौन त्यागकर मेरे ऊपर दया कीजिये। हे भवानि ! आपने कालरूप इन दोनों दानवों को किसलिये उत्पन्न किया है ? कहीं आपने मेरे उपहास के लिये तो ऐसा नहीं किया है ? ॥ ४४ ॥ हे भवानि ! अब मुझे आपके अद्भुत चरित्र का ज्ञान हो गया। समस्त जगत् की रचना करके आप उसी में स्वेच्छा से विहार करती हैं और पुनः उसे अपने में जैसे समाहित कर लेती हैं, उसी प्रकार मुझे नष्ट कर देना चाहती हैं तो इसमें कोई विचित्र बात नहीं है ॥ ४५ ॥ हे माता ! यदि आप यही चाहती हैं तो मेरा वध कर दीजिये। हे जगदम्बे ! मुझे मरणजनित दुःख की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं है। हाँ, आपको यह महान् कलंक अवश्य लगेगा कि आपने जिसे सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता बनाया, उसे दैत्य ने मार डाला ॥ ४६ ॥ हे देवि ! अब आप उठिये और अपना अद्भुत रूप धारण कीजिये। हे बाललीलाकारिणि! आप अपने इच्छानुरूप चाहे मुझे मार दें अथवा इन दोनों दैत्यों को मार दें या तो भगवान् विष्णु को जगा दें, जिससे वे इन दोनों का वध कर दें। यह सारा काम करने में आप ही समर्थ हैं ॥ ४७ ॥

॥ सूत उवाच ॥
एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा ।
निःसृत्य हरिदेहात्तु संस्थिता पार्श्वतस्तदा ॥ ४८ ॥
त्यक्त्वाङ्गानि च सर्वाणि विष्णोरतुलतेजसः ।
निर्गता योगनिद्रा सा नाशाय च तयोस्तदा ॥ ४९ ॥
विस्पन्दितशरीरोऽसौ यदा जातो जनार्दनः ।
धाता परमिकां प्राप्तो मुदं दृष्ट्वा हरिं ततः ॥ ५० ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे विष्णुप्रबोधो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

सूतजी बोले — ब्रह्माजी द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर विष्णु के शरीर से निकलकर तामसीदेवी उनके समीप खड़ी हो गयीं ॥ ४८ ॥ तदनन्तर अतुलित तेजवाले विष्णु के समस्त अंगों को छोड़कर योगनिद्रा उन दोनों का संहार करने के लिये बाहर निकल आयीं ॥ ४९ ॥ [ योगमाया के प्रभाव से मुक्त हुए ] वे जनार्दन जब चेतनायुक्त शरीर वाले हुए तब उन विष्णु को देखकर ब्रह्माजी को परम प्रसन्नता हुई ॥ ५० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘विष्णुप्रबोध’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

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