April 24, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-23 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-त्रयोविंशोऽध्यायः तेईसवाँ अध्याय भगवती के श्रीविग्रह से कौशिकी का प्राकट्य, देवी की कालिकारूप में परिणति, चण्ड-मुण्ड से देवी के अद्भुत सौन्दर्य को सुनकर शुम्भ का सुग्रीव को दूत बनाकर भेजना, जगदम्बा का विवाह के विषय में अपनी शर्त बताना देव्या सुग्रीवदूताय स्वव्रतकथनम् व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] तब शत्रुओं से सन्त्रस्त देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती ने अपने शरीर से एक दूसरा रूप प्रकट कर दिया ॥ १ ॥ जब भगवती पार्वती के विग्रहकोश से अम्बिका प्रकट हुईं, तब वे सम्पूर्ण जगत् में ‘कौशिकी’ इस नाम से कही जाने लगीं। पार्वती के शरीर से उन भगवती कौशिकी के निकल जाने से शरीर क्षीण हो जाने के कारण वे पार्वती कृष्णवर्ण की हो गयीं । अतः वे कालिका नाम से विख्यात हुईं ॥ २-३ ॥ वे कालिका स्याही के समान काले वर्ण की थीं तथा महाभयंकर प्रतीत होती थीं। दैत्यों के लिये भयवर्धिनी तथा [ भक्तों के लिये ] समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाली वे भगवती ‘कालरात्रि’ इस नाम से पुकारी जाने लगीं ॥ ४ ॥ समस्त आभूषणों से मण्डित और लावण्यगुण से सम्पन्न वह भगवती का दूसरा रूप ( कौशिकी) अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहा था ॥ ५ ॥ तदनन्तर अम्बिका ने मुसकराकर देवताओं से यह कहा — आप लोग निर्भय रहें, मैं आपके शत्रुओं का वध अभी कर डालूंगी। आप लोगों का कार्य मुझे सम्यक् प्रकार से सम्पन्न करना है। मैं समरांगण में विचरण करूँगी और आप लोगों के कल्याण के लिये निशुम्भ आदि दानवों का संहार करूँगी ॥ ६-७ ॥ तब ऐसा कहकर गर्वोन्मत्त वे भगवती कौशिकी सिंह पर सवार हो गयीं और देवी कालिका को साथ में लेकर शत्रु के नगर की ओर चल पड़ीं ॥ ८ ॥ कालिकासहित देवी अम्बिका वहाँ पहुँचकर नगर के उपवन में रुक गयीं। तत्पश्चात् उन्होंने जगत् को मोह में डालने वाले को भी मोहित करने वाला गीत गाना आरम्भ कर दिया ॥ ९ ॥ उस मधुर गान को सुनकर पशु-पक्षी भी मोहित हो गये और आकाशमण्डल में स्थित देवतागण अत्यन्त आनन्दित हो उठे ॥ १० ॥ उसी समय शुम्भ के चण्ड तथा मुण्ड नामक दो सेवक जो भयंकर दानव थे, स्वेच्छापूर्वक घूमते हुए वहाँ आ गये। उन्होंने देखा कि दिव्य स्वरूपवाली भगवती अम्बिका गायन में लीन हैं और कालिका उनके सम्मुख विराजमान हैं ॥ ११-१२ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! उन दिव्य रूपवाली भगवती को देखकर दोनों दानव विस्मय में पड़ गये। वे तुरंत शुम्भ के पास जा पहुँचे ॥ १३ ॥ अपने महल में बैठे हुए उस दानवराज शुम्भ के पास जाकर उन दोनों ने सिर झुकाकर राजा को प्रणाम करके मधुर वाणी में कहा — ॥ १४ ॥ हे राजन् ! कामदेव को भी मोहित कर देने वाली एक सुन्दरी हिमालय से यहाँ आयी हुई है। वह सिंह पर सवार है तथा सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न है ॥ १५ ॥ ऐसी उत्तम स्त्री न स्वर्ग में है और न गन्धर्वलोक में। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ऐसी सुन्दरी न तो कहीं देखी गयी और न सुनी ही गयी ॥ १६ ॥ हे राजन् ! वह ऐसा गाती है कि उसके गाने पर सभी मुग्ध हो जाते हैं। उसके मधुर स्वर से मोहित होकर मृग भी उसके पास बैठे रह जाते हैं ॥ १७ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप यह पता लगाइये कि यह किसकी पुत्री है और किसलिये यहाँ आयी हुई है ? [उसके बाद] उसे अपने यहाँ रख लीजिये; क्योंकि वह सुन्दरी आपके योग्य है ॥ १८ ॥ यह जानकारी प्राप्त करके आप उस सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्री को अपने घर ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये; क्योंकि ऐसी स्त्री निश्चितरूप से संसार में नहीं है ॥ १९ ॥ हे राजन् ! आप देवताओं के सम्पूर्ण रत्न अपने अधिकार में कर चुके हैं, तो फिर हे नृपश्रेष्ठ ! इस सुन्दरी को भी आप अपने अधिकार में क्यों नहीं कर लेते ? ॥ २० ॥ हे राजन्! आपने बलपूर्वक इन्द्र का ऐश्वर्ययुक्त ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष और सप्तमुखवाला उच्चैःश्रवा घोड़ा छीन लिया ॥ २१ ॥ हे नृप ! आपने ब्रह्माजी के हंसध्वजसम्पन्न, दिव्य तथा रत्नमय अद्भुत विमान को बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लिया ॥ २२ ॥ हे राजन् ! आपने बलपूर्वक कुबेर की पद्म नामक निधि को छीन लिया है और वरुण के श्वेत छत्र को अपने अधिकार में कर लिया है ॥ २३ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! आपके भाई निशुम्भ ने भी वरुण को पराजित करके उसके पाश को हठपूर्वक छीन लिया है ॥ २४ ॥ हे महाराज ! आपके भय से समुद्र ने कभी भी न मुरझाने वाली कमल-पुष्पों की माला और विविध प्रकार के रत्न आपको प्रदान किये हैं ॥ २५ ॥ आपने मृत्यु को जीतकर उसकी शक्ति को तथा यमराज को जीतकर उसके अति भीषण दण्ड को अपने पूर्ण अधिकार में कर लिया है। हे राजन्! आपके पराक्रम का और क्या वर्णन किया जाय ? समुद्र से प्रादुर्भूत कामधेनु आपने छीन ली, जो इस समय आपके पास विद्यमान है। हे राजन् ! मेनका आदि अप्सराएँ भी आपके अधीन पड़ी हुई हैं ॥ २६-२७ ॥ इस प्रकार जब आपने सभी रत्न बलपूर्वक छीन लिये हैं, तब नारियों में रत्नस्वरूपा इस सुन्दरी को भी अपने अधिकार में क्यों नहीं कर लेते ? ॥ २८ ॥ हे भूपते ! आपके गृह में विद्यमान समस्त विपुल रत्न इस सुन्दरी से सुशोभित होकर यथार्थरूप में रत्नस्वरूप हो जायँगे ॥ २९ ॥ हे दैत्यराज! तीनों लोकों में ऐसी सुन्दरी स्त्री नहीं है। अतः आप उस मनोहारिणी स्त्री को शीघ्र ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये ॥ ३० ॥ व्यासजी बोले — चण्ड-मुण्ड के मधुमय अक्षरों से युक्त यह मधुर वचन सुनकर प्रसन्न मुखमण्डल वाला शुम्भ अपने समीप में बैठे हुए सुग्रीव से कहने लगा — ॥ ३१ ॥ हे बुद्धिसम्पन्न सुग्रीव! तुम दूत बनकर जाओ और मेरा यह कार्य सम्पन्न करो। वहाँ तुम ऐसी बातचीत करना, जिससे वह कृशोदरी यहाँ आ जाय ॥ ३२ ॥ बुद्धिमान् पुरुषों को स्त्रियों के विषय में साम और दान — इन दो उपायों का प्रयोग करना चाहिये – ऐसा शृंगाररस के विद्वानों ने कहा है ॥ ३३ ॥ भेदनीति का प्रयोग करने पर रसका आभासमात्र हो पाता है और दण्डनीति का प्रयोग करने पर रसभंग ही हो जाता है, अतः विद्वान् पुरुषों ने इन दोनों को दोषपूर्ण बताया है ॥ ३४ ॥ हे दूत ! ऐसी कौन स्त्री होगी जो साम, दान – इन मुख्य नीतियों से सम्पन्न, मधुर तथा हास-परिहास से परिपूर्ण वाक्यों के द्वारा कामपीड़ित होकर वश में न हो जाय ॥ ३५ ॥ व्यासजी बोले — शुम्भ के द्वारा कही गयी अत्यन्त प्रिय तथा चातुर्यपूर्ण बात सुनकर सुग्रीव बड़े वेग से उधर चल पड़ा, जहाँ जगदम्बिका विराजमान थीं ॥ ३६ ॥ वहाँ पर उसने देखा कि एक सुन्दर मुखवाली युवती सिंह पर सवार है । तब जगदम्बिका को प्रणाम करके वह मधुर वाणी में कहने लगा — ॥ ३७ ॥ दूत बोला — हे सुजघने! देवताओं के शत्रु राजा शुम्भ सर्वांगसुन्दर और पराक्रमी हैं। सबको जीतकर वे तीनों लोकों के अधिपति हो गये हैं ॥ ३८ ॥ आपके सौन्दर्य के विषय में सुनकर आप पर आसक्त मनवाले उन्हीं महाराज शुम्भ ने व्याकुल होकर मुझे आपके पास भेजा है ॥ ३९ ॥ हे तन्वंगि ! दैत्यपति शुम्भ ने आपको प्रणाम करके जो प्रेमपूर्ण वचन कहा है, उनके उस वचन को आप सुनें — ॥ ४० ॥ हे कान्ते ! मैंने सभी देवताओं को जीत लिया है, इस समय मैं तीनों लोकों का स्वामी हूँ। मैं यहाँ रहते हुए सदा यज्ञभाग प्राप्त करता हूँ ॥ ४१ ॥ मैंने स्वर्गलोक की सभी सार वस्तुएँ छीन ली हैं और उसे रत्नविहीन कर दिया है। देवताओं के पास जो भी रत्न थे, उन सबको मैंने हर लिया है ॥ ४२ ॥ हे भामिनि ! तीनों लोकों में सभी रत्नों का भोग करने वाला एकमात्र मैं ही हूँ। देवता, दैत्य और मनुष्य — ये सब मेरे अधीन रहते हैं ॥ ४३ ॥ तुम्हारे गुणों ने कानों के मार्ग से मेरे हृदय में प्रवेश करके मुझे पूर्णरूप से तुम्हारे वश में कर दिया है। अब मैं क्या करूँ? मैं तो तुम्हारा दास बन गया हूँ ॥ ४४ ॥ हे रम्भोरु! मैं तुम्हारे अधीन हूँ, तुम मुझे जो भी आज्ञा प्रदान करो, उसे मैं करूँगा । हे सुन्दर अंगों वाली ! मैं तुम्हारा दास हूँ, कामबाण से मेरी रक्षा करो ॥ ४५ ॥ हे मरालाक्षि ! तुम्हारे अधीन हुए मुझ कामातुर को तुम स्वीकार कर लो और तीनों लोकों की स्वामिनी बनकर उत्कृष्ट सुखों का उपभोग करो ॥ ४६ ॥ हे कान्ते ! मैं मरणपर्यन्त तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा। हे वरारोहे! मैं देवता, असुर तथा मनुष्यों से अवध्य हूँ। हे सुमुखि ! [मुझे पति बनाकर ] तुम सदा सौभाग्यवती रहोगी। हे सुन्दरि ! जहाँ तुम्हारा मन लगे, वहाँ विहार करना ॥ ४७-४८ ॥ मद से अलसायी हुई हे कामिनि! [मेरे स्वामी ] उन शुभ की बात पर अपने मन में भलीभाँति विचार करके तुम्हें जो कुछ कहना हो, उसे प्रेमपूर्वक मधुर वाणी में कहो । हे चंचल कटाक्षवाली ! मैं वह सन्देश तुरंत शुम्भ से निवेदन करूँगा ॥ ४९१/२ ॥ व्यासजी बोले — दूतका वह वचन सुनकर देवताओं का कार्य सिद्ध करने वाली भगवती अत्यन्त मधुर मुसकान करके मीठी वाणी में उससे कहने लगीं ॥ ५०१/२ ॥ देवी बोलीं — मैं महाबली राजा शुम्भ तथा निशुम्भ — दोनों को जानती हूँ। उन्होंने सभी देवताओं को जीत लिया है। और अपने शत्रुओं का संहार कर डाला है, वे सभी गुणों की राशि हैं और सब सम्पदाओं का भोग करने वाले हैं। वे दानी, महापराक्रमी, सुन्दर, कामदेवसदृश रूपवाले, बत्तीस लक्षणों से सम्पन्न और देवताओं तथा मनुष्यों से अवध्य हैं — यह जानकर मैं उस महान् असुर को देखने की इच्छा से यहाँ आयी हूँ। जैसे रत्न अपनी शोभा को और अधिक बढ़ाने के लिये सुवर्ण के पास आता है, वैसे ही मैं अपने पति को देखने के लिये दूर से यहाँ आयी हूँ ॥ ५१-५४१/२ ॥ सभी देवताओं, पृथ्वीलोक में मान प्रदान करने वाले सभी मनुष्यों, गन्धर्वों, राक्षसों तथा देखने में सुन्दर लगने वाले जो भी अन्य लोग हैं; उन सबको मैंने देख लिया है। सब- के-सब शुम्भ के आतंक से डरे हुए हैं, भय के मारे काँपते रहते हैं और सदा व्याकुल रहते हैं ॥ ५५-५६ ॥ शुम्भ के गुण सुनकर उन्हें देखने की इच्छा से मैं इस समय यहाँ आयी हुई हूँ। हे महाभाग्यशाली दूत ! तुम जाओ और महाबली शुम्भ से एकान्त स्थान में मधुर वाणी में मेरे शब्दों में यह बात कहो — हे राजन् ! आपको बलवानों में सबसे बली, सुन्दरों में अति सुन्दर, दानी, गुणी, पराक्रमी, सभी विद्याओं में पारंगत, सभी देवताओं को जीत लेने वाला, कुशल, प्रतापी, श्रेष्ठ कुलवाला, समस्त रत्नों का भोग करने वाला, स्वतन्त्र तथा अपनी शक्ति से समृद्धिशाली बना हुआ जानकर मैं आपको पति बनाने की इच्छुक हूँ । हे नराधिप ! मैं भी निश्चितरूप से आपके योग्य हूँ। हे महामते! मैं आपके इस नगर में अपनी इच्छा से आयी हूँ । किंतु हे राक्षस श्रेष्ठ ! मेरे विवाह में एक शर्त है। हे राजन् ! पूर्व में मैंने सखियों के साथ खेलते समय बालस्वभाववश अपने शारीरिक बल के अभिमान के कारण उन सखियों के समक्ष एकान्त में यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि मेरे समान पराक्रम रखने वाला जो वीर रण में मुझे स्पष्टरूप से जीत लेगा, उसके बलाबल को जानकर ही मैं पतिरूप में उसका वरण करूँगी। मेरी यह बात सुनकर सखियों के मन में बड़ा विस्मय हुआ और वे जोर-जोर से हँसने लगीं । [ वे कहने लगीं] ‘इसने शीघ्रतापूर्वक यह कैसी भीषण प्रतिज्ञा कर ली।’ अतएव हे राजेन्द्र ! आप भी मेरे ऐसे पराक्रम को जानकर यहीं पर अपने बल से मुझे जीतकर अपना मनोरथ पूर्ण कर लीजिये। हे सुन्दर! आप अकेले अथवा समरांगण में आकर अपने छोटे भाई के साथ युद्ध के द्वारा मुझे जीतकर [मेरे साथ ] विवाह कर लीजिये ॥ ५७-६६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘देवी द्वारा दूत सुग्रीव से स्वव्रतकथन’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe