श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-25
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-पञ्चविंशोऽध्यायः
पचीसवाँ अध्याय
भगवती काली और धूम्रलोचन का संवाद, काली के हुंकार से धूम्रलोचन का भस्म होना तथा शुम्भ का चण्ड-मुण्ड को युद्ध हेतु प्रस्थान का आदेश देना
देव्यासह युद्धाय चण्डमुण्डप्रेषणम्

व्यासजी बोले — [ हे महाराज !] यह बात कहकर धूम्रलोचन चुप हो गया। तब भगवती काली हँसकर सुन्दर वचन बोलीं — धूर्त! तुम तो पूरे विदूषक हो और नटों जैसी बात करते हो। मधुर बोलते हुए तुम व्यर्थ ही मन में अनेकविध कामनाएँ कर रहे हो ॥ १-२ ॥ हे मूढमते ! दुष्टात्मा शुम्भ ने तुझ बलवान्‌ को सेना से सुसज्जित करके युद्धहेतु भेजा है, अतः अब युद्ध करो और व्यर्थ की बातें छोड़ दो ॥ ३ ॥ ये देवी कुपित होकर शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे अन्य बलवान् दैत्यों का अपने बाणों के प्रहार से संहार करके अपने धाम को चली जायँगी ॥ ४ ॥ कहाँ वह मन्दमति शुम्भ और कहाँ ये विश्व-मोहिनी जगदम्बा ! इन दोनों का विवाह इस संसार में सर्वथा अनुपयुक्त है ॥ ५ ॥ क्या अत्यधिक कामार्त होने पर भी सिंहिनी सियार को, हथिनी किसी गर्दभ को अथवा सुरभि किसी सामान्य वृषभ को अपना पति बना सकती है ? ॥ ६ ॥ अब तुम शुम्भ निशुम्भ के पास चले जाओ और उनसे मेरी यह सच्ची बात कह दो कि ‘तुम मेरे साथ युद्ध करो; अन्यथा इसी समय शीघ्र पाताललोक चले जाओ’ ॥ ७ ॥

व्यासजी बोले — हे महाभाग ! देवी कालिका का यह वचन सुनते ही वह दैत्य धूम्रलोचन क्रोध के मारे आँखें लाल करके उनसे कहने लगा दुर्दर्शे! अभी तुझे तथा इस मदोन्मत्त सिंह को युद्ध में मारकर और इस स्त्री को लेकर मैं राजा शुम्भ के पास अवश्य चला जाऊँगा ॥ ८-९ ॥ कलह में अनुराग रखने वाली हे काली! रस में भंग  पड़ने की शंका से मैं इस समय डर रहा हूँ, नहीं तो मैं अपने तीक्ष्ण बाणों से तुम्हें अभी मार डालता ॥ १० ॥

कालिका बोलीं — हे मन्दबुद्धि ! तुम अनर्गल प्रलाप  क्यों कर रहे हो, धनुर्धर वीरों का यह धर्म नहीं है। तुम अपनी पूरी शक्ति से बाण चलाओ। तुम तो अभी यमलोक जानेवाले हो ॥ ११ ॥

व्यासजी बोले — यह वचन सुनकर वह दैत्य धूम्रलोचन अपना सुदृढ़ धनुष लेकर भगवती कालिका के ऊपर पत्थर की सान पर चढ़ाकर तेज किये गये बाणों की घोर वर्षा करने लगा ॥ १२ ॥ उस समय इन्द्र आदि प्रधान देवता उत्तम विमानों में बैठकर यह युद्ध देख रहे थे। वे देवी की स्तुति करते हुए उनकी जयकार कर रहे थे ॥ १३ ॥ परस्पर उन दोनों में बाण, खड्ग, गदा, शक्ति तथा मुसल आदि शस्त्रों से अत्यन्त भीषण तथा उग्र युद्ध होने लगा ॥ १४ ॥ भगवती कालिका ने पहले अपने बाण प्रहारों से [उसके रथ में जुते] खच्चरों को मारकर बाद में उसके सुदृढ़ रथ को भी चूर्ण कर दिया, फिर वे बार-बार अट्टहास करने लगीं ॥ १५ ॥ हे भारत ! क्रोधाग्नि में जलता हुआ-सा वह दानव धूम्रलोचन दूसरे रथ पर सवार हो गया और कालिका के ऊपर भयंकर बाण – वृष्टि करने लगा ॥ १६ ॥ उसके बाण भगवती के पास पहुँच भी नहीं पाते थे कि वे उन बाणों को काट डालती थीं। तत्पश्चात् वे कालिका अन्य तीव्रगामी बाण उस दानव के ऊपर छोड़ने लगीं ॥ १७ ॥ उन बाणों से उसके हजारों सहायक सैनिक मारे गये । तत्पश्चात् देवी कालिका ने उसके खच्चरों तथा सारथि को शीघ्रतापूर्वक मारकर उस रथ को भी नष्ट कर दिया। उसके बाद देवी ने अपने सर्प सदृश बाणों से शीघ्रता-पूर्वक उसका धनुष काट डाला। ऐसा करके देवी ने देवताओं को आनन्दित कर दिया और वे शंखनाद करने लगीं ॥ १८-१९ ॥ अब रथ से विहीन वह धूम्रलोचन कुपित होकर एक लोहमय मजबूत परिघ लेकर देवी के रथ के सन्निकट आ गया ॥ २० ॥

कालसदृश भयंकर वह धूम्रलोचन वाणी से भगवती काली को फटकारते हुए कहने लगा — ‘कुरूपा तथा पिंगल-नेत्रों-वाली ! मैं तुम्हें अभी मार डालूँगा’ ऐसा कहकर वह ज्यों ही कालिका पर परिघ चलाने को उद्यत हुआ, देवी ने अपने हुंकारमात्र से उसे तुरंत भस्म कर दिया ॥ २१-२२ ॥

तब दैत्य धूम्रलोचन को भस्म हुआ देखकर सभी सैनिक भयाक्रान्त होकर ‘हा तात ‘ – ऐसा कहते हुए तुरंत मार्ग पकड़कर भाग चले ॥ २३ ॥ उस धूम्रलोचन को मारा गया देखकर आकाश में विद्यमान देवगण प्रसन्न होकर भगवती पर पुष्प बरसाने लगे ॥ २४ ॥ हे राजन्! मरे हुए दानवों, घोड़ों, खच्चरों और हाथियों से [पट जाने के कारण] वह रणभूमि उस समय बड़ी भयानक लग रही थी । युद्धभूमि में पड़े हुए मृत दानवों को देखकर गीध, कौए, बाज, सियार और पिशाच नाचने तथा कोलाहल करने लगे ॥ २५-२६ ॥

अब भगवती अम्बिका ने उस रणभूमि को छोड़कर वहाँ से कुछ दूरी पर जाकर अत्यन्त तीव्र तथा भयदायक शंखनाद किया ॥ २७ ॥ अपने महल में स्थित शुम्भ को भी वह भयानक शंख-ध्वनि सुनायी पड़ी। उसी समय उसने भागकर आये हुए बहुत-से दैत्यों को देखा। उनमें से बहुतों के अंग भंग हो गये थे और वे रक्त से लथपथ थे। अनेक दैत्यों के हाथ-पैर कट गये थे और नेत्र भग्न हो गये थे । कुछ दैत्य तो शय्या आदि पर लादकर लाये जा रहे थे; बहुतों की पीठ, कमर और गर्दन टूट गयी थी । सब-के- सब जोर-जोर से चीख रहे थे। उन्हें देखकर शुम्भ- निशुम्भ ने सैनिकों से पूछा ‘धूम्रलोचन कहाँ गया ? तुम- लोग इस तरह अंग-भंग होकर क्यों आये हो और उस सुन्दर मुखवाली स्त्री को क्यों नहीं ले आये ? हे मूर्खो ! सही-सही बताओ कि मेरी सेना कहाँ गयी और भय को बढ़ाने वाला यह किसका शंखनाद इस समय सुनायी पड़ रहा है ? ‘ ॥ २८-३१ ॥

गण बोले — सम्पूर्ण सेना मार डाली गयी और धूम्रलोचन का भी संहार कर दिया गया। रणभूमि में यह अमानुषिक कार्य कालिका के द्वारा किया गया है ॥ ३२ ॥ उसी अम्बिका की यह शंखध्वनि है, जो सम्पूर्ण नभमण्डल को व्याप्त करके सुशोभित हो रही है। यह ध्वनि देवगणों के लिये हर्षप्रद और दानवों के लिये कष्टदायक है ॥ ३३ ॥ हे विभो ! जब देवी के सिंह ने सारे सैनिकों का विनाश कर डाला और उनके बाण-प्रहारों से दैत्यों के रथ टूट गये हे विभो। जब देवी के सिंह ने सारे सैनिकों का विनाश कर डाला और उनके बाण-प्रहारों से दैत्यों के रथ टूट गये तथा घोड़े मार डाले गये, तब आकाश में स्थित देवता प्रसन्‍न होकर पुष्प-वृष्टि करने लगे ॥ ३४१/२

इस प्रकार समस्त सेना का विनाश तथा धूम्रलोचन का वध देखकर हम लोगों ने निश्चय कर लिया कि अब हमारी विजय नहीं हो सकती | अतएव हे राजेन्द्र ! अब आप मन्त्रणा का उत्तम ज्ञान रखने वाले अपने मन्त्रियों से इस विषय पर विचार कर लीजिये। हे महाराज! यह आश्चर्य है कि जगदम्बास्वरूपिणी वह मदमत्त बाला बिना किसी सेना के ही सिंह पर सवार होकर निर्भयभाव से आपसे युद्ध करने के लिये रणभूमि में अकेली खड़ी है। हे महाराज! हमें तो यह सब बड़ा विचित्र और अद्भुत प्रतीत हो रहा है। अतएब अब आप शीघ्र मन्त्रणा करके सन्धि, युद्ध, उदासीन होकर स्थित रहना अथवा पलायन — इनमें से अपनी रुचि के अनुसार जो चाहें, वह कार्य करें ॥ ३५-३९ ॥ हे शत्रुतापन! यद्यपि उसके पास सेना नहीं है फिर भी उसकी विपत्ति में सभी देवता उसके सहायक बनकर उपस्थित हो जायँगे। ज्ञात हुआ है कि भगवान्‌ विष्णु और शिव भी समयानुसार उसके पास में विद्यमान रहते हैं; सभी लोकपाल आकाश में रहते हुए भी इस समय उस देवी के पास विद्यमान हैं। हे सुरतापन ! राक्षसगण, गन्धर्व, किन्नर और मनुष्य — इन सबको समय आने पर उसका सहायक समझना चाहिये ॥ ४०-४२ ॥ हमारी बुद्धि से तो हर तरह से ऐसा जान पड़ता है कि वे अम्बिका किसी से भी कोई सहायता अथवा कार्य की अपेक्षा नहीं रखतीं। वे अकेली ही सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ का नाश करने में समर्थ हैं, तो फिर सब दानवों की बात ही क्या — यह सत्य है ॥ ४३-४४ ॥ हे महाभाग! यह सब भलीभाँति समझ- बूझकर आपको जैसी रुचि हो, वैसा कीजिये। सेवकों को तो अपने स्वामी से हितकर, सत्य और नपी-तुली बात कहनी चाहिये ॥ ४५ ॥

व्यासजी बोले — उनकी बात सुनकर शत्रुसेना को विनष्ट कर डालने वाले शुम्भ ने अपने छोटे भाई निशुम्भ को एकान्त स्थान में ले जाकर वहाँ स्थित हो उससे पूछा — हे भाई! आज कालिका ने अकेले ही धूम्रलोचन को मार डाला, सारी सेना नष्ट कर दी और शेष सैनिक अंग-भंग होकर भाग आये हैं। अभिमान में चूर रहने वाली वही अम्बिका शंखनाद कर रही है ॥ ४६-४७१/२

काल की गति को पूर्णरूप से समझना ज्ञानियों के लिये भी अत्यन्त कठिन है। [काल की प्रेरणा से ] तृण वज्र बन जाता है, वज्र तृण बन जाता है और बलशाली प्राणी बलहीन हो जाता है; दैव की ऐसी विचित्र गति है ॥ ४८-४९ ॥ हे महाभाग! मैं तुमसे पूछता हूँ कि अब आगे मुझे क्‍या करना चाहिये ? ऐसा लगता है कि यह अम्बिका किसी उद्देश्य से यहाँ आयी हुई है। अत: निश्चय ही वह हमारे भोग के योग्य नहीं है ॥ ५० ॥ हे वीर! तुम मुझे शीघ्र बताओ कि इस समय भाग जाना उचित है या युद्ध करना ? यद्यपि तुम छोटे हो, फिर भी इस संकट के समय मैं तुम्हें बड़ा ‘मान रहा हूँ ॥ ५१ ॥

निशुम्भ बोला — हे अनध! इस समय न तो भागना उचित है और न तो किले में छिपना ही ठीक है। अब तो इस स्त्री के साथ हर प्रकार से युद्ध करना ही श्रेयस्कर है ॥ ५२ ॥  श्रेष्ठ सेनापतियों को लेकर मैं अपनी सेना के साथ युद्धभूमि में जाऊँगा और उस कालिका को मारकर तथा अबला अम्बिका कों पकड़कर शीघ्र यहाँ ले आऊँगा और यदि बलवान दैव के कारण इसके विपरीत हो जाय तो मेरे मर जाने पर बार-बार सोच-विचारकर ही आप कोई कार्य कीजियेगा ॥ ५३-७४ ॥

छोटे भाई निशुम्भ की यह बात सुनकर शुम्भने उससे कहा — अभी तुम ठहरो, पहले पराक्रमी चण्ड-मुण्ड जायँ। खरगोश पकड़ने के लिये हाथी छोड़ना उचित नहीं है। चण्ड-मुण्ड बड़े वीर हैं, अतः ये दोनों उसे मार डालने में हर तरह से समर्थ हैं ॥ ५५-५६ ॥

अपने भाई निशुम्भ से ऐसा कहकर और उससे परामर्श करके राजा शुम्भ ने समक्ष बैठे हुए महान्‌ बलशाली चण्ड-मुण्ड से कहा — हे चण्ड-मुण्ड! तुम दोनों अपनी सेना लेकर उस निर्लज्ज और मदोन्मत्त अबला का वध करने के लिये शीघ्र जाओ। हे महाभागो! रणभूमि में पिंग-नेत्रोंवाली उस कालिका को मारकर और अम्बिका को पकड़कर-यह महान्‌ कार्य करके यहाँ लौट आओ। यदि वह मदोन्‍मत्त अम्बिका पकड़ी जाने पर भी नहीं आती तो अपने अत्यन्त तीक्ष्ण बाणों से उस रणभूषिता का भी वध कर देना ॥ ५७-६० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध के देवीमाहात्म्य में  ‘देवी के साथ युद्ध करने के लिये चण्ड और मुण्ड को भेजना’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥

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