April 26, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-29 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-एकोनत्रिंशोऽध्यायः उनतीसवाँ अध्याय रक्तबीज का वध और निशुम्भ का युद्धक्षेत्र के लिये प्रस्थान देव्यासह युद्धकरणाय निशुम्भप्रयाणम् व्यासजी बोले — हे राजन्! किसी समय शंकरजी ने उस दानव रक्तबीज को यह बड़ा ही अद्भुत वर दे डाला था, मैं उसे बता रहा हूँ; आप सुनिये ॥ १ ॥ उस दानव के शरीर से जब रक्त की बूँद पृथ्वी पर गिरती थी, तब उसी के रूप तथा पराक्रम वाले दानव तुरंत उत्पन्न हो जाते थे। भगवान् शंकर ने उसे यह बड़ा ही अद्भुत वर दे दिया था कि तुम्हारे रक्त से असंख्य महान् पराक्रमी दानव उत्पन्न हो जायँगे ॥ २-३ ॥ उस वरदान के कारण अभिमान में भरा हुआ वह दैत्य अत्यन्त कुपित होकर कालिकासमेत अम्बिका को मारने के लिये बड़े वेग से रणभूमि में पहुँचा ॥ ४ ॥ गरुड पर विराजमान वैष्णवी शक्ति को देखकर उस दैत्येन्द्र ने उन कमलनयनी देवी पर शक्ति (बर्छी)- से प्रहार कर दिया ॥ ५ ॥ तब उस शक्तिशालिनी वैष्णवी शक्ति ने अपनी गदा से उस प्रहार को विफल कर दिया और अपने चक्र से महान् असुर रक्तबीज पर आघात किया ॥ ६ ॥ उस चक्र के लगने पर रक्तबीज के घायल शरीर से रक्त की विशाल धारा बह चली मानो वज्रप्रहार से घायल पर्वत के शिखर से गेरू की धारा बह चली हो ॥ ७ ॥ पृथ्वीतल पर जहाँ-जहाँ रक्त की बूँदें गिरती थीं, वहाँ-वहाँ उसी के समान आकारवाले हजारों पुरुष उत्पन्न हो जाते थे ॥ ८ ॥ तदनन्तर इन्द्र की शक्ति ऐन्द्री ने क्रोध में भरकर उस महान् असुर रक्तबीज पर वज्र से आघात किया, जिससे उसके शरीर से और रक्त निकलने लगा ॥ ९ ॥ तब उसके रक्त से अनेक रक्तबीज उत्पन्न हो गये, जो उसी के समान पराक्रमी तथा आकारवाले थे। वे सब-के-सब शस्त्रसम्पन्न तथा युद्धोन्मत्त थे ॥ १० ॥ ब्रह्माणी ने कुपित होकर उसे ब्रह्मदण्ड से बहुत मारा और देवी माहेश्वरी ने अपने त्रिशूल से उस दानव को विदीर्ण कर दिया। देवी नारसिंही ने अपने नखों के प्रहारों से उस महान् असुर को बींध डाला, देवी वाराही ने क्रुद्ध होकर उस अधम राक्षण को अपने तुण्ड-प्रहार से चोट पहुँचायी और भगवती कौमारी ने अपनी शक्ति से उसके वक्ष पर प्रहार किया ॥ ११-१२१/२ ॥ तब वह दानव रक्तबीज भी क्रुद्ध होकर अलग- अलग उन सभी देवियों को तीखे बाणों की घोर वर्षा तथा गदा और शक्ति के प्रहारों से चोट पहुँचाने लगा। उसके आघात से कुपित होकर सभी देवियों ने बाणों के प्रहार से उसको बींध डाला। भगवती चण्डिका ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उसके शस्त्रों को काट डाला और अत्यन्त कुपित होकर वे अन्य बाणों से उस दानव को मारने लगीं ॥ १३-१५ ॥ अब उसके शरीर से अत्यधिक रक्त निकलने लगा। उस रक्त से उसी रक्तबीज के समान हजारों वीर उत्पन्न हो गये। इस प्रकार उस रुधिर-राशि से उत्पन्न रक्तबीजों से सारा जगत् भर गया; वे सब कवच पहने हुए थे, आयुधों से सुसज्जित थे और अद्भुत युद्ध कर रहे थे ॥ १६-१७ ॥ उन असंख्य रक्तबीजों कों प्रहार करते देखकर देवता भयभीत, आतंकित, विषादग्रस्त और शोकसंतप्त हो गये। [वे सोचने लगे] इस समय रक्तबीज के रक्त से उत्पन्न ये हजारों विशालकाय और महापराक्रमी दानव किस प्रकार विनष्ट होंगे? यहाँ रणभूमि में केवल भगवती चण्डिका हैं और उनके साथ में देवी काली तथा कुछ मातृकाएँ हैं; केवल इन्हीं देवियों को मिलकर सभी दानवों को जीतना है — यह तो महान् कष्ट है। इसी समय यदि अचानक शुम्भ अथवा निशुम्भ भी सेना के साथ संग्राम में आ जायगा, तब तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जायगा ॥ १८-२१ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ।] इस प्रकार जब सभी देवता भय से व्याकुल होकर अत्यधिक चिन्तित हो उठे, तब भगवती अम्बिका ने कमलसदृश नेत्रों वाली काली से कहा — हे चामुण्डे! तुम शीघ्रतापूर्वक अपना मुख पूर्णरूप से फैला लो और मेरे शस्त्राघात के द्वारा [रक्तबीज के शरीर से] निकले रक्त को जल्दी- जल्दी पीती जाओ। तुम दानवों का भक्षण करती हुई इच्छानुसार युद्धभूमि में विचरण करो। मैं तीक्ष्ण बाणों, गदा, तलवार तथा मुसलों से इन दैत्यों को मार डालूँगी ॥ २२-२४ ॥ हे विशाल नयनोंवाली ! तुम इस प्रकार से इस दैत्य के रुधिर का पान करो, जिससे कि अब एक भी बूँद रक्त भूमि पर न गिरने पाये; तब इस ढंग से भक्षण किये जाने पर दूसरे दानव उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। इस प्रकार इन दैत्यों का नाश अवश्य हो जायगा, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ २०-२६ ॥ जब मैं इस दैत्य को मारूँ, तब तुम शत्रुसंहाररूपी इस कार्य में प्रयत्नशील होकर सारा रक्त पीती हुई शीघ्रतापूर्वक इसका भक्षण कर जाना। इस प्रकार दैत्यवध करके स्वर्ग का सारा राज्य इन्द्र को देकर हम सब आनन्दपूर्वक यहाँ से चली जायँगी ॥ २७-२८ ॥ व्यासजी बोल — भगवती अम्बिका के ऐसा कहने पर प्रचण्ड पराक्रमवाली देवी चामुण्डा रक्तबीज के शरीर से निकले हुए समस्त रुधिर को पीने लगीं। जगदम्बा खड्ग तथा मुसल से उस दैत्य को मारने लगीं और कृशोदरी चामुण्डा उसके शरीर के कटे हुए अंगों का भक्षण करने लगीं ॥ २९-३० ॥ अब वह रक्तबीज भी कुपित होकर गदा के प्रहारों से चामुण्डा को घायल करने लगा, फिर भी वे शीघ्रतापूर्वक उसका रुधिर पीती रहीं और उसका भक्षण करती रहीं ॥ ३१ ॥ उस दैत्य के रुधिर से उत्पन्न हुए अन्य जो भी महाबली और क्रूर रक्तबीज थे, उन्हें भी चामुण्डा ने मार डाला। वे देवी उनका भी रक्त पी गयीं और उन सबको खा गयीं ॥ ३२ ॥ इस प्रकार भगवती ने जब सभी कृत्रिम रक्तबीजों का भक्षण कर लिया, तब जो वास्तविक रक्तबीज था, उसे भी मारकर उन्होंने खड्ग से उसके अनेक टुकड़े करके भूमि पर गिरा दिया ॥ ३३ ॥ तत्पश्चात् भयंकर रक्तबीज का वध हो जाने पर जो अन्य दानव रणभूमि में थे, वे भय से काँपते हुए भाग करके शुम्भ के पास पहुँचे। उनका चित्त बहुत व्याकुल था, उनका शरीर रुधिर से लथपथ था, वे शस्त्रविहीन हो गये थे और अचेत-से हो गये थे। वे हाय, हाय – ऐसा पुकारते हुए शुम्भ से कहने लगे — हे राजन्! अम्बिका ने उस रक्तबीज को मार डाला और चामुण्डा उसकी देह से निकला सारा रुधिर पी गयी। जो अन्य दानववीर थे, उन सबको देवी के वाहन सिंह ने बड़ी तेजी से मार डाला और शेष दानवों को भगवती काली खा गयीं ॥ ३४-३७ ॥ हे राजन्! हमलोग आपको युद्ध का वृत्तान्त तथा संग्राम में देवी के द्वारा प्रदर्शित किये गये उनके अत्यन्त अद्भुत चरित्र कों बताने के लिये आपके पास आये हुए हैं ॥ ३८ ॥ हे महाराज! यह देवी दैत्य, दानव, गन्धर्व, असुर, यक्ष, पन्नग, उरग और राक्षस — इन सभी से सर्वथा अजेय है ॥ ३९ ॥ हे महाराज ! इन्द्राणी आदि अन्य प्रमुख देवियाँ भी वहाँ आयी हुई हैं । वे अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर नानाविध आयुध धारण करके घोर युद्ध कर रही हैं । हे राजेन्द्र । उन देवियों ने अपने उत्तम अस्त्रों से दानवों की सारी सेना का विध्वंस कर डाला और रक्तबीज को भी बड़ी शीघ्रता से मार गिराया ॥ ४०-४१ ॥ एकमात्र देवी अम्बिका ही हमलोगों के लिये असह्य थी, और फिर जब वह उन देवियों के साथ हो गयी है तब कहना ही क्या? असीम तेज वाला उसका वाहन सिंह भी संग्राम में राक्षसों का वध कर रहा है ॥ ४२ ॥ अतएव मन्त्रियों के साथ विचार-विमर्श करके जो उचित हो, वह कीजिये। इसके साथ शत्रुता उचित नहीं है, अपितु सन्धि कर लेना ही सुखदायक होगा ॥ ४३ ॥ यह आश्चर्य है कि एक स्त्री राक्षसों का संहार कर रही है ! रक्तबीज भी मार डाला गया! देवी चामुण्डा उसका सारा रक्त भी पी गयी ! हे नृप! अम्बिका ने संग्राम में अन्य दैत्यों को मार डाला और देवी चामुण्डा उनका सम्पूर्ण मांस खा गयी ॥ ४४-४५ ॥ हे महाराज! अब हमलोगों के लिये या तो पाताल चला जाना श्रेयस्कर है अथवा उसकी दासता स्वीकार कर लेना; किंतु उस अम्बिका के साथ युद्ध नहीं करना चाहिये। यह साधारण स्त्री नहीं है, यह देवताओं का कार्य सिद्ध करने वाली है और यह मायारूपिणी शक्तिसम्पन्न देवी के रूप में दैत्यों का नाश करने के लिये प्रकट हुई है ॥ ४६-४७ ॥ व्यासजी बोले — उन सैनिकों की यह यथार्थ बात सुनकर काल से मोहित तथा मरने के लिये उद्यत वह काँपते हुए ओठों वाला शुम्भ उनसे कहने लगा ॥ ४८ ॥ शुम्भ बोला — तुम लोग भयभीत होकर पाताल चले जाओ अथवा उसकी शरण में चले जाओ, किंतु मैं तो युद्ध में पूर्णरूप से तत्पर रहते हुए उस अम्बिका तथा उन देवियों को आज ही मार डालूँगा ॥ ४९ ॥ राज्य का भोग करके भला एक स्त्री के भय से व्याकुल होकर मैं पाताल क्यों चला जाऊँ ? रक्तबीज आदि प्रमुख पार्षदों कों रण में मरवाकर और अपनी विशद कीर्ति का नाश करके प्राणरक्षा के लिये में पाताल क्यों चला जाऊँ ?॥ ५०-५१ ॥ काल के द्वारा निर्धारित प्राणियों की मृत्यु तो अनिवार्य है। जन्म के साथ ही मृत्यु का भय प्राणी के साथ लग जाता है। तब भला कौन (बुद्धिमान) व्यक्ति दुर्लभ यश का त्याग कर सकता है ?॥ ५२ ॥ हे निशुम्भ! मैं रथ पर सवार होकर युद्धभूमि में जाऊँगा और उसे मारकर ही वापस आऊँगा और यदि में उसे मार न सका तो फिर वापस नहीं लौटूँगा ॥ ५३ ॥ हे वीर! तुम भी सेना साथ में लेकर चलो और युद्ध में मेरे सहायक बनो। वहाँ अपने तीश्ष्ण बाणों से मारकर तुम उस स्त्री को शीघ्र ही यमलोक पहुँचा दो ॥ ५४ ॥ निशुम्भ बोला — मैं अभी युद्धक्षेत्र में जाकर दुष्ट कालिका को मार डालूँगा और उस अम्बिका को लेकर शीघ्र ही आपके पास आ जाऊँगा ॥ ५५ ॥ हे राजेन्द्र! आप उस बेचारी के विषय में चिन्ता मत कीजिये। कहाँ यह एक साधारण स्त्री और कहाँ पूरे विश्व को अपने वश में कर लेने वाला मेरा बाहुबल! हे भाई! आप इस भारी चिन्ता को छोड़कर सर्वोत्तम सुखों का उपभोग कीजिये। मैं आदर की पात्र उस मानिनी को अवश्य ही ले आऊँगा ॥ ५६-५७ ॥ हे राजन! मेरे रहते युद्धक्षेत्र में आपका जाना उचित नहीं है। आपका कार्य सिद्ध करने के लिये मैं वहाँ जाकर विजयश्री अवश्य ही प्राप्त करूँगा ॥ ५८ ॥ व्यासजी बोले — बड़े भाई शुम्भ से ऐसा कहकर अपने बल पर-अभिमान रखने वाले छोटे भाई निशुम्भ ने कवच धारण कर लिया और अपनी सेना साथ में लेकर एक विशाल रथ पर आरूढ़ हो स्वयं अनेकविध आयुध लेकर वह पूरी तैयारी के साथ तुरंत बड़ी तेजी से युद्धभूमि की ओर चल पड़ा। उस समय मंगलाचार किया जा रहा था और बन्दीजन तथा चारण उसका यशोगान कर रहे थे ॥ ५९-६० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध के देवीमाहात्म्य में देवी के साथ युद्ध करने के लिये निशुम्भ का प्रस्थान नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ Content is available only for registered users. 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