April 26, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-30 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-त्रिंशोऽध्यायः तीसवाँ अध्याय देवी द्वारा निशुम्भ का वध युद्धात्प्रत्यागतानां रक्षसां शुम्भाय वार्तावर्णनम् व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] वह पराक्रमी निशुम्भ अब मृत्यु अथवा विजय का निश्चय करके पूरी तैयारी के साथ सेनासहित समरभूमि में उपस्थित हो गया ॥ १ ॥ अपनी सेना साथ में लेकर शुम्भ भी आ गया और युद्धकला का पूर्ण ज्ञान रखने वाला वह दैत्यराज शुम्भ रण में दर्शक बनकर युद्ध का अवलोकन करने लगा ॥ २ ॥ इन्द्रसहित समस्त देवता तथा यक्षगण संग्राम देखने की इच्छा से आकाशमण्डल में मेघपटलों में छिपकर विराजमान हो गये ॥ ३ ॥ निशुम्भ रणभूमि में पहुँचकर सींग का बना हुआ धनुष लेकर भगवती जगदम्बा को भयभीत करने के लिये उनके ऊपर बाणों की बौछार करने लगा ॥ ४ ॥ युद्धभूमि में निशुम्भ को बाण-समूह छोड़ते हुए देखकर भगवती चण्डिका अपना उत्कृष्ट धनुष धारण करके उच्च स्वर में बार-बार हँसने लगीं। देवी चण्डिका ने काली से कहा — हे काली ! इन दोनों की मूर्खता तो देखो, ये दोनों इस समय यहाँ मेरे पास मरने के लिये ही आये हुए हैं ॥ ५-६ ॥ दैत्यों का भीषण संहार तथा रक्तबीज की मृत्यु देखकर भी मेरी माया से विमोहित हुए ये दोनों दैत्य विजय की आशा कर रहे हैं ॥ ७ ॥ यह आशा बड़ी बलवती होती है; यह प्राणियों को कभी नहीं छोड़ती है । यहाँ तक कि अंगहीन, बलहीन, नष्टप्राय, असहाय तथा अचेत प्राणी भी आशा के प्रभाव से छूट नहीं पाता है ॥ ८ ॥ कालि ! इस प्रकार आशा पाश में बँधे हुए ये दोनों शुम्भ निशुम्भ युद्ध के लिये समरभूमि में आये हुए हैं, अब मुझे इन दोनों का वध कर देना चाहिये ॥ ९ ॥ आसन्न मृत्युवाले ये दोनों दैत्य प्रारब्ध की प्रेरणा से यहाँ आये हुए हैं। सभी देवताओं के समक्ष आज ही मैं इन्हें मार डालूँगी ॥ १० ॥ व्यासजी बोले — भगवती चण्डिका ने कालिका से ऐसा कहकर कानों तक खींचकर छोड़े गये बाण-समूहों से अपने समक्ष खड़े निशुम्भ को शीघ्र ही आच्छादित कर दिया ॥ ११ ॥ दैत्य निशुम्भ ने भी उन चण्डिका के बाणों को अपने तीक्ष्ण बाणों से काट डाला। इस प्रकार उन दोनों में परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा ॥ १२ ॥ दैत्यों के सेनारूपी समुद्र को उसी प्रकार मथने लगा, जैसे देवी का सिंह भी अपने गर्दन के बालों को झाड़ता हुआ कोई बलवान् हाथी तालाब को मथ रहा हो ॥ १३ ॥ जिस प्रकार कोई सिंह मतवाले हाथियों के अंग-प्रत्यंग चीरकर खा डालता है, उसी प्रकार भगवती का वह सिंह अपने समक्ष स्थित दानवों को अपने नखों तथा दाँतों के प्रहारसे फाड़कर खाने लगा ॥ १४ ॥ भगवती के उस सिंह द्वारा दानवी सेना का इस प्रकार संहार होते देखकर निशुम्भ अपना श्रेष्ठ धनुष चढ़ाकर सिंह के पीछे दौड़ा ॥ १५ ॥ उसी समय कोप के कारण लाल नेत्रोंवाले अन्य बहुत से प्रधान दानव भी दाँतों से अपनी जीभ चबाते हुए भगवती को मारने के लिये उनपर टूट पड़े ॥ १६ ॥ उसी अवसर पर कुपित होकर शुम्भ भी कालिका पर प्रहार करके भगवती अम्बिका को पकड़ने के लिये अपनी सेना के साथ बड़े वेग से वहाँ आ पहुँचा ॥ १७ ॥ वहाँ आकर उसने जगदम्बिका को युद्धभूमि में अपने सामने खड़ी देखा; जो परम सुन्दरी, श्रृंगाररस से परिपूर्ण तथा रौद्ररस से भरी हुई थीं ॥ १८ ॥ [ स्वभावतः ] लाल नेत्रों वाली, किंतु उस समय कोप के कारण अतिरक्त नयनोंवाली, तीनों लोकों में परम सुन्दरी तथा विशाल नेत्रप्रान्तों वाली उन मनोहर भगवती को देखकर विजय की आशा तथा विवाह की अभिलाषा का दूर से ही परित्याग करके वह दानव अब अपने मरण का निश्चय-कर हाथ में धनुष लिये हुए खड़ा ही रह गया ॥ १९-२० ॥ तब भगवती ने युद्धस्थल में उपस्थित उन सभी दानवों को सुनाते हुए मुसकराकर उस दैत्य से यह वचन कहा — हे नीच दानवो ! यदि तुम सब जीवित रहने की इच्छा रखते हो तो अपने आयुध यहीं छोड़कर पाताल लोक या समुद्र में चले जाओ अथवा तुम लोग समरांगण में मेरे बाणों के प्रहार से निष्प्राण होकर स्वर्ग में सुख प्राप्तकर वहाँ निर्भय होकर विहार करो। कायरता तथा पराक्रम दोनों का एक साथ रह पाना सम्भव नहीं है। मैं तुम सबको अभयदान देती हूँ; तुम सब सुखपूर्वक चले जाओ ॥ २१-२४ ॥ व्यासजी बोले — उन भगवती का वचन सुनकर मदोन्मत्त निशुम्भ तीक्ष्ण खड्ग तथा अष्टचन्द्र नामक ढाल लेकर बड़े वेग से दौड़ा और उसने बलपूर्वक अपने खड्ग से मतवाले सिंह के मस्तक पर प्रहार किया। तत्पश्चात् उसने तलवार घुमाकर जगदम्बा पर भी प्रहार किया ॥ २५-२६ ॥ तब भगवती ने अपनी गदा से उसके तलवार के प्रहार को रोककर अपने परशु से उसके बाहुमूल (कन्धे ) – पर आघात किया ॥ २७ ॥ अपने कन्धे पर खड्ग से प्रहार होने पर भी उस महाभिमानी अहंकारी निशुम्भ ने उस आघात की वेदना सहकर भगवती चण्डिका पर पुनः प्रहार किया ॥ २८ ॥ तत्पश्चात् भगवती चण्डिका ने भी प्राणियों को भयभीत कर देनेवाली भीषण घंटाध्वनि की और निशुम्भ को मारने की इच्छा प्रकट करती हुई उन्होंने बार-बार मधुपान किया ॥ २९ ॥ इस प्रकार एक- दूसरे को जीतने की प्रबल इच्छा वाले देवताओं तथा दानवों में परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ ३० ॥ मांसाहारी क्रूर पक्षी, कुत्ते, सियार, गीध, कंक, तथा कौए अति प्रसन्न होकर नृत्य करने लगे ॥ ३१ ॥ शरीरों से तथा मृत हाथियों और घोड़ों से पटी हुई वह उस समय बहुत से मृत दैत्यों के रक्त बहते हुए रणभूमि अत्यधिक [भयानक ] प्रतीत हो रही थी ॥ ३२ ॥ [ भूमि पर] गिरे हुए दानवों को देखकर निशुम्भ अत्यन्त कुपित हो उठा और एक भयंकर गदा लेकर शीघ्रतापूर्वक भगवती के समक्ष पहुँच गया ॥ ३३ ॥ अभिमान में चूर उस निशुम्भ ने सिंह के मस्तक पर गदा से प्रहार किया। तत्पश्चात् उसने मुसकराकर पुनः देवी पर प्रहार करके उन्हें चोट पहुँचायी ॥ ३४ ॥ इससे वे भगवती भी अत्यन्त कुपित हो गयीं और समक्ष स्थित होकर प्रहार कर रहे उस निशुम्भ को देखकर कहने लगीं — ॥ ३५ ॥ देवी बोलीं — हे मन्दबुद्धि ! मैं तलवार चला रही हूँ । तुम तब तक लिये ठहर जाओ, जबतक मेरी यह तलवार तुम्हारी गर्दन तक नहीं पहुँच जाती। इसके बाद तुम यमपुरी निश्चय ही पहुँच जाओगे ॥ ३६ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर भगवती चण्डिका ने एकाग्रचित्त होकर बड़ी शीघ्रता से अपने कृपाण से उस निशुम्भ का मस्तक काट दिया ॥ ३७ ॥ इस प्रकार भगवती के द्वारा सिर कटा हुआ अत्यन्त विकराल वह धड़ हाथ में गदा धारण किये देवगणों को भयभीत करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा ॥ ३८ ॥ तत्पश्चात् भगवती ने तीक्ष्ण बाणों से उसके दोनों हाथ तथा पैर भी काट दिये। इसके बाद पर्वत के समान शरीरवाला वह पापी दैत्य प्राणहीन होकर धरती पर गिर पड़ा ॥ ३९ ॥ प्रचण्ड पराक्रम वाले उस निशुम्भ दैत्य के गिर जाने पर भय से कम्पित दानव सेना में महान् हाहाकार मच गया। रक्त से लथपथ समस्त दानव सैनिक अपने-अपने सभी आयुध फेंककर चीख-पुकार करते हुए राजभवन की ओर भाग गये ॥ ४०-४१ ॥ शत्रुओं के संहार की शक्ति रखने वाले शुम्भ ने वहाँ आये हुए उन सैनिकों को देखकर उनसे पूछा — निशुम्भ कहाँ है और घायल होकर तुम सब युद्धभूमि से भाग क्यों आये ? ॥ ४२ ॥ दानवराज शुम्भ का वह वचन सुनकर उन सैनिकों ने अति विनम्रतापूर्वक कहा — हे राजन्! आपके भाई निशुम्भ मृत होकर रणभूमि में सोये पड़े हैं ॥ ४३ ॥ उस स्त्री ने आपके अनुज (निशुम्भ) – के जो भी अनुचर दानववीर थे, उन्हें मार डाला। यही सब समाचार आपको बताने के लिये हम यहाँ आये हुए हैं ॥ ४४ ॥ उस चण्डिकाने इसी समय युद्धभूमिमें निशुम्भका संहार किया है। अतएव हे राजन् ! उसके साथ समरभूमि में आपके लिये आज युद्ध करने का [उचित] अवसर नहीं है ॥ ४५ ॥ आप यह निश्चितरूप से जान लीजिये कि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से दानव-कुल का संहार करने के लिये यह कोई अद्भुत देवी प्रकट हुई है ॥ ४६ ॥ यह सामान्य नारी नहीं है, अपितु देवीरूपिणी कोई अत्युत्तम शक्ति है। अद्भुत चरित्रोंवाली ये देवी देवताओं के भी ज्ञान से परे हैं ॥ ४७ ॥ ये कल्याणी भगवती अनेक रूप धारण करने में समर्थ हैं, माया के मूल तत्त्व का पूर्ण ज्ञान रखने वाली हैं और अद्भुत भूषण तथा समस्त प्रकार के आयुध धारण करने वाली हैं ॥ ४८ ॥ गूढ़ चरित्रों वाली इन देवी को जान पाना अत्यन्त कठिन है। ये दूसरी कालरात्रि के समान प्रतीत होती हैं। असीम के भी पार जा सकने में समर्थ ये पूर्णतामयी देवी सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं ॥ ४९ ॥ समस्त देवतागण अन्तरिक्ष में स्थित होकर देवकार्य सिद्ध करने वाली परम अद्भुतस्वरूपिणी उन देवी का निर्भीकतापूर्वक स्तवन कर रहे हैं ॥ ५० ॥ यदि आप शरीर की रक्षा करना चाहते हैं तो इस समय पलायन ही परम धर्म है। इस शरीर की रक्षा हो जाने के बाद पुनः आनन्ददायक अनुकूल समय आने पर संग्राम में आपकी विजय होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। हे राजन् ! कभी-कभी काल बलवान् को भी बलहीन बना देता है और पुनः समय आने पर उसे बलशाली बनाकर विजय की प्राप्ति करा देता है। कभी-कभी काल विषम परिस्थिति में दाता को भिखारी बना देता है और पुनः कुछ समय बीतने पर उसी भिखारी को धन देने वाला बना देता है ॥ ५१-५३१/२ ॥ विष्णु, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता निश्चितरूप से सदा काल के वशवर्ती हैं। यह काल स्वयं ही सबका स्वामी है। हे राजन्! अभी काल आपके लिये विपरीत है, अतएव आप समय की प्रतीक्षा कीजिये ॥ ५४-५५ ॥ हे पृथ्वीपते ! इस समय काल देवताओं के लिये अनुकूल तथा दैत्यों के लिये विनाशकारी है। काल की गति सर्वथा एक ही तरह की नहीं बनी रहती है। यह काल – गति नानाविध रूप भी धारण करती है। अतः काल की चेष्टा पर विचार करते रहना चाहिये। कभी प्राणियों का जन्म होता है। और कभी उनका मरण उपस्थित हो जाता है। एक काल उत्पत्ति का हेतु होता है तो दूसरा काल विनाश का हेतु बन जाता है ॥ ५६-५७१/२ ॥ हे महाराज ! आपके समक्ष इसका प्रमाण विद्यमान है कि पहले इन्द्र आदि सभी देवता आपके लिये अनुकूल समय रहने पर आपके करदाता बन गये थे, किंतु आज उसी काल के विपरीत हो जाने के कारण एक अबला ने बलशाली असुरों का संहार कर डाला। यही काल हित भी करता है तथा अहित भी करता है। इस पराजय में न तो काली कारण हैं और न तो सनातन देवता ही कारण हैं ॥ ५८-६० ॥ हे राजन्! आपको जैसा उचित जान पड़े भलीभाँति सोच-समझकर आप वैसा ही कीजिये। हमारी समझ में तो यह काल अभी आपके तथा अन्य दानवों के लिये भी अनुकूल नहीं है ॥ ६१ ॥ किसी समय संग्राम में घायल होकर तथा अपने आयुध छोड़कर इन्द्र आपके सामने से भाग गये थे। ऐसे ही विष्णु, रुद्र, वरुण, कुबेर, यम आदि देवता भी आपके समक्ष टिक नहीं पाये थे । अतः हे राजेन्द्र ! इस समस्त जगत् को काल के अधीन मानकर आप भी तत्काल पाताल- लोक चले जाइये। जीवन बचा रहा तो आप कल्याण अवश्य प्राप्त करेंगे ॥ ६२-६३ ॥ हे महाराज ! यदि कहीं आपका निधन हो गया तो आपके शत्रु प्रसन्नतापूर्वक मंगलगान करते हुए निर्भय होकर सर्वत्र विचरण करेंगे ॥ ६४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘युद्ध से वापस आये राक्षसों का शुम्भ के साथ वार्तालाप’ नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥ Content is available only for registered users. 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