April 27, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-35 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-पञ्चत्रिंशोऽध्यायः पैंतीसवाँ अध्याय सुरथ और समाधि की तपस्या से प्रसन्न भगवती का प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना सुरथराजसमाधिवैश्ययोर्देवीभक्त्येष्टप्राप्तिवर्णनम् व्यासजी बोले — उनका यह वचन सुनकर दुःखित हृदय वाले वैश्य और राजा ने प्रसन्नतापूर्वक विनम्रभाव से मुनि के चरणों में प्रणाम किया। भक्तिपरायण चित्तवाले, शान्त स्वभाव वाले तथा हर्ष के कारण खिले हुए नेत्रों वाले वे दोनों वाक्यविशारद राजा और वैश्य हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ १-२ ॥ हे भगवन्! हम दोनों दुःखी जनों को आपकी सूक्तिरूपिणी वाणी ने उसी प्रकार शान्त तथा पवित्र कर दिया, जैसे गंगा ने राजा भगीरथ को कर दिया था ॥ ३ ॥ सज्जन लोग परोपकारपरायण, स्वाभाविक रूप से गुणों के भण्डार और सभी प्राणियों को सुख देने वाले होते हैं। पूर्वजन्मों के पुण्य के कारण ही महान् दुःख का नाश करने वाले आपके इस शुभ आश्रम में हम दोनों का आना हुआ। पृथ्वी पर बहुत – से स्वार्थी मनुष्य होते हैं, परंतु दूसरों के हितसाधन में कुशल आप जैसे कुछ ही लोग कहीं-कहीं मिलते हैं। हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं दुःखी हूँ और ये वैश्य अत्यन्त दुःखी हैं। हम दोनों इस संसार से पीड़ित हैं । हे विद्वन्! आपके इस आश्रम में आकर प्रसन्नतापूर्वक आपके दर्शन और उपदेश- श्रवण से हमारा शारीरिक तथा मानसिक क्लेश दूर हो गया ॥ ४–८ ॥ हे ब्रह्मन् ! आपकी अमृतमयी वाणी के रस से हम दोनों धन्य और कृतकृत्य हो गये। हे करुणासागर! आपने अपनी कृपासे हम दोनों को पवित्र कर दिया ॥ ९ ॥ हे साधो ! हम दोनों थककर इस संसाररूपी महासागर में डूब रहे हैं — यह जानकर अब आप हम दोनों का हाथ पकड़िये और मन्त्रदान देकर भवसागर से पार कर दीजिये ॥ १० ॥ अब अत्यन्त कठोर तपस्या करके हम दोनों सुख प्रदान करने वाली जगदम्बा का आराधन करके उनका दर्शन प्राप्तकर अपने-अपने घरों को वापस जायँगे ॥ ११ ॥ आपके मुख से देवी का नवाक्षर-मन्त्र ग्रहण करके हम दोनों निराहार रहकर व्रत करेंगे और उस मन्त्र का जप करेंगे ॥ १२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार उन दोनों के आग्रह करनेपर मुनिश्रेष्ठ सुमेधा ने उन्हें ध्यान – बीज सहित देवी का मंगलकारी नवाक्षरमन्त्र प्रदान किया ॥ १३ ॥ वे दोनों वैश्य और राजा मुनि से मन्त्र, ऋषि, देवता आदि का ज्ञान प्राप्त करके नदी के अत्युत्तम तट पर चले गये ॥ १४ ॥ अत्यन्त कृशकाय वे दोनों एकान्त में निर्जन स्थान पर आसन लगाकर स्थिरचित्त होकर बैठ गये ॥ १५ ॥ उन दोनों ने शान्तचित्त तथा ध्यानपरायण होकर मन्त्रजप और भगवती के तीनों चरित्रों का पाठ करते हुए एक मास का समय व्यतीत कर दिया ॥ १६ ॥ उनके एक मास के व्रत से ही उनमें भगवती भवानी के चरणकमल में उत्तम प्रीति उत्पन्न हो गयी और उनकी बुद्धि स्थिर हो गयी ॥ १७ ॥ वे दोनों नित्य जाकर एक बार महात्मा [ सुमेधा ] मुनिके चरणों में प्रणाम करते थे और वहाँ से लौटकर फिर अपने कुशासन पर बैठ जाते थे। वे दोनों अन्य कोई भी कार्य नहीं करते थे और सदैव देवी के ध्यान तथा मन्त्रजप में संलग्न रहते थे ॥ १८-१९ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण होने पर वे फलाहार का त्याग करके पत्ते के आहार पर रहने लगे। उन दोनों — वैश्य और राजा ने एक वर्ष तक सूखे पत्ते खाकर इन्द्रियों को वश में करके जप और ध्यान में रत रहते हुए तप किया ॥ २०-२१ ॥ इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत होने पर उन दोनों को किसी समय स्वप्न में भगवती का मनोहारी दर्शन प्राप्त हुआ। राजा ने स्वप्न में देवी जगदम्बिका को लाल वस्त्र धारण किये हुए तथा सुन्दर आभूषणों से अलंकृत देखा ॥ २२-२३ ॥ स्वप्न में देवी का दर्शन प्राप्तकर दोनों प्रेमभाव से परिपूर्ण हो गये। अब वे दोनों तीसरे वर्ष में मात्र जल के आहार पर रहने लगे ॥ २४ ॥ इस प्रकार तीन वर्ष तक तपस्या करनेके पश्चात् वे दोनों – राजा और वैश्य मन में देवी के साक्षात् दर्शन की लालसा से चिन्तित हो उठे ॥ २५ ॥ अत्यन्त दुःखी तथा व्याकुल होकर उन दोनों ने निश्चय किया कि मनुष्यों को शान्ति प्रदान करने वाली देवी का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं प्राप्त हुआ, अतः अब हम शरीर का त्याग कर देंगे ॥ २६ ॥ ऐसा मन में विचारकर राजा ने एक हाथ प्रमाण का त्रिभुजा-कार, सुन्दर तथा सुस्थिर अग्निकुण्ड बनाया। उसमें अग्नि की स्थापना करके राजा अपना मांस काट-काटकर बार-बार हवन करने लगे। साथ ही अत्यन्त भक्तिमान् वह वैश्य भी प्रदीप्त अग्नि में अपना मांस डालने लगा। तत्पश्चात् वे दोनों जब अपने रुधिर से इन देवी को बलि देने के लिये उद्यत हुए तब भगवती ने उन दोनों को प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें भक्ति में तन्मय और अत्यन्त दुःखी देखकर उनसे कहा — ॥ २७–३० ॥ देवी बोलीं — ‘हे राजन् ! अपना मनोभिलषित वर माँगो, मैं आज तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट हूँ । अब मैंने समझ लिया कि तुम मेरे भक्त हो ।’ उसके बाद देवी ने वैश्य से कहा — हे महामते ! मैं प्रसन्न हूँ । तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? तुम्हारे मन में जो भी हो माँग लो, मैं उसे दूँगी ॥ ३१-३२ ॥ व्यासजी बोले — उनके इस वचन को सुनकर प्रसन्न मन वाले राजा ने उनसे कहा कि बलपूर्वक मैं शत्रुओं का नाशकर अपना राज्य प्राप्त करूँ मुझे आज यह वरदान दीजिये ॥ ३३ ॥ तब देवी ने उनसे कहा — हे राजन् ! अपने घर को जाओ, तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही क्षीण बलवाले होकर पराजित हो जायँगे। हे महाभाग ! उनके मन्त्रिगण आकर तुम्हारे पैरों पर गिरेंगे। अब आप अपने नगर में सुखपूर्वक राज्य करें। हे राजन् ! अपने विस्तृत साम्राज्य का दस हजार वर्षों तक शासन करके देहत्याग के बाद सूर्य से जन्म प्राप्त करके तुम [सावर्णि] मनु होओगे ॥ ३४-३६ ॥ व्यासजी बोले — शुद्धहृदय वैश्य ने हाथ जोड़कर कहा — अब मुझे न घर की आवश्यकता है, न धन की और न पुत्र की ही। ये सभी बन्धन में डालनेवाले और स्वप्न की भाँति नश्वर हैं, अतः आप मुझे बन्धन का नाश करने वाला और मोक्ष देने वाला दिव्य ज्ञान प्रदान करें। इस असार संसार में अज्ञानी डूब जाते हैं और ज्ञानी पार उतर जाते हैं, इसलिये वे संसार की इच्छा नहीं करते ॥ ३७-३९ ॥ व्यासजी बोले — तब अपने समक्ष खड़े वैश्यकी बात सुनकर देवी महामाया ने कहा — हे वैश्यश्रेष्ठ ! तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४० ॥ इस प्रकार उन दोनों को वरदान देकर देवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं। तब भगवती के अन्तर्धान हो जाने पर राजा सुरथ ने उन मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके घोड़े पर चढ़कर चलने का निश्चय किया, तभी उनके प्रजाजन और मन्त्रिगण वहाँ आ गये। उन्होंने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर प्रणाम करके राजा से कहा — हे राजन् ! आपके पापी शत्रुगण युद्ध में मारे गये। अब आप अपने नगर में चलकर निष्कण्टक राज्य कीजिये ॥ ४१-४३१/२ ॥ उनकी बात सुनकर राजा मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके उनसे आज्ञा लेकर मन्त्रियों के साथ चल दिये। वे अपने राज्य, स्त्री और बन्धु-बान्धवों को पाकर समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोगने लगे ॥ ४४-४५१/२ ॥ वैश्य भी ज्ञान प्राप्त करके सर्वथा आसक्तिरहित और बन्धन से मुक्त होकर तीर्थों में भ्रमण करता हुआ तथा भगवती के गुणों का गान करता हुआ समय व्यतीत करने लगा ॥ ४६-४७ ॥ इस प्रकार देवी की परम अद्भुत लीला तथा राजा और वैश्य द्वारा की गयी उनकी आराधना एवं फलप्राप्ति को मैंने यथार्थ रूप से आपसे कहा । देवी के शुभ आविर्भाव और उनके द्वारा दैत्यों के विनाश की कथा भी मैंने आपसे कही। भक्तों को अभय प्रदान करने वाली वे भगवती ऐसे प्रभाववाली हैं ! ॥ ४८-४९ ॥ जो मनुष्य उनके इस उत्तम आख्यान को नित्य सुनता है, वह संसार में अद्भुत सुख प्राप्त करता है, यह सत्य है। इस पवित्र और अद्भुत आख्यान का श्रवण करने से यह ज्ञान, मोक्ष, कीर्ति और सुख प्रदान करता है। यह मनुष्यों की सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा समस्त धर्मों का सार और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का परम कारण बताया गया है ॥ ५०-५२ ॥ सूतजी बोले — हे मुनिगण ! राजा जनमेजय के पूछने पर सभी अर्थ – तत्त्वों को जाननेवाले सत्यवतीपुत्र वेदव्यास ने उनसे यह दिव्य देवीभागवतसंहिता कही । परम दयालु भगवान् कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने शुम्भदैत्य के वध की कथा पर आधारित देवी चण्डिका के चरित्र का वर्णन किया था। समस्त पुराणों का सारस्वरूप इतिहास मैंने आपलोगों से कह दिया ॥ ५३-५४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘राजा सुरथ और समाधि वैश्य को देवी की भक्ति से इष्ट की प्राप्ति का वर्णन’ नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥ ॥ पंचम स्कन्ध समाप्त ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe