April 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-07 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः सातवाँ अध्याय त्वष्टा का वृत्रासुर की पारलौकिक क्रिया करके इन्द्र को शाप देना, इन्द्र को ब्रह्महत्या लगना, नहुष का स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणी पर आसक्त होना इन्द्रस्य पद्मनालप्रवेशानन्तरं नहुषस्य देवेन्द्रपदेऽभिषेकवर्णनम् व्यासजी बोले — इस प्रकार उसे गिरा हुआ देखकर मन-ही-मन हत्या के भय से सशंकित भगवान् विष्णु वैकुण्ठलोक को चले गये ॥ १ ॥ तत्पश्चात् इन्द्र भी भयभीत होकर इन्द्रपुरी को चल दिये। उस शत्रु (वृत्रासुर ) – के मारे जाने पर मुनिगण भी भयग्रस्त हो गये कि हमने छलपूर्ण यह कैसा पापकृत्य कर डाला । इन्द्र का साथ देने से हमारा ‘मुनि’ नाम व्यर्थ हो गया ॥ २-३ ॥ हमारी ही बातों से वृत्रासुर को विश्वास आया; विश्वासघाती के संग से हम सब भी विश्वासघाती हो गये ॥ ४ ॥ पाप की जड़ और अनर्थकारी इस ममता को धिक्कार है, जिसके कारण हम लोगों ने छलपूर्वक शपथ ली और उस असुर (वृत्रासुर) को धोखा दिया ॥ ५ ॥ पाप करने का परामर्श देने वाला, पाप करने के लिये बुद्धि देने वाला, पाप की प्रेरणा देने वाला तथा पाप करने वालों का पक्ष लेने वाला भी निश्चय ही पापकर्ता के समान पापभाजन होता है ॥ ६ ॥ वज्र में प्रविष्ट होकर वृत्र की हत्या करने में सत्त्वगुण के मूर्तरूप भगवान् विष्णु ने इन्द्र की सहायता की और उसे मारा, अतः उन्होंने भी पाप किया ॥ ७ ॥ स्वार्थपरायण प्राणी पाप से भयभीत नहीं होता । विष्णु ने इन्द्र का साथ देकर सर्वथा दुष्कृत कर्म किया ॥ ८ ॥ चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) में से दो ही रह गये हैं और दो समाप्त हो गये हैं। उनमें भी प्रथम पदार्थ धर्म और चतुर्थ पदार्थ मोक्ष दोनों त्रिलोक में दुर्लभ ही हो गये हैं ॥ ९ ॥ अर्थ और काम ही सबके प्रिय और प्रशस्त माने गये हैं। धर्म और अधर्म की विवेचना — यह बड़े लोगों का वाचिक दम्भमात्र ही रह गया है ।॥ १० ॥ इस प्रकार मुनिगण भी बार-बार मन में सन्ताप करके उदास मन से हतोत्साह होकर अपने-अपने आश्रमों को चले गये ॥ ११ ॥ हे भारत ! उधर अपने पुत्र को इन्द्र द्वारा मारा गया सुनकर त्वष्टा दुःख से सन्तप्त होकर अत्यन्त दुःखित हो रोने लगे; उन्हें इससे बहुत वेदना हुई ॥ १२ ॥ तदनन्तर जहाँ वह (वृत्र) गिरा पड़ा था, वहाँ जाकर उसे उस स्थिति में देखकर त्वष्टा ने विधिपूर्वक उसका पारलौकिक संस्कार कराया ॥ १३ ॥ तत्पश्चात् स्नान करके, जलाञ्जलि देकर उसका और्ध्वदैहिक कर्म सम्पन्न करने के पश्चात् उन शोकसन्तप्त त्वष्टाने पापी और मित्रघाती इन्द्र को इस प्रकार शाप दे दिया कि जिस प्रकार शपथों से प्रलोभित कर इन्द्र ने मेरे पुत्र को मार डाला है, उसी प्रकार वह भी विधाता द्वारा दिये हुए महान् दु:ख प्राप्त करे ॥ १४-१५ ॥ इस प्रकार देवराज इन्द्र को शाप देकर सन्तप्त त्वष्टा सुमेरुपर्वत शिखर का आश्रय लेकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे ॥ १६ ॥ जनमेजय बोले — हे पितामह! वृत्रासुर को मारने के बाद इन्द्र की क्या दशा हुई ? उन्हें बाद में सुख मिला या दुःख, इसे मुझे बताइये ॥ १७ ॥ व्यासजी बोले — हे महाभाग ! तुम क्या पूछ रहे हो, [ इस विषय में] तुम्हें क्या सन्देह है ? किये गये शुभ-अशुभ कर्मका फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है। देवता, राक्षस और मनुष्यसहित बलवान् या दुर्बल कोई भी हो – सभी को अपने द्वारा किये गये अत्यन्त अल्प या अधिक कर्म का फल सर्वथा भोगना ही पड़ता है ॥ १८-१९ ॥ भगवान् विष्णु ने वृत्रघाती इन्द्र को इस प्रकार की मति प्रदान की थी। वे विष्णु उनके वज्र में प्रविष्ट हुए थे तथा उनके सहायक बने थे; परंतु विपत्ति में उन्होंने किसी भी तरह सहायता नहीं की। हे राजन्! इस संसार में अच्छे समय में सभी लोग अपने बन जाते हैं, किंतु दैव के प्रतिकूल होने पर कोई भी सहायक नहीं होता। पिता, माता, पत्नी, सहोदर भाई, सेवक और औरस पुत्र — कोई भी दैव के प्रतिकूल हो जाने पर सहायता नहीं करता। पाप या पुण्य करने वाला ही उसका भागी होता है ॥ २०-२३१/२ ॥ वृत्र के मारे जाने पर अन्य सभी लोग चले गये; इन्द्र तेजहीन हो गये। सभी देवता उसकी निन्दा करने लगे और ‘यह ब्रह्महत्यारा है’ – ऐसा मन्द स्वर में कहने लगे। कौन ऐसा होगा जो शपथ खाकर और वचन देकर अत्यन्त विश्वास में आये हुए तथा मित्रता को प्राप्त मुनि को मारने की इच्छा करेगा ! उसकी यह बात देवताओं की सभा में, देवोद्यान में तथा गन्धर्वों के समाज में सर्वत्र फैल गयी। हत्या करने की इच्छा वाले इन्द्र ने आज यह कैसा दुष्कृत कर्म कर डाला! मुनियों के द्वारा विश्वास दिलाये गये वृत्रासुर को छलपूर्वक मार करके (मानो) इन्द्र ने वेदों की प्रामाणिकता का त्यागकर सौगतों का मत स्वीकार कर लिया। इन्द्र ने छल करके अत्यन्त साहस से शत्रु को मार डाला। वचन देकर भी जिस प्रकार [छलपूर्वक ] यह वृत्रासुर मारा गया, वैसा विपरीत आचरण इन्द्र और विष्णु के अतिरिक्त कौन होगा, जो कर सकता है ! इस प्रकार की कथाएँ तथा और भी बातें लोगों में व्यापक रूप से होने लगीं ॥ २४-३० ॥ – इन्द्र भी अपनी कीर्ति नष्ट करने वाली तरह तरह की बातें सुनते रहे । संसार में जिसकी कीर्ति नष्ट हो गयी, उसके कलुषित जीवन को धिक्कार है। रास्ते में जाते हुए ऐसे व्यक्ति को देखकर शत्रु हँस पड़ता है। राजर्षि इन्द्रद्युम्न ने कोई पाप नहीं किया था फिर भी कीर्ति नष्ट हो जाने से वे स्वर्ग से गिर गये थे; तब पाप करने वाला कैसे नहीं गिरेगा? राजा ययाति का बहुत थोड़े से अपराध पर पतन हो गया था। इसी प्रकार एक राजा को अठारह युगों तक केकड़े की योनि में रहना पड़ा था। भृगु की पत्नी का मस्तक काटने के कारण अच्युत भगवान् श्रीहरि को ब्रह्मशाप से मकर आदि रूपों में पशुयोनि में जन्म लेना पड़ा। विष्णु को भी वामन होकर याचना के लिये बलि के घर जाना पड़ा; तब यदि कुकर्मी मनुष्य दुःख पाये तो क्या आश्चर्य है ! हे भारत ! श्रीरामचन्द्रजी को भी भृगु के शाप से वनवासकाल में सीता से वियोग का महान् कष्ट उठाना पड़ा। उसी प्रकार इन्द्र को भी ब्रह्महत्या के कारण महान् भय प्राप्त हुआ। समस्त सिद्धियों से युक्त राजप्रासाद में भी उन्हें सुख नहीं प्राप्त होता था। उन्हें दीर्घ श्वास लेते, भयग्रस्त, चेतनारहित, खिन्नमनस्क और सभा में न जाते देखकर शची ने पूछा — हे प्रभो ! आजकल आप भयभीत क्यों रहते हैं, आपका भयंकर शत्रु तो मर गया है। हे कान्त ! हे शत्रुहन्ता ! आपको क्या चिन्ता है ? हे लोकेश ! साधारण मनुष्य की भाँति लम्बी-लम्बी साँसें लेते हुए आप शोक क्यों करते हैं ? आपका कोई बलवान् शत्रु भी तो नहीं है, जिससे आप चिन्ताकुल हों ॥ ३१-४०१/२ ॥ इन्द्र बोले — हे राज्ञि ! यद्यपि अब मेरा कोई बलवान् शत्रु नहीं है तथापि ब्रह्महत्या के भय से मैं निरन्तर डरता रहता हूँ। घर में रहते हुए भी मुझे न सुख है और न शान्ति । नन्दनवन, अमृत, घर तथा वन — कुछ भी मुझे सुखकर नहीं लगता । गन्धर्वों का गान और अप्सराओं का नृत्य तथा यहाँ तक कि तुम और अन्य देवांगनाएँ भी मुझे सुखकर नहीं लगतीं। न कामधेनु और न ही कल्पवृक्ष मुझे सुख प्रदान करते हैं। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मुझे शान्ति कहाँ मिलेगी ? हे प्रिये ! इसी चिन्ता में पड़ा हुआ मैं अपने मन में शान्ति नहीं प्राप्त कर पा रहा हूँ ॥ ४१-४४१/२ ॥ व्यासजी बोले — अत्यन्त घबरायी हुई अपनी प्रिय पत्नी से ऐसा कहकर भयभीत और दुःखी इन्द्र घर से निकलकर उत्तम मानसरोवर को चले गये और वहाँ एक कमलनाल में प्रविष्ट हो गये। पापकर्मों से पराभूत हुए देवराज इन्द्र ज्ञानशून्य हो गये थे। वे सर्प के समान चेष्टा करते हुए जल में छिपकर रह रहे थे। उस समय वे इन्द्र असहाय, चिन्तित और व्याकुल इन्द्रियों वाले हो गये ॥ ४५ – ४७१/२ ॥ ब्रह्महत्या के भय से दुःखी होकर देवराज इन्द्र के अदृश्य हो जाने पर देवगण चिन्तातुर हो उठे तथा अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे। ऋषि, सिद्ध और गन्धर्वगण भी अत्यन्त भयभीत हो गये। उपद्रवों के होने से सम्पूर्ण जगत् अराजकता से ग्रस्त हो गया। उस समय अनावृष्टि उपस्थित हो गयी और पृथ्वी वैभवशून्य हो गयी, नदियों के स्रोत सूख गये और तालाब बिना जल के हो गये — इस प्रकार की अराजकता को देखकर स्वर्ग के देवताओं और मुनियों ने विचार करके नहुष को इन्द्र बना दिया ॥ ४८- ५११/२ ॥ राज्य प्राप्त करने पर नहुष धर्मात्मा होते हुए भी राजसी वृत्ति के कारण कामबाण से आहत हो विषयासक्त हो गये। हे भारत! देवोद्यानों में क्रीडारत रहते हुए वे सदा अप्सराओं से घिरे रहते थे ॥ ५२-५३ ॥ उस राजा नहुष के मन में इन्द्राणी शची के गुणों को सुनकर उन्हें प्राप्त करने की इच्छा हुई। उसने ऋषियों से कह — मेरे पास इन्द्राणी क्यों नहीं आती? आपलोग और देवताओं ने मुझे इन्द्र बनाया, इसलिये हे देवताओ ! शची को मेरी सेवा के लिये भेजिये । हे मुनियो तथा देवताओ ! आप लोगों को मेरा प्रिय कार्य अवश्य करना चाहिये। इस समय मैं देवताओं का इन्द्र और समस्त लोकों का स्वामी हूँ; शची शीघ्र ही आज मेरे भवन में आ जायँ ॥ ५४-५६१/२ ॥ उसकी यह बात सुनकर चिन्ता से व्याकुल देवता तथा ऋषिगण शची के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके कहने लगे — हे इन्द्रपलि ! दुराचारी नहुष इस समय आपकी कामना करता है। उसने क्रुद्ध होकर हमसे यह बात कही है ‘शची को यहाँ भेज दीजिये।’ उसके अधीन रहने वाले हम कर ही क्या सकते हैं; क्योंकि उसे हमने ही इन्द्र बना दिया है ॥ ५७-५९ ॥ यह सुनकर दुःखितमन शची ने बृहस्पति से कहा — ‘हे ब्रह्मन् ! नहुष से मेरी रक्षा कीजिये मैं आपकी शरण में हूँ’ ॥ ६० ॥ बृहस्पति बोले — हे देवि ! पाप से मोहित नहुष से तुम्हें भय नहीं करना चाहिये । हे पुत्र ! मैं सनातन धर्म का त्यागकर तुम्हें उसको नहीं दूँगा ॥ ६१ ॥ शरण में आये हुए तथा दुःखी प्राणी को जो आश्रय नहीं देता, वह प्रलयपर्यन्त नरक में वास करता है। अतः हे पृथुश्रोणि! तुम निश्चिन्त रहो, मैं तुम्हारा त्याग कभी नहीं करूँगा ॥ ६२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘इन्द्र के कमलनाल में प्रवेश के बाद नहुष के देवेन्द्र पद पर अभिषेक का वर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Content is available only for registered users. 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