April 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-11 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः ग्यारहवाँ अध्याय युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्था का वर्णन युगधर्मव्यवस्थावर्णनम् जनमेजय बोले — हे द्विजश्रेष्ठ ! पृथ्वी का भार उतारने के लिये बलराम और श्रीकृष्ण के अवतार की बात आपने कही, किंतु मेरे मन में एक संशय है ॥ १ ॥ द्वापरयुग के अन्त में अत्यन्त दीन तथा आतुर होकर भारी बोझ से दबी हुई पृथ्वी गौ का रूप धारण करके ब्रह्माजी की शरण में गयी ॥ २ ॥ तब ब्रह्माजी ने लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु से प्रार्थना की — ‘हे भगवन्! हे विभो ! पृथ्वी का भार उतारने के लिये और साधुजनों की रक्षा के लिये आप देवताओं के साथ भारतवर्ष में वसुदेव के घर में अवतार लीजिये ‘ ॥ ३-४ ॥ ब्रह्माजी के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये बलराम के साथ देवकी के पुत्र हुए; तब उन्होंने अनेक दुष्टों तथा सभी दुराचारी और पापबुद्धि राजाओं को मारकर पृथ्वी का कितना भार उतारा ? ॥ ५-६ ॥ भीष्म मारे गये, द्रोणाचार्य मारे गये; इसी प्रकार विराट, द्रुपद, बाह्लीक, सोमदत्त और सूर्यपुत्र कर्ण मारे गये । परंतु जिन्होंने कृष्ण की पत्नियों का हरण किया और उनका सारा धन लूट लिया, उन दुष्टों को तथा जो करोड़ों आभीर, शक, म्लेच्छ और निषाद पृथ्वीतल पर स्थित थे उन सबको तब उन बुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने नष्ट क्यों नहीं कर दिया ? हे महाभाग ! मेरे चित्त से यह सन्देह नहीं हटता है; इस कलियुग में तो समस्त प्रजा पापपरायण ही दिखायी देती है ॥ ७-१० ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! जैसा युग होता है, कालप्रभाव से प्रजा भी वैसी ही होती है, इसके विपरीत नहीं होता; इसमें युगधर्म ही कारण है ॥ ११ ॥ जो धर्मानुरागी जीव हैं, वे सत्ययुग में हुए; जो धर्म और अर्थ से प्रेम रखने वाले प्राणी हैं, वे त्रेतायुग में हुए; धर्म, अर्थ और काम के रसिक प्राणी द्वापरयुग में हुए, किंतु इस कलियुग में तो सभी प्राणी अर्थ में आसक्ति रखने वाले ही होते हैं ॥ १२-१३ ॥ हे राजेन्द्र ! युगधर्म का प्रभाव विपरीत नहीं होता है; काल ही धर्म और अधर्म का कर्ता है ॥ १४ ॥ राजा बोले — हे महाभाग ! सत्ययुग में जो धर्मपरायण प्राणी हुए हैं, वे पुण्यशाली लोग इस समय कहाँ स्थित हैं ? हे पितामह! त्रेतायुग या द्वापर में जो दान तथा व्रत करने वाले श्रेष्ठ मुनि हुए हैं, वे अब कहाँ विद्यमान हैं; मुझे बतायें। इस कलियुग में जो दुराचारी, निर्लज्ज, देवनिन्दक और पापी लोग विद्यमान हैं, वे सत्ययुग में कहाँ जायँगे ? हे महामते ! यह सब विस्तारपूर्वक कहिये; मैं इस धर्मनिर्णय के विषय में सब कुछ सुनना चाहता हूँ ॥ १५-१८ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन्! जो मनुष्य सत्ययुग में उत्पन्न होते हैं, वे अपने पुण्यकार्यों के कारण देवलोक को चले जाते हैं ॥ १९ ॥ हे नृपश्रेष्ठ! अपने-अपने वर्णाश्रमधर्मों में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्मों से अर्जित लोकों में चले जाते हैं ॥ २० ॥ सत्य, अद्रोहभाव दया, दान, एकपत्नीव्रत, सभी प्राणियों में तथा सभी जीवों में समभाव रखना — यह सत्ययुग का साधारण धर्म है। सत्ययुग में इसका धर्मपूर्वक पालन करके रजक आदि इतर वर्ण के लोग भी स्वर्ग चले जाते हैं। हे राजन् ! त्रेता और द्वापरयुग में यही स्थिति रहती है, किंतु इस कलियुग में पापी मनुष्य नरक जाते हैं और वे वहाँ तबतक रहते हैं जबतक युग का परिवर्तन नहीं होता, उसके बाद मनुष्य के रूप में पुनः पृथ्वी पर जन्म लेते हैं ॥ २१–२४ ॥ हे राजन् ! जब कलियुग का अन्त और सत्ययुग का आरम्भ होता है, तब पुण्यशाली लोग स्वर्ग से पुनः मनुष्य के रूप में जन्म लेते हैं ॥ २५ ॥ जब द्वापर का अन्त और कलियुग का प्रारम्भ होता है, तब नरक के सभी पापी पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में उत्पन्न होते हैं ॥ २६ ॥ इस प्रकार युग के अनुरूप ही आचार होता है, उसके विपरीत कभी नहीं। कलियुग असत् – प्रधान होता है, इसलिये उसमें प्रजा भी वैसी ही होती है । दैवयोग से कभी-कभी इन प्राणियों के जन्म लेने में व्यतिक्रम भी हो जाता है। कलियुग में जो साधुजन हैं, वे द्वापर के मनुष्य हैं। उसी प्रकार द्वापर के मनुष्य कभी-कभी त्रेता में और त्रेता के मनुष्य सत्ययुग में जन्म लेते हैं। जो सत्ययुग में दुराचारी मनुष्य होते हैं, वे कलियुग के हैं। वे अपने किये हुए कर्म के प्रभाव से दुःख पाते हैं और पुनः युगप्रभाव से वे वैसा ही कर्म करते हैं ॥ २७-३० ॥ जनमेजय बोले — हे महाभाग ! आप समस्त युगधर्मों का पूर्णरूप से वर्णन करें; जिस युग में जैसा धर्म होता है, उसे मैं जानना चाहता हूँ ॥ ३१ ॥ व्यासजी बोले — हे नृपशार्दूल! ध्यानपूर्वक सुनिये, इस सम्बन्ध में मैं एक दृष्टान्त कहता हूँ। साधुजनों के मन भी युगधर्म से प्रभावित होते हैं ॥ ३२ ॥ हे राजेन्द्र ! आपके महात्मा और धर्मज्ञ पिता की भी बुद्धि कलियुग ने विप्र का अपमान करने की ओर प्रेरित कर दी थी; अन्यथा ययाति के कुल में पैदा हुए क्षत्रिय राजा परीक्षित् एक तपस्वी के गले में मरा हुआ सर्प क्यों डालते ? ॥ ३३-३४ ॥ हे राजन् ! विद्वान् को इसे युग का ही प्रभाव समझना चाहिये। इसलिये विशेषरूप से धर्माचरण ही प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ ३५ ॥ हे राजन् ! सत्ययुग में सभी ब्राह्मण वेद के ज्ञाता, पराशक्ति की पूजा में तत्पर रहने वाले, देवीदर्शन की लालसा से युक्त, गायत्री और प्रणवमन्त्र में अनुरक्त, गायत्री का ध्यान करने वाले, गायत्री-जप-परायण, एकमात्र मायाबीज-मन्त्र का जप करने वाले, प्रत्येक गाँव में भगवती पराम्बा का मन्दिर बनाने के लिये उत्सुक रहने वाले, अपने-अपने कर्मों में निरत रहने वाले, सत्य – पवित्रता दया से समन्वित, वेदत्रयी कर्म में संलग्न रहने वाले और तत्त्वज्ञान में पूर्ण निष्णात होते थे । क्षत्रिय प्रजाओं के भरण-पोषण में संलग्न रहते थे । हे राजन् ! उस पुण्यमय सत्ययुग में वैश्यलोग कृषि, व्यापार और गो-पालन करते थे तथा शूद्र सेवापरायण रहते थे ॥ ३६-४० ॥ उस सत्ययुग में सभी वर्णों के लोग भगवती पराम्बा के पूजन में आसक्त रहते थे। उसके बाद त्रेतायुग में धर्म की स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुग में जो धर्म की स्थिति थी, वह द्वापर में विशेष रूप से कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुग में ब्राह्मण माने जाते हैं ॥ ४१-४२ ॥ वे प्रायः पाखण्डी, लोगों को ठगने वाले, झूठ बोलने वाले तथा वेद और धर्म से दूर रहने वाले होते हैं। उनमें से कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहार में चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्ग से हटकर चलने वाले, शूद्रों की सेवा करने वाले, विभिन्न धर्मों का प्रवर्तन करने वाले, वेदनिन्दक, क्रूर, धर्मभ्रष्ट और व्यर्थ वाद-विवाद में लगे रहने वाले होते हैं। हे राजन् ! जैसे-जैसे कलियुग की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे सत्यमूलक धर्म का सर्वथा क्षय होता जाता है और वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इतर वर्णों के लोग भी धर्महीन, मिथ्यावादी तथा पापी होते हैं। ब्राह्मण शूद्रधर्म में संलग्न और प्रतिग्रहपरायण हो जाते हैं ॥ ४३-४७ ॥ हे राजन्! कलियुग का प्रभाव और बढ़ने पर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी तथा काम, लोभ और मोह से युक्त हो जायँगी 1 हे राजन्! वे पापाचारिणी, झूठ बोलनेवाली, सदा कलह करने वाली, अपने पति को ठगने वाली और नित्य धर्म का भाषण करने में निपुण होंगी। कलियुग में इस प्रकार की पापपरायण स्त्रियाँ होती हैं ॥ ४८-४९१/२ ॥ हे राजन् ! आहार की शुद्धि से ही अन्तःकरण की शुद्धि होती है और हे नृपश्रेष्ठ ! चित्त शुद्ध होने पर ही धर्म का प्रकाश होता है। आचारसंकरता (दूसरे वर्णों के अनुसार आचरण) – दोष से धर्म में व्यतिक्रम (विकार) उत्पन्न होता है और धर्म में विकृति होनेपर वर्णसंकरता उत्पन्न होती है । हे राजन् ! इस प्रकार सभी धर्मों से हीन कलियुग में अपने- अपने वर्णाश्रम धर्म की चर्चा भी कहीं नहीं सुनायी देती । हे राजन् ! धर्मज्ञ और श्रेष्ठजन भी अधर्म करने लग जाते हैं। यह कलियुग का स्वभाव ही है; किसी के भी द्वारा इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता। अतः हे राजेन्द्र ! इस काल में स्वभाव से ही पाप करने वाले मनुष्यों की निष्कृति सामान्य उपाय से नहीं हो सकती ॥ ५०-५४१/२ ॥ जनमेजय बोले — हे भगवन्! हे समस्त धर्मो के ज्ञाता ! हे समस्त शास्त्रों में निपुण ! अधर्म के बाहुल्यवाले कलियुग में मनुष्यों की क्या गति होती है? यदि उससे निस्तार का कोई उपाय हो तो उसे दयापूर्वक मुझे बतलाइये ॥ ५५-५६ ॥ व्यासजी बोले — हे महाराज ! इसका एक ही उपाय है दूसरा नहीं है; समस्त पापों के शमन के लिये देवी के चरणकमल का ध्यान करना चाहिये। हे राजन् ! देवी के पापदाहक नाम में जितनी शक्ति है, उतने पाप तो हैं ही नहीं । इसलिये भय की क्या आवश्यकता ? यदि विवशतापूर्वक भी भगवती के नाम का उच्चारण हो जाय, तो वे क्या-क्या दे देती हैं, उसे जानने में भगवान् शंकर आदि भी समर्थ नहीं हैं ! ॥ ५७–५९ ॥ भगवती देवी के नाम का स्मरण ही समस्त पापों का प्रायश्चित्त है, इसलिये हे राजन् ! मनुष्य को कलि के भय से पुण्यक्षेत्र में निवास करना चाहिये और पराम्बा के नाम का निरन्तर स्मरण करना चाहिये। जो देवी को भक्तिभाव से नमस्कार करता है, वह प्राणियों का छेदन – भेदन और सारे संसार को पीड़ित करके भी उन पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ६०-६११/२ ॥ हे राजन् ! यह मैंने आपसे सम्पूर्ण शास्त्रों के रहस्य को कह दिया, इसपर भलीभाँति विचारकर आप देवी के चरणकमल की आराधना करें । [ वैसे तो ] सभी लोग ‘अजपा’ नामक गायत्री का जप करते हैं, लेकिन वे [माया से मोहित होने के कारण] उन महामाया की महिमा और महान् वैभव को नहीं जानते। सभी ब्राह्मण अपने हृदय में गायत्री का जप करते हैं, परंतु वे भी उन महामाया की महिमा और उनके महान् वैभव को नहीं जानते। हे राजन् ! युगधर्म की व्यवस्था के विषय में आपने जो कुछ पूछा था, यह सब मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ६२-६५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘युगधर्मव्यवस्थावर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ Content is available only for registered users. 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