April 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-13 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-त्रयोदशोऽध्यायः तेरहवाँ अध्याय राजा हरिश्चन्द्र का शुनःशेप को यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्र से प्राप्त वरुणमन्त्र के जप से शुनःशेप का मुक्त होना, परस्पर शाप से विश्वामित्र और वसिष्ठ का बक तथा आडी होना आडीबकयुद्ध वर्णनसहितं देवीमाहात्म्यवर्णनम् इन्द्र बोले — पूर्वकाल में राजा ने वरुणदेव से यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपने प्रिय पुत्र को यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करूँगा — यह उन्होंने बड़ा साहस किया था ॥ १ ॥ हे महामते ! तुम्हारे वहाँ जाने पर रोग से दुःखी तुम्हारे निर्दयी पिता तुम्हें यज्ञीय पशु बनाकर यूप में बाँधकर मार डालेंगे ॥ २ ॥ अमित तेजस्वी इन्द्र के द्वारा इस प्रकार रोक दिये जानेपर मायेश्वरी की माया से अत्यन्त मोहित होकर वह राजपुत्र वहीं रुक गया ॥ ३ ॥ इस प्रकार जब-जब वह पिता को रोग से पीड़ित सुनकर जाने का विचार करता था, तब-तब इन्द्र उसे रोक देते थे ॥ ४ ॥ एक दिन राजा हरिश्चन्द्र ने अत्यन्त दुःखी होकर एकान्त में बैठे हुए सर्वज्ञ और कल्याणकारी गुरु वसिष्ठ के पास जाकर पूछा — ॥ ५ ॥ राजा बोले — हे भगवन्! मैं क्या करूँ? मैं अत्यन्त भयभीत और कष्ट से पीड़ित हूँ । इस महाव्याधि से पीड़ित मुझ दुःखितचित्त की रक्षा कीजिये ॥ ६ ॥ वसिष्ठजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, रोगनाश का एक प्रशस्त उपाय है। धर्मशास्त्र में तेरह प्रकार के पुत्र कहे गये हैं ॥ ७ ॥ इसलिये किसी ब्राह्मण के उत्तम बालक को उसका मनोभिलषित धन देकर क्रय करके उसे ले आइये और उत्तम यज्ञ को सम्पन्न कीजिये ॥ ८ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार यज्ञ करने से आपका रोग नष्ट हो जायगा और वरुणदेव भी हर्षित होकर प्रसन्नचित्त हो जायँगे ॥ ९ ॥ व्यासजी बोले — उनकी ऐसी बात सुनकर राजा ने मन्त्री से कहा — हे महामते ! इस विषय में प्रयत्नपूर्वक पता लगाइये ॥ १० ॥ यदि कोई लोभी पिता अपने पुत्र को देता है तो वह जितना धन माँगे, उतना देकर उसे ले आइये ॥ ११ ॥ सब प्रकार से प्रयास करके यज्ञ के लिये ब्राह्मणबालक लाना ही चाहिये। मेरे कार्य में तुम्हें किसी भी प्रकार का बुद्धिशैथिल्य नहीं करना चाहिये ॥ १२ ॥ तुम्हें प्रत्येक ब्राह्मण से प्रार्थना करनी चाहिये कि धन लेकर राजा को पुत्र दे दीजिये, उसे यज्ञ के लिये यज्ञीय पशु बनाना है ॥ १३ ॥ उन राजा से यह आदेश प्राप्तकर मन्त्री ने यज्ञकार्य के लिये राज्य के प्रत्येक गाँव तथा घर में पता लगाया ॥ १४ ॥ इस प्रकार इस विषय में पता लगाते हुए उसे अजीगर्त नामक एक दुःखी और निर्धन ब्राह्मण मिला, जिसके तीन पुत्र थे ॥ १५ ॥ उस ब्राह्मण ने जितना धन माँगा, उतना देकर वह मन्त्रि श्रेष्ठ उसके मझले पुत्र शुनःशेप को ले आया ॥ १६ ॥ कार्यकुशल मन्त्री ने पशुयोग्य ब्राह्मण पुत्र शुनःशेप को लाकर राजाको समर्पित कर दिया ॥ १७ ॥ इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा ने वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलाकर यज्ञ के लिये सामग्री एकत्र करवायी ॥ १८ ॥ यज्ञ के प्रारम्भ होने पर महामुनि विश्वामित्र ने वहाँ शुनः-शेप को बँधा देखकर राजा को मना करते हुए कहा — ॥ १९ ॥ हे राजन् ! ऐसा साहस न कीजिये, इस ब्राह्मण बालक को छोड़ दीजिये। हे आयुष्मन् ! मैं प्रार्थना करता हूँ, इससे आपको सुख की प्राप्ति होगी ॥ २० ॥ यह शुनःशेप क्रन्दन कर रहा है, अतः करुणा मुझे बहुत व्यथित कर रही है। हे राजेन्द्र ! मेरी बात मानिये; हे नृप ! दयावान् बनिये ॥ २१ ॥ पूर्वकाल में स्वर्ग के इच्छुक, पवित्रव्रती तथा दया-परायण जो क्षत्रियगण थे, वे दूसरों के शरीर की रक्षा के लिये अपने प्राण दे देते थे और आप अपने शरीर की रक्षा के लिये बलपूर्वक ब्राह्मण पुत्र का वध कर रहे हैं । हे राजेन्द्र ! पाप मत कीजिये और इस बालक पर दयावान् होइए ॥ २२-२३ ॥ हे राजन्! अपने देह के प्रति सभी को एक जैसी प्रीति होती है — यह बात आप स्वयं जानते हैं। यदि आप मेरी बात को प्रमाण मानते हैं तो इस बालक को छोड़ दीजिये ॥ २४ ॥ व्यासजी बोले — दुःखसे अत्यन्त पीड़ित राजा ने मुनिकी बातका अनादर करके उस बालक को नहीं छोड़ा; इससे वे तपस्वी मुनि उनके ऊपर अत्यन्त क्रुद्ध हो गये ॥ २५ ॥ वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ उन दयालु विश्वामित्र ने शुनःशेप को पाशधारी वरुणदेव के मन्त्र का उपदेश दिया। अपने वध के भय से व्याकुल शुनःशेप भी वरुणदेव का स्मरण करते हुए उच्च स्वर से बार-बार मन्त्र का जप करने लगा ॥ २६-२७ ॥ जलचरों के अधिपति करुणासिन्धु वरुणदेव ने वहाँ आकर स्तुति करते हुए उस ब्राह्मणपुत्र शुनःशेप को छुड़ा दिया और राजा को रोगमुक्त करके वे वरुणदेव अपने लोक को चले गये। विश्वामित्र ने मृत्यु से छूटे हुए उस शुनःशेप को अपना पुत्र बना लिया ॥ २८-२९ ॥ राजा ने महात्मा विश्वामित्र की बात नहीं मानी, अतः वे गाधिपुत्र विश्वामित्र मन-ही-मन राजा के ऊपर बहुत क्रुद्ध हुए ॥ ३० ॥ एक समय राजा घोड़े पर सवार होकर वन में गये। वे सूअर को मारने की इच्छा से ठीक दोपहर के समय कौशिकी नदी के तट पर पहुँचे ॥ ३१ ॥ वहाँ विश्वामित्र ने वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण करके छलपूर्वक उनका सर्वस्व माँग लिया और उनके महान् राज्य पर अपना अधिकार कर लिया ॥ ३२ ॥ जिससे [ वसिष्ठ के] यजमान राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त कष्ट पाने लगे। एक बार संयोगवश वन में आये हुए विश्वामित्र से वसिष्ठ ने कहा — हे क्षत्रियाधम! हे दुर्बुद्धे ! तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मण का वेश बना रखा है, बगुले के समान वृत्ति वाले हे दाम्भिक ! तुम व्यर्थ में गर्व क्यों करते हो ? ॥ ३३-३४ ॥ हे जाल्म! तुमने मेरे यजमान नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र को बिना अपराध के महान् कष्ट में क्यों डाल दिया ? ॥ ३५ ॥ तुम बगुले के समान ध्यानपरायण हो । अतः तुम ‘बक’ (बगुला ) हो जाओ। वसिष्ठ के द्वारा इस प्रकार शापप्राप्त विश्वामित्र ने उनसे कहा — हे आयुष्मन् ! जबतक मैं बक रहूँगा, तबतक तुम भी आडी पक्षी बनकर रहोगे ॥ ३६१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार क्रोध से व्याकुल उन दोनों ने एक-दूसरे को शाप दे दिया और एक सरोवर के समीप वे दोनों मुनि ‘आडी’ और ‘बक’ के रूप में अण्डों से उत्पन्न हुए। दिव्य मानसरोवर के तटपर एक वृक्ष पर घोंसला बनाकर बकरूपधारी विश्वामित्र और एक दूसरे वृक्ष पर उत्तम घोंसला बनाकर आडीरूपधारी वसिष्ठ परस्पर द्वेषपरायण होकर रहने लगे। वे दोनों कोपाविष्ट होकर प्रतिदिन घोर क्रन्दन करते हुए सभी लोगों के लिये दुःखदायी युद्ध करते थे। वे दोनों चोंच और पंखों के प्रहार तथा नखों के आघात से परस्पर चोट पहुँचाते थे। रक्त से लथपथ वे दोनों खिले हुए किंशुक के फूल-जैसे प्रतीत होते थे । हे महाराज ! इस प्रकार पक्षीरूपधारी दोनों मुनि शापरूपी पाश में जकड़े हुए वहाँ बहुत वर्षों तक पड़े रहे ॥ ३७-४२१/२ ॥ राजा बोले — हे विप्रर्षे! वे दोनों मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ और विश्वामित्र शाप से किस प्रकार मुक्त हुए, यह मुझे बताइये, मुझे बड़ा कौतूहल है ॥ ४३१/२ ॥ व्यासजी बोले — लोकपितामह ब्रह्माजी उन दोनों को युद्ध करते देखकर समस्त दयापरायण देवताओं के साथ वहाँ आये। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने उन दोनों को समझाकर युद्ध से विरत करके परस्पर दिये गये शाप से भी मुक्त कर दिया ॥ ४४-४५ ॥ इसके बाद सभी देवगण अपने-अपने लोकों को चले गये, कमलयोनि प्रतापी ब्रह्माजी शीघ्र हंस पर आरूढ़ होकर सत्यलोक को चले गये और प्रजापति के उपदेश से परस्पर स्नेह करके विश्वामित्र तथा वसिष्ठजी भी अपने-अपने आश्रमों को शीघ्र चले गये। हे राजन् ! इस प्रकार मैत्रावरुणि वसिष्ठ ने भी अकारण ही विश्वामित्र के साथ परस्पर दुःखप्रद युद्ध किया था ॥ ४६-४८१/२ ॥ इस संसार में मनुष्य, देवता या दैत्य-कौन ऐसा है, जो अहंकार पर विजय प्राप्तकर सदा सुखी रह सके। अतः हे राजन् ! चित्त की शुद्धि महापुरुषों के लिये भी दुर्लभ है। उसे प्रयत्नपूर्वक शुद्ध करना चाहिये; उसके बिना तीर्थयात्रा, दान, तपस्या, सत्य आदि जो कुछ भी धर्मसाधन है; वह सब निरर्थक है ॥ ४९–५१ ॥ (सबके देहों में तथा प्राणियों के धर्मकर्मों में सात्त्विकी, राजसी और तामसी — यह तीन प्रकार की श्रद्धा कही गयी है । इनमें यथोक्त फल देने वाली सात्त्विकी श्रद्धा जगत् में सदा दुर्लभ होती है। विधिविधान से युक्त राजसी श्रद्धा उसका आधा फल देने वाली कही गयी है। हे राजन् ! काम-क्रोध के वशीभूत पुरुषों की श्रद्धा तामसी होती है। हे नृपश्रेष्ठ ! वह फलविहीन होती है और कीर्ति करने वाली भी नहीं होती ।) कलियुग के दोषों से भयभीत व्यक्ति को कथा-श्रवण आदि के द्वारा चित्त को वासनारहित करके देवी की पूजा में तत्पर रहते हुए, वाणी से देवी के नामों को ग्रहण करते हुए, उनके गुणों का कीर्तन करते हुए तथा उनके चरण-कमल का ध्यान करते हुए तीर्थ आदि में नित्य वास करना चाहिये ॥ ५२-५३ ॥ ऐसा करने से उसे कभी कलियुग का भय नहीं होगा, इससे पापी प्राणी भी अनायास ही संसार से मुक्त हो जाता है ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘आडीबकयुद्धसहित देवीमाहात्म्यवर्णन’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ Content is available only for registered users. 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