April 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-14 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-चतुर्दशोऽध्यायः चौदहवाँ अध्याय राजा निमि और वसिष्ठ का एक-दूसरे को शाप देना, वसिष्ठ का मित्रावरुण के पुत्र के रूप में जन्म लेना वसिष्ठस्य मैत्रावरुणिरितिनामवर्णनम् जनमेजय बोले — हे महाभाग ! ब्रह्मा के पुत्र मुनि वसिष्ठ का ‘मैत्रावरुणि’ — यह नाम कैसे पड़ा ? हे वक्ताओं में श्रेष्ठ! किस कर्म अथवा गुण के कारण उन्होंने यह नाम प्राप्त किया। उनके नाम पड़ने का कारण मुझे बताइये ॥ १-२ ॥ व्यासजी बोले — हे नृपश्रेष्ठ ! सुनिये, वसिष्ठजी ब्रह्मा के पुत्र हैं, उन महातेजस्वी ने निमि के शाप से वह शरीर त्यागकर पुनः जन्म लिया ॥ ३ ॥ हे राजन् ! उनका जन्म मित्र और वरुण के यहाँ हुआ था, इसीलिये इस संसार में उनका ‘मैत्रावरुणि’ – यह नाम विख्यात हुआ ॥ ४ ॥ राजा बोले — राजा निमि ने ब्रह्माजी के पुत्र महात्मा वसिष्ठ को शाप क्यों दिया ? राजा का वह दारुण शाप मुनि को क्यों लग गया ? ॥ ५ ॥ हे मुने! निरपराध मुनि को राजा ने क्यों शाप दे दिया; हे धर्मज्ञ ! उस शाप का कारण यथार्थरूप में बताइये ? ॥ ६ ॥ व्यासजी बोले — इसका सम्यक् रूप से निर्णीत कारण तो मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ। हे राजन् ! यह संसार माया के तीनों गुणों से व्याप्त है ॥ ७ ॥ राजा धर्म करें और तपस्वी तप करें — यह स्वाभाविक कर्म है, परंतु सभी प्राणियों का मन गुणों से आबद्ध रहने के कारण विशुद्ध नहीं रह पाता ॥ ८ ॥ राजा लोग काम और क्रोध से अभिभूत रहते हैं और उसी प्रकार तपस्वीगण भी लोभ और अहंकारयुक्त होकर कठोर तपस्या करते हैं ॥ ९ ॥ हे राजन् ! क्षत्रियगण रजोगुण से युक्त होकर यज्ञ करते थे, वैसे ही ब्राह्मण भी थे। हे राजन् ! कोई भी सत्त्वगुण से युक्त नहीं था ॥ १० ॥ ऋषि ने राजा को शाप दिया और तब राजा ने भी मुनि को शाप दे दिया। इस प्रकार दैववशात् दोनों को बहुत दु:ख प्राप्त हुआ ॥ ११ ॥ हे राजन् ! इस त्रिगुणात्मक जगत् में प्राणियों के लिये द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और उज्ज्वल मनः शुद्धि दुर्लभ है ॥ १२ ॥ यह पराशक्ति का ही प्रभाव है और कोई कभी इसका अतिक्रमण नहीं कर सकता। जिसपर वे भगवती कृपा करना चाहती हैं, उसे तत्काल मुक्त कर देती हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि महान् देवता भी मुक्त नहीं हो पाते, किंतु सत्यव्रत आदि जैसे अधम भी मुक्त हो जाते हैं ॥ १४ ॥ यद्यपि तीनों लोकों में भगवती के रहस्य को कोई नहीं जानता है, फिर भी वे भक्त के वश में हो जाती हैं — ऐसा निश्चित है ॥ १५ ॥ अतः दोषों के निर्मूलन के लिये उनकी भक्ति करनी चाहिये । यदि वह भक्ति राग, दम्भ आदि से युक्त हो तो वह नाश करने वाली होती है ॥ १६ ॥ इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न निमि नाम के एक राजा थे । वे रूपवान्, गुणवान्, धर्मात्मा और प्रजावत्सल थे, वे सत्यवादी, दानशील, यज्ञकर्ता, ज्ञानी और पुण्यात्मा थे। उन बुद्धिमान् और प्रजापालक राजा निमि को इक्ष्वाकु का बारहवाँ पुत्र माना जाता है ॥ १७-१८ ॥ उन्होंने ब्राह्मणों के लिये गौतममुनि के आश्रम के समीप जयन्तपुर नाम का एक नगर बसाया ॥ १९ ॥ उनके मन में एक बार यह राजसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि बहुत समय तक चलने वाले और विपुल दक्षिणावाले यज्ञ के द्वारा आराधना करूँ ॥ २० ॥ तब राजा ने यज्ञकार्य के लिये अपने पिता इक्ष्वाकु से आज्ञा लेकर महात्माओं के कथनानुसार समस्त यज्ञीय सामग्री एकत्र करायी ॥ २१ ॥ इसके बाद राजा ने भृगु, अंगिरा, वामदेव, गौतम, वसिष्ठ, पुलस्त्य ऋचीक, पुलह और क्रतु — इन सर्वज्ञ, वेद में पारंगत, यज्ञविद्याओं में कुशल एवं वेदज्ञ मुनियों और तपस्वियों को आमन्त्रित किया ॥ २२-२३ ॥ समस्त सामग्री एकत्र कर धर्मज्ञ राजा ने अपने गुरु वसिष्ठ की पूजा करके विनय से युक्त होकर उनसे कहा — ॥ २४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं यज्ञ करना चाहता हूँ । अतः यज्ञ कराने की कृपा करें। हे कृपानिधे ! आप सर्वज्ञ हैं और मेरे गुरु हैं; इस समय आप मेरा कार्य सम्पन्न कीजिये ॥ २५ ॥ मैंने समस्त यज्ञीय सामग्री मँगवा ली है और उसका संस्कार भी करा लिया है। मेरा विचार है कि मैं पाँच हजार वर्ष के लिये यज्ञ – दीक्षा ग्रहण कर लूँ ॥ २६ ॥ जिस यज्ञ में भगवती जगदम्बा की आराधना होती हो, उस यज्ञ को मैं उनकी प्रसन्नता के लिये विधिपूर्वक करना चाहता हूँ ॥ २७ ॥ निमि की वह बात सुनकर वसिष्ठजी ने राजा से कहा — हे नृपश्रेष्ठ! मैं इन्द्र के द्वारा यज्ञ के लिये पहले ही वरण कर लिया गया हूँ। इन्द्र पराशक्ति नामक यज्ञ को करने के लिये तत्पर हैं और देवेन्द्र ने पाँच सौ वर्ष तक चलने वाले यज्ञ की दीक्षा ले ली है । अतः हे राजन् ! तबतक आप यज्ञ- सामग्रियों की रक्षा करें, इन्द्र के यज्ञ के पूर्ण हो जाने पर उन देवराज का कार्य सम्पन्न करके मैं आ जाऊँगा । हे राजन् ! तबतक आप समय की प्रतीक्षा करें ॥ २८-३०१/२ ॥ राजा बोले — हे गुरुदेव ! मैंने यज्ञ के लिये दूसरे बहुत-से मुनियों को निमन्त्रित कर दिया है तथा समस्त यज्ञीय सामग्रियाँ भी एकत्र कर ली हैं, मैं इन सबको [ इतने समय तक ] कैसे सुरक्षित रखूँगा ? हे ब्रह्मन् ! आप इक्ष्वाकुवंश के वेदवेत्ता गुरु हैं, आज मेरा कार्य छोड़कर आप अन्यत्र जाने के लिये क्यों उद्यत हैं ? हे द्विजश्रेष्ठ ! यह आपके लिये उचित नहीं है जो कि लोभ से व्याकुलचित्त वाले आप मेरा यज्ञ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं ॥ ३१-३३१/२ ॥ राजा के इस प्रकार रोकने पर भी वे गुरु वसिष्ठ इन्द्र के यज्ञ में चले गये । राजा ने भी उदास होकर [ अपना आचार्य बनाकर ] गौतमऋषि का पूजन किया। उन्होंने हिमालय के पार्श्वभाग में समुद्र के निकट यज्ञ किया और उस यज्ञकर्म में ब्राह्मणों को बहुत दक्षिणा दी। हे राजन् ! निमि ने उस पाँच हजार वर्षवाले यज्ञ की दीक्षा ली और ऋत्विजों को उनके इच्छानुसार धन और गौएँ प्रदान करके उनकी पूजा की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए ॥ ३४-३६१/२ ॥ इन्द्र के पाँच सौ वर्ष वाले यज्ञ के समाप्त होने पर वसिष्ठजी राजा के यज्ञ को देखने की इच्छा से आये और आकर के राजा के दर्शन के लिये वहाँ रुके रहे ॥ ३७-३८ ॥ उस समय राजा निमि सोये हुए थे और उन्हें गहरी नींद आ गयी थी। सेवकों ने उन्हें नहीं जगाया, जिससे वे राजा मुनि के पास न आ सके। तब अपमान के कारण वसिष्ठजी को क्रोध आ गया। मिलने के लिये निमि के न आने से मुनिश्रेष्ठ कुपित हो उठे । क्रोध के वशीभूत हुए उन मुनि ने राजा को शाप दे दिया — ‘हे मूर्ख पार्थिव ! मेरे द्वारा मना किये जाने पर भी तुम मुझ गुरु का त्याग करके दूसरे को अपना गुरु बनाकर शक्ति के अभिमान में मेरी अवहेलना करके यज्ञ में दीक्षित हो गये हो, उससे तुम विदेह हो जाओगे। हे राजन् ! तुम्हारा यह शरीर नष्ट हो जाय और तुम विदेह हो जाओ’ ॥ ३९-४२१/२ ॥ व्यासजी बोले — उनका यह शापवचन सुनकर राजा के सेवकों ने शीघ्रता से जाकर राजा को जगाया और उन्हें बताया कि मुनि वसिष्ठ बहुत क्रोधित हो गये हैं, तब उन कुपित मुनि के पास आकर निष्पाप राजा ने मधुर शब्दों में युक्तिपूर्ण तथा सारगर्भित वचन कहा — ॥ ४३-४४१/२ ॥ हे धर्मज्ञ ! इसमें मेरा दोष नहीं है, आप ही लोभ के वशीभूत होकर मेरे बार-बार अनुरोध करने पर भी मुझ यजमान को छोड़कर चले गये। हे विप्रवर! हे ब्राह्मण- श्रेष्ठ! ब्राह्मण को सदा सन्तोष रखना चाहिये — धर्म के इस सिद्धान्त को जानते हुए भी ऐसा निन्दित कर्म करके आपको लज्जा नहीं आ रही है। आप तो साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र और वेद-वेदांगों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता हैं तो भी आप ब्राह्मणधर्म की अत्यन्त कठिन और सूक्ष्म गति को नहीं जानते । अपना दोष मुझमें आरोपित करके आप मुझे व्यर्थ ही शाप देना चाहते हैं। सज्जनों को चाहिये कि क्रोध का त्याग कर दें; क्योंकि यह अधिक दूषित है; क्रोध के वशीभूत होकर आपने मुझे व्यर्थ ही शाप दे दिया है। अतः आपकी भी यह क्रोधयुक्त देह आज ही नष्ट हो जाय ॥ ४५-४९१/२ ॥ इस प्रकार राजा के द्वारा मुनि और मुनि के द्वारा राजा शापित हो गये और दोनों एक-दूसरे से शाप पाकर बहुत दुःखी हुए। तब वसिष्ठजी अत्यधिक चिन्तातुर होकर ब्रह्माजी की शरण में गये और उन्होंने राजा के द्वारा प्रदत्त कठिन शाप के विषय में उनसे निवेदन किया ॥ ५०-५११/२ ॥ वसिष्ठजी बोले — हे पिताजी! राजा निमि ने मुझे शाप दे दिया है कि तुम्हारा यह शरीर आज ही नष्ट हो जाय । अतः शरीर नष्ट होने से प्राप्त कष्ट के लिये मैं क्या करूँ ? इस समय आप मुझे यह बतायें कि दूसरे शरीर की प्राप्ति में मेरे पिता कौन होंगे ? हे पिताजी! दूसरे देह से सम्बन्ध होने पर भी मेरी स्थिति पूर्ववत् ही रहे। इस शरीर में जैसा ज्ञान है, वैसा ही उस शरीर में भी रहे। हे महाराज! आप समर्थ हैं; मुझपर कृपा करने योग्य हैं ॥ ५२-५४१/२ ॥ वसिष्ठ की बात सुनकर ब्रह्माजी अपने उस पुत्र से बोले — तुम मित्रावरुण के तेज हो, अतः इन्हीं में प्रवेश करके स्थिर हो जाओ। कुछ समय बाद तुम उन्हीं से अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट होओगे; इसमें सन्देह नहीं है। इस प्रकार पुनः शरीर प्राप्त करके तुम धर्मनिष्ठ, प्राणियों के सुहृद्, वेदवेत्ता, सर्वज्ञ और सबके द्वारा पूजित होओगे ॥ ५५-५७ ॥ पिता के ऐसा कहने पर वसिष्ठजी प्रसन्नतापूर्वक पितामह ब्रह्माजी की परिक्रमा करके और उन्हें प्रणाम करके वरुण के वासस्थान को चले गये। वसिष्ठजी ने अपने उत्तम देह का त्याग करके मित्र और वरुण के शरीर में जीवांश- रूप से प्रवेश किया ॥ ५८-५९ ॥ हे राजन् ! किसी समय परम सुन्दरी अप्सरा उर्वशी अपनी सखियों के साथ स्वेच्छापूर्वक मित्रावरुण के स्थान पर आयी ॥ ६० ॥ हे राजन् ! उस रूपयौवन से सम्पन्न दिव्य अप्सरा को देखकर वे दोनों देवता कामातुर हो गये और समस्त सुन्दर अंगोंवाली उस मनोरम देवकन्या से कहने लगे — हे प्रशस्त अंगोंवाली ! विवश तथा व्याकुल हम दोनों का तुम वरण कर लो और हे वरवर्णिनि ! तुम अपनी इच्छा के अनुसार यहाँ विहार करो। उनके इस प्रकार कहने पर वह देवी उर्वशी मन स्थिर करके मित्रावरुण के घर में उन दोनों के साथ विवश होकर रहने लगी। प्रिय दर्शनवाली वह अप्सरा उन दोनों के भावों को समझकर वहीं रहने लगी ॥ ६१- ६४ ॥ दैववशात् वहाँ रखे हुए एक आवरणरहित कुम्भ में दोनों का वीर्य स्खलित हो गया; और हे राजन् ! उसमें से दो अत्यन्त सुन्दर मुनिकुमारों ने जन्म लिया। उनमें पहले अगस्ति थे और दूसरे वसिष्ठ थे। इस प्रकार मित्र और वरुण के तेज से वे दोनों ऋषिश्रेष्ठ तपस्वी प्रकट हुए ॥ ६५-६६ ॥ महातपस्वी अगस्ति बाल्यावस्था में ही वन चले गये और महाराज इक्ष्वाकु ने अपने पुरोहित के रूप में दूसरे बालक वसिष्ठ का वरण कर लिया ॥ ६७ ॥ हे राजन्! आपका यह वंश सुखी रहे, इसलिये राजा इक्ष्वाकु ने वसिष्ठ का पालन-पोषण किया और विशेष-रूप से इन्हें मुनि जानकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ६८ ॥ इस प्रकार शाप के कारण मित्रावरुण के कुल में वसिष्ठजी के अन्य शरीर की प्राप्ति का समस्त आख्यान मैंने आपको बता दिया ॥ ६९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘वसिष्ठ के मैत्रावरुणि— इस नाम का वर्णन’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ Content is available only for registered users. 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