श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-18
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः
अठारहवाँ अध्याय
भगवती लक्ष्मी द्वारा घोड़ी का रूप धारणकर तपस्या करना
शिवप्रसादेन लक्ष्मीद्वारा भगवत्याः समाराधनवर्णनम्

जनमेजय बोले — [ हे मुने!] इस प्रकार कोप करके भगवान्‌ के द्वारा शापित लक्ष्मीजी ने घोड़ी के रूप में किस प्रकार जन्म लिया और इसके बाद रेवन्त ने क्या किया ? ॥ १ ॥ अपने पति के प्रवास में रहने के कारण उसके वियोग में एकाकिनी समय व्यतीत करने वाली नारी की भाँति लक्ष्मीजी ने घोड़ी का रूप धारण करके किस देश में समय व्यतीत किया ? ॥ २ ॥ हे आयुष्मन् ! पति से वियुक्त रहते हुए लक्ष्मीजी ने कितना समय बिताया और पुनः उस निर्जन वन में रहती हुई उन्होंने क्या किया ? ॥ ३ ॥ समुद्रतनया लक्ष्मी को पुनः भगवान् विष्णु का समागम कब प्राप्त हुआ तथा विष्णु से अलग रहते हुए उन्होंने किस प्रकार पुत्र प्राप्त किया ? ॥ ४ ॥ हे आर्येश ! इस वृत्तान्त का वर्णन विस्तार के साथ कीजिये। हे विप्रवर! मैं इस अत्युत्तम पौराणिक आख्यान को सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥

सूतजी बोले — हे विप्रो ! परीक्षित् पुत्र जनमेजय के ऐसा पूछने पर व्यासजी इस अति विस्तृत कथा का वर्णन करने लगे ॥ ६ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये मैं अब वह शुभ, पवित्र, स्पष्ट अक्षरों से युक्त तथा कानों को प्रिय लगने वाली पौराणिक कथा कहूँगा ॥ ७ ॥ कामिनी रमा को विष्णु द्वारा शापित की गयी देखकर रेवन्त भय के कारण जगत्पति वासुदेव को दूर से ही प्रणाम करके चले गये ॥ ८ ॥ जगन्नाथ विष्णु का यह क्रोध देखकर वे तत्काल अपने पिता के पास गये और उन सूर्य से शाप से सम्बन्धित कथा बतायी ॥ ९ ॥

इसके बाद कमल के समान नेत्रों वाली वे दुःखित लक्ष्मीजी जगदीश्वर विष्णुजी से आज्ञा लेकर उन्हें प्रणाम करके मृत्युलोक में आ गयीं। सूर्य की पत्नी ने पूर्वकाल में सुपर्णाक्ष की उत्तरदिशा में यमुना-तमसा नदी के संगम पर सभी मनोरथ पूर्ण करने वाले तथा सुन्दर वनों से सुशोभित जिस स्थान पर कठोर तपस्या की थी, वहीं वडवारूपधारिणी वे लक्ष्मीजी शीघ्र पहुँच गयीं ॥ १०-१२ ॥ वहाँ रहकर वे लक्ष्मीजी समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले, त्रिशूलधारी, चन्द्रशेखर, पाँच मुखों वाले, दस भुजाओं वाले, गौरी के शरीर का अर्ध भाग धारण करने वाले, कर्पूर के समान गौर शरीरवाले, नीले कण्ठ से सुशोभित, तीन नेत्रों वाले, व्याघ्रचर्म धारण करने वाले, हाथी के चर्म का उत्तरीय धारण करने वाले, गले में नरमुण्ड की माला से मण्डित तथा सर्प का यज्ञोपवीत धारण करने वाले महादेव शंकर का एकाग्रमन से ध्यान करने लगीं ॥ १३-१५ ॥

सागरपुत्री लक्ष्मीजी ने सुन्दर घोड़ी का रूप धारण करके उस तीर्थ में अत्यन्त कठोर तपस्या की ॥ १६ ॥ हे राजन् ! महादेव शंकर का ध्यान करते-करते लक्ष्मीजी के मन में वैराग्य का प्रादुर्भाव हो गया। इस प्रकार [उनको तप करते हुए ] एक हजार दिव्य वर्ष बीत गये ॥ १७ ॥ तदनन्तर प्रसन्न होकर त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर ने वृषभ पर सवार होकर पार्वतीजी के साथ उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ॥ १८ ॥ भगवान् शंकर ने अपने गणोंसहित वहाँ आकर तप करती हुई वडवारूपधारिणी महाभागा विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी से कहा ॥ १९ ॥

हे कल्याणि ! हे जगज्जननि ! आप तपस्या क्यों कर रही हैं? मुझे इसका कारण बतायें। आपके पति विष्णु तो स्वयं सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करने वाले तथा सभी लोकों का विधान करनेवाले हैं ॥ २० ॥ हे देवि ! भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले जगत्पति वासुदेव जगन्नाथ विष्णु को छोड़कर इस समय आप मेरी आराधना किसलिये कर रही हैं ? ॥ २१ ॥ स्त्रियों के लिये पति ही उनका देवता होता है — इस वेदोक्त वचन का उन्हें पालन करना चाहिये। किसी दूसरे में कभी कहीं भी भावना नहीं करनी चाहिये ॥ २२ ॥ पति की सेवा-शुश्रूषा ही स्त्रियों का सनातन धर्म है। पति चाहे जैसा भी हो, कल्याण की इच्छा रखने वाली स्त्री को निरन्तर उसकी सेवा करनी चाहिये ॥ २३ ॥ भगवान् विष्णु तो सर्वदा सभी प्राणियों की आराधना योग्य हैं। अतएव हे न्धुजे ! उन देवाधिदेव को छोड़कर आप मेरा ध्यान क्यों कर रही हैं ? ॥ २४ ॥

लक्ष्मी बोलीं — हे आशुतोष ! हे महेशान! हे शिव ! हे देवेश! हे दयानिधान! मेरे पति ने मुझे शाप दे दिया है; अतएव इस शाप से आप मेरा उद्धार कीजिये ॥ २५ ॥ हे शम्भो ! उस समय मेरे बहुत पूछने पर दयालु भगवान् विष्णु ने शाप से मुक्ति का यह उपाय भी बतला दिया था ‘हे कमलालये! जब तुम्हें एक पुत्र उत्पन्न हो जायगा तब तुम शाप से मुक्त हो जाओगी और वैकुण्ठधाम में पुनः तुम्हारा वास होगा ‘ ॥ २६-२७ ॥ हे देव! श्रीविष्णु के इस प्रकार कहने पर मैं तपस्या करने के लिये इस तपोवन में आ गयी और सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले आप परमेश्वर की आराधना करने लगी ॥ २८ ॥ हे देवदेव! मुझ निरपराध पत्नी को छोड़कर वे विष्णु तो वैकुण्ठ में विराजमान हैं; अतएव पति के सांनिध्य के बिना मैं पुत्र कैसे प्राप्त कर सकती हूँ? ॥ २९ ॥ हे देवेश ! हे शंकर! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे वर दीजिये। आप तथा श्रीहरि में निश्चितरूप से कोई भेद नहीं है ॥ ३० ॥ हे गिरिजाकान्त ! हे हर ! जब मैं पतिदेव के पास थी तभी मुझे यह ज्ञात है कि जो आप हैं, वही वे हैं तथा जो वे हैं, वही आप हैं; इसमें संशय नहीं है ॥ ३१ ॥ [ आप तथा श्रीविष्णु में] एकत्व जानकर ही मैंने आपका स्मरण किया है, अन्यथा हे शिव! आपका आश्रय लेनेसे मुझे दोष ही लगता ॥ ३२ ॥

शिव बोले — हे देवि ! हे सुन्दरि ! मेरे तथा उन विष्णु के एकत्व का ज्ञान तुम्हें किस प्रकार हुआ ? हे सिन्धुजे ! मुझे सच सच बताओ ॥ ३३ ॥ देवता, मुनि, ज्ञानी तथा वेदों के तत्त्वदर्शी विद्वान् भी तरह- तरह के कुतर्कों से ग्रस्त पड़े रहने के कारण इस ऐक्यभाव को नहीं जानते ॥ ३४ ॥ मेरे बहुत-से भक्त वासुदेव श्रीविष्णु के निन्दक हैं तथा श्रीविष्णु के बहुत से भक्त मेरी निन्दा में लगे रहते हैं । हे देवि ! कालभेद के कारण कलियुग में ऐसे लोग विशेषरूप से होंगे । हे भद्रे ! दूषित आत्मा वाले लोगों द्वारा दुर्ज्ञेय इस एकत्व को आप कैसे जान गयीं? मेरे तथा श्रीविष्णु का ऐक्यभाव जान पाना सर्वथा दुर्लभ है ॥ ३५-३६१/२

व्यासजी बोले — प्रसन्न हुए भगवान् शंकर के इस प्रकार पूछने पर अत्यन्त प्रसन्नमुखवाली हरिप्रिया लक्ष्मीजी ने [ उस एकत्व से सम्बन्धित ] ज्ञात प्रसंग को शिवजी से कहना प्रारम्भ किया ॥ ३७-३८ ॥

लक्ष्मीजी बोलीं — हे देवदेवेश ! एक बार भगवान् विष्णु को एकान्त में पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ हो तपस्या करते हुए जब मैंने देखा तब मुझे महान् विस्मय हुआ; और पुनः समाधि से जगने पर उन्हें अति प्रसन्न जानकर मैंने पतिदेव से विनयपूर्वक पूछा ॥ ३९-४० ॥

हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे प्रभो! जिस समय ब्रह्मा आदि सभी देवताओं तथा दैत्यों के द्वारा मथे जा रहे समुद्र से मैं निकली, उस समय पति की इच्छा से मैंने सभी की ओर देखा, सभी देवताओं की अपेक्षा आप ही श्रेष्ठ हैं — ऐसा निश्चय करके मैंने आप का ही वरण किया था। अतः हे सर्वेश! आप किसका ध्यान कर रहे हैं? मुझे यह महान् सन्देह है। हे कैटभारे! आप मेरे प्रिय हैं। अतः अपने मन की बात मुझे बतायें ॥ ४१-४३ ॥

विष्णु बोले — हे प्रिये ! मैं जिन सुरश्रेष्ठ, आशुतोष, महेश्वर तथा पार्वतीपति शंकर का ध्यान कर रहा हूँ, उनके विषय में बताऊँगा; सुनो ॥ ४४ ॥ असीम पराक्रमसम्पन्न देवाधिदेव भगवान् शंकर कभी मेरा ध्यान करते हैं और कभी मैं त्रिपुरासुर के संहारक देवेश शंकर का ध्यान करने लगता हूँ ॥ ४५ ॥ शिव का प्रिय प्राण मैं हूँ तथा मेरे प्रिय प्राण वे हैं । इस प्रकार परस्पर अनुरक्त चित्त वाले हम दोनों में कोई अन्तर नहीं है ॥ ४६ ॥ हे विशालनयने ! मेरे जो भक्त भगवान् शंकर से द्वेष करते हैं वे निश्चितरूप से नरक में पड़ते हैं; मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ४७ ॥

हे गिरिजावल्लभ ! एकान्त में मेरे पूछने पर सर्वसमर्थ देवदेव भगवान् विष्णु ने ऐसा बताया था। अतएव आपको विष्णु का परम प्रिय जानकर मैंने आपका ध्यान किया । हे महेशान! अब जैसे मुझे पति सांनिध्य प्राप्त हो जाय, वैसा आप कीजिये ॥ ४८-४९ ॥

व्यासजी बोले — लक्ष्मीजीका यह वचन सुनकर वाणीविशारद भगवान् शंकर ने मधुर वचनों से उन्हें आश्वासन देकर कहा हे पृथुश्रोणि ! धैर्य रखो। मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ । पति से तुम्हारा मिलन अवश्य होगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५०-५१ ॥ वे भगवान् जगदीश्वर मुझसे प्रेरित होकर तुम्हारी कामना पूर्ण करने के लिये अश्व का रूप धारण करके यहीं पर आयेंगे ॥ ५२ ॥ मैं उन मधुसूदन को इस प्रकार प्रेरित करूँगा, जिससे वे मदातुर होकर अश्वरूप में तुम्हारे पास आयेंगे ॥ ५३ ॥ हे सुभ्रु ! उन्हीं नारायण के समान तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा । वह पृथ्वी पर राजा के रूप में प्रतिष्ठित तथा सभी लोगोंसे नमस्कृत होगा ॥ ५४ ॥ हे महाभागे ! इस प्रकार पुत्र प्राप्त करके तुम उन्हीं के साथ वैकुण्ठलोक चली जाओगी और वहाँ उनकी प्रिया हो जाओगी ॥ ५५ ॥ आपका वह पुत्र एकवीर — इस नाम से लोक में ख्याति प्राप्त करेगा। उसी से पृथ्वी पर हैहयवंश विस्तार को प्राप्त होगा ॥ ५६ ॥ किंतु मदान्ध एवं मदचित्त होकर तुमने हृदय में सदा विराजमान रहने वाली परमेश्वरी जगदम्बा का विस्मरण कर दिया है, उसी से तुम्हें ऐसा फल मिला है। अतः हे सिन्धुपुत्रि ! उस दोष के शमन के लिये तुम हृदय में विराजमान रहने वाली परम देवी की शरण में सर्वात्मभाव से जाओ; यदि तुम्हारा मन भगवती में लगा होता तो उत्तम घोड़े पर क्यों जाता ? ॥ ५७-५८१/२

व्यासजी बोले — इस प्रकार देवी लक्ष्मी को वरदान देकर गिरिजापति भगवान् शंकर पार्वतीसहित अन्तर्धान हो गये ॥ ५९१/२

सुन्दर अंगों वाली वे लक्ष्मीजी वहीं स्थित रहकर भगवती जगदम्बा के देवासुरों के शिरोरत्न (मुकुट ) से घर्षित नखमण्डल वाले परम सुन्दर चरणकमल का ध्यान करने लगीं और अपने पति श्रीहरि के अश्वरूप धारण करके आने की प्रतीक्षा करती हुई प्रेमयुक्त गद्गद वाणी से बार-बार उनकी स्तुति करती रहीं ॥ ६०-६२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘शिव के प्रसाद से लक्ष्मी द्वारा भगवती के समाराधन का वर्णन’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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