May 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-21 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-एकविंशोऽध्यायः इक्कीसवाँ अध्याय आखेट के लिये वन में गये राजा से एकावली की सखी यशोवती की भेंट, एकावली के जन्म की कथा राजपुत्र्याः एकावल्याः वर्णनम् व्यासजी बोले — हे राजन् ! तत्पश्चात् राजा हरिवर्मा ने बालक के जातकर्म आदि संस्कार किये। भली-भाँति पालित-पोषित होने के कारण वह बालक दिनोंदिन शीघ्रता से बढ़ने लगा ॥ १ ॥ इस प्रकार पुत्रजनित सांसारिक सुख प्राप्त करके उन महात्मा नरेश ने अपने को अब तीनों ऋणों से मुक्त मान लिया ॥ २ ॥ राजा हरिवर्मा ने छठें महीने में बालक का अन्नप्राशन- संस्कार करके तीसरे वर्ष में शुभ मुण्डन संस्कार विधि-विधान के साथ सम्पन्न किया। इनमें ब्राह्मणों की सम्यक् पूजा करके उन्हें विविध धन-द्रव्यों तथा गौओं का दान किया गया और अन्य याचकों को भी नानाविध दान दिये ॥ ३-४ ॥ ग्यारहवें वर्ष में उस बालक का यज्ञोपवीत-संस्कार कराकर राजा ने उसको धनुर्वेद पढ़वाया ॥ ५ ॥ राजा हरिवर्मा ने उस पुत्र को धनुर्वेद तथा राजधर्म में पूर्ण निष्णात हुआ देखकर उसका राज्याभिषेक करने का निश्चय किया ॥ ६ ॥ तत्पश्चात् श्रेष्ठ राजा ने पुष्यार्क योग से युक्त शुभ दिनमें बड़े आदर के साथ अभिषेक हेतु सभी सामग्रियाँ एकत्र करवायीं ॥ ७ ॥ सभी शास्त्रों में पूर्ण पारंगत तथा वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर उन्होंने विधिवत् अपने पुत्र का अभिषेक सम्पन्न किया। सभी तीर्थों तथा समुद्रों से जल मँगाकर राजा ने शुभ दिन में पुत्र का स्वयं अभिषेक किया ॥ ८-९ ॥ तत्पश्चात् ब्राह्मणों को धन देकर तथा पुत्र को राज्य सौंपकर उन राजा हरिवर्मा ने स्वर्गप्राप्ति की कामना से वन के लिये शीघ्र ही प्रस्थान किया ॥ १० ॥ इस प्रकार एकवीर को राजा बनाकर तथा योग्य मन्त्रियों को नियुक्तकर इन्द्रियजित् राजा हरिवर्मा ने अपनी भार्या के साथ वन में प्रवेश किया ॥ ११ ॥ मैनाक पर्वत के शिखर पर तृतीय आश्रम ( वानप्रस्थ) – का आश्रय लेकर वे राजा प्रतिदिन वन के पत्तों तथा फलों का आहार करते हुए भगवती पार्वती की आराधना करने लगे ॥ १२ ॥ इस प्रकार अपनी भार्या के साथ वानप्रस्थ आश्रम का पालन करके वे राजा प्रारब्ध कर्म के समाप्त हो जाने पर मृत्यु को प्राप्त हुए और अपने पुण्यकर्म के प्रभाव से इन्द्रलोक चले गये ॥ १३ ॥ पिता इन्द्रलोक चले गये — ऐसा सुनकर हैहय एकवीर ने वैदिक विधान के अनुसार उनका और्ध्वदैहिक संस्कार सम्पन्न किया ॥ १४ ॥ पिता की सभी श्राद्ध आदि क्रियाएँ सम्पन्न करके सबकी सहमति से पिता द्वारा दिये गये राज्य पर वह मेधावी राजकुमार एकवीर शासन करने लगा ॥ १५ ॥ उत्कृष्ट राज्य प्राप्त करके धर्मपरायण एकवीर सभी मन्त्रियों से सम्मानित रहते हुए अनेकविध सुखों का उपभोग करने लगे ॥ १६ ॥ एक दिन प्रतापी राजा एकवीर मन्त्रियों के पुत्रों के साथ घोड़े पर आरूढ़ होकर गंगा के तट पर गये। वहाँ उन्होंने कोकिलों की कूज से गुंजित, भ्रमरों की पंक्तियों से सुशोभित तथा फलों-फूलों से लदे मनोहर वृक्षों, वेदपाठ की ध्वनि से निनादित, हवन के धुएँ से आच्छादित आकाश- मण्डल वाले, मृगों के छोटे शिशुओं से आवृत दिव्य मुनि- आश्रमों; गोपिकाओं के द्वारा सुरक्षित तथा पके हुए शालिधान्य से युक्त खेतों; विकसित कमलों से सुशोभित अनेक सरोवरों तथा मन को आकर्षित करने वाले निकुंजों को देखा। उन राजा एकवीर ने प्रियाल, चम्पक, कटहल, बकुल, तिलक, कदम्ब, पुष्पित मन्दार, शाल, ताल, तमाल, जामुन और आम आदि वृक्षों को देखते हुए कुछ दूर आगे जाने पर गंगा के जल में उत्कृष्ट गन्धयुक्त एक खिला हुआ शतदल कमल देखा । राजा ने उस कमल के दक्षिण भाग में कमलसदृश नेत्रोंवाली, स्वर्ण के समान कान्तिवाली, सुन्दर केशपाशवाली, शंखतुल्य गर्दनवाली, कृश कटिप्रदेशवाली, बिम्बाफल के समान ओष्ठवाली, किंचित् स्फुट पयोधरवाली, मनोहर नासिका वाली तथा समस्त सुन्दर अंगों वाली एक सुन्दरी कन्या को देखा। अपनी सखी से बिछुड़ जाने से व्याकुल होकर दु:खपूर्वक विलाप करती हुई, निर्जन वन में आँखों में आँसू भरकर कुररी पक्षी की भाँति क्रन्दन करती हुई उस कन्या को देखकर राजा एकवीर ने उससे शोक का कारण पूछा —॥ १७-२६ ॥ हे सुन्दर नासिकावाली! तुम कौन हो ? हे सुमुखि ! तुम किसकी पुत्री हो ? हे सुन्दरि ! तुम गन्धर्वकन्या हो अथवा देवकन्या ? हे सुन्दरि ! तुम क्यों रो रही हो ? यह मुझे बताओ ॥ २७ ॥ हे बाले ! तुम यहाँ अकेली क्यों हो? हे पिकस्वरे ! तुम्हें यहाँ किसने छोड़ दिया है ? हे प्रिये ! तुम्हारे पति अथवा पिता इस समय कहाँ चले गये हैं? मुझे बताओ ॥ २८ ॥ हे वक्र भौंहोंवाली ! तुम्हें क्या दुःख है ? उसे मेरे सामने अभी व्यक्त करो। हे कृशोदरि ! मैं सब प्रकार से तुम्हारा दुःख दूर करूँगा ॥ २९ ॥ हे तन्वंगि! मेरे राज्य में कोई भी प्राणी किसी को पीड़ा नहीं पहुँचा सकता और हे कान्ते! कहीं न तो चोरों का भय है और न राक्षसों का ही भय है ॥ ३० ॥ मुझ नरेश के शासन करते हुए भीषण उत्पात नहीं हो सकते; बाघ अथवा सिंह से किसी को भय नहीं हो सकता और किसी को कोई भी भय नहीं रहता ॥ ३१ ॥ हे वामोरु ! असहाय होकर तुम गंगातट पर क्यों विलाप कर रही हो, तुम्हें क्या दुःख है? मुझे बताओ ॥ ३२ ॥ हे कान्ते ! मैं जगत् के प्राणियों के अत्यन्त भीषण दैविक तथा मानुषिक कष्ट को भी दूर करता हूँ; यह मेरा अद्भुत व्रत है। हे विशालनयने ! बताओ, मैं तुम्हारा वांछित कार्य करूँगा ॥ ३३१/२ ॥ राजा के ऐसा कहने पर उसे सुनकर मधुरभाषिणी कन्या ने कहा — हे राजेन्द्र ! सुनिये, मैं आपको अपने शोक का कारण बता रही हूँ। हे राजन् ! विपदारहित प्राणी भला क्यों रोयेगा ? हे महाबाहो ! मैं जिसलिये रो रही हूँ, वह आपको बता रही हूँ । आपके राज्य से भिन्न दूसरे देश में रैभ्य नामक एक महान् धार्मिक राजा हैं, वे महाराज सन्तानहीन हैं, उनकी पत्नी रुक्मरेखा — इस नाम से प्रसिद्ध हैं। वे परम रूपवती, बुद्धिमती, पतिव्रता तथा समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं । पुत्रहीन होने से दुःखित रहने के कारण वे अपने पति से बार-बार कहा करती थीं — हे नाथ! मेरे इस जीवन से क्या लाभ? इस जगत् में मुझ वन्ध्या, पुत्रहीन तथा सुखरहित नारी के इस व्यर्थ जीवन को धिक्कार है ॥ ३४-३९ ॥ इस प्रकार अपनी भार्या से प्रेरणा पाकर राजा रैभ्य ने यज्ञ के ज्ञाता ब्राह्मणों को बुलाकर विधिवत् उत्तम यज्ञ सम्पन्न कराया ॥ ४० ॥ पुत्राभिलाषी राजा रैभ्य ने शास्त्रोक्त रीति से प्रचुर धन दान दिया। घृत की आहुति अधिक पड़ते रहने से तीव्र प्रभायुक्त अग्नि से सुन्दर अंगोंवाली, शुभ लक्षणों से सम्पन्न, बिम्बाफल के समान ओष्ठवाली, सुन्दर दाँतों तथा भौंहों वाली, पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख वाली, स्वर्ण के समान आभा वाली, सुन्दर केशों वाली, रक्त हथेलियों वाली, कोमल, सुन्दर लाल नेत्रोंवाली, कृश शरीरवाली तथा रक्त पादतल [तलवे ]- वाली एक कन्या प्रकट हुई ॥ ४१-४३ ॥ तब होता ने अग्नि से उत्पन्न हुई उस कन्या को स्वीकार कर लिया। इसके बाद उस सुन्दर कन्या को लेकर होता ने राजा रैभ्य से कहा — हे राजन्! समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न इस पुत्री को ग्रहण कीजिये। हवन करते समय अग्नि से उत्पन्न यह कन्या मोतियों की माला के समान प्रतीत होती है। अतः हे राजन् ! यह पुत्री जगत् में ‘एकावली’ नाम से प्रसिद्ध होगी । पुत्रतुल्य इस कन्या को प्राप्तकर आप सुखी हो जायँ । हे राजेन्द्र ! सन्तोष कीजिये; भगवान् विष्णु ने आपको यह कन्या दी है ॥ ४४-४६१/२ ॥ होता की बात सुनकर राजा ने उस सुन्दर कन्या की ओर देखकर होता के द्वारा प्रदत्त उस कन्या को अति प्रसन्न होकर ले लिया । राजा ने सुन्दर मुखवाली उस कन्या को ले करके अपनी पत्नी रुक्मरेखा को यह कहकर दे दिया कि हे सुभगे ! इस कन्या को स्वीकार करो। कमलपत्र के समान नेत्रों वाली उस मनोहर कन्या को पाकर रानी बहुत हर्षित हुईं; वे ऐसी सुखी हो गयीं मानो उन्हें पुत्र प्राप्त हो गया हो ॥ ४७-४९१/२ ॥ तत्पश्चात् राजा ने उसके जातकर्म आदि सभी शुभ मंगल कार्य सम्पन्न किये तथा पुत्रजन्म के अवसर पर होने वाले जो कुछ भी कार्य थे, वे सब उन्होंने विधिपूर्वक सम्पन्न कराये । यज्ञ सम्पन्न करके राजा रैभ्य ब्राह्मणों को विपुल दक्षिणा देकर तथा सभी विप्रेन्द्रों को विदाकर अत्यन्त आनन्दित हुए ॥ ५०-५११/२ ॥ श्याम नेत्रों वाली वह कन्या पुत्रवृद्धि के समान दिनोंदिन बढ़ने लगी। उसे देखकर उस समय रानी अपने को पुत्रवती समझकर परम आनन्दित हुईं। उस दिन महल में ऐसा उत्सव मनाया गया, जैसा पुत्रजन्म के अवसर पर मनाया जाता है। वह पुत्री उन दोनों के लिये पुत्र के ही सदृश प्रिय हो गयी ॥ ५२-५१/२ ॥ हे सुबुद्धे! हे कामदेवसदृश रूपवाले ! मैं उन्हीं राजा रैभ्य के मन्त्री की पुत्री हूँ। मेरा नाम यशोवती है। मेरी तथा एकावली की अवस्था समान है। उसके साथ खेलने के लिये राजा ने मुझे उसकी सखी बना दिया। इस प्रकार मैं उसकी सहचरी बनकर प्रेमपूर्वक दिन-रात उसके साथ रहने लगी ॥ ५४-५५१/२ ॥ एकावली जहाँ भी सुगन्धित कमल देखती थी, वह बाला वहीं खेलने लग जाती थी; अन्यत्र कहीं भी उसे सुख नहीं मिलता था। [ एक बार ] गंगा के तट पर बहुत दूर कमल खिले हुए थे । राजकुमारी एकावली सखियों सहित मेरे साथ घूमती हुई वहाँ चली गयी । [ इससे चिन्तित होकर ] मैंने महाराज रैभ्य से कहा — हे राजन्! आपकी पुत्री एकावली कमलों को देखती हुई बहुत दूर निर्जन वन में चली जाती है। तब उसके पिता ने घर पर ही अनेक जलाशयों का निर्माण कराकर उनमें पुष्पित तथा भौंरों से आवृत कमल लगवाकर उसे दूर जाने से मना कर दिया। इस पर भी मन में कमलों के प्रति आसक्ति रखने वाली वह कन्या बाहर निकल जाती थी। तब राजा ने उसके साथ हाथों में शस्त्र धारण किये हुए रक्षक नियुक्त कर दिये । इस प्रकार रक्षित होकर वह सुन्दरी मेरे तथा सखियों सहित क्रीडा के लिये गंगा तट पर प्रतिदिन आया-जाया करती थी ॥ ५६–६१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘एकावलीकन्याप्राप्तिवर्णन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ Content is available only for registered users. 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