April 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-11 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ एकादशोऽध्यायः ग्यारहवाँ अध्याय बुध के जन्म की कथा बुधोत्पत्तिः ॥ ऋषय ऊचुः ॥ कोऽसौ पुरूरवा राजा कोर्वशी देवकन्यका । कथं कष्टं च सम्प्राप्तं तेन राज्ञा महात्मना ॥ १ ॥ सर्वं कथानकं ब्रूहि लोमहर्षणजाधुना । श्रोतुकामा वयं सर्वे त्वन्मुखाब्जच्युतं रसम् ॥ २ ॥ अमृतादपि मिष्टा ते वाणी सूत रसात्मिका । न तृप्यामो वयं सर्वे सुधया च यथामराः ॥ ३ ॥ ऋषिगण बोले — हे सूतजी! वे राजा पुरूरवा कौन थे तथा वह देवकन्या उर्वशी कौन थी? उस मनस्वी राजा ने किस प्रकार संकट प्राप्त किया ?॥ १ ॥ हे लोमहर्षणतनय! आप इस समय पूरा कथानक विस्तारपूर्वक कहें । हम सभी लोग आपके मुखारविन्द से निःसृत रसमयी वाणी को सुनने के इच्छुक हैं ॥ २ ॥ हे सूतजी! आपकी वाणी अमृत से भी बढ़कर मधुर एवं रसमयी है। जिस प्रकार देवगण अमृत- पान से कभी तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार आपके कथा-श्रबण से हम तृप्त नहीं होते ॥ ३ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ शृणुध्वं मुनयः सर्वे कथां दिव्यां मनोरमाम् । वक्ष्याम्यहं यथाबुद्ध्या श्रुतां व्यासवरोत्तमात् ॥ ४ ॥ गुरोस्तु दयिता भार्या तारा नामेति विश्रुता । रूपयौवनयुक्ता सा चार्वङ्गी मदविह्वला ॥ ५ ॥ गतैकदा विधोर्धाम यजमानस्य भामिनी । दृष्टा च शशिनात्यर्थं रूपयौवनशालिनी ॥ ६ ॥ कामातुरस्तदा जातः शशी शशिमुखीं प्रति । सापि वीक्ष्य विधुं कामं जाता मदनपीडिता ॥ ७ ॥ तावन्योन्यं प्रेमयुक्तौ स्मरार्तौ च बभूवतुः । तारा शशी मदोन्मत्तौ कामबाणप्रपीडितौ ॥ ८ ॥ रेमाते मदमत्तौ तौ परस्परस्पृहान्वितौ । दिनानि कतिचित्तत्र जातानि रममाणयोः ॥ ९ ॥ बृहस्पतिस्तु दुःखार्तस्तारामानयितुं गृहम् । प्रेषयामास शिष्यं तु नायाता सा वशीकृता ॥ १० ॥ पुनः पुनर्यदा शिष्यं परावर्तत चन्द्रमाः । बृहस्पतिस्तदा क्रुद्धो जगाम स्वयमेव हि ॥ ११ ॥ सूतजी बोले — हे मुनियो! अब आपलोग उस दिव्य तथा मनोहर कथा को सुनिये, जिसे मैंने परम श्रेष्ठ व्यासजी के मुख से सुना है। मैं उसे अपनी बुद्धि के अनुसार वैसा ही कहूँगा ॥ ४ ॥ सुरगुरु बृहस्पति को पत्नी का नाम ‘तारा’ था। वह रूप-यौवन से सम्पन्न तथा सुन्दर अंगोंवाली थी ॥ ५ ॥ एक बार वह सुन्दरी अपने यजमान चन्द्रमा के घर गयी। उस रूप तथा यौवन से सम्पन्न चन्द्रमुखी कामिनी को देखते ही चन्द्रमा उसपर आसक्त हो गये। तारा भी चन्द्रमा को देखकर आसक्त हो गयी। इस प्रकार वे दोनों तारा तथा चन्द्रमा एक-दूसरे को देखकर प्रेमविभोर हो गये ॥ ६-८ ॥ वे दोनों प्रेमोन्मत्त एक-दूसरे को चाहने की इच्छा से युक्त हो विहार करने लगे। इस प्रकार उनके कुछ दिन व्यतीत हुए। तब बृहस्पति ने तारा को घर लाने के लिये अपना एक शिष्य भेजा; परंतु वह न आ सकी ॥ ९-१० ॥ जब चन्द्रमा ने बृहस्पति के शिष्य को कई बार लौटाया, तो वे क्रोधित होकर चन्द्रमा के पास स्वयं गये ॥ ११ ॥ गत्वा सोमगृहं तत्र वाचस्पतिरुदारधीः । उवाच शशिनं क्रुद्धः स्मयमानं मदान्वितम् ॥ १२ ॥ किं कृतं किल शीतांशो कर्म धर्मविगर्हितम् । रक्षिता मम भार्येयं सुन्दरी केन हेतुना ॥ १३ ॥ तव देव गुरुश्चाहं यजमानोऽसि सर्वथा । गुरुभार्या कथं मूढ भुक्ता किं रक्षिताथवा ॥ १४ ॥ ब्रह्महा हेमहारी च सुरापो गुरुतल्पगः । महापातकिनो ह्येते तत्संसर्गी च पञ्चमः ॥ १५ ॥ महापातकयुक्तस्त्वं दुराचारोऽतिगर्हितः । न देवसदनार्होऽसि यदि भुक्तेयमङ्गना ॥ १६ ॥ मुञ्चेमामसितापाङ्गीं नयामि सदनं मम । नोचेद्वक्ष्यामि दुष्टात्मन् गुरुदारापहारिणम् ॥ १७ ॥ इत्येवं भाषमाणं तमुवाच रोहिणीपतिः । गुरुं क्रोधसमायुक्तं कान्ताविरहदुःखितम् ॥ १८ ॥ चन्द्रमा के घर जाकर उदारचित्त बृहस्पति ने अभिमान के साथ मुसकराते हुए उस चन्द्रमा से कहा — हे चन्द्रमा! तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य क्यों किया और मेरी इस परम सुन्दरी पत्नी को अपने घर में क्यों रख लिया ?॥ १२-१३ ॥ हे देव! मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम मेरे यजमान हो। तब हे मूर्ख! तुमने गुरुपपत्नी को अपने घर मे क्यों रख लिया ?॥ १४ ॥ ब्रह्महत्या करने वाला, सुवर्ण चुराने वाला, मदिरापान करने वाला, गुरुपत्नीगामी तथा पाँचवाँ इन पापियों के साथ संसर्ग रखने वाला — ये “महापातकी? हैं । तुम महापापी, दुराचारी एवं अत्यन्त निन्दनीय हो। यदि तुमने मेरी पत्नी के साथ अनाचार किया है तो तुम देवलोक में रहने योग्य नहीं हो ॥ १५-१६ ॥ हे दुष्टात्मन् ! असितापांगी (काली आंखों वाली) मेरी इस पत्नी को छोड़ दो जिससे मैं इसे अपने घर ले जाऊँ, अन्यथा गुरुपत्नी का अपहरण करने वाले तुझको मैं शाप दे दूँगा ॥ १७ ॥ इस प्रकार बोलते हुए स्त्रीविरह से कातर तथा क्रोधाकुल देवगुरु बृहस्पति से रोहिणीपति चन्द्रमा ने कहा ॥ १८ ॥ ॥ इन्दुरुवाच ॥ क्रोधात्ते तु दुराराध्या ब्राह्मणाः क्रोधवर्जिताः । पूजार्हा धर्मशास्त्रज्ञा वर्जनीयास्ततोऽन्यथा ॥ १९ ॥ आगमिष्यति सा कामं गृहं ते वरवर्णिनी । अत्रैव संस्थिता बाला का ते हानिरिहानघ ॥ २० ॥ इच्छया संस्थिता चात्र सुखकामार्थिनी हि सा । दिनानि कतिचित्स्थित्वा स्वेच्छया चागमिष्यति ॥ २१ ॥ त्वयैवोदाहृतं पूर्वं धर्मशास्त्रमतं तथा । न स्त्री दुष्यति चारेण न विप्रो वेदकर्मणा ॥ २२ ॥ इत्युक्तः शशिना तत्र गुरुरत्यन्तदुःखितः । जगाम स्वगृहं तूर्णं चिन्ताविष्टः स्मरातुरः ॥ २३ ॥ दिनानि कतिचित्तत्र स्थित्वा चिन्तातुरो गुरुः । ययावथ गृहं तस्य त्वरितश्चौषधीपतेः ॥ २४ ॥ स्थितः क्षत्रा निषिद्धोऽसौ द्वारदेशे रुषान्वितः । नाजगाम शशी तत्र चुकोपाति बृहस्पतिः ॥ २५ ॥ चन्द्रमा बोले — क्रोध के कारण ब्राह्मण अपूजनीय होते हैं । क्रोधरहित तथा धर्मशास्त्रज्ञ विप्र पूजा के योग्य हैं और इन गुणों से हीन ब्राह्मण त्याज्य होते हैं ॥ १९ ॥ हे अनघ! वह सुन्दर स्त्री अपनी इच्छा से आपके घर चली जायगी और यदि कुछ दिन यहाँ ठहर भी गयी तो इससे आपकी क्या हानि है ? अपनी इच्छा से ही वह यहाँ रहती है। सुख की इच्छा रखने वाली वह कुछ दिन यहाँ रहकर अपनी इच्छा से चली जायगी ॥ २०-२१ ॥ आपने ही तो पूर्व में धर्मशास्त्र के इस मत का उल्लेख किया है कि संसर्ग से स्त्री और वेदकर्म से ब्राह्मण कभी दूषित नहीं होते ॥ २२ ॥ चन्द्रमा के ऐसा कहने पर बृहस्पति अत्यन्त दुखी हुए एवं चिन्तामग्न होकर शीघ्र ही अपने घर चले गये ॥ २३ ॥ कुछ दिन अपने घर रहकर चिन्ता से व्याकुल गुरु बृहस्पति पुनः उन औषधिपति चन्द्रमा के यहाँ शीघ्र जा पहुँचे। वहाँ द्वारपाल ने उन्हें भीतर जाने से रोका, तब वे क्रुद्ध होकर द्वार पर ही रुक गये। [कुछ देर तक प्रतीक्षा करने पर] जब चन्द्रमा वहाँ नहीं आये, तब बृहस्पति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे ॥ २४-२५ ॥ अयं मे शिष्यतां यातो गुरुपत्नीं तु मातरम् । जग्राह बलतोऽधर्मी शिक्षणीयो मयाधुना ॥ २६ ॥ उवाच वाचं कोपात्तु द्वारदेशस्थितो बहिः । किं शेषे भवने मन्द पापाचार सुराधम ॥ २७ ॥ देहि मे कामिनीं शीघ्रं नोचेच्छापं ददाम्यहम् । करोमि भस्मसान्नूनं न ददासि प्रियां मम ॥ २८ ॥ [वे विचार करने लगे] मेरा शिष्य होते हुए भी इसने माता के समान आदरणीया गुरुपत्नी को बलपूर्वक हर लिया है। इसलिये अब मुझे इस अधर्मी को दण्डित करना चाहिये ॥ २६ ॥ तब बाहर द्वार पर खड़े बृहस्पति ने क्रोध के साथ चन्द्रमा से कहा — अरे नीच! पापी! देवाधम! तुम अपने घर में निश्चिन्त होकर क्यों पड़े हो? मेरी स्त्री शीघ्र मुझे लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हें शाप दे दूँगा। यदि तुम मेरी पत्नी नहीं दोगे तो मैं तुझे अभी अवश्य भस्म कर दूँगा ॥ २७-२८ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ क्रूराणि चैवमादीनि भाषणानि बृहस्पतेः । श्रुत्वा द्विजपतिः शीघ्रं निर्गतः सदनाद्बहिः ॥ २९ ॥ तमुवाच हसन्सोमः किमिदं बहु भाषसे । न ते योग्यासितापाङ्गी सर्वलक्षणसंयुता ॥ ३० ॥ कुरूपां च स्वसदृशीं गृहाणान्यां स्त्रियं द्विज । भिक्षुकस्य गृहे योग्या नेदृशी वरवर्णिनी ॥ ३१ ॥ रतिः स्वसदृशे कान्ते नार्याः किल निगद्यते । त्वं न जानासि मन्दात्मन् कामशास्त्रविनिर्णयम् ॥ ३२ ॥ यथेष्टं गच्छ दुर्बुद्धे नाहं दास्यामि कामिनीम् । यच्छक्यं कुरु तत्कामं न देया वरवर्णिनी ॥ ३३ ॥ कामार्तस्य च ते शापो न मां बाधितुमर्हति । नाहं ददे गुरो कान्तां यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३४ ॥ सूतजी बोले — बृहस्पति के इस प्रकार के क्रोध भरे वचन सुनकर द्विजराज चन्द्रमा शीघ्र घर से बाहर निकले और हँसते हुए उनसे बोले — आप इतना अधिक क्यों बोल रहे हैं? सर्वलक्षणसम्पन्न वह असितापांगी आपके योग्य नहीं है ॥ २९-३० ॥ हे विप्र! आप अपने समान किसी अन्य स्त्री को ग्रहण कर लीजिये; ऐसी सुन्दरी भिक्षुक के घर में रहने योग्य नहीं है । यह प्रायः कहा जाता है कि अपने समान गुणसम्पन्न पति पर ही पत्नी का प्रेम स्थिर रहता है। अपने इच्छानुसार अब आप चाहे जहाँ चले जायँ। मैं इसे नहीं दूँगा। आपका शाप मेरे ऊपर नहीं लग सकता। हे गुरो! मैं यह रमणी आपको नहीं दूँगा, अब आप जैसा चाहें वैसा करें ॥ ३१-३४ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ इत्युक्तः शशिना चेज्यश्चिन्तामाप रुषान्वितः । जगाम तरसा सद्म क्रोधयुक्तः शचीपतेः ॥ ३५ ॥ दृष्ट्वा शतक्रतुस्तत्र गुरुं दुःखातुरं स्थितम् । पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः पूजयित्वा सुसंस्थितः ॥ ३६ ॥ पप्रच्छ परमोदारस्तं तथावस्थितं गुरुम् । का चिन्ता ते महाभाग शोकार्तोऽसि महामुने ॥ ३७ ॥ केनापमानितोऽसि त्वं मम राज्ये गुरुश्च मे । त्वदधीनमिदं सर्वं सैन्यं लोकाधिपैः सह ॥ ३८ ॥ बह्मा विष्णुस्तथा शम्भुर्ये चान्ये देवसत्तमाः । करिष्यन्ति च साहाय्यं का चिन्ता वद साम्प्रतम् ॥ ३९ ॥ सूतजी बोले — चन्द्रमा के ऐसा कहने पर देवगुरु बृहस्पति रुष्ट होकर चिन्ता में पड़ गये और वे कुपित हो शीघ्रता से इन्द्र के भवन चले गये ॥ ३५ ॥ वहाँ स्थित देवगुरु बृहस्पति को दुःख से व्याकुल देखकर इन्द्र ने पाद्य, अर्घ्य तथा आचमनीय आदि से उनको विधिवत् पूजा करके बैठाया ॥ ३६ ॥ जब बृहस्पति आसन पर बैठकर स्वस्थ हो गये, तब परम उदार इन्द्र ने उनसे पूछा — ‘ हे महाभाग! आपको कौन-सी चिन्ता है? हे मुनिवर! आप इतने शोकाकुल किसलिये हैं ? ॥ ३७ ॥ मेरे राज्य में आपका अपमान किसने किया है ? आप मेरे गुरु हैं, अतः हमारी सारी सेना एवं लोकपाल सभी आपके अधीन हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवता भी आपकी सहायता करेंगे। आपको कौन-सी चिन्ता है; इस समय उसे बताइये ॥ ३८-३९ ॥ ॥ गुरुरुवाच ॥ शशिनापहृता भार्या तारा मम सुलोचना । न ददाति स दुष्टात्मा प्रार्थितोऽपि पुनः पुनः ॥ ४० ॥ किं करोमि सुरेशान त्वमेव शरणं मम । साहाय्यं कुरु देवेश दुःखितोऽस्मि शतक्रतो ॥ ४१ ॥ बृहस्पति बोले — चन्द्रमा ने मेरी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी तारा का हरण कर लिया और वह दुष्ट मेरे बार- बार प्रार्थना करने पर भी उसे लौटाता नहीं है। हे देवराज! अब मैं क्या करूँ ? अब तो केवल आप ही मेरी शरण हैं। हे शतक्रतो! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ। हे देवेश! आप मेरी सहायता कीजिये ॥ ४०-४१ ॥ ॥ इन्द्र उवाच ॥ मा शोकं कुरु धर्मज्ञ दासोऽस्मि तव सुव्रत । आनयिष्याम्यहं नूनं भार्यां तव महामते ॥ ४२ ॥ प्रेषिते चेन्मया दूते न दास्यति मदाकुलः । ततो युद्धं करिष्यामि देवसैन्यैः समावृतः ॥ ४३ ॥ इन्द्र बोले — हे धर्मात्मन्! आप शोक न करें, हे सुव्रत! मैं आपका सेवक हूँ, मैं आपकी पत्नी को अवश्य लाऊँगा। हे महामते ! यदि दूत भेजने पर भी वह मदोन्मत्त चन्द्रमा आपकी स्त्री को नहीं देगा तो देवसेनाओं सहित मैं स्वयं युद्ध करूँगा ॥ ४२-४३ ॥ इत्याश्वास्य गुरुं शक्रो दूतं वक्तृविचक्षणम् । प्रेषयामास सोमाय वार्ताशंसिनमद्भुतम् ॥ ४४ ॥ स गत्वा शशिलोकं तु त्वरितः सुविचक्षणः । उवाच वचनेनैव वचनं रोहिणीपतिम् ॥ ४५ ॥ प्रेषितोऽहं महाभाग शक्रेण त्वां विवक्षया । कथितं प्रभुणा यच्च तद्ब्रवीमि महामते ॥ ४६ ॥ इस प्रकार गुरु बृहस्पति को आश्वासन देकर इन्द्र ने अपनी बात को सही ढंग से कहने वाले, विलक्षण तथा वाकूपटु दूत को चन्द्रमा के पास भेजा ॥ ४४ ॥ शीघ्र ही वह चतुर दूत चन्द्रलोक गया और रोहिणीपति चन्द्रमा से यह सन्देश-वचन कहने लगा — हे महाभाग ! हे महामते ! इन्द्र ने आपसे कुछ कहने के लिये मुझे भेजा है। अतः उनके द्वारा जो कुछ कहा गया है, वही ज्यों-का-त्यों मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ४५-४६ ॥ धर्मज्ञोऽसि महाभाग नीतिं जानासि सुव्रत । अत्रिः पिता ते धर्मात्मा न निद्यं कर्तुमर्हसि ॥ ४७ ॥ भार्या रक्ष्या सर्वभूतैर्यथाशक्ति ह्यतन्द्रितैः । तदर्थे कलहः कामं भविता नात्र संशयः ॥ ४८ ॥ यथा तव तथा तस्य यत्नः स्याद्दाररक्षणे । आत्मवत्सर्वभूतानि चिन्तय त्वं सुधानिधे ॥ ४९ ॥ अष्टाविंशतिसंख्यास्ते कामिन्यो दक्षजाः शुभाः । गुरुपत्नीं कथं भोक्तुं त्वमिच्छसि सुधानिधे ॥ ५० ॥ स्वर्गे सदा वसन्त्येता मेनकाद्या मनोरमाः । भुंक्ष्व ताः स्वेच्छया कामं मुञ्च पत्नीं गुरोरपि ॥ ५१ ॥ ईश्वरा यदि कुर्वन्ति जुगुप्सितमहन्तया । अज्ञास्तदनुवर्तन्ते तदा धर्मक्षयो भवेत् ॥ ५२ ॥ तस्मान्मुञ्च महाभाग गुरोः पत्नीं मनोरमाम् । कलहस्त्वन्निमित्तोऽद्य सुराणां न भवेद्यथा ॥ ५३ ॥ हे महाभाग! हे सुव्रत! आप धर्मज्ञ हैं, नीति जानते हैं तथा धर्मात्मा अत्रिमुनि आपके पिता हैं, अतएव आपको कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे आप निन्दनीय हो जायँ। आलस्यरहित होकर यथाशक्ति अपनी स्त्री की रक्षा सभी प्राणी करते हैं। अतः इस (तारा) – के लिये बड़ा कलह होगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४७-४८ ॥ हे सुधानिधे! जैसे आप अपनी भार्या की रक्षा हेतु प्रयत्न करते हैं, बैसे वे गुरु बृहस्पति भी अपनी पत्नी की रक्षा के लिये प्रयत्नशील हैं। आप अपने ही सदृश सभी प्राणियों के विषय में विचार कीजिये ॥ ४९ ॥ हे सुधानिधे! आपको दक्षप्रजापति की सुलक्षणों से युक्त अट्टाईस कन्याएँ पत्नी के रूप में प्राप्त हैं। आप अपने गुरु की पत्नी को पाने की इच्छा क्यों रखते हैं? स्वर्गलोक में मेनका आदि अनेक मनोरम अप्सराएँ सर्वदा सुलभ हैं, तब उनके साथ स्वेच्छापूर्वक विहार कीजिये और गुरुपत्नी तारा को शीघ्र ही लौटा दीजिये ॥ ५०-५१ ॥ आप-जैसे महान् लोग यदि अहंकारवश ऐसा निन्दित कर्म करें तो अनभिज्ञ साधारणजन तो उनका अनुकरण करेंगे ही और तब धर्म का नाश हो जायगा। अतः हे महाभाग! गुरु को इस मनोरमा पत्नी को शीघ्र लौटा दीजिये, जिससे आपके कारण इस समय देवताओं के बीच कलह न उत्पन्न हो ॥ ५२-५३ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ सोमः शक्रवचः श्रुत्वा किञ्चित्क्रोधसमाकुलः । भङ्ग्या प्रतिवचः प्राह शक्रदूतं तदा शशी ॥ ५४ ॥ सूतजी बोले — दूत से इन्द्र का सन्देश सुनकर चन्द्रमा कुछ क्रोधित हो गये और उन्होंने इन्द्र के दूत को इस प्रकार व्यंग्यपूर्वक उत्तर दिया ॥ ५४ ॥ ॥ इन्दुरावाच ॥ धर्मज्ञोऽसि महाबाहो देवानामधिपः स्वयम् । पुरोधापि च ते तादृग्युवयोः सदृशी मतिः ॥ ५५ ॥ परोपदेशे कुशला भवन्ति बहवो जनाः । दुर्लभस्तु स्वयं कर्ता प्राप्ते कर्मणि सर्वदा ॥ ५६ ॥ बार्हस्पत्यप्रणीतं च शास्त्रं गृह्णन्ति मानवाः । को विरोधोऽत्र देवेश कामयानां भजन्स्त्रियम् ॥ ५७ ॥ स्वकीयं बलिनां सर्वं दुर्बलानां न किञ्चन । स्वीया च परकीया च भ्रमोऽयं मन्दचेतसाम् ॥ ५८ ॥ तारा मय्यनुरक्ता च यथा न तु तथा गुरौ । अनुरक्ता कथं त्याज्या धर्मतो न्यायतस्तथा ॥ ५९ ॥ गृहारम्भस्तु रक्तायां विरक्तायां कथं भवेत् । विरक्तेयं यदा जाता चकमेऽनुजकामिनीम् ॥ ६० ॥ न दास्येऽहं वरारोहां गच्छ दूत वद स्वयम् । ईश्वरोऽसि सहस्राक्ष यदिच्छसि कुरुष्व तत् ॥ ६१ ॥ चन्द्रमा बोले — हे महाबाहो! आप धर्मज्ञ हैं और स्वयं देवताओं के राजा हैं। आपके पुरोहित बृहस्पति भी ठीक आपकी तरह हैं और आप दोनों की बुद्धि भी एक समान है ॥ ५५ ॥ दूसरों को उपदेश देने में अनेक लोग चतुर होते हैं, परंतु कार्य उपस्थित होने पर [उपदेशानुसार ] स्वयं आचरण करने वाला दुर्लभ होता है ॥ ५६ ॥ हे देवेश! बृहस्पति के बनाये शास्त्र को सभी मनुष्य स्वीकार करते हैं। शक्तिशाली लोगों के लिये सब कुछ अपना होता है, परंतु दुर्बल लोगों के लिये कुछ भी अपना नहीं होता। तारा जितना प्रेम मुझसे करती है, उतना बृहस्पति से नहीं। अतः अनुरक्त स्त्री धर्म अथवा न्याय से त्याज्य कैसे हो सकती है? गार्हस्थ्य जीवन का वास्तविक सुख तो प्रेम रखने वाली स्त्री के साथ ही होता है, उदासीन स्त्री के साथ नहीं; इसलिये हे दूत! तुम जाओ और इन्द्र से कह दो कि मैं इसे नहीं दूँगा। हे सहस्राक्ष! आप स्वयं समर्थ हैं; आप जो चाहते हों, वह कीजिये ॥ ५७-६१ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ इत्युक्तः शशिना दूतः प्रययौ शक्रसन्निधिम् । इन्द्रायाचष्ट तत्सर्वं यदुक्तं शीतरश्मिना ॥ ६२ ॥ तुराषाडपि तच्छ्रुत्वा क्रोधयुक्तो बभूव ह । सेनोद्योगं तथा चक्रे साहाय्यार्थं गुरोर्विभुः ॥ ६३ ॥ शुक्रस्तु विग्रहं श्रुत्वा गुरुद्वेषात्ततो ययौ । मा ददस्वेति तं वाक्यमुवाच शशिनं प्रति ॥ ६४ ॥ साहाय्यं ते करिष्यामि मन्त्रशक्त्या महामते । भविता यदि संग्रामस्तव चेन्द्रेण मारिष ॥ ६५ ॥ शङ्करस्तु तदाकर्ण्य गुरुदाराभिमर्शनम् । गुरुशत्रुं भृगुं मत्वा साहाय्यमकरोत्तदा ॥ ६६ ॥ संग्रामस्तु तदा वृत्तो देवदानवयोर्द्रुतम् । बहूनि तत्र वर्षाणि तारकासुरवत्किल ॥ ६७ ॥ सूतजी बोले — चन्द्रमा के ऐसा कहने पर दूत इन्द्र के पास लौट गया और चन्द्रमा ने जो कहा था, वह सब उसने इन्द्र से कह दिया ॥ ६२ ॥ इसे सुनकर प्रतापी इन्द्र भी अत्यन्त क्रोधित हुए और गुरु बृहस्पति की सहायता के लिये सेना की तैयारी करने लगे ॥ ६३ ॥ दैत्यगुरु शुक्राचार्य चन्द्रमा तथा देवगुरु के विरोध की बात सुनकर बृहस्पति से द्वेष के कारण चन्द्रमा के पास गये और उससे बोले कि आप तारा को वापस मत कीजिये ॥ ६४ ॥ हे महामते! हे मान्य ! यदि इन्द्र के साथ आपका युद्ध छिड़ जायगा तो मैं भी अपनी मन्त्रशक्ति से आपकी सहायता करूँगा ॥ ६५ ॥ गुरुपत्नी से अनाचार की बात सुनकर और शुक्राचार्य को बृहस्पति का शत्रु जानकर शिवजी भी बृहस्पति की सहायता के लिये तैयार हो गये ॥ ६६ ॥ तब तारकासुर के साथ हुए युद्ध की भाँति देव- दानवों में संग्राम छिड गया। यह युद्ध बहुत वर्षों तक चलता रहा ॥ ६७ ॥ देवासुरकृतं युद्धं दृष्ट्वा तत्र पितामहः । हंसारूढो जगामाशु तं देशं क्लेशशान्तये ॥ ६८ ॥ राकापतिं तदा प्राह मुञ्च भार्यां गुरोरिति । नोचेद्विष्णुं समाहूय करिष्यामि तु संक्षयम् ॥ ६९ ॥ भृगुं निवारयामास ब्रह्मा लोकपितामहः । किमन्यायमतिर्जाता सङ्गदोषान्महामते ॥ ७० ॥ निषेधयामास ततो भृगुस्तं चौषधीपतिम् । मुञ्च भार्यां गुरोरद्य पित्राहं प्रेषितस्तव ॥ ७१ ॥ देव-दानवों का यह संग्राम देखकर प्रजापति ब्रह्माजी हंस पर सवार होकर उस क्लेश की शान्ति के लिये रणस्थल में शीघ्र पहुँचे । तब ब्रह्माजी ने चन्द्रमा से कहा कि तुम गुरु बृहस्पति की पत्नी लौटा दो, नहीं तो भगवान् विष्णु को बुलाकर मैं तुम्हें समूल नष्ट कर दूँगा । तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजी ने भृगुनन्दन शुक्र को भी युद्ध से रोका और उनसे कहा — हे महामते! दैत्यों के संग से क्या आपकी भी बुद्धि अन्याययुक्त हो गयी है ?॥ ६८-७० ॥ तत्पश्चात् [ ब्रह्माजी की बात सुनकर शुक्राचार्य चन्द्रमा के पास गये] उन्होंने चन्द्रमा को युद्ध से रोका और कहा कि तुम्हारे पिता ने मुझे भेजा है, तुम अपने गुरु की पत्नी को तत्काल छोड़ दो ॥ ७१ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ द्विजराजस्तु तच्छ्रुत्वा भृगोर्वचनमद्भुतम् । ददौ च तत्प्रियां भार्यां गुरोर्गर्भवतीं शुभाम् ॥ ७२ ॥ प्राप्य कान्तां गुरुर्हृष्टः स्वगृहं मुदितो ययौ । ततो देवास्ततो दैत्या ययुः स्वान्स्वान्गृहान्प्रति ॥ ७३ ॥ ब्रह्मा स्वसदनं प्राप्तः कैलासं चापि शङ्करः । बृहस्पतिस्तु सन्तुष्टः प्राप्य भार्यां मनोरमाम् ॥ ७४ ॥ ततः कालेन कियता तारासूत सुतं शुभम् । सुदिने शुभनक्षत्रे तारापतिसमं गुणैः ॥ ७५ ॥ दृष्ट्वा पुत्रं गुरुर्जातं चकार विधिपूर्वकम् । जातकर्मादिकं सर्वं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ७६ ॥ सूतजी बोले — शुक्राचार्य की वह अद्भुत वाणी सुनकर चन्द्रमा ने बृहस्पति की गर्भवती सुन्दरी प्रिय भार्या को लौटा दिया ॥ ७२ ॥ पत्नी को पाकर देवगुरु बड़े प्रसन्न हुए और आनन्दपूर्वक अपने घर चले गये। तत्पश्चात् सभी देवता और दैत्य भी अपने-अपने घर चले गये ॥ ७३ ॥ पितामह ब्रह्मा अपने लोक को तथा शिवजी भी कैलासपर्वत पर चले गये। इस प्रकार अपनी सुन्दरी स्त्री को पाकर बृहस्पति सन्तुष्ट हो गये ॥ ७४ ॥ तदनन्तर कुछ दिनों के बाद तारा ने शुभ दिन तथा शुभ नक्षत्र में गुणों में चन्द्रमा के समान ही सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। पुत्र को उत्पन्न देखकर देवगुरु बृहस्पति ने प्रसन्न मन से उसके विधिवत् जातकर्म आदि सभी संस्कार किये ॥ ७५-७६ ॥ श्रुतं चन्द्रमसा जन्म पुत्रस्य मुनिसत्तमाः । दूतं च प्रेषयामास गुरुं प्रति महामतिः ॥ ७७ ॥ न चायं तव पुत्रोऽस्ति मम वीर्यसमुद्भवः । कथं त्वं कृतवान्कामं जातकर्मादिकं विधिम् ॥ ७८ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दूतस्य च बृहस्पतिः । उवाच मम पुत्रो मे सदृशो नात्र संशयः ॥ ७९ ॥ पुनर्विवादः सञ्जातो मिलिता देवदानवाः । युद्धार्थमागतास्तेषां समाजः समजायत ॥ ८० ॥ तत्रागतः स्वयं ब्रह्मा शान्तिकामः प्रजापतिः । निवारयामास मुखे संस्थितान्युद्धदुर्मदान् ॥ ८१ ॥ हे श्रेष्ठ मुनियो! चन्द्रमा ने जब सुना कि पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब बुद्धिमान् चन्द्रमा ने बृहस्पति के पास अपना दूत भेजा [और कहलाया-हे गुरो!] यह पुत्र आपका नहीं है; क्योंकि यह मेरे तेज से उत्पन्न है। तब आपने अपनी इच्छा से बालक का जातकर्मादि संस्कार क्यों कर लिया ?॥ ७७-७८ ॥ उस दूत का वचन सुनकर बृहस्पति ने कहा कि यह मेरा पुत्र है; क्योंकि इसकी आकृति मेरे समान है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ७९ ॥ पुनः दोनों में विवाद खड़ा हो गया और देव- दानव मिलकर फिर युद्ध के लिये आ गये और इस प्रकार उनका बहुत बड़ा समूह एकत्र हो गया ॥ ८० ॥ उस समय शान्ति के अभिलाषी स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी पुनः वहाँ पहुँचे और रणभूमि में डटे हुए युद्धोत्सुक देव-दानवों को उन्होंने युद्ध से रोका ॥ ८१ ॥ तारां पप्रच्छ धर्मात्मा कस्यायं तनयः शुभे । सत्यं वद वरारोहे यथा क्लेशः प्रशाम्यति ॥ ८२ ॥ तमुवाचासितापाङ्गी लज्जमानाप्यधोमुखी । चन्द्रस्येति शनैरन्तर्जगाम वरवर्णिनी ॥ ८३ ॥ जग्राह तं सुतं सोमः प्रहृष्टेनान्तरात्मना । नाम चक्रे बुध इति जगाम स्वगृहं पुनः ॥ ८४ ॥ ययौ ब्रह्मा स्वकं धाम सर्वे देवाः सवासवाः । यथागतं गतं सर्वैः सर्वशः प्रेक्षकैर्जनैः ॥ ८५ ॥ कथितेयं बुधोत्पत्तिर्गुरुक्षेत्रे च सोमतः । यथा श्रुता मया पूर्वं व्यासात्सत्यवतीसुतात् ॥ ८६ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे बुधोत्पत्तिर्नामेकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ धर्मात्मा ब्रह्माजी ने तारा से पूछा — ‘ हे कल्याणि! यह पुत्र किसका है ? हे सुन्दरि! तुम सही-सही बता दो, जिससे यह कलह शान्त हो जाय’ ॥ ८२ ॥ तब असितापांगी सुन्दरी तारा ने लजाते हुए सिर नीचे करके मन्द स्वर में कहा — यह पुत्र चन्द्रमा का है’ ऐसा कहकर वह घर के भीतर चली गयी ॥ ८३ ॥ तब प्रसन्नचित्त होकर चन्द्रमा ने उस पुत्र को ले लिया। उन्होंने उसका नाम ‘बुध’ रखा। पुनः वे अपने घर चले गये ॥ ८४ ॥ तत्पश्चात् ब्रह्माजी अपने लोक को तथा इन्द्रसहित सभी देवता भी चले गये। इसी प्रकार प्रेक्षक भी जो जहाँ से आये थे, वे सभी अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ ८५ ॥ [हे मुनिजन!] इस प्रकार गुरुके क्षेत्रमें चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्तिका यह वृत्तान्त जैसा मैंने पूर्वमें सत्यवती-पुत्र व्यासजीसे सुना था, वैसा आपलोगोंसे कह दिया है ॥ 86 ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘बुधोत्पत्तिः’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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