May 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-29 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-एकोनत्रिंशोऽध्यायः उनतीसवाँ अध्याय राजा तालध्वज से स्त्रीरूपधारी नारदजी का विवाह, अनेक पुत्र -उत्पत्ति और युद्ध में उन सबकी मृत्यु, नारदजी का शोक और भगवान् विष्णु की कृपा से पुनः स्वरूपबोध नारदस्य पुनः स्वरूपप्राप्तिवर्णनम् नारदजी बोले — हे विशाम्पते! राजा तालध्वज के यह पूछने पर मैंने अपने मन में सम्यक् प्रकार से विचार करके उनसे कहा — हे राजन् ! मैं निश्चितरूप से नहीं जानती कि मैं किसकी कन्या हूँ, मेरे माता-पिता कौन हैं और मुझे इस सरोवर पर कौन लाया है ॥ १-२ ॥ अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मेरा कल्याण कैसे हो सकेगा, मैं आश्रयहीन हूँ। हे राजेन्द्र ! यही बात सोचती रहती हूँ ॥ ३ ॥ हे राजन्! दैव ही सर्वोपरि है; इसमें मेरा पौरुष व्यर्थ ही है । हे भूपाल ! आप धर्मज्ञ हैं; आप जैसा चाहते हों, वैसा करें ॥ ४ ॥ हे राजन्! मैं आपके अधीन हूँ; क्योंकि मेरा यहाँ कोई भी रक्षक नहीं है। मेरे न पिता हैं, न माता हैं, न बन्धु बान्धव हैं और न तो मेरा कोई स्थान ही है ॥ ५ ॥ मेरे ऐसा कहने पर वे राजा तालध्वज कामासक्त हो उठे और मुझ विशाल नयनों वाली की ओर दृष्टि डालकर उन्होंने अपने सेवकों से कहा — ॥ ६ ॥ तुमलोग इस सुन्दर स्त्री के आरोहण के लिये रेशमी वस्त्र से आवेष्टित एक मनोहर पालकी ले आओ, जिसे ढोनेवाले चार पुरुष हों, उसमें कोमल आस्तरण बिछा हो तथा वह मोतियों की झालरों से सुशोभित हो, वह सोने की बनी हुई हो, चौकोर हो तथा पर्याप्त विशाल हो ॥ ७-८ ॥ राजा की बात सुनकर शीघ्रगामी सेवकों ने मेरे लिये वस्त्र से ढकी हुई दिव्य पालकी लाकर उपस्थित कर दी ॥ ९ ॥ उन राजा तालध्वज का प्रिय कार्य करने की इच्छा से मैं उस पालकी पर आरूढ़ हो गया। मुझे अपने भवन ले जाकर राजा तालध्वज अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १० ॥ किसी शुभ लग्न तथा उत्तम दिन में राजा ने वैवाहिक विधि-विधान से अग्नि के साक्ष्य में मेरे साथ विवाह कर लिया ॥ ११ ॥ उस समय मैं उनके लिये प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हो गया। उन्होंने वहाँ मेरा नाम सौभाग्यसुन्दरी – ऐसा रख दिया ॥ १२ ॥ कामशास्त्रानुकूल अनेक प्रकार के भोग-विलासों के द्वारा मेरे साथ रमण करते हुए राजा को आनन्द मिलता था ॥ १३ ॥ राज्य के कार्यों को छोड़कर वे दिन-रात मेरे साथ क्रीडारत रहते थे । कामकला में आसक्त उन राजा को समय बीतने का भी बोध नहीं रहता था ॥ १४ ॥ मनोहर उद्यानों, बावलियों, सुन्दर महलों, अट्टालिकाओं, श्रेष्ठ पर्वतों, उत्तम जलाशयों तथा रमणीक कानन में विहार करते हुए मधुपान से उन्मत्त वे राजा समस्त कार्य छोड़कर मेरे अधीन हो गये ॥ १५-१६ ॥ हे व्यासजी ! उनमें मेरी भी पूर्ण आसक्ति हो गयी और मैं क्रीडारस के वशीभूत हो गया। मुझे अपने पूर्व पुरुष – शरीर तथा मुनि जन्म का भी स्मरण नहीं रहा ॥ १७ ॥ ये ही मेरे पति हैं तथा इनकी अनेक पत्नियों में मैं ही इनकी प्रिय पतिव्रता भार्या हूँ, सम्पूर्ण विलासों को जाननेवाली मैं इनकी पटरानी हूँ; इस प्रकार मेरा जीवन सफल है — ऐसा सोचती हुई मैं दिन-रात उन्हीं के प्रेम में आबद्ध रहती थी तथा उनके साथ क्रीडारत रहती थी। इस तरह उनके सुख के लोभ में मैं सदा उन्हीं के अधीन हो गयी। मेरा ब्रह्मविज्ञान, सनातन ब्रह्मज्ञान तथा धर्मशास्त्र का रहस्य पूर्णरूप से विस्मृत हो गया और मैं उन्हीं में आसक्त मन होकर रहने लगी ॥ १८-२० ॥ हे मुने! इस प्रकार कामक्रीडा में आसक्त मेरे वहाँ विहार करते हुए बारह वर्ष एक क्षण की भाँति व्यतीत हो गये ॥ २१ ॥ मेरे गर्भवती होने पर राजा को परम प्रसन्नता हुई । राजा ने विधिपूर्वक गर्भसम्बन्धी संस्कारकर्म सम्पन्न कराया ॥ २२ ॥ गर्भ के समय मेरी मनोवांछित वस्तुओं के विषय में राजा मुझे प्रसन्न करते हुए बार-बार पूछा करते थे। तब अत्यन्त प्रसन्नचित्त मैं लज्जा के कारण कुछ भी नहीं कह पाती थी ॥ २३ ॥ दस माह पूर्ण होने पर ग्रह, नक्षत्र, लग्न तथा तारा- बलयुक्त शुभ दिन में मुझे एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ २४ ॥ राजा के भवन में पुत्र जन्म का उत्सव मनाया गया। पुत्र – जन्म से राजा परम प्रसन्न हो गये ॥ २५ ॥ जननाशौच समाप्त होने पर पुत्र का दर्शन करके राजा को असीम प्रसन्नता हुई । हे परन्तप ! अब मैं राजा तालध्वज की अत्यन्त प्रिय भार्या हो गयी ॥ २६ ॥ दो वर्ष के अनन्तर मैंने पुनः गर्भ धारण किया । [ यथासमय ] सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ २७ ॥ तदनन्तर ब्राह्मणों का आदेश पाकर राजा ने इस पुत्र का नाम ‘सुधन्वा’ तथा बड़े पुत्र का नाम ‘वीरवर्मा’ रखा ॥ २८ ॥ इस प्रकार मैंने राजा के मनोनुकूल बारह पुत्र उत्पन्न किये। मैं मोह के वशीभूत होकर उनके लालन-पालन में प्रेमपूर्वक लगी रही ॥ २९ ॥ इसके बाद समय-समय पर मेरे परम रूपवान् आठ पुत्र और उत्पन्न हुए। इससे सुख का साधनभूत मेरा गार्हस्थ्य-जीवन सर्वथा पूर्ण हो गया ॥ ३० ॥ राजा ने समयानुसार उचित रूप से उनका विवाह कर दिया। इस प्रकार वधुओं तथा पुत्रों से युक्त मेरा परिवार बहुत बड़ा हो गया ॥ ३१ ॥ फिर मेरे पौत्र उत्पन्न हुए, जो खेलकूद में मग्न रहते थे तथा अनेक प्रकार की बालक्रीडाओं से मेरे मोह को बढ़ाते रहते थे। कभी सुख-समृद्धि मेरे सामने आती थी और कभी पुत्रों के रोगग्रस्त होने के कारण चित्त को अशान्त कर देने वाला महान् दुःख भोगना पड़ता था ॥ ३२-३३ ॥ कभी-कभी पुत्रों अथवा वधुओं में परस्पर अत्यन्त भीषण विरोध हो जाता था, उससे मुझे सन्ताप होने लगता था ॥ ३४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! संकल्प से उत्पन्न इस सुख-दुःखात्मक, तुच्छ, भयानक तथा मिथ्या व्यवहार वाले मोह में मैं निमग्न रहता था ॥ ३५ ॥ मेरा पूर्वकालिक विज्ञान विस्मृत हो गया तथा शास्त्र- ज्ञान भी समाप्त हो गया। स्त्रीभाव में होकर मैं घर के कार्यों में ही सदा व्यस्त रहता था ॥ ३६ ॥ मेरे ये पुत्र महान् पराक्रमी हैं तथा मेरी ये बहुएँ उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हैं — ऐसा सोचकर मेरे मन में अति मोह बढ़ाने वाला अहंकार उत्पन्न हो जाया करता था ॥ ३७ ॥ मेरे ये बालक पूर्ण तत्पर होकर घर में खेल रहे हैं। अहो, इस संसार में सभी नारियों में मैं अवश्य ही धन्य हूँ ॥ ३८ ॥ ‘मैं नारद हूँ तथा भगवान् ने अपनी माया के प्रभाव से मुझे वंचित कर रखा है’ – ऐसा मैं अपने मन में कभी सोच भी नहीं पाता था ॥ ३९ ॥ हे व्यासजी ! इस प्रकार माया से मोहित हुआ मैं केवल यही सोचा करता था कि मैं उत्तम आचरणवाली एक पतिव्रता राजमहिषी हूँ, मेरे बहुत से पुत्र हैं तथा इस संसार में मैं बड़ी धन्य हूँ ॥ ४० ॥ हे मानद ! इसके बाद दूर देश में रहने वाले किसी महान् राजा ने मेरे पति के साथ शत्रुता ठान ली। वह हाथियों तथा रथों से अपनी सेना सुसज्जित करके कान्यकुब्जनगर में आ गया और युद्ध के विषय में सोचने लगा ॥ ४१-४२ ॥ उस राजा ने अपनी सेना के साथ मेरा नगर घेर लिया; तब मेरे पुत्र तथा पौत्र भी नगर से बाहर निकल पड़े ॥ ४३ ॥ मेरे उन पुत्र-पौत्रों ने उस राजा के साथ भयंकर युद्ध किया। कालयोग से मेरे सभी पुत्र संग्राम में शत्रु के द्वारा मार डाले गये ॥ ४४ ॥ तत्पश्चात् राजा तालध्वज हताश होकर युद्धस्थल से अपने घर आ गये। मैंने सुना कि मेरे सभी पुत्र उस अत्यन्त भीषण संग्राम में मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥ ४५ ॥ मेरे पुत्रों तथा पौत्रों का संहार करके वह राजा सेनासहित चला गया। इसके बाद मैं विलाप करता हुआ युद्ध – भूमि में जा पहुँचा ॥ ४६ ॥ हे आयुष्मन् ! वहाँ अपने पुत्रों तथा पौत्रों को भूमि पर गिरा हुआ देखकर मैं दुःख से अत्यन्त पीडित होकर शोक- सागर में डूब गया तथा इस प्रकार विलाप करने लगा — हाय, मेरे पुत्र इस समय कहाँ चले गये ? हाय, मुझे तो इस दुष्टात्मा, अति बलवान्, महापापी तथा दुर्लघ्य दैव ने मार डाला ॥ ४७-४८ ॥ इसी बीच एक परम सुन्दर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके मधुसूदन भगवान् विष्णु वहाँ पहुँच गये ॥ ४९ ॥ हे वेदज्ञ ! सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित वे मेरे पास आये और युद्धभूमि में अति विलाप करती हुई मुझ अबला से बोले ॥ ५० ॥ ब्राह्मण बोले — हे तन्वङ्गि ! हे पिकालापे ! तुम क्यों विषाद कर रही हो ? पति – पुत्रादि से सम्पन्न गृहस्थी में मोह के कारण ही यह भ्रम उत्पन्न हुआ है। तुम कौन हो, ये किसके पुत्र हैं तथा ये कौन हैं ? तुम परम आत्मगति पर विचार करो । हे सुलोचने! अब उठो और विलाप करना छोड़कर स्वस्थ हो जाओ ॥ ५१-५२ ॥ हे कामिनि ! मर्यादा के रक्षणार्थ अब अपने परलोक गये हुए पुत्रों के निमित्त स्नान तथा तिलदान करो। धर्मशास्त्र का निर्णय है कि मृत बन्धुओं के निमित्त तीर्थ में ही स्नान करना चाहिये; घर में कभी नहीं ॥ ५३-५४ ॥ नारदजी बोले — उस वृद्ध ब्राह्मण ने इस प्रकार कहकर मुझे समझाया। तत्पश्चात् मैं उठा और बन्धु-बान्धवों तथा राजा को साथ लेकर द्विजरूपधारी भगवान् विष्णु को आगे करके तत्काल परम पवित्र तीर्थ के लिये चल पड़ा ॥ ५५-५६ ॥ ब्राह्मणरूपधारी जनार्दन जगन्नाथ श्रीहरि भगवान् विष्णु मेरे ऊपर कृपा करके पुंतीर्थ सरोवर पर मुझको ले जाकर बोले — हे गजगामिनि ! इस पवित्र सरोवर में स्नान करो और निरर्थक शोक का परित्याग करो। अब पुत्रों की [तिलांजलि आदि] क्रिया का समय उपस्थित है ॥ ५७-५८ ॥ जन्म-जन्मान्तर में तुम्हारे करोड़ों पुत्र, पिता, पति, भाई तथा बहन हुए तथा वे मृत्यु को भी प्राप्त हो गये। उनमें से तुम किस-किसका दुःख मनाओगी ? यह तो मन में उत्पन्न भ्रममात्र है, जो शरीरधारियों को व्यर्थ ही स्वप्न के समान होकर भी दुःख पहुँचाता रहता है ॥ ५९-६० ॥ नारदजी बोले — उनका यह वचन सुनकर भगवान् विष्णु की प्रेरणा के अनुसार स्नान करने की इच्छा से मैं उस पुरुषसंज्ञक तीर्थ ( सरोवर) – में प्रविष्ट हुआ ॥ ६१ ॥ उस तीर्थ में डुबकी लगाते ही मैं तत्क्षण पुरुषरूप में हो गया तथा भगवान् विष्णु अपने हाथ में मेरी वीणा लिये हुए अपने स्वाभाविक स्वरूप में सरोवर के तट पर विराजमान थे ॥ ६२ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! स्नान करने के पश्चात् मुझे तटपर कमललोचन भगवान् का दर्शन प्राप्त हुआ; तब मेरे चित्त में सभी बातों का स्मरण हो गया ॥ ६३ ॥ मैं सोचने लगा कि मैं नारद हूँ और भगवान् विष्णु के साथ यहाँ आया था; माया से विमोहित होने के कारण मैं स्त्रीभाव को प्राप्त हो गया ॥ ६४ ॥ जब मैं इस तरह की बातें सोच रहा था, उसी समय भगवान् विष्णु ने मुझसे कहा — हे नारद! यहाँ आओ, वहाँ जल में खड़े होकर क्या कर रहे हो ? ॥ ६५ ॥ अपने अत्यन्त दारुण स्त्रीभाव का स्मरण करके तथा किस कारण से मैं पुनः पुरुषभाव को प्राप्त हुआ — यह सोचकर मैं आश्चर्यचकित हो गया ॥ ६६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘नारद का पुनः स्वरूपप्राप्तिवर्णन ‘ नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ Content is available only for registered users. 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