May 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-01 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः पहला अध्याय पितामह ब्रह्मा की मानसी सृष्टि का वर्णन, नारदजी का दक्ष के पुत्रों को सन्तानोत्पत्ति से विरत करना और दक्ष का उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओं से देवताओं और दानवों की उत्पत्ति सोमसूर्यवंशवर्णने दक्षप्रजापतिवर्णनं सूतजी बोले — [ हे ऋषियो!] तपस्वी व्यासजी से यह दिव्य कथा सुनकर परीक्षित् के पुत्र धर्मात्मा राजा जनमेजय ने प्रसन्नतापूर्वक पुनः व्यासजी से पूछा ॥ १ ॥ जनमेजय बोले — हे स्वामिन्! मैं सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओं के वंश का विस्तृत वर्णन सम्यक् प्रकार से सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ हे पुण्यात्मन्! हे सर्वज्ञ! आप उन राजाओं के चरित्र तथा उनके दोनों वंशों से सम्बन्धित उस पापनाशिनी कथा का विस्तार से वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥ मैंने ऐसा सुना है कि वे सभी पराशक्ति जगदम्बा के महान् भक्त थे; अतः देवीभक्त का चरित्र सुनने से भला कौन विमुख होना चाहेगा ? ॥ ४ ॥ राजर्षि जनमेजय के ऐसा पूछने पर प्रसन्न मुखमण्डल वाले सत्यवतीनन्दन मुनि व्यास ने उनसे कहा ॥ ५ ॥ व्यासजी बोले — हे महाराज ! अब मैं सूर्यवंश, चन्द्रवंश तथा अन्य वंशों की उत्पत्ति से सम्बन्धित कथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ आप सुनिये ॥ ६ ॥ भगवान् विष्णु के नाभिकमल से चार मुखवाले ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। उन्होंने घोर तपस्या करके अत्यन्त कठिनतापूर्वक प्राप्त होने वाली महादेवी की आराधना की ॥ ७ ॥ उन भगवती से वरदान प्राप्त करके ब्रह्माजी जगत् की रचना करने में प्रवृत्त हुए, किंतु लोकपितामह ब्रह्माजी मानवी सृष्टि कर पाने में सफल नहीं हुए ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी के मन में सृष्टि के लिये अनेक प्रकारके विचार उत्पन्न हुए, किंतु वे महात्मा अपनी रचना को शीघ्र विस्तार प्रदान करने में समर्थ नहीं हुए ॥ ९ ॥ (तत्पश्चात् प्रजापति ब्रह्माजी ने अपने सात मानस पुत्रों का सृजन किया ।) मरीचि, अंगिरा, अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, क्रतु और पुलस्त्य — इन नामों से उन सात मानस पुत्रों की प्रसिद्धि हुई ॥ १० ॥ ब्रह्माजी के रोष से रुद्र उत्पन्न हुए तथा उनकी गोद से नारदजी का प्राकट्य हुआ। अँगूठे से दक्षप्रजापति उत्पन्न हुए । इसी प्रकार सनक आदि अन्य मानस पुत्रों की उत्पत्ति हुई ॥ ११ ॥ बायें हाथ के अँगूठे से समस्त सुन्दर अंगों वाली दक्षपत्नी का प्रादुर्भाव हुआ । हे राजन् ! वे पुराणों में ‘वीरिणी’ नाम से प्रसिद्ध हैं ॥ १२ ॥ वे असिक्नी नाम से भी विख्यात हैं और उन्हीं से ब्रह्माजी के मानसपुत्र देवर्षिश्रेष्ठ नारदजी का प्रादुर्भाव हुआ है ॥ १३ ॥ जनमेजय बोले — हे ब्रह्मन् ! अभी-अभी आपने जो बात कही है कि महान् तपस्वी नारदजी दक्ष से तथा वीरिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, इस विषय में मुझे सन्देह हो रहा है ॥ १४ ॥ धर्म के पूर्ण ज्ञाता तथा तपस्वियों में श्रेष्ठ नारदमुनि तो ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं तो फिर वे दक्षपत्नी वीरिणी से किस प्रकार उत्पन्न हुए ? ॥ १५ ॥ आपके द्वारा कथित यह वार्ता अत्यन्त विस्मय में डालने वाली है । दक्ष से तथा उनकी भार्या ‘ वीरिणी’ से इन नारदजी के जन्म के विषय में आप मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १६ ॥ मुने ! विपुल ज्ञान रखने वाले महात्मा नारदजी ने किसके शाप से अपने पूर्व शरीर का त्याग करके किसलिये फिर से जन्म धारण किया ? ॥ १७ ॥ व्यासजी बोले — स्वयम्भू ब्रह्माजी ने सबसे पहले दक्षप्रजापति को सृष्टि के लिये आज्ञा दी और कहा कि तुम प्रजा की रचना में तत्पर हो जाओ, जिससे प्रजा की अधिकाधिक वृद्धि हो सके ॥ १८ ॥ तब दक्षप्रजापति ने वीरिणी के गर्भ से अत्यन्त बल- शाली तथा पराक्रमी पाँच हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ १९ ॥ प्रजा की वृद्धि हेतु विपुल उत्साह से सम्पन्न उन सभी पुत्रों को देखकर काल की प्रेरणा के अनुसार देवर्षि नारदजी हँसते हुए यह बात कहने लगे ॥ २० ॥ पृथ्वी की वास्तविक परिमिति का बिना ज्ञान किये ही तुमलोग प्रजा के सृष्टिकार्य में कैसे तत्पर हो गये ? इससे तो तुमलोग निःसन्देह जगत् में उपहास के पात्र बनोगे ॥ २१ ॥ पृथ्वी का परिमाण जानकर ही तुम्हें इस कार्य में संलग्न होना चाहिये। ऐसा करने पर ही तुमलोगों का कार्य सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ २२ ॥ तुम लोग तो मूर्ख हो जो कि पृथ्वी के परिमाण को जाने बिना ही प्रजोत्पत्ति में संलग्न हो गये हो; इसमें सफलता कैसे मिल सकती है ? ॥ २३ ॥ व्यासजी बोले — नारदजी के इस प्रकार कहने पर दैवयोग से दक्षपुत्र हर्यश्व परस्पर कहने लगे कि मुनि ने तो ठीक ही कहा है। अब हम लोग पृथ्वी का परिमाण जान लेने के पश्चात् ही सुखपूर्वक प्रजा की सृष्टि करेंगे। ऐसा विचार करके वे सभी पृथ्वी का विस्तार जानने के लिये चल पड़े ॥ २४-२५ ॥ तत्पश्चात् नारदजी के कथनानुसार पृथ्वी के सम्पूर्ण तल का ज्ञान करने के लिये कुछ पूर्व दिशा में, कुछ पश्चिम दिशा में, कुछ उत्तर दिशा में तथा कुछ दक्षिण दिशा में बड़े उत्साह के साथ चले। इधर, दक्षप्रजापति सभी पुत्रों को गया हुआ देखकर बहुत ही शोकाकुल हो गये॥ २६-२७ ॥ दृढ़ निश्चयी दक्षप्रजापति ने प्रजाओं की सृष्टि के लिये पुनः अन्य पुत्र उत्पन्न किये। वे सभी पुत्र भी प्रजा-सृष्टि के कार्य में उत्साहपूर्वक तत्पर हो गये ॥ २८ ॥ उन्हें देखकर नारदमुनि ने पूर्व की भाँति वही बात उनसे भी कही — तुम लोग बड़े ही मूर्ख हो । अरे, पृथ्वी के वास्तविक परिमाण का ज्ञान किये बिना ही तुम लोग प्रजा की सृष्टि करने में किस कारण से संलग्न हो गये हो? ॥ २९१/२ ॥ मुनि की वाणी सुनकर तथा उसे सत्य मानकर वे भी भ्रमित हो गये। वे सभी पुत्र उसी प्रकार भूमण्डल का विस्तार जानने के लिये चल पड़े, जिस प्रकार उनके भाई लोग पहले चले गये थे। उन पुत्रों को वहाँ से प्रस्थित देखकर दक्ष अत्यन्त कुपित हो उठे और पुत्रशोकजन्य कोप से उन्होंने नारदजी को शाप दे दिया ॥ ३०-३११/२ ॥ दक्ष बोले — [ हे नारद!] जिस प्रकार तुमने मेरे पुत्रों को नष्ट किया है, उसी प्रकार तुम भी नाश को प्राप्त हो जाओ। हे दुर्बुद्धे ! तुमने मेरे पुत्रों को भ्रष्ट किया है, अतएव इस पाप के परिणामस्वरूप तुम्हें गर्भ में वास करना होगा और मेरा पुत्र बनना पड़ेगा ॥ ३२-३३ ॥ इस प्रकार शाप के प्रभाव से मुनि नारद वीरिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए। तदनन्तर दक्ष ने वीरिणी के गर्भ से साठ कन्याओं को उत्पन्न किया, ऐसा हमने सुना है ॥ ३४ ॥ पुत्रों का शोक त्यागकर परम धर्मनिष्ठ दक्षप्रजापति ने उन कन्याओं में से तेरह कन्याएँ महात्मा कश्यप को अर्पित कर दीं। हे पृथ्वीपते ! उनमें से दस कन्याएँ धर्म को, सत्ताईस चन्द्रमा को, दो भृगुमुनि को चार अरिष्टनेमि को, दो अंगिरा ऋषि को तथा शेष दो को पुनः अंगिराऋषि को ही सौंप दिया। उन्हीं कन्याओं के पुत्र तथा पौत्र देवता एवं दानव के रूप में उत्पन्न हुए। वे महान् बलशाली तथा आपस में विरोधभाव रखते थे । एक- दूसरे के विरोधी तथा परस्पर रागद्वेष की भावना रखने वाले वे सभी पराक्रमी देवता तथा दानव अत्यन्त मायावी थे तथा सदा मोह से ग्रस्त रहते थे ॥ ३५–३८ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘सोमवंश- सूर्यवंश के वर्णन में दक्षप्रजापति का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥ Content is available only for registered users. 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