श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-02
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-द्वितीयोऽध्यायः
दूसरा अध्याय
सूर्यवंश के वर्णन के प्रसंग में सुकन्या की कथा की उत्पत्ति
शर्यातिराजवर्णनम्

जनमेजय बोले — हे महाभाग ! आप मुझसे राजाओं के वंश का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये और विशेषरूप से सूर्यवंश में उत्पन्न धर्मज्ञ राजाओं के वंश के विषय में बताइये ॥ १ ॥

व्यासजी बोले — हे भारत ! ऋषिश्रेष्ठ नारदजी से पूर्वकाल में जैसा मैंने सुना है, उसी के अनुसार सूर्यवंश का विस्तृत वर्णन करूँगा; आप सुनिये ॥ २ ॥

एक समय की बात है — श्रीमान् नारदमुनि स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हुए सरस्वतीनदी के पावन तटपर पवित्र आश्रम में पधारे ॥ ३ ॥ मैं सिर झुकाकर उनके चरणों में प्रणाम करके उनके सामने स्थित हो गया । तत्पश्चात् बैठने के लिये आसन प्रदान करके मैंने आदरपूर्वक उनकी पूजा की ॥ ४ ॥

उनकी विधिवत् पूजा करके मैंने उनसे यह वचन कहा — हे मुनिवर ! आप पूजनीय के आगमन से मैं पवित्र हो गया ॥ ५ ॥ हे सर्वज्ञ ! इन सातवें मनु के वंश में जो विख्यात राजागण हो चुके हैं, उन राजाओं के चरित्र से सम्बन्धित कथा कहिये। उन राजाओं की उत्पत्ति अनुपम है और उनका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है; अतएव हे ब्रह्मन् ! मैं विस्तार के साथ सूर्यवंश का वर्णन सुनने का इच्छुक हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ ! संक्षिप्त या विस्तृत जिस किसी भी रूप में आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये ॥ ६-७१/२

हे राजन्! मेरे ऐसा पूछने पर परमार्थ के ज्ञाता नारदजी हँसते हुए मुझे सम्बोधित करके प्रेमपूर्वक प्रसन्नता के साथ कहने लगे ॥ ८१/२

नारदजी बोले — हे सत्यवतीतनय ! राजाओं के अत्युत्तम वंश के विषय में सुनिये । कानों को सुख प्रदान करने वाला यह वंशचरित अत्यन्त पवित्र और धर्म, ज्ञान आदि से समन्वित है ॥ ९३ ॥ सर्वप्रथम जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी भगवान् विष्णु के नाभिकमल से प्रकट हुए; ऐसा उनके विषय में पुराणों में प्रसिद्ध है । सम्पूर्ण जगत् के कर्ता स्वयम्भू ब्रह्माजी सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥ १०-११ ॥ सृष्टि करने की अभिलाषावाले उन विश्वात्मा ब्रह्माजी ने पहले देवी शिवा का ध्यान करके दस हजार वर्षों तक तपस्या की और उनसे महान् शक्ति प्राप्त करके शुभ लक्षणों वाले मानस पुत्र उत्पन्न किये। उन मानस पुत्रों में सर्वप्रथम मरीचि उत्पन्न हुए, जो सृष्टि कार्य में प्रवृत्त हुए ॥ १२-१३ ॥ उन मरीचि के परम प्रसिद्ध तथा सर्वमान्य पुत्र कश्यपजी हुए। दक्षप्रजापति की तेरह कन्याएँ उन्हीं की भार्याएँ थीं ॥ १४ ॥ देवता, दैत्य, यक्ष, सर्प, पशु और पक्षी – सब-के-सब उन्हीं से उत्पन्न हुए; अतएव यह सृष्टि काश्यपी है ॥ १५ ॥ देवताओं में सूर्य सबसे श्रेष्ठ हैं। उनका नाम विवस्वान् भी है। उनके पुत्र वैवस्वत मनु थे, वे परम प्रसिद्ध राजा हुए ॥ १६ ॥ उन वैवस्वत मनु के पुत्ररूप में सूर्यवंश की वृद्धि करने वाले इक्ष्वाकु का प्रादुर्भाव हुआ। इक्ष्वाकु के जन्म के बाद उन मनु के नौ पुत्र और उत्पन्न हुए । हे राजेन्द्र ! आप एकाग्रचित्त होकर उनके नाम सुनिये; इक्ष्वाकु के अतिरिक्त नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, नृग, सातवें दिष्ट एवं करूष और पृषध – ये नौ ‘मनुपुत्र’ के रूप में प्रसिद्ध हैं ॥ १७–१९ ॥

इन मनुपुत्रों में इक्ष्वाकु सबसे पहले उत्पन्न हुए थे। उनके सौ पुत्र हुए; उनमें आत्मज्ञानी विकुक्षि सबसे बड़े थे ॥ २० ॥ अब आप मनुवंश में जन्म लेने वाले पराक्रमी सभी नौ मनुपुत्रों के वंश – विस्तार के विषय में संक्षेप में सुनिये ॥ २१ ॥

नाभाग के पुत्र अम्बरीष हुए। वे प्रतापी, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और प्रजापालन में तत्पर रहने वाले थे ॥ २२ ॥ धृष्ट से धार्ष्ट हुए, जो क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मण बन गये। संग्राम से विमुख रहकर वे सम्यक् रूप से ब्राह्मणोचित कर्म में निरत रहते थे ॥ २३ ॥ शर्याति के आनर्त नामक पुत्र उत्पन्न हुए; वे अति प्रसिद्ध हुए । रूप तथा सौन्दर्य से युक्त एक सुकन्या नामक पुत्री भी उनसे उत्पन्न हुई । राजा शर्याति ने अपनी वह सुन्दरी पुत्री नेत्रहीन च्यवनमुनि को सौंप दी। बाद में उसी सुकन्या के शील तथा गुण के प्रभाव से च्यवनमुनि सुन्दर नेत्रोंवाले हो गये । सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारों ने उन्हें नेत्रयुक्त कर दिया था ऐसा हमने सुना है ॥ २४-२५१/२

जनमेजय बोले — हे ब्रह्मन् ! आपने कथा में जो यह कहा कि राजा शर्याति ने अन्धे मुनि को अपनी सुन्दर नेत्रों वाली कन्या प्रदान कर दी; तो इसमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है । यदि उनकी पुत्री कुरूप, गुणहीन और शुभ लक्षणों से हीन होती, तब वे राजा शर्याति उसका विवाह नेत्रहीन के साथ कर भी सकते थे, किंतु [ च्यवनमुनि को ] दृष्टिहीन जानते हुए भी उन नृपश्रेष्ठ ने उन्हें अपनी सुमुखी कन्या कैसे सौंप दी ? हे ब्रह्मन् ! मुझे इसका कारण बतायें; मैं सदा आपके अनुग्रह के योग्य हूँ ॥ २६–२८३ ॥

सूतजी बोले — परीक्षित् के पुत्र राजा जनमेजय की बात सुनकर प्रसन्न मनवाले व्यासजी हँसते हुए उनसे कहने लगे ॥ २९१/२

व्यासजी बोले — हे राजन् ! वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति नाम वाले ऐश्वर्यशाली राजा थे । उनकी चार हजार भार्याएँ थीं। वे सभी राजकुमारियाँ अत्यन्त रूपवती तथा समस्त शुभ लक्षणों से युक्त थीं । राजा की सभी पत्नियाँ प्रेमयुक्त रहती हुई सदा उनके अनुकूल व्यवहार करती थीं ॥ ३०-३११/२

उन सबके बीच में सुकन्या नामक एक ही सुन्दरी पुत्री थी | सुन्दर मुसकानवाली वह कन्या पिता तथा समस्त माताओं के लिये अत्यन्त प्रिय थी ॥ ३२१/२

उस नगर से थोड़ी ही दूरी पर मानसरोवर के तुल्य एक तालाब था। उसमें उतरने के लिये सीढ़ियों का मार्ग बना हुआ था। वह सरोवर स्वच्छ जल से परिपूर्ण था। हंस, बत्तख, चक्रवाक, जलकाक और सारस पक्षियों से वह सरोवर व्याप्त और सुशोभित था । अन्य पक्षिसमूहों से भी वह आवृत रहता था । वह पाँच प्रकार के कमलों से सुशोभित था, जिन पर भौंरे मँडराते रहते थे ॥ ३३–३५ ॥ उस सरोवर का तट बहुत-से वृक्षों तथा सुन्दर पौधों आदि से घिरा हुआ था। वह सरोवर साल, तमाल, देवदारु, पुन्नाग और अशोक के वृक्षों से सुशोभित था। वट, पीपल, कदम्ब, केला, नीबू, बीजपूर (बिजौरा नीबू ), खजूर, कटहल, सुपारी, नारियल तथा केतकी, कचनार, जूही, मालती जैसी सुन्दर एवं स्वच्छ लताओं तथा वृक्षों से वह सम्यक् प्रकार से सम्पन्न था। जामुन, आम, इमली, करंज, कोरैया, पलाश, नीम, खैर और बेल तथा आमला आदि वृक्षों से सुशोभित था ॥ ३६–३९ ॥

कोकिलों और मयूरों की ध्वनि से वह सदा निनादित रहता था। उस सरोवर के पास में ही वृक्षों से घिरे हुए एक शुभ स्थान पर शान्त चित्तवाले महातपस्वी भृगुवंशी च्यवनमुनि रहते थे। उस स्थान को निर्जन समझकर उन्होंने मन को एकाग्र करके तपस्या प्रारम्भ कर दी ॥ ४०-४१ ॥ वे आसन पर दृढ़तापूर्वक विराजमान होकर मौन धारण किये हुए थे । प्राणवायु पर उनका पूर्ण अधिकार था तथा सभी इन्द्रियाँ उनके वश में थीं । उन तपोनिधि ने भोजन भी त्याग दिया था ॥ ४२ ॥ वे जल ग्रहण किये बिना जगदम्बा का ध्यान करते थे। हे राजन्! उनके शरीर पर लताएँ घिरी हुई थीं तथा दीमकों द्वारा वे पूरी तरह से ढक लिये गये थे ॥ ४३ ॥ हे राजन् ! बहुत दिनों तक इस प्रकार बैठे रहने के कारण उन पर दीमक की चींटियाँ चढ़ गयीं और उनसे वे घिर गये। वे बुद्धिसम्पन्न मुनि पूरी तरह से मिट्टी के ढेर-सदृश हो गये थे ॥ ४४ ॥

हे राजन्! किसी समय वे राजा शर्याति अपनी रानियों के साथ विहार करने के लिये उस उत्तम सरोवरपर आये ॥ ४५ ॥ सरोवरका जल स्वच्छ था, कमल खिले हुए थे। अतएव राजा शर्याति सुन्दरियों को साथ लेकर जल-क्रीड़ा करने लगे ॥ ४६ ॥ लक्ष्मी की तुलना करने वाली तथा चंचल स्वभाव वाली वह सुकन्या वन में आकर सुन्दर फूलों को चुनती हुई सखियों के साथ विहार करने लगी। वह सभी प्रकार के आभूषणों से अलंकृत थी तथा उसके चरण के नूपुर मधुर ध्वनि कर रहे थे । इधर-उधर भ्रमण करती हुई वह राजकुमारी [सुकन्या ] वल्मीक बने हुए च्यवनमुनि के निकट पहुँच गयी । क्रीडा में आसक्त वह सुकन्या वल्मीक के निकट बैठ गयी और उसे वल्मीक के छिद्रों से जुगुनू की तरह चमकने वाली दो ज्योतियाँ दिखायी पड़ीं ॥ ४७–४९ ॥ यह क्या है ? – ऐसी जिज्ञासा होने पर उसने आवरण हटाने का मन में निश्चय किया । तत्पश्चात् वह सुन्दरी एक नुकीला काँटा लेकर शीघ्रतापूर्वक मिट्टी हटाने लगी ॥ ५० ॥ मुनि च्यवन ने विचरण करने वाली, कामदेव की स्त्री रति के सदृश तथा सुन्दर केशोंवाली उस राजकुमारी को पास में स्थित होकर मिट्टी हटाने में संलग्न देखा ॥ ५१ ॥

क्षीण स्वर वाले तपोनिधि च्यवनमुनि सुन्दर दाँतोंवाली उस सुन्दरी सुकन्या को देखकर उससे कहने लगे — यह क्या ! हे विशाल नयनोंवाली ! दूर चली जाओ । हे सुमुखि ! मैं एक तपस्वी हूँ । हे कृशोदरि ! इस बाँबी को काँटे से मत हटाओ ॥ ५२-५३ ॥

मुनि के कहने पर भी उसने उनकी बातें न सुनीं । यह कौन-सी [चमकने वाली ] वस्तु है — यह कहकर उसने मुनि के नेत्र भेद डाले ॥ ५४ ॥ दैव की प्रेरणा से राजकुमारी उनके नेत्र बींधकर सशंक भाव से खेलती हुई और ‘मैंने यह क्या कर डाला’ — यह सोचती हुई वहाँ से चली गयी । नेत्रों के बिँध जाने से महर्षि को क्रोध हुआ और अत्यधिक वेदना से पीड़ित होने के कारण वे बहुत दु:खित हुए ॥ ५५-५६ ॥ उसी समय से राजा के सभी सैनिकों का मल-मूत्र अवरुद्ध हो गया । मन्त्रीसहित राजा को विशेषरूप से यह कष्ट झेलना पड़ा। हाथी, घोड़े और ऊँट आदि सभी प्राणियों के मल तथा मूत्र का अवरोध हो जाने पर राजा शर्याति अत्यन्त दुःखी हुए ॥ ५७-५८ ॥

सैनिकों ने मल-मूत्र के अवरोध की बात उन्हें बतायी, तब उन्होंने इस कष्ट के कारण पर विचार किया । कुछ समय सोचने के बाद राजा घर पर आकर अपने परिजनों तथा सैनिकों से अत्यन्त व्याकुल होकर पूछने लगे — किसके द्वारा यह निकृष्ट कार्य किया गया है ? उस सरोवर के पश्चिमी तटवाले वन में महान् तपस्वी च्यवनमुनि कठिन तपस्या कर रहे हैं ॥ ५९-६१ ॥ अग्नि के समान तेजस्वी उन तपस्वी के प्रति किसी ने कोई अपकार अवश्य ही किया है इसलिये हम सबको ऐसा कष्ट हुआ है- यह निश्चित है ॥ ६२ ॥ महातपस्वी, वृद्ध तथा श्रेष्ठ भृगुनन्दन महात्मा च्यवन का अवश्य ही किसी ने अनिष्ट कर दिया है — ऐसा मैं मानता हूँ ॥ ६३ ॥ यह अनिष्ट जान में किया गया हो अथवा अनजान में, उसका नियत फल तो भोगना ही पड़ेगा । न जाने किन दुष्टों ने उन तपस्वी का अपमान किया है? ॥ ६४ ॥

राजा के ऐसा पूछने पर दु:ख से व्याकुल हुए सैनिकों ने उनसे कहा — हम लोगों के द्वारा मन-वाणी- कर्म से मुनि का कुछ भी अपकार हुआ हो- इसे हमलोग नहीं जानते ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘शर्यातिराजवर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.