May 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-03 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय सुकन्या का च्यवनमुनि के साथ विवाह च्यवनसुकन्ययोर्गार्हस्थ्यवर्णनम् व्यासजी बोले — हे राजन् ! इस घटना से अत्यन्त चिन्तित राजा शर्याति ने उन सबसे पूछने के पश्चात् शान्ति तथा उग्रतापूर्वक भी अपने बन्धुजनों से पूछा ॥ १ ॥ समस्त प्रजाजन और अपने पिता को अत्यन्त दुःखी देखकर तथा अपने द्वारा उन छिद्रों में काँटा चुभाने की बात को सोचकर उस सुकन्या ने यह कहा — हे पिताजी ! वन में खेलती हुई मैंने लताओं से घिरा हुआ दो छिद्रोंवाला एक विशाल वल्मीक देखा ॥ २-३ ॥ उन छिद्रों में से जुगनू की भाँति तीव्र प्रकाशमान दो ज्योतियाँ मैंने देखीं। तब हे महाराज ! जुगनू की शंका करके मैंने उन छिद्रों में सूई चुभो दी ॥ ४ ॥ हे पिताजी ! उस समय मैंने देखा कि वह सूई जल से भींग गयी थी और उस वल्मीक में से ‘हा-हा ‘ की मन्द मन्द ध्वनि मुझे सुनायी पड़ी ॥ ५ ॥ हे राजन् ! तब मैं आश्चर्य में पड़ गयी कि यह क्या हो गया। मैं इस शंका से ग्रस्त हो गयी कि न जाने मेरे द्वारा उस वल्मीक के मध्य में कौन-सी वस्तु बिँध गयी ॥ ६ ॥ सुकन्या का यह मधुर वचन सुनकर राजा शर्याति इस कृत्य को मुनि का अपमान समझकर शीघ्रतापूर्वक उस वल्मीक के पास जा पहुँचे ॥ ७ ॥ वहाँ उन्होंने महान् कष्ट में पड़े हुए परम तपस्वी च्यवनमुनि को देखा। तत्पश्चात् उन्होंने मुनि के शरी रपर जमी हुई विशाल वल्मीक (बाँबी) – को हटाया ॥ ८ ॥ इसके बाद राजा शर्याति ने दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़कर मुनि भार्गव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की और पुनः वे हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक उनसे कहने लगे — हे महाभाग ! मेरी पुत्री खेल रही थी, उसी ने यह दुष्कर्म कर दिया है । हे ब्रह्मन् ! उस बालिका के द्वारा अनजान में किये गये इस अपराध को आप क्षमा कर दें । मुनिगण क्रोधशून्य होते हैं — ऐसा मैंने सुना है; अतएव आप इस समय बालिका का अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ ९-११ ॥ व्यासजी बोले — उनकी बात सुनकर च्यवनमुनि नम्रतापूर्वक खड़े उन राजा को अत्यन्त दुःखित जानकर उनसे कहने लगे ॥ १२ ॥ च्यवन बोले — हे राजन् ! मैं कभी भी लेशमात्र क्रोध नहीं करता। आपकी पुत्री के द्वारा मुझे पीड़ा पहुँचाये जाने पर भी मैंने अभी तक आपको शाप नहीं दिया है ॥ १३ ॥ हे महीपते ! इस समय मुझ निरपराध के नेत्रों में पीड़ा उत्पन्न हो रही है। मैं जानता हूँ कि इसी पापकर्म के कारण आप कष्ट में पड़ गये हैं ॥ १४ ॥ भगवती के भक्त के प्रति घोर अपराध करके कौन-सा व्यक्ति सुख पा सकता है, चाहे साक्षात् शंकर ही उसके रक्षक क्यों न हों ॥ १५ ॥ हे महीपाल ! मैं क्या करूँ? मैं अन्धा हो गया हूँ और बुढ़ापे ने मुझे घेर रखा है। हे राजन् ! अब मुझ अन्धे की सेवा कौन करेगा ? ॥ १६ ॥ राजा बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे बहुत-से सेवक दिन-रात आपकी सेवा करेंगे। आप अपराध क्षमा करें; क्योंकि तपस्वी लोग अत्यन्त अल्प क्रोधवाले होते हैं ॥ १७ ॥ च्यवन बोले — हे राजन् ! मैं अन्धा हूँ, अतः अकेले रहकर मैं तप करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ? क्या आपके वे सेवक सम्यक् रूप से मेरा प्रिय कार्य कर सकेंगे ? ॥ १८ ॥ हे राजन्! यदि आप क्षमा करने के लिये मुझसे कहते हैं तो मेरी एक बात मान लीजिये । मेरी सेवा के लिये कमल के समान नेत्रोंवाली अपनी कन्या मुझे सौंप दीजिये ॥ १९ ॥ हे महाराज! मैं आपकी इस कन्या पर प्रसन्न हूँ । हे महामते ! मैं तपस्या करूँगा और वह मेरी सेवा करेगी ॥ २० ॥ हे ‘राजन् ! ऐसा करने पर मुझे सुख मिलेगा और आपका भी कल्याण होगा। मेरे प्रसन्न हो जाने पर आपके सैनिकों को भी सुख प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २१ ॥ हे भूप! मन में यह विचार करके आप कन्यादान कर दीजिये । इसमें आपको कुछ भी दोष नहीं लगेगा; क्योंकि मैं एक संयमशील तपस्वी हूँ ॥ २२ ॥ व्यासजी बोले —– हे भारत ! मुनि की बात सुनकर राजा शर्याति घोर चिन्ता में पड़ गये। ‘दूँगा’ या ‘नहीं दूँगा’ – कुछ भी उन्होंने नहीं कहा ॥ २३॥ वे सोचने लगे कि देवकन्या के तुल्य अपनी यह पुत्री इस अन्धे, कुरूप तथा बूढ़े मुनि को देकर मैं कैसे सुखी रह सकता हूँ ! ॥ २४ ॥ ऐसा अल्पबुद्धि तथा पापी कौन होगा, जो शुभ तथा अशुभ का ज्ञान रखते हुए भी अपने सुख के लिये अपनी ही कन्या के सांसारिक सुख को नष्ट कर देगा ! ॥ २५ ॥ अन्धे तथा वृद्ध च्यवनमुनि को पतिरूप में प्राप्त करके सुन्दर भौंहों वाली तथा कामबाण से व्यथित वह कन्या उनके साथ किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करेगी ! ॥ २६ ॥ अपने अनुकूल पति पाकर भी यौवनावस्था में [किसी स्त्री के द्वारा ] और वह भी विशेष रूप से रूपसम्पन्न स्त्री के द्वारा काम को जीतना अत्यन्त कठिन है तो फिर इस वृद्ध तथा नेत्रहीन पति को पाकर उसकी क्या स्थिति होगी ? ॥ २७ ॥ तपस्वी गौतमऋषि को पतिरूप में प्राप्त करके रूप तथा यौवन से युक्त सुन्दरी अहल्या इन्द्र के द्वारा शीघ्र ही ठग ली गयी थी और बाद में इसे धर्मविरुद्ध जानकर उसके पति गौतम ने शाप दे दिया था । अतएव मुझे कष्ट भले ही मिले, किंतु मैं मुनि को अपनी पुत्री सुकन्या नहीं दूँगा ॥ २८-२९ ॥ ऐसा विचार करके राजा शर्याति सन्तप्त मन से अपने घर चले गये और अत्यन्त विषादग्रस्त होकर उन्होंने मन्त्रियों को बुलाकर उनसे मन्त्रणा की — हे मन्त्रियो! आपलोग बताइये कि मैं इस समय क्या करूँ? अपनी पुत्री मुनि को सौंप दूँ अथवा स्वयं दुःख भोगूँ ? अब आप लोग मिलकर इस पर सम्यक् विचार कीजिये कि मेरा हित किस प्रकार होगा? ॥ ३०-३११/२ ॥ मन्त्रिगण बोले — हे महाराज ! इस विषम संकटकी स्थितिमें हम आपसे क्या कहें ? यह अत्यन्त लावण्यमयी सुकन्या इस अभागे को देना कैसे उचित होगा ? ॥ ३२१/२ ॥ व्यासजी बोले — [हे राजन्!] तब अपने पिता तथा मन्त्रियों को चिन्ता से आकुल देखकर सुकन्या उनका अभिप्राय समझ गयी और मुसकराकर बोली — हे पिताजी ! आज आप चिन्ता से व्याकुल इन्द्रियों वाले किसलिये हैं ? निश्चित ही आप मेरे लिये ही अत्यन्त दुःखार्त तथा म्लानमुख हैं । अतएव हे पिताजी! मैं अभी भयाक्रान्त मुनि च्यवन के पास जाकर और उन्हें आश्वस्त करके अपने को अर्पित कर प्रसन्न करूँगी ॥ ३३–३५१/२ ॥ इस प्रकार सुकन्या ने जो बात कही, सुनकर प्रसन्न मनवाले राजा शर्याति ने सचिवों के समक्ष उससे उसे कहा — हे पुत्र ! तुम अबला हो, अतएव वृद्धता से ग्रस्त उस अन्धे तथा विशेष रूप से क्रोधी मुनि की सेवा उस वन में कैसे कर पाओगी? ॥ ३६-३७१/२ ॥ मैं इस प्रकार के रूप से युक्त तथा रति के तुल्य सुन्दरी कन्या को वार्धक्य से ग्रस्त शरीरवाले अन्धे मुनि को अपने सुख के लिये भला कैसे दे दूँ ? पिता को चाहिये कि वह अपनी पुत्री समान अवस्था, जाति तथा सामर्थ्यवाले और धन-धान्य से सम्पन्न व्यक्ति को सौंपे, किंतु धनहीन को कभी भी नहीं सौंपे ॥ ३८-३९१/२ ॥ हे विशाल नयनोंवाली पुत्रि ! कहाँ तो तुम ऐसी रूपवती और कहाँ वन में रहने वाला वह वृद्ध मुनि ! ऐसी स्थिति में मैं अपनी पुत्री को उस अयोग्य को भला कैसे अर्पित करूँ? ॥ ४० ॥ हे मनोहरे ! हे कमलपत्र के समान नेत्रोंवाली ! छोटी-सी पर्णकुटी में जो सदा निवास करता है, ऐसे वर के साथ तुम्हारे विवाह की कल्पना भी मैं कैसे कर सकता हूँ ! ॥ ४११/२ ॥ मेरी तथा मेरे सैनिकों की मृत्यु हो जाय यह तो मेरे लिये उत्तम है, किंतु हे पिकभाषिणि! तुम्हें एक अन्धे को सौंप देना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है ॥ ४२१/२ ॥ होनहार तो होकर ही रहता है, किंतु मैं अपने धैर्य का त्याग नहीं करूँगा और हे सुश्रोणि ! तुम निश्चिन्त रहो; मैं तुम्हें उस अन्धे मुनि को कभी भी नहीं सौंप सकता ॥ ४३ ॥ हे पुत्रि ! मेरा राज्य और यहाँ तक कि मेरा शरीर भी रहे अथवा चला जाय, किंतु मैं उस नेत्रहीन मुनि को तुम्हें किसी भी स्थिति में नहीं दूँगा ॥ ४४१/२ ॥ तत्पश्चात् पिता का वह वचन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न मुख वाली सुकन्या ने उनसे यह स्नेहयुक्त वचन कहा — ॥ ४५१/२ ॥ सुकन्या बोली — हे पिताजी ! मेरे लिये आप चिन्ता न करें और अब मुझे मुनि को सौंप दीजिये; क्योंकि मेरे लिये ऐसा कर देने से सम्पूर्ण प्रजा को सुख प्राप्त होगा। मैं हर प्रकार से सन्तुष्ट होकर उस निर्जन वन में अपने परम पवित्र वृद्ध पति की अगाध श्रद्धा से सेवा करूँगी और शास्त्रसम्मत सती-धर्म का पूर्ण तत्परता के साथ पालन करूँगी । हे निष्पाप पिताजी ! भोग-विलास में मेरी अभिरुचि नहीं है । आप अपने चित्त में स्थिरता रखिये ॥ ४६–४८१/२ ॥ व्यासजी बोले — उस सुकन्या की बातें सुनकर सभी मन्त्री आश्चर्य में पड़ गये और राजा भी परम प्रसन्न होकर मुनि के पास गये ॥ ४९१/२ ॥ वहाँ पहुँचकर उन तपोनिधि को सिर झुकाकर प्रणाम करके राजा ने कहा — हे स्वामिन्! हे प्रभो ! मेरी इस पुत्री को आप अपनी सेवाके लिये विधिपूर्वक स्वीकार कीजिये ॥ ५०१/२ ॥ ऐसा कहकर उन राजा ने विधि-विधान से विवाह सम्पन्न करके अपनी पुत्री मुनि को सौंप दी और उस कन्या को ग्रहण करके च्यवनऋषि भी प्रसन्न हो गये। मुनि ने राजा द्वारा प्रदत्त उपहार ग्रहण नहीं किया। अपनी सेवाके लिये उन्होंने केवल राजकुमारी को ही स्वीकार किया ॥ ५१-५२१/२ ॥ उन मुनि के प्रसन्न हो जाने पर सैनिकों को सुख प्राप्त हो गया। उसी समय से राजा भी परम आह्लादित रहने लगे ॥ ५३१/२ ॥ जब राजा शर्याति ने मुनि को पुत्री सौंपकर घर चलने का विचार किया, तब कोमल अंगोंवाली राजकुमारी सुकन्या राजा से कहने लगी — ॥ ५४१/२ ॥ सुकन्या बोली — हे पिताजी ! आप मेरे वस्त्र तथा आभूषण ले लीजिये और पहनने के लिये मुझे वल्कल एवं उत्तम मृगचर्म प्रदान कीजिये। मैं मुनिपत्नियों का वेष बनाकर तप में निरत रहती हुई पतिसेवा करूँगी; जिससे पृथ्वीतल, रसातल और स्वर्गलोक में भी आपकी कीर्ति अक्षुण्ण रहेगी; परलोक के सुख के लिये मैं दिन-रात मुनि की सेवा करती रहूँगी ॥ ५५–५७१/२ ॥ सुन्दर तथा यौवनसम्पन्न अपनी पुत्री मुझ सुकन्या को एक अन्धे तथा वृद्ध मुनि को सौंपकर मेरे आचरणच्युत हो जाने की शंका करके आप तनिक भी चिन्ता न कीजियेगा ॥ ५८१/२ ॥ जिस प्रकार पृथ्वीलोक में वसिष्ठ की धर्मपत्नी अरुन्धती थी, उसी प्रकार मैं भी होऊँगी और जिस प्रकार अत्रि की साध्वी भार्या अनसूया प्रसिद्ध हुईं, उसी प्रकार आपकी पुत्री मैं सुकन्या भी [ अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से] कीर्ति बढ़ाने वाली होऊँगी; इसमें आपको सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ५९-६०१/२ ॥ सुकन्या की बात सुनकर महान् धर्मज्ञ राजा शर्याति वस्त्र के रूप में उसे मृगचर्म प्रदान करके रोने लगे। उस सुन्दर मुसकानवाली अपनी पुत्री को शीघ्र ही आभूषण तथा वस्त्र त्यागकर मुनिवेष धारण किये देखकर राजा म्लानमुख होकर वहीं पर ठहरे रहे ॥ ६१-६२१/२ ॥ अपनी पुत्री को वल्कल तथा मृगचर्म धारण की हुई देखकर सभी रानियाँ भी रो पड़ीं। वे परम शोकाकुल हो उठीं और काँपने लगीं ॥ ६३१/२ ॥ [ व्यासजी बोले — ] हे राजन् ! तत्पश्चात् अपनी उस समर्पित पुत्री सुकन्या से विदा लेकर तथा उसे वहीं छोड़कर चिन्तित राजा मन्त्रियों के साथ अपने नगर को चले गये ॥ ६४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘च्यवन और सुकन्या के गार्हस्थ्य का वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ Content is available only for registered users. 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