श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-12
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ द्वादशोऽध्यायः
बारहवाँ अध्याय
राजा सुद्युम्न की इला नामक स्त्री के रूप में परिणति, इला का बुध से विवाह और पुरूरवा की उत्पत्ति, भगवती की स्तुति करने से इलारूपधारी राजा सुद्युम्न की सायुज्यमुक्ति
सुद्युम्नस्तुतिः

सूत उवाच
ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां कथयामि वः ।
बुधपुत्रोऽतिधर्मात्मा यज्ञकृद्दानतत्परः ॥ १ ॥
सुद्युम्नो नाम भूपालः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
सैन्धवं हयमारुह्य चचार मृगयां वने ॥ २ ॥
युतः कतिपयामात्यैर्दर्शितश्चारुकुण्डलः ।
धनुराजगवं बद्ध्वा बाणसङ्घं तथाद्‌भुतम् ॥ ३ ॥
स भ्रमंस्तद्वनोद्देशे हन्यमानो रुरून्मृगान् ।
शशांश्च सूकरांश्चैव खड्गांश्च गवयांस्तथा ॥ ४ ॥
शरभान्महिषांश्चैव साम्भरान्वनकुक्कुटान् ।
निघ्नन्मेध्यान् पशून् राजा कुमारवनमाविशत् ॥ ५ ॥


सूतजी बोले — तदनन्तर इला के गर्भ से पुरूरवा ने जन्म लिया, यह प्रसंग मैं आपलोगों से कहता हूँ। वे बुधपुत्र पुरूरवा बड़े धर्मात्मा, यज्ञ करने वाले एवं दानशील थे ॥ 1 ॥

सुद्युम्न नामक एक राजा थे। वे बड़े ही सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे। एक बार वे सैन्धव घोड़े पर आरूढ़ होकर आखेट के लिये वन में गये। उनके साथ कुछ मन्त्री भी थे। वे राजा कानों में कमनीय कुण्डल पहने थे। आजगव नामक धनुष तथा बाणों से भरा अद्भुत तरकस धारण करके उस वन में भ्रमण करते हुए रुरुमृग, हिरण, खरगोश, सूअर, गैंड़ों, गवय, साँभर, भैंसों, वन-मुर्गों को मारते हुए तथा यज्ञोपयोगी अनेक वनपशुओं का वध करते हुए राजा सुद्युम्न ‘ कुमार’ नामक वन में प्रविष्ट हुए ॥ 2-5 ॥

मेरोरधस्तले दिव्यं मन्दारद्रुमराजितम् ।
अशोकलतिकाकीर्णं बकुलैरधिवासितम् ॥ ६ ॥
सालैस्तालैस्तमालैश्च चम्पकैः पनसैस्तथा ।
आम्रैर्नीपैर्मधूकैश्च माधवीमण्डपावृतम् ॥ ७ ॥
दाडिमैर्नारिकेलैश्च कदलीखण्डमण्डितम् ।
यूथिकामालतीकुन्दपुष्पवल्लीसमावृतम् ॥ ८ ॥
हंसकारण्डवाकीर्णं कीचकध्वनिनादितम् ।
भ्रमरालिरुतारामं वनं सर्वसुखावहम् ॥ ९ ॥
दृष्ट्वा प्रमुदितो राजा सुद्युम्नः सेवकैर्वृतः ।
वृक्षान्सुपुष्पितान्वीक्ष्य कोकिलारावमण्डितान् ॥ १० ॥

वह दिव्य वन सुमेरु पर्वत के निचले भाग में था,  जो सुन्दर मन्दार-वृक्षों से सुशोभित था, वहाँ अशोक  वृक्ष की लताएँ फैली हुई थीं तथा मौलसिरी की सुगन्धि उसे सुरभित कर रही थी। वह वन साल, ताड़, तमाल, चम्पा, कटहल, आम, कदम्ब और महुए के पेड़ों से सुशोभित था तथा जहाँ-तहाँ माधवी लता मण्डप के समान छायी हुई थी ॥ 6-7 ॥ उस वन में दाडिम, नारियल तथा केले के वृक्ष शोभित हो रहे थे और वह वन जूही, मालती तथा भी कुन्द की पुष्पित लताओं से चारों ओर से घिरा हुआ था।  वहाँ हंस और बतख विचरण कर रहे थे, बाँस [एक दूसरे से रगड़ खाने के कारण हवा में मधुर] ध्वनि कर  रहे थे तथा कहीं भ्रमरों की मधुर गुंजार वन-प्रान्त को गुंजित कर रही थी। इस प्रकार वह वन सब प्रकारसे सुखदायक था ॥ 8-9 ॥ कोयलों की ध्वनि से मण्डित तथा पुष्पों से युक्त वृक्षों को देखकर अनुचरों के साथ राजा सुद्युम्न अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ 10 ॥

प्रविष्टस्तत्र राजर्षिः स्त्रीत्वमाप क्षणात्ततः ।
अश्वोऽपि वडवा जातश्चिन्ताविष्टः स भूपतिः ॥ ११ ॥
किमेतदिति चिन्तार्तश्चिन्त्यमानः पुनः पुनः ।
दुःखं बहुतरं प्राप्तः सुद्युम्नो लज्जयान्वितः ॥ १२ ॥
किं करोमि कथं यामि गृहं स्त्रीभावसंयुतः ।
कथं राज्यं करिष्यामि केन वा वञ्चितो ह्यहम् ॥ १३ ॥

राजर्षि सुद्युम्न ने वहाँ प्रवेश किया और उसी क्षण वे स्त्री के रूप में परिणत हो गये; उनका घोड़ा भी घोड़ी के रूप में हो गया। इससे वे राजा चिन्ता में पड़ गये। [ वे मन में सोचने लगे] यह क्या हो गया ? चिन्ता से व्याकुल वे राजा सुद्युम्न बार-बार सोचते हुए बहुत दुःखी तथा लज्जित हुए। [उन्होंने सोचा ] अब मैं क्या करूँ और स्त्रीत्व भाव से युक्त मैं घर कैसे जाऊँ? मैं अब कैसे राज्य संचालन करूँगा ? मैं इस प्रकार किससे ठगा गया ? ॥ 11-13 ॥

॥ ऋषय ऊचुः ॥
सूताश्चर्यमिदं प्रोक्तं त्वया यल्लोमहर्षण ।
सुद्युम्नः स्त्रीत्वमापन्नो भूपतिर्देवसन्निभः ॥ १४ ॥
किं तत्कारणमाचक्ष्व वने तत्र मनोहरे ।
किं कृतं तेन राज्ञा च विस्तरं वद सुव्रत ॥ १५ ॥

ऋषिगण बोले — हे लोमहर्षण सूतजी ! आपने यह बड़ी आश्चर्यजनक बात कही है। देवता के समान तेजस्वी राजा सुद्युम्न स्त्रीत्व को प्राप्त हो गये — इसका क्या कारण है? उसे बताइये । उस रमणीय वन में राजा ने कौन-सा कार्य किया था? हे सुव्रत ! आप विस्तारपूर्वक हमें बताइये ॥ 14-15 ॥

॥ सूत उवाच ॥
एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयः सनकादयः ।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन् ॥ १६ ॥
तस्मिंश्च समये तत्र शङ्करः प्रमदायुतः ।
क्रीडासक्तो महादेवो विवस्त्रा कामिनी शिवा ॥ १७ ॥
उत्सङ्गे संस्थिता भर्तू रममाणा मनोरमा ।
तान्विलोक्याम्बिका देवी विवस्त्रा व्रीडिता भृशम् ॥ १८ ॥
भर्तुरङ्कात्समुत्थाय वस्त्रमादाय पर्यधात् ।
लज्जाविष्टा स्थिता तत्र वेपमानातिमानिनी ॥ १९ ॥
ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्गं रममाणयोः ।
परिवृत्य ययुस्तूर्णं नरनारायणाश्रमम् ॥ २० ॥

सूतजी बोले — एक समय की बात है — सनकादिक ऋषिगण अपने तेज से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए शंकरजी के दर्शन के लिये वहाँ गये थे ॥ 16 ॥ उस समय महादेव शिव पार्वती के साथ विहार कर रहे थे, इसी बीच उन सनकादिक ऋषियों को वहाँ देखकर पार्वती अत्यन्त लज्जित हो गयीं। वे अतिमानिनी पार्वती काँपती हुई लज्जित होकर अलग खड़ी हो गयीं ॥ 17-19 ॥ सनकादिक मुनि भी शिव एवं पार्वती को विहार करते देखकर वहाँ से तत्काल लौटकर नर नारायण के आश्रम में चले गये ॥ 20 ॥

ह्रीयुतां कामिनीं वीक्ष्य प्रोवाच भगवान्हरः ।
कथं लज्जातुरासि त्वं सुखं ते प्रकरोम्यहम् ॥ २१ ॥
अद्यप्रभृति यो मोहात्पुमान्कोऽपि वरानने ।
वनं च प्रविशेदेतत्स वै योषिद्‌भविष्यति ॥ २२ ॥
इति शप्तं वनं तेन ये जानन्ति जनाः क्वचित् ।
वर्जयन्तीह ते कामं वनं दोषसमृद्धिमत् ॥ २३ ॥
सुद्युम्नस्तु तदज्ञानात्प्रविष्टः सचिवैः सह ।
तथैव स्त्रीत्वमापन्नस्तैः सहेति न संशयः ॥ २४ ॥
चिन्ताविष्टः स राजर्षिर्न जगाम गृहं ह्रिया ।
विचचार बहिस्तस्माद्वनदेशादितस्ततः ॥ २५ ॥
इलेति नाम सम्प्राप्तं स्त्रीत्वे तेन महात्मना ।
विचरंस्तत्र सम्प्राप्तो बुधः सोमसुतो युवा ॥ २६ ॥

भगवान् शिव अपनी प्रिय पत्नी को लज्जित देखकर कहने लगे — तुम इस प्रकार लज्जित क्यों हो रही हो? तुम्हारे सुख का उपाय मैं अभी करता हूँ। हे वरानने! आज से जो कोई भी पुरुष इस वन में भूल से भी आयेगा, वह स्त्री हो जायगा ॥ 21-22 ॥ उन शिवजी ने वन को ऐसा शाप दे दिया है इसे जो लोग जानते हैं, वे उस दोषपूर्ण वन का पूर्णतः परित्याग कर देते हैं ॥ 23 ॥ वे सुद्युम्न भी अज्ञानवश सचिवों के साथ उस वन में चले गये, जिससे वे अपने सचिव आदि सहित स्त्री हो गये; इसमें शंका का कोई कारण नहीं है ॥ 24 ॥ चिन्ताकुल होने के कारण राजा सुद्युम्न लज्जावश घर नहीं गये और उस वनप्रदेश से बाहर इधर-उधर घूमने लगे ॥ 25 ॥ स्त्रीत्व प्राप्त होने पर उन महात्मा का नाम इला पड़ गया। इस प्रकार स्त्रीरूप में घूमते हुए एक दिन चन्द्रमा के युवा पुत्र बुध से उनकी भेंट हो गयी ॥ 26 ॥

स्त्रीभिः परिवृतां तां तु दृष्ट्वा कान्तां मनोरमाम् ।
हावभावकलायुक्तां चकमे भगवाम्बुधः ॥ २७ ॥
सापि तं चकमे कान्तं बुधं सोमसुतं पतिम् ।
संयोगस्तत्र सञ्जातस्तयोः प्रेम्णा परस्परम् ॥ २८ ॥
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम् ।
इलायां सोमपुत्रस्तु चक्रवर्तिनमुत्तमम् ॥ २९ ॥
सा प्रासूत सुतं बाला चिन्ताविष्टा वने स्थिता ।
सस्मार स्वकुलाचार्यं वसिष्ठं मुनिसत्तमम् ॥ ३० ॥
स तदास्य दशां दृष्ट्वा सुद्युम्नस्य कृपान्वितः ।
अतोषयन्महादेवं शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ ३१ ॥
तस्मै स भगवांस्तुष्टः प्रददौ वाञ्छितं वरम् ।
वसिष्ठः प्रार्थयामास पुंस्त्वं राज्ञः प्रियस्य च ॥ ३२ ॥
शङ्करस्तु निजां वाचमृतां कुर्वन्नुवाच ह ।
मासं पुमांस्तु भविता मासं स्त्री भूपतिः किल ॥ ३३ ॥

अनेक स्त्रियों के साथ भ्रमण करती हुई उस  हाव-भावमयी युवती रमणी को देखकर चन्द्रमा के पुत्र भगवान् बुध उस पर मोहित हो गये। वह रमणी भी उन चन्द्रपुत्र बुध को अपना पति बनाने के लिये आकुल हो उठी। इस प्रकार परस्पर अनुराग के कारण कुछ दिनों में उन दोनों का संयोग हो गया ॥ 27-28 ॥ उस चन्द्रमापुत्र बुध ने इला के गर्भ से पुरूरवा नामक श्रेष्ठ चक्रवर्ती पुत्र को उत्पन्न किया। पुत्र को जन्म देकर वह इला वन में ही रहने लगी तथा चिन्तातुर हो उसने अपने कुलाचार्य मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी का स्मरण किया ॥ 29-30 ॥ [ इला के स्मरण करते ही वसिष्ठजी वहाँ आये।] सुद्युम्न की यह दशा देखकर उन्हें बड़ी दया आयी। तब उन्होंने समस्त लोक का कल्याण करने वाले महादेव शिव को प्रसन्न किया ॥ 31 ॥ वसिष्ठजी पर प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें मनोभिलषित वर प्रदान किया। वसिष्ठजी ने प्रिय राजा सुद्युम्न के पुनः पुरुष होने के लिये प्रार्थना की ॥ 32 ॥ शिवजी ने अपना वचन सत्य करते हुए कहा ‘हे ऋषे। आज से राजा सुद्युम्न एक मास पुरुष और एक मास स्त्री बने रहेंगे’ ॥ 33 ॥

इत्थं प्राप्य वरं राजा जगाम स्वगृहं पुनः ।
चक्रे राज्यं स धर्मात्मा वसिष्ठस्याप्यनुग्रहात् ॥ ३४ ॥
स्त्रीत्वे तिष्ठति हर्म्येषु पुंस्त्वे राज्यं प्रशास्ति च ।
प्रजास्तस्मिन्समुद्विग्ना नाभ्यनन्दन्महीपतिम् ॥ ३५ ॥
काले तु यौवनं प्राप्तः पुत्रः पुरूरवास्तदा ।
प्रतिष्ठां नृपतिस्तस्मै दत्त्वा राज्यं वनं ययौ ॥ ३६ ॥
गत्वा तस्मिन्वने रम्ये नानाद्रुमसमाकुले ।
नारदान्मन्त्रमासाद्य नवाक्षरमनुत्तमम् ॥ ३७ ॥
जजाप मन्त्रमत्यर्थं प्रेमपूरितमानसः ।
परितुष्टा तदा देवी सगुणा तारिणी शिवा ॥ ३८ ॥
सिंहारूढा स्थिता चाग्रे दिव्यरूपा मनोरमा ।
वारुणीपानसम्मत्ता मदाघूर्णितलोचना ॥ ३९ ॥
दृष्ट्वा तां दिव्यरूपां च प्रेमाकुलितलोचनः ।
प्रणम्य शिरसा प्रीत्या तुष्टाव जगदम्बिकाम् ॥ ४० ॥

इस प्रकार वरदान पाकर राजा सुद्युम्न पुनः अपने घर आ गये और वे धर्मात्मा वहाँ वसिष्ठजी की  कृपा से राज्य करने लगे ॥ 34 ॥ वे जब स्त्री के रूप में रहते थे, तब अन्तःपुर में रहते थे और जब पुरुषरूप में रहते थे, तब राज्य करते थे। परंतु इस कारण उनकी प्रजा उनसे उद्विग्न होकर राजा के रूप में उनका अभिनन्दन नहीं करती थी ॥ 35 ॥ कुछ समय के बाद जब राजकुमार पुरूरवा युवक हो गया तब महाराज सुद्युम्न उसे प्रतिष्ठानपुर का राज्य सौंपकर वन में चले गये ॥ 36 ॥ अनेक प्रकार के वृक्षों से सुन्दर लगने वाले उस वन में रहते हुए राजा सुद्युम्न ने देवर्षि नारदजी से सर्वोत्तम नवाक्षर (नवार्ण) मन्त्र की दीक्षा ली और अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ मन लगाकर वे उस मन्त्र का जप करने लगे। तदनन्तर भक्तों का उद्धार करने वाली जगज्जननी भगवती शिवा ने सगुणरूप धारण करके उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय मनोरम तथा दिव्य स्वरूप वाली भगवती सिंह पर सवार होकर उनके समक्ष खड़ी हो गयीं। उनके नेत्र मद से परिपूर्ण थे ॥ 37-39 ॥ ऐसी दिव्य रूपधारिणी श्रीदुर्गादेवी को अपने सामने देखकर स्नेहभरे नेत्रों वाले (इलारूपी) राजा सुद्युम्न प्रेमपूर्वक सिर नवाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 40 ॥

॥ इलोवाच ॥
दिव्यं च ते भगवति प्रथितं स्वरूपं
दृष्टं मया सकललोकहितानुरूपम् ।
वन्दे त्वदंघ्रिकमलं सुरसङ्घसेव्यं
कामप्रदं जननि चापि विमुक्तिदं च ॥ ४१ ॥
को वेत्ति तेऽम्ब भुवि मर्त्यतनुर्निकामं
मुह्यन्ति यत्र मुनयश्च सुराश्च सर्वे ।
ऐश्वर्यमेतदखिलं कृपणे दयां च
दृष्ट्वैव देवि सकलं किल विस्मयो मे ॥ ४२ ॥
शम्भुर्हरिः कमलजो मघवा रविश्च
वित्तेशवह्निवरुणाः पवनश्च सोमः ।
जानन्ति नैव वसवोऽपि हि ते प्रभावं
बुध्येत्कथं तव गुणानगुणो मनुष्यः ॥ ४३ ॥
जानाति विष्णुरमितद्युतिरम्ब साक्षा-
त्त्वां सात्त्विकीमुदधिजां सकलार्थदां च ।
को राजसीं हर उमां किल तामसीं त्वां
वेदाम्बिके न तु पुनः खलु निर्गुणां त्वाम् ॥ ४४ ॥

इला ने कहा — हे भगवति! आपका जगत् प्रसिद्ध वह दिव्य रूप, जो संसारके लिये कल्याणकारी है — मैंने देखा हे जननि ! सुरसमूह से सेवित आपके भुक्ति-मुक्तिप्रदायक चरणकमल की में वन्दना कर रही हूँ ॥ 41 ॥ हे अम्ब! इस संसार में कौन मनुष्य आपको सम्पूर्ण रूप से जान सकता है? जबकि मुनि एवं देवगण भी उसे देखकर विमोहित रहते हैं। हे देवि ! आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य तथा मुझ जैसी अकिंचन पर दया – यह सब देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है ॥ 42 ॥ हे माता! जब शिव, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, कुबेर, अग्नि, वरुण, वायु, चन्द्रमा और अष्टवसु भी आपके प्रभाव को नहीं जानते हैं, तब भला गुणरहित  मनुष्य आपके गुणों को कैसे जान सकता है ? ॥ 43 ॥ हे अम्ब! यद्यपि परम तेजस्वी भगवान् विष्णु आपको समुद्र से उत्पन्न, सब प्रकार के मनोरथों कों सिद्ध करने वाली साक्षात् सात्त्विकी शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी के रूप में समझते हैं, ब्रह्मा भी आपको राजसी शक्तिस्वरूपा सरस्वती तथा शिवजी आपको तामसी शक्तिस्वरूपा महाकाली के रूप में जानते हैं, तथापि हे अम्बिके! वे भी आपकी निर्गुणात्मिका दिव्य शक्ति को भलीभाँति नहीं जानते ॥ 44 ॥

क्वाहं सुमन्दमतिरप्रतिमप्रभावः
क्वायं तवातिनिपुणो मयि सुप्रसादः ।
जाने भवानि चरितं करुणासमेतं
यत्सेवकांश्च दयसे त्वयि भावयुक्तान् ॥ ४५ ॥
वृत्तस्त्वया हरिरसौ वनजेशयापि
नैवाचरत्यपि मुदं मधुसूदनश्च ।
पादौ तवादिपुरुषः किल पावकेन
कृत्वा करोति च करेण शुभौ पवित्रौ ॥ ४६ ॥
वाञ्छत्यहो हरिरशोक इवातिकामं
पादाहतिं प्रमुदितः पुरुषः पुराणः ।
तां त्वं करोषि रुषिता प्रणतं च पादे
दृष्ट्वा पतिं सकलदेवनुतं स्मरार्तम् ॥ ४७ ॥
वक्षःस्थले वससि देवि सदैव तस्य
पर्यङ्कवत्सुचरिते विपुलेऽतिशान्ते ।
सौदामिनीव सुघने सुविभूषिते च
किं ते न वाहनमसौ जगदीश्वरोऽपि ॥ ४८ ॥
त्वं चेज्जहासि मधुसूदनमम्ब कोपा-
न्नैवार्चितोऽपि स भवेत्किल शक्तिहीनः ।
प्रत्यक्षमेव पुरुषं स्वजनास्त्वजन्ति
शान्तं श्रियोज्झितमतीव गुणैर्वियुक्तम् ॥ ४९ ॥
ब्रह्मादयः सुरगणा न तु किं युवत्यो
ये त्वत्पदाम्बुजमहर्निशमाश्रयन्ति ।
मन्ये त्वयैव विहिताः खलु ते पुमांसः
किं वर्णयामि तव शक्तिमनन्तवीर्ये ॥ ५० ॥
त्वं नापुमान्न च पुमानिति मे विकल्पो
याकासि देवि सगुणा ननु निर्गुणा वा ।
तां त्वां नमामि सततं किल भावयुक्तो
वाञ्छामि भक्तिमचलां त्वयि मातरं तु ॥ ५१ ॥

हे भवानि! कहाँ तो अत्यन्त मन्दबुद्धि मैं और कहाँ अमित महिमाशाली तथा अमोघ प्रभाव वाला मुझ पर आपका अनुग्रह ! मैं आपके कारुणिक चरित्र को जानती हूँ जो कि आप भक्तिभावयुक्त सेवकों पर सर्वदा दया करती हैं ॥ 45 ॥ यद्यपि कमलवन में वास करने वाली कमला होकर आपने भगवान् विष्णु को पति के रूप में वरण किया है, तथापि वे मधुसूदन आनन्ददायक व्यवहार नहीं करते। वे आदिपुरुष विष्णु आदिशक्ति स्वरूपा आपके पवित्र हाथों से अपना पादसंवाहन कराकर अपने चरणों को शुभ तथा पवित्र करते हैं ॥ 46 ॥ वे पुराणपुरुष भगवान् विष्णु भी प्रसन्न होकर आपके चरणों का आघात वैसे ही चाहते हैं, जैसे अशोकवृक्ष अपनी वृद्धि के लिये चाहता है ॥ 47 ॥ हे सुन्दर चरित्रवाली देवि! आप विष्णु के विशाल, शान्त एवं भूषणों से विभूषित वक्षःस्थलरूपी शय्या पर सर्वदा निवास करती हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता है, मानो सुन्दर श्याम मेघ में बिजली जगदीश्वर होते हुए भी क्या चमक रही हो, तब आपके वाहन नहीं बन जाते ? ॥ 48 ॥

हे अम्ब! यदि क्रोधित होकर आप उनको त्याग  दें तो वे भगवान् विष्णु अपूजित और शक्तिहीन होकर कुछ नहीं कर पायेंगे; क्योंकि लोक में भी देखा जाता है कि श्रीहीन, गुणरहित एवं उदासीन पुरुष को उनके कुटुम्बीजन भी त्याग देते हैं ॥ 49 ॥ क्या ब्रह्मादि देवगण भी किसी समय नहीं थे, जो दिन-रात आपके चरणकमलों का ही आश्रय रखते हैं। मैं तो मानती हूँ कि आपने ही उन्हें पुंस्त्व प्रदान किया था। अतः हे अनन्त पराक्रमशालिनि ! मैं आपकी शक्ति का क्या वर्णन कर सकती हूँ? ॥ 50 ॥ ‘आप न तो स्त्री हैं, न पुरुष; न निर्गुण हैं न सगुण’ — ऐसी मेरी धारणा है। अतः आप जैसी भी हों — उन आपको मैं भक्तिपूर्वक बार-बार प्रणाम करती हूँ। आप माता से मैं यही प्रार्थना करती हूँ कि आपमें मेरी अचल भक्ति बनी रहे ॥ 51 ॥

॥ सूत उवाच ॥
इति स्तुत्वा महीपालो जगाम शरणं तदा ।
परितुष्टा ददौ देवी तत्र सायुज्यमात्मनि ॥ ५२ ॥
सुद्युम्नस्तु ततः प्राप पदं परमकं स्थिरम् ।
तस्या देव्याः प्रसादेन मुनीनामपि दुर्लभम् ॥ ५३ ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे सुद्युम्नस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

सूतजी बोले — इस प्रकार स्तुति करके राजा सुद्युम्न उनके शरणागत हुए और भगवतीने भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्हें अपनी सायुज्य मुक्ति प्रदान की। तब उन देवीकी कृपासे सुद्युम्नने मुनियोंके लिये भी अति दुर्लभ शाश्वत परमपद प्राप्त किया ॥ 52-53 ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘सुद्युम्नस्तुति’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

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