May 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-05 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-पञ्चमोऽध्यायः पाँचवाँ अध्याय अश्विनीकुमारों का च्यवनमुनि को नेत्र तथा नवयौवन से सम्पन्न बनाना अश्विभ्यां च्यवनद्वारा सोमपानाय प्रतिज्ञावर्णनम् व्यासजी बोले — उन अश्विनीकुमारों की वह बात सुनकर मितभाषिणी राजपुत्री सुकन्या थर-थर काँपने लगी और धैर्य धारण करके उनसे बोल — ॥ १ ॥ हे देवताओ! आप दोनों सूर्यपुत्र हैं। आप लोग सर्वज्ञ तथा देवताओं में सम्मान्य हैं। मुझ पतिव्रता तथा धर्मपरायणा स्त्री के प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ २ ॥ हे सुरश्रेष्ठो ! मेरे पिताजी ने मुझे इन्हीं योग–परायण मुनि को सौंप दिया है, तब मैं व्यभिचारिणी स्त्रियों के द्वारा सेवित उस मार्ग का अनुसरण कैसे करूँ? ॥ ३ ॥ कश्यप से उत्पन्न हुए भगवान् सूर्य समस्त प्राणियों के कर्मों के साक्षी हैं । ये सब कुछ देखते रहते हैं । [ इन्हीं के साक्षात् पुत्ररूप] आप लोगों को ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ ४ ॥ कोई भी कुलीन कन्या अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष को इस सारहीन जगत् में भला कैसे स्वीकार कर सकती है ? धर्म-सिद्धान्तों को जानने वाले आप दोनों अपनी इच्छा के अनुसार जहाँ चाहें चले जाइये, अन्यथा हे निष्पाप देवताओ ! मैं आप लोंगो को शाप दे दूँगी; पति की भक्ति में तत्पर रहने वाली मैं महाराज शर्याति की पुत्री सुकन्या हूँ ॥ ५-६ ॥ व्यासजी बोले — [हे राजन् ! ] सुकन्या की यह बात सुनकर अश्विनीकुमार बहुत विस्मय में पड़ गये । उसके बाद मुनि च्यवन के भय से सशंकित उन दोनों ने सुकन्या से कहा — ॥ ७ ॥ सुन्दर अंगोंवाली हे राजपुत्रि ! तुम्हारे इस पतिधर्म से हम दोनों परम प्रसन्न हैं । हे सुश्रोणि ! तुम वर माँगो, हम तुम्हारे कल्याणार्थ अवश्य देंगे ॥ ८ ॥ हे प्रमदे ! तुम यह निश्चय जान लो कि हम देवताओं के श्रेष्ठ वैद्य हैं। हम [ अपनी चिकित्सा से] तुम्हारे पतिको रूपवान् तथा युवा बना देंगे। हे चातुर्यपण्डिते ! जब हम ऐसा कर दें, तब तुम समान रूप और देह वाले हम तीनों में से किसी एक को पति चुन लेना ॥ ९-१० ॥ तब उन दोनों की बात सुनकर सुकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ । अपने पति के पास जाकर वह सुकन्या अश्विनीकुमारों के द्वारा कही गयी वह अद्भुत बात उनसे कहने लगी ॥ ११ ॥ सुकन्या बोली — हे स्वामिन्! आपके आश्रम में सूर्यपुत्र दोनों अश्विनीकुमार आये हुए हैं । हे भृगुनन्दन ! दिव्य देह वाले उन देवताओं को मैंने स्वयं देखा है ॥ १२ ॥ मुझ सर्वांगसुन्दरी को देखते ही वे दोनों कामासक्त हो गये। हे स्वामिन्! उन्होंने मुझसे यह बात कही — ‘हम लोग तुम्हारे पति इन च्यवनमुनि को निश्चय ही नवयौवन से सम्पन्न, दिव्य शरीर वाला तथा नेत्रों से युक्त बना देंगे, इसमें यह एक शर्त है, उसे तुम मुझसे सुन लो। जब हम तुम्हारे पति को अपने समान अंग तथा रूपवाला बना दें, तब तुम्हें हम तीनों में से किसी एक को पति चुन लेना होगा ‘ ॥ १३–१५ ॥ उनकी यह बात सुनकर आपसे इस अद्भुत कार्य के विषय में पूछने के लिये मैं यहाँ आयी हूँ । हे साधो ! अब आप मुझे बतायें कि इस संकटमय कार्य के आ जाने पर मुझे क्या करना चाहिये ? देवताओं की माया बड़ी दुर्बोध होती है । उन दोनों के इस छद्म को मैं नहीं समझ पा रही हूँ । अतः हे सर्वज्ञ ! अब आप ही मुझे आदेश दीजिये, आपकी जो इच्छा होगी, मैं वही करूँगी ॥ १६-१७ ॥ च्यवन बोले — हे कान्ते ! हे सुव्रते ! मेरी आज्ञा के अनुसार तुम देवताओं के श्रेष्ठ चिकित्सक अश्विनी कुमारों के समीप जाओ और उन्हें मेरे पास शीघ्र ले आओ। तुम उनकी शर्त तुरंत स्वीकार कर लो, इसमें किसी प्रकार का सोच-विचार नहीं करना चाहिये ॥ १८१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार च्यवनमुनि की आज्ञा पा जाने पर वह अश्विनीकुमारों के पास जाकर उनसे बोली — हे देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमारो ! आप लोग प्रतिज्ञा के अनुसार शीघ्र ही कार्य करें ॥ १९१/२ ॥ सुकन्या की बात सुनकर वे अश्विनीकुमार वहाँ आये और राजकुमारी से बोले — ‘ तुम्हारे पति इस सरोवर में प्रवेश करें।’ तब रूप प्राप्ति के लिये च्यवनमुनि शीघ्रतापूर्वक सरोवर में प्रविष्ट हो गये । उनके बाद में दोनों अश्विनीकुमारों ने भी उस उत्तम सरोवर में प्रवेश किया ॥ २०-२११/२ ॥ तदनन्तर वे तीनों तुरंत ही उस सरोवर से बाहर निकल आये। उन तीनों का शरीर दिव्य था, वे समान रूपवाले थे और एकसमान युवा बन गये थे । शरीर के सभी समान अंगोंवाले वे तीनों युवक दिव्य कुण्डलों तथा आभूषणों से सुशोभित थे ॥ २२-२३ ॥ वे सभी एक साथ बोल उठे — ‘ हे वरवर्णिनि ! हे भद्रे ! हे अमलानने ! हम लोगों में जिसे तुम चाहती हो, उसका पतिरूप में वरण कर लो। हे वरानने ! जिसमें तुम्हारी सबसे अधिक प्रीति हो, उसे पतिरूप में चुन लो ॥ २४१/२ ॥ व्यासजी बोले — देवकुमारों के समान प्रतीत होने वाले उन तीनों को रूप, अवस्था, स्वर, वेषभूषा तथा आकृति में पूर्णत: एक जैसा देखकर वह सुकन्या बड़े असमंजस में पड़ गयी ॥ २५-२६ ॥ वह अपने पति [च्यवनमुनि ] – को ठीक-ठीक पहचान नहीं पा रही थी, अतः व्याकुल होकर सोचने लगी — मैं क्या करूँ ? ये तीनों देवकुमार एक जैसे हैं । अतः मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ कि इनमें से मैं पतिरूप में किसका वरण करूँ? मैं तो बड़े संशय की स्थिति में पड़ गयी हूँ। दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों ) — ने यह विचित्र इन्द्रजाल यहाँ रच डाला है; इस स्थिति में मुझे अब क्या करना चाहिये ? मेरे लिये तो यह मृत्यु ही उपस्थित हो गयी है। मैं अपने पति को छोड़कर किसी दूसरे को कभी नहीं चुन सकती, चाहे वह कोई परम सुन्दर देवता ही क्यों न हो — यह मेरा दृढ़ विचार है ॥ २७–२९१/२ ॥ इस प्रकार मन में भलीभाँति सोचकर क्षीण कटि प्रदेशवाली वह सुकन्या कल्याणस्वरूपिणी पराम्बा भगवती भुवनेश्वरी के ध्यान में लीन हो गयी और उनकी स्तुति करने लगी ॥ ३०१/२ ॥ सुकन्या बोली — हे जगदम्बे ! मैं महान् कष्ट से पीड़ित होकर आपकी शरण में आयी हूँ। आप मेरे पातिव्रत्य धर्म की रक्षा करें; मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ । हे पद्मोद्भवे ! आपको नमस्कार है । हे शंकरप्रिये ! हे देवि ! आपको नमस्कार है । हे विष्णु की प्रिया लक्ष्मी ! हे वेदमाता सरस्वती ! आपको नमस्कार है ॥ ३१-३२१/२ ॥ आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् का सृजन किया है। आप ही सावधान होकर जगत् का पालन करती हैं और [ प्रलयकाल में ] लोक- शान्ति के लिये इसे अपने में लीन भी कर लेती हैं ॥ ३३१/२ ॥ आप ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की सुसम्मत जननी हैं। आप अज्ञानियों को बुद्धि तथा ज्ञानियों को सदा मोक्ष प्रदान करने वाली हैं । परम पुरुष के लिये प्रिय दर्शनवाली आप आज्ञामयी तथा पूर्ण प्रकृतिस्वरूपिणी हैं। आप श्रेष्ठ विचार वाले प्राणियों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं । आप ही अज्ञानियों को दुःख देती हैं तथा सात्त्विक प्राणियों के सुख का साधन भी आप ही हैं । हे माता ! आप ही योगिजनों को सिद्धि, विजय तथा कीर्ति भी प्रदान करती हैं ॥ ३४-३६१/२ ॥ हे माता! महान् असमंजस में पड़ी हुई मैं इस समय आपकी शरण में आयी हूँ। आप मेरे पति को दिखाने की कृपा करें। मैं इस समय शोक-सागर में डूबी हुई हूँ; क्योंकि इन दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों ) – ने अत्यन्त कपटपूर्ण चरित्र उपस्थित कर दिया है । मेरी बुद्धि तो कुण्ठित हो गयी है। मैं इनमें किसका वरण करूँ ? हे सर्वज्ञे ! मेरे पातिव्रत्य पर सम्यक् ध्यान देकर आप मेरे पति का दर्शन करा दें ॥ ३७-३८१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार सुकन्या के स्तुति करने पर भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने शीघ्र ही सुख का उदय करने वाला ज्ञान उसके हृदय में उत्पन्न कर दिया ॥ ३९१/२ ॥ तदनन्तर [ अपने पति को पा लेने का ] मन में निश्चय करके साध्वी सुकन्या ने समान रूप तथा अवस्था वाले उन तीनों पर भलीभाँति दृष्टिपात करके अपने पति का वरण कर लिया ॥ ४०१/२ ॥ इस प्रकार सुकन्या के द्वारा च्यवनमुनि के वरण कर लिये जाने पर वे दोनों देवता परम सन्तुष्ट हुए और सुकन्या का सतीधर्म देखकर उन्होंने उसे अति प्रसन्नतापूर्वक वर प्रदान किया ॥ ४११/२ ॥ तत्पश्चात् भगवती की कृपा से प्रसन्नता को प्राप्त वे दोनों देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमार मुनि से आज्ञा लेकर तुरंत वहाँ से प्रस्थान करने को उद्यत हो गये ॥ ४२ ॥ सुन्दर रूप, नेत्र, यौवन तथा अपनी भार्या को पाकर च्यवनमुनि अत्यन्त हर्षित हुए। उन महातेजस्वी मुनि ने अश्विनीकुमारों से यह वचन कहा — हे देववरो ! आप दोनों ने मेरा यह महान् उपकार किया है। क्या कहूँ, ऐसा हो जाने से इस सुन्दर संसार में अब मुझे परम सुख मिल गया है। इसके पूर्व मुझ अन्धे, अत्यन्त वृद्ध तथा भोग-सामर्थ्य से हीन पुरुष को ऐसी सुन्दर केशपाश वाली भार्या पाकर भी इस वन में सदा दुःख-ही-दुःख रहता था ॥ ४३–४५१/२ ॥ आप लोगों ने मुझे नेत्र, युवावस्था तथा अद्भुत रूप प्रदान किया है, अतः मैं भी आपका कुछ उपकार करूँ; इसके लिये आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ । हे देवताओ ! जो मनुष्य उपकार करने वाले मित्र का किसी प्रकार का उपकार नहीं करता, उस मनुष्य को धिक्कार है। ऐसा मनुष्य पृथ्वीलोक में अपने उपकारी मित्र का ऋणी होता है ॥ ४६-४७१/२ ॥ अतएव हे देवेश्वरो ! मुझे नूतन शरीर प्रदान करने के आपके ऋण से मुक्ति के लिये मैं इस समय आपकी कोई अभिलषित वस्तु आपको प्रदान करना चाहता हूँ। मैं आप दोनों को वह अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा, जो देवताओं तथा दानवों के लिये भी अलभ्य है। मैं आप लोगों के इस उत्तम कार्य से बहुत प्रसन्न हूँ; अब आप लोग अपना मनोरथ व्यक्त करें ॥ ४८-४९१/२ ॥ च्यवनमुनि का वचन सुनकर परस्पर विचार- विमर्श करके वे दोनों अश्विनीकुमार सुकन्या के साथ बैठे हुए उन मुनिश्रेष्ठ से कहने लगे — हे मुने! पिताजी की कृपा से हमारा सारा मनोरथ पूर्ण हो चुका है, किंतु देवताओं के साथ सम्मिलित होकर सोमरस पीने की हमारी इच्छा शेष रह गयी है । एक बार सुमेरुपर्वत पर ब्रह्माजी के महायज्ञ में इन्द्रदेव ने हम दोनों को ‘वैद्य’ कहकर सोमपात्र ग्रहण करने से रोक दिया था। अतएव हे धर्मज्ञ ! हे तापस! यदि आप समर्थ हों तो हमारा यह कार्य कर दीजिये। हे ब्रह्मन् ! हमारी इस प्रिय इच्छा पर विचार करके आप हम दोनों को सोमपान का अधिकारी बना दीजिये । सोमपान की अभिलाषा हमारे लिये अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है, वह आपसे शान्त हो जायगी ॥ ५०-५४१/२ ॥ उन दोनों की यह बात सुनकर च्यवनमुनि ने मधुर वाणी में कहा — आप दोनों ने मुझ वृद्ध को रूपवान् तथा युवावस्था से सम्पन्न बना दिया है और [ आपके अनुग्रह से ] मैंने साध्वी भार्या भी प्राप्त कर ली है । अतः मैं अमित-तेजस्वी राजा शर्याति के विशाल यज्ञ में देवराज इन्द्र के समक्ष ही आप दोनों को प्रसन्नतापूर्वक सोमपान का अधिकारी बना दूंगा; मैं यह सत्य कह रहा हूँ। यह बात सुनकर अश्विनीकुमारों ने हर्षपूर्वक स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया और च्यवनमुनि भी सुकन्या को साथ लेकर अपने आश्रम पर चले गये ॥ ५५–५९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘अश्विनीकुमारों के लिये सोमपान हेतु च्यवन की प्रतिज्ञा का वर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Content is available only for registered users. 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