May 6, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-08 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-अष्टमोऽध्यायः आठवाँ अध्याय राजा रेवत की कथा इक्ष्वाकुवंशवर्णनम् जनमेजय बोले — हे ब्रह्मन् ! मेरे मन में यह महान् संशय हो रहा है कि स्वयं राजा रेवत अपनी कन्या रेवती को साथ लेकर ब्रह्मलोक चले गये। मैंने पूर्वकाल में ब्राह्मणों से कथा-प्रसंग में यह अनेक बार सुना है कि ब्रह्म को जानने वाला शान्त स्वभाव ब्राह्मण ही ब्रह्मलोक प्राप्त कर सकता है ॥ १-२ ॥ राजा रेवत अत्यन्त दुष्प्राप्य सत्यलोक में स्वयं अपनी पुत्री रेवती के साथ पृथ्वीलोक से कैसे पहुँच गये — इसी बात का मुझे सन्देह है । सभी शास्त्रों में यही निर्णय विद्यमान है कि मृत व्यक्ति ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है; (इस मानव देह से ब्रह्मलोक में जाना कैसे सम्भव है?) और स्वर्ग से पुनः इस मनुष्य लोक में पहुँच जाना कैसे हो सकता है ? हे विद्वन् ! महाराज रेवत जिस तरह ब्रह्माजी से अपनी कन्या के लिये वर पूछने की इच्छा से वहाँ गये थे – इसे बताकर इस समय मेरे इस सन्देह को दूर करने की कृपा करें ॥ ३–५ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन्! सुमेरुपर्वत के शिखर पर ही इन्द्रलोक, वह्निलोक, संयमिनीपुरी, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ — ये सभी लोक प्रतिष्ठित हैं । वैकुण्ठ को ही वैष्णव पद कहा जाता है ॥ ६-७ ॥ जैसे धनुष धारण करने वाले कुन्तीपुत्र अर्जुन इन्द्रलोक गये थे और वे इसी मनुष्य-शरीर से उस इन्द्रलोक में पाँच वर्ष तक इन्द्र के सान्निध्य में रहे, उसी प्रकार ककुत्स्थ आदि अन्य प्रमुख राजा भी स्वर्गलोक जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त महाबलशाली दैत्य भी इन्द्रलोक को जीतकर वहाँ पहुँचकर अपनी इच्छा के अनुसार रह चुके हैं ॥ ८–१० ॥ पूर्वकाल में महाराज महाभिष भी ब्रह्मलोक गये थे। उन नरेश ने परम सुन्दरी गंगाजी को आते देखा। हे राजन् ! उस समय दैवयोग से वायु ने उनके वस्त्र उड़ा दिये, जिससे राजा ने उन सुन्दरी गंगा को कुछ अनावृत अवस्था में देख लिया । इस पर काम से व्यथित राजा मुसकराने लगे और गंगाजी भी हँस पड़ीं। उस समय ब्रह्माजी ने उन दोनों को देख लिया और शाप दे दिया, जिससे उन दोनों को पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा। दैत्यों और दानवों से पीड़ित सभी देवताओं ने भी वैकुण्ठधाम में जाकर कमलाकान्त जगत्पति भगवान् विष्णु की स्तुति की थी ॥ ११–१४ ॥ अतएव हे नृपश्रेष्ठ ! इस विषय में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये । हे नराधिप ! पुण्यात्मा, तपस्वी और महापुरुष सभी लोकों में जा सकते हैं । हे नरेन्द्र ! हे राजन् ! जैसे पवित्र सदाचरण ही ब्रह्मादि लोकों में जाने का कारण है, वैसे ही पवित्र मनवाले यजमान लोग भी यज्ञ के प्रभाव से वहाँ पहुँच जाते हैं ॥ १५-१६१/२ ॥ जनमेजय बोले — महाराज रेवत सुन्दर नेत्रों वाली अपनी पुत्री रेवती को साथ में लेकर ब्रह्मलोक पहुँच गये; उसके बाद उन्होंने क्या किया, ब्रह्माजी ने उन्हें क्या आदेश दिया और उन रेवत ने अपनी पुत्री किसे सौंपी ? हे ब्रह्मन् ! अब आप इन सारी बातों को विस्तारपूर्वक मुझको बतलाइये ॥ १७-१८१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे महीपाल ! सुनिये, जब राजा रेवत अपनी पुत्री के वर के विषय में पूछने के लिये ब्रह्मलोक पहुँचे, उस समय गन्धर्व लोगों का संगीत हो रहा था। वे अपनी कन्या के साथ कुछ देर तक सभा में रुककर संगीत सुनते हुए परम तृप्त हुए । पुनः गन्धर्वों का संगीत समाप्त हो जाने पर परमेश्वर ( ब्रह्माजी ) – को प्रणाम करके उन्हें अपनी कन्या रेवती को दिखाकर अपना आशय प्रकट कर दिया ॥ १९-२११/२ ॥ राजा बोले — हे देवेश ! यह कन्या मेरी पुत्री है, मैं इसे किसको प्रदान करूँ – यही पूछने के लिये आपके पास आया हूँ । अतः हे ब्रह्मन् ! आप इसके योग्य वर बतायें। मैंने उत्तम कुल में उत्पन्न बहुत से राजकुमारों को देखा है, किंतु किसी में भी मेरा चंचल मन स्थिर नहीं होता है । इसलिये हे देवदेवेश ! [ वर के विषय में] आपसे पूछने के लिये यहाँ आया हूँ । हे सर्वज्ञ! आप किसी योग्य राजकुमार वर के विषय में बताइये। ऐसे राजकुमार का निर्देश कीजिये; जो कुलीन, बलवान्, समस्त लक्षणों से सम्पन्न, दानी तथा धर्मपरायण हो ॥ २२–२५१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! तब राजा की बात सुनकर जगत् की रचना करने वाले ब्रह्माजी कालपर्यय (ब्रह्मलोक के थोड़े समय में पृथ्वीलोक का बड़ा लम्बा समय बीता हुआ) देखकर हँस करके उनसे कहने लगे — ॥ २६१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे राजन् ! आपने अपने हृदय में जिन राजकुमारों को वर के रूप में समझ रखा था, वे सब-के-सब पुत्र-पौत्र तथा बन्धुओंसमेत काल- कवलित हो चुके हैं। इस समय वहाँ सत्ताईसवाँ द्वापर चल रहा है। आपके सभी वंशज मृत हो चुके हैं और दैत्यों ने आपकी पुरी भी विनष्ट कर डाली है। इस समय वहाँ चन्द्रवंशी राजा शासन कर रहे हैं । अब मथुरा नाम से प्रसिद्ध उस पुरी के अधिपति के रूप में उग्रसेन विख्यात हैं । ययातिवंश में उत्पन्न वे उग्रसेन सम्पूर्ण मथुरामण्डल के नरेश हैं। उन महाराज उग्रसेन का एक कंस नामक पुत्र हुआ, जो महान् बलशाली तथा देवताओं से द्वेष रखने वाला था । राजाओं में सबसे अधिक मदोन्मत्त उस दानववंशी कंस ने अपने पिता को भी कारागार में डाल दिया और वह स्वयं राज्य करने लगा ॥ २७–३११/२ ॥ तब पृथ्वी असह्य भा रसे व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गयी । श्रेष्ठ देवगणों ने ऐसा कहा है कि दुष्ट राजाओं तथा उनके सैनिकों के भार से पृथ्वी के अति व्याकुल होने पर ही भगवान् का अंशावतार होता है। अतः उस समय कमल के समान नेत्रवाले वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण देवीस्वरूपा देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए, वे साक्षात् नारायणमुनि ही थे ॥ ३२-३४ ॥ उन सनातन धर्मपुत्र नरसखा नारायणमुनि ने बदरिकाश्रम में गंगाजी के तट पर अत्यन्त कठोर तपस्या की थी। वे ही यदुकुल में अवतार लेकर ‘वासुदेव’ नाम से विख्यात हुए। हे महाभाग ! उन्हीं वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण ने पापी कंस का संहार किया और इस प्रकार उस दुष्ट राजा को मारकर उन्होंने [ उसके पिता] उग्रसेन को सम्पूर्ण राज्य दे दिया ॥ ३५-३६१/२ ॥ कंस का श्वसुर जरासन्ध महान् बलशाली तथा पापी था। वह अत्यन्त क्रोधित हो मथुरा आकर श्रीकृष्ण के साथ आवेगपूर्वक युद्ध करने लगा । अन्त में श्रीकृष्ण ने उस महाबली जरासन्ध को युद्ध में जीत लिया। तब उसने सेनासहित कालयवन को [ कृष्ण के साथ] युद्ध करने के लिये भेजा ॥ ३७-३८१/२ ॥ महापराक्रमी यवनाधिप कालयवन को सेना सहित आता सुनकर (कृष्ण मथुरा छोड़कर द्वारका चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ने कुशल शिल्पियों के द्वारा बड़े-बड़े दुर्ग तथा बाजारों से सुशोभित उस नष्ट-भ्रष्ट पुरी का पुनः निर्माण कराया, उस पुरी का जीर्णोद्धार करके प्रतापी श्रीकृष्ण ने उग्रसेन को वहाँ का अपना आज्ञाकारी राजा बनाया।) तत्पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने उस द्वारकापुरी में यादवों को भलीभाँति बसाया । इस समय वे वासुदेव अपने बन्धु – बान्धवों के साथ उस द्वारका में रह रहे हैं ॥ ३९-४० ॥ उनके बड़े भाई बलराम हैं। हल तथा मूसल को आयुध के रूप में धारण करने वाले वे शूरवीर बलराम शेष के अंशावतार कहे जाते हैं। वे ही आपकी कन्या के लिये उपयुक्त वर हैं ॥ ४१ ॥ अब आप वैवाहिक विधि के अनुसार शीघ्र ही संकर्षण बलराम को कमल के समान नेत्रोंवाली अपनी कन्या रेवती सौंप दीजिये। हे नृपश्रेष्ठ ! उन्हें कन्या प्रदानकर आप तप करने के लिये देवोद्यान बदरिकाश्रम चले जाइये; क्योंकि तप मनुष्यों की सारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर देता है और उनके अन्तःकरण को पवित्र बना देता है ॥ ४२-४३ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! पद्मयोनि ब्रह्माजी से यह आदेश पाकर राजा रेवत अपनी कन्या के साथ शीघ्र ही द्वारका चले गये । वहाँ उन्होंने बलरामजी को शुभ लक्षणों से सम्पन्न अपनी पुत्री सौंप दी। उसके बाद सुदीर्घ काल तक कठोर तपस्या करके वे राजा रेवत नदी के तटपर अपना शरीर त्यागकर देवलोक चले गये ॥ ४४-४५१/२ ॥ राजा बोले — हे भगवन्! आपने यह तो महान् आश्चर्यजनक बात कही कि राजा रेवत कन्या के योग्य वर जानने के उद्देश्य से ब्रह्मलोक गये और उनके वहाँ ठहरे हुए एक सौ आठ युग बीत गये, तब तक वह कन्या तथा वे राजा वृद्ध क्यों नहीं हुए अथवा इतने दीर्घ समय की पूर्ण आयु ही उन्हें कैसे प्राप्त हुई? ॥ ४६–४८ ॥ व्यासजी बोले — हे निष्पाप जनमेजय ! ब्रह्मलोक में भूख, प्यास, मृत्यु, भय, वृद्धावस्था तथा ग्लानि — इनमें कोई भी विकार कभी भी उत्पन्न नहीं होता ॥ ४९ ॥ जब राजा रेवत वहाँ से सुमेरु पर्वत पर चले गये, तब राक्षसों ने शर्याति-वंश की संततियों को नष्ट कर डाला। वहाँ के सभी लोग भयभीत होकर कुशस्थली छोड़कर इधर-उधर भाग गये ॥ ५० ॥ कुछ समय के बाद क्षुव नामक मनु से एक परम ओजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । इक्ष्वाकु नाम से विख्यात वे ही सूर्यवंश के प्रवर्तक माने जाते हैं ॥ ५१ ॥ नारदजी के उपदेश से और उनसे श्रेष्ठ दीक्षा प्राप्त करके उन्होंने वंशवृद्धि के उद्देश्य से भगवती के ध्यान में निरन्तर संलग्न रहकर कठोर तपस्या की ॥ ५२ ॥ हे राजन्! ऐसा सुना गया है कि उन इक्ष्वाकु के एक सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े विकुक्षि थे, जो बल तथा पराक्रम से सम्पन्न थे ॥ ५३ ॥ वे इक्ष्वाकु राजा के रूप में अयोध्या में निवास करते थे — यह बात प्रसिद्ध है । उनके शकुनि आदि पचास परम बलवान् पुत्र उत्तरापथ नामक देश के रक्षक नियुक्त किये गये और हे राजन् ! उनके जो अड़तालीस पुत्र थे, वे सब उन महात्मा इक्ष्वाकु द्वारा दक्षिणी देशों की रक्षा के लिये आदेशित किये गये। इनके अतिरिक्त अन्य दो पुत्र राजा इक्ष्वाकु की सेवा के लिये उनके पास रहने लगे ॥ ५४–५६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘इक्ष्वाकुवंशवर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ Content is available only for registered users. 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