श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-10
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-दशमोऽध्यायः
दसवाँ अध्याय
सूर्यवंशी राजा अरुण द्वारा राजकुमार सत्यव्रत का त्याग, सत्यव्रत का वन में भगवती जगदम्बा के मन्त्र – जप में रत होना
सत्यव्रताख्यानवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे जनमेजय !] वे महाराज मान्धाता सत्यप्रतिज्ञ तथा चक्रवर्ती नरेश हुए। उन राजाधिराज ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था ॥ १ ॥ उनके भय से त्रस्त होकर सभी दस्यु ( लुटेरे ) पर्वतों की गुफाओं में छिप गये थे । इसी कारण इन्द्र ने इन्हें ‘ त्रसदस्यु’ इस नाम से विख्यात कर दिया ॥ २ ॥ महाराज शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती उनकी भार्या थीं; जो पतिव्रता, रूपवती तथा सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न थीं ॥ ३ ॥ हे राजन् ! मान्धाता ने उनसे दो पुत्र उत्पन्न किये। उनमें एक पुत्र पुरुकुत्स तथा दूसरा पुत्र मुचुकुन्द नाम से विख्यात हुआ ॥ ४ ॥ उसके बाद पुरुकुत्स से अरण्य नामक एक पुत्र हुआ। वे परम धार्मिक तथा पितृभक्त थे। उनके पुत्र बृहदश्व थे । उन बृहदश्व के भी हर्यश्व नामक पुत्र हुए, जो परम धर्मिष्ठ तथा परमार्थज्ञानी थे । उनके पुत्र त्रिधन्वा हुए और त्रिधन्वा के अरुण नामक पुत्र हुए। अरुण का पुत्र सत्यव्रत नाम से प्रसिद्ध हुआ, वह परम ऐश्वर्य से सम्पन्न था; किंतु वह स्वेच्छाचारी, कामी, मन्दबुद्धि तथा अत्यन्त लोभी निकला ॥ ५–७ ॥

एक समयकी बात है — उस पापी ने कामासक्त होकर एक विप्र की भार्या का अपहरण कर लिया । जब उस विप्र का विवाह कन्या के साथ हो रहा था, उसी समय विवाह-मण्डप में ही उस राजकुमार ने यह विघ्न उपस्थित किया था ॥ ८ ॥ हे राजन् ! तत्पश्चात् सभी ब्राह्मण एक साथ राजा अरुण के पास पहुँचे और अत्यधिक दु:खित होकर बार-बार कहने लगे — ‘हाय, हमलोग मारे गये’ ॥ ९ ॥

तब राजा अरुण ने दुःख से पीड़ित उन नगरवासी ब्राह्मणों से पूछा — हे विप्रगण ! मेरे पुत्र ने आप लोगों का क्या अनिष्ट किया है ? ॥ १० ॥

तब राजा की यह वाणी सुनकर विप्रगण विपुल आशीर्वाद देते हुए उनसे विनम्रतापूर्वक कहने लगे ॥ ११ ॥

ब्राह्मण बोले —  बलशालियों में श्रेष्ठ हे राजन् ! आज आपके पुत्र सत्यव्रत ने विवाहमण्डप से एक ब्राह्मण की विवाहिता कन्या का बलपूर्वक हरण कर लिया है ॥ १२ ॥

व्यासजी बोले — [ हे महाराज जनमेजय ! ] उनकी तथ्यपूर्ण बात सुनकर परम धार्मिक राजा अरुण ने पुत्र से कहा —  इस कुकर्म के कारण तुम्हारा ‘सत्यव्रत’ नाम व्यर्थ हो गया है। हे दुर्बुद्धि ! दुराचारी ! तुम मेरे घर से दूर चले जाओ । अरे पापी ! अब तुम मेरे राज्य में ठहरने के योग्य बिलकुल ही नहीं रह गये हो ॥ १३-१४ ॥

अपने पिता को कुपित देखकर वह बार-बार कहने लगा कि मैं कहाँ जाऊँ ? तब राजा अरुण ने उससे कहा कि तुम चाण्डालों के साथ रहो । विप्र की भार्या का अपहरण करके तुमने चाण्डाल का कर्म किया है, इसलिये अब तुम उन्हीं के साथ संसर्ग करते हुए स्वेच्छापूर्वक रहो । अरे कुलकलंकी ! तुझ जैसे पुत्र से मैं पुत्रवान् नहीं बनना चाहता । अरे दुष्ट ! तुमने मेरी सारी कीर्ति नष्ट कर दी है; इसलिये जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहाँ चले जाओ ॥ १५–१७ ॥

कोप से युक्त अपने महात्मा पिता की बात सुनकर सत्यव्रत उस नगर से तत्काल निकल गया और चाण्डालों के पास चला गया। उस समय ऐश्वर्यसम्पन्न तथा करुणालय सत्यव्रत कवच पहनकर तथा धनुष-बाण लेकर उन चाण्डालों के साथ रहने लगा ॥ १८-१९ ॥ जब महात्मा राजा अरुण ने कुपित होकर अपने पुत्र सत्यव्रत को निष्कासित किया था, तब गुरु वसिष्ठ ने उन्हें इस कार्य के लिये प्रेरित किया था । इसलिये राजकुमार सत्यव्रत निष्कासन से न रोकने वाले उन धर्मशास्त्र के ज्ञाता वसिष्ठजी पर कुपित था ॥ २०-२१ ॥

एक समय किसी प्रसंगवश उस सत्यव्रत के पिता राजा अरुण अयोध्यापुरी छोड़कर पुत्र की कल्याण-कामना से तप करने के लिये वन में चले गये ॥ २२ ॥ हे महाराज ! उस समय उस अधर्म के कारण इन्द्र ने उस राज्य में बारह वर्षों तक बिलकुल जल नहीं बरसाया ॥ २३ ॥ हे राजन्! उस समय मुनि विश्वामित्र अपनी पत्नी को उस राज्य में छोड़कर स्वयं कौशिकी नदी के तट पर कठोर तपस्या करने लगे थे ॥ २४ ॥ विश्वामित्र की सुन्दर रूपवाली भार्या उस अकाल के समय कुटुम्ब के भरण-पोषण की समस्या के कारण दुःखित होकर चिन्ता से व्याकुल हो उठीं ॥ २५ ॥ भूख से पीड़ित होकर रोते- कलपते तथा नीवार अन्न माँगते हुए अपने पुत्रों को देख-देखकर उस पतिव्रता को महान् कष्ट होता था ॥ २६ ॥

भूख से आक्रान्त पुत्रों को देखकर दुःख से व्याकुल हो वे सोचने लगीं कि इस समय नरेश भी नगर में नहीं हैं; अतः अब मैं किससे माँगूँ अथवा अन्य कौन-सा उपाय करूँ ॥ २७ ॥ यहाँ मेरे पुत्रों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। मेरे पतिदेव भी इस समय मेरे पास नहीं हैं। ये बालक बहुत रो रहे हैं, अब तो मेरे जीवन को धिक्कार है ॥ २८ ॥ मैं धन रहित हूँ — ऐसा जानते हुए भी मुझे छोड़कर पतिदेव तप करने के लिये चले गये । समर्थ होकर भी वे इस बात को नहीं समझते कि धन के अभाव में मैं यह कष्ट भोग रही हूँ ॥ २९ ॥ पति की अनुपस्थिति में अब मैं किसकी सहायता से बालकों का भरण-पोषण करूँ । अब तो भूख से तड़प-तड़पकर मेरे सभी पुत्र मर जायँगे । अतः अब एक यह उपाय मुझे सूझ रहा है कि इनमें से एक पुत्र को बेचकर जो कुछ भी धन प्राप्त हो, उस धन से अन्य पुत्रों का पालन- -पोषण करूँ ॥ ३०-३१ ॥ इस प्रकार भूख से सभी पुत्रों को मार डालना मेरे विचार से उचित नहीं है । अतः इस संकट की स्थिति से निबटने के लिये मैं एक पुत्र को बेचूँगी ॥ ३२ ॥

मन-ही-मन इस तरह का संकल्प करके अपने हृदय को कठोर बनाकर वह साध्वी एक पुत्र के गले में कुश की रस्सी बाँधकर घर से निकल पड़ी ॥ ३३ ॥ जब वह मुनि-पत्नी शेष पुत्रों के रक्षार्थ अपने औरस मझले पुत्र के गले में रस्सी बाँधकर उसे लेकर अपने घर से निकली, तभी [ उसके कुछ दूर जाने पर ] राजकुमार सत्यव्रत ने उस शोक- सन्तप्त तथा घबरायी हुई तपस्विनी को देख लिया और उससे पूछा — हे शोभने ! आप क्या करना चाहती हो ? हे सर्वांगसुन्दरि ! आप कौन हैं और इस रोते हुए बालक के गले में रस्सी बाँधकर किसलिये ले जा रही हैं ? यह सब आप मेरे समक्ष सच – सच बताइये ॥ ३४–३६ ॥

ऋषिपत्नी बोलीं — हे राजकुमार ! मैं ऋषि विश्वामित्र की पत्नी हूँ और यह मेरा पुत्र है । विषम संकट में पड़कर मैं अपने इस औरस पुत्र को बेचने के लिये जा रही हूँ । हे राजन् ! मेरे पास अन्न नहीं है और मेरे पति मुझे छोड़कर तपस्या करने के लिये कहीं चले गये हैं, अत: भूख से व्याकुल मैं अब अपने शेष पुत्रों के भरण-पोषण के निमित्त इसे बेचूँगी ॥ ३७-३८ ॥

राजा बोले — हे पतिव्रते! आप अपने पुत्र की रक्षा करें। जब तक आपके पति वन से यहाँ वापस नहीं आ जाते, तब तक मैं आपके भरण-पोषण का प्रबन्ध कर दे रहा हूँ। मैं आपके आश्रम के समीप वाले वृक्ष पर कुछ भोज्य-सामग्री प्रतिदिन बाँधकर चला जाया करूँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ३९-४० ॥

राजकुमार के यह कहने पर विश्वामित्र की भार्या अपने पुत्र के गले से रस्सी खोलकर अपने आश्रम को लौट गयीं ॥ ४१ ॥ गला बँधने के कारण उस बालक का नाम ‘गालव’ पड़ गया और वह महान् तपस्वी हुआ । अपने आश्रम में जाकर वे बालकों के साथ आनन्द- पूर्वक रहने लगीं ॥ ४२ ॥ राजकुमार सत्यव्रत भी आदर और दया से परिपूर्ण होकर मुनि विश्वामित्र की पत्नी का भरण- पोषण करने लगे। वे वन्य भोज्य पदार्थों को लाकर विश्वामित्र के तपोवन के समीप वाले वृक्ष पर बाँध दिया करते थे और ऋषिपत्नी प्रतिदिन उसे लाकर अपने पुत्रों को देती थी। वह उत्तम भोज्य पदार्थ प्राप्त करके उसे परम तृप्ति मिलती थी ॥ ४३-४५ ॥

राजा अरुण के तपस्या करने के लिये चले जाने के बाद महर्षि वसिष्ठ अयोध्यानगरी के सम्पूर्ण राज्य तथा अन्तःपुर की भलीभाँति रक्षा करने लगे ॥ ४६ ॥ धर्मात्मा सत्यव्रत भी पिता की आज्ञा का पालन करते हुए सदा नगर के बाहर ही रहते थे तथा वन में पशुओं का आखेट किया करते थे ॥ ४७ ॥ अकस्मात् एक समय राजकुमार सत्यव्रत किसी कारणवश महर्षि वसिष्ठ के प्रति अत्यधिक कुपित हो उठे और उनका यह कोप निरन्तर बढ़ता ही गया ॥ ४८ ॥

[ वे बार-बार यही सोचते थे कि ] जब मेरे पिता राजा अरुण मुझ धर्मपरायण तथा प्रिय पुत्र का त्याग कर रहे थे, उस समय मुनि वसिष्ठ ने उन्हें किस कारण से नहीं रोका ? ॥ ४९ ॥ सप्तपदी होने के अनन्तर ही विवाह के मन्त्रों की पूर्ण प्रतिष्ठा होती है । [ जब मैंने सप्तपदी के पहले ही कन्या का हरण कर लिया तो ] यह विवाहित विप्र- स्त्री का हरण हुआ ही नहीं यह सब जानते हुए भी धर्मात्मा वसिष्ठ ने उन्हें ऐसा करने से नहीं रोका ॥ ५० ॥

किसी दिन वन में आखेट के लिये गये सत्यव्रत को कोई भी मृग न मिलने पर वे घूमते-घूमते वन के मध्य में पहुँच गये। वहाँ पर उन्हें मुनि वसिष्ठ की दुधारू गौ दिखायी पड़ गयी। भूख से पीड़ित रहने तथा मुनि वसिष्ठ पर कुपित होने के कारण अज्ञानपूर्वक राजकुमार सत्यव्रत ने एक दस्यु की भाँति उसका वध कर डाला। ‘सत्यव्रत ने मेरी दुधारू गाय को मार डाला है’ – यह जानकारी होने पर मुनि वसिष्ठ ने कुपित होकर उससे कहा अरे दुरात्मन्! पिशाच की भाँति गाय का वध करके तुमने यह कैसा पाप कर डाला ! उन्होंने [शाप देते हुए] कहा ‘गोवध, विप्र भार्या के हरण और पिता के भयंकर कोप — इन तीनों के कारण तुम्हारे मस्तक पर तत्काल तीन गहरे शंकु (पाप – चिह्न) पड़ जायँ । अब सभी प्राणियों को अपना पैशाचिक रूप दिखलाते हुए तुम संसार में ‘त्रिशंकु’ नाम से प्रसिद्ध होओगे’ ॥ ५१–५६ ॥

व्यासजी बोले — [ हे जनमेजय !] तब मुनि वसिष्ठ से इस तरह शापग्रस्त होकर राजकुमार सत्यव्रत ने उसी आश्रम में रहते हुए कठोर तप आरम्भ कर दिया। किसी मुनि-पुत्र से श्रेष्ठ देवी-मन्त्र की दीक्षा प्राप्त करके परम कल्याणमयी प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा का ध्यान करते हुए वह सत्यव्रत उस मन्त्र का जप करने लगा ॥ ५७-५८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘सत्यव्रताख्यानवर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

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