May 7, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-11 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः ग्यारहवाँ अध्याय भगवती जगदम्बा की कृपा से सत्यव्रत का राज्याभिषेक और राजा अरुण द्वारा उन्हें नीतिशास्त्र की शिक्षा देना सत्यव्रताय राजनीत्युपदेशवर्णनम् जनमेजय बोले — हे महामते ! वसिष्ठजी द्वारा शापित वह राजकुमार त्रिशंकु उस शाप से किस प्रकार मुक्त हुआ, उसे मुझे बताइये ॥ १ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] इस प्रकार शापग्रस्त सत्यव्रत पिशाचत्व को प्राप्त हो गये । वे देवीभक्ति में संलग्न होकर उसी आश्रम में रहने लगे ॥ २ ॥ किसी समय राजा सत्यव्रत नवाक्षर मन्त्र का जप समाप्त करके हवन कराने के लिये ब्राह्मणों के पास जाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उनसे बोले — हे भूदेवगण! आप लोग मुझ शरणागत की प्रार्थना सुनिये । इस समय आप सभी लोग मेरे यज्ञ में ऋत्विक् होने की कृपा कीजिये । आप सब कृपालु तथा वेदवेत्ता विप्रगण मेरे कार्य की सिद्धि के लिये जप के दशांश से हवन-कर्म सम्पन्न करा दीजिये। हे ब्रह्मविदों में श्रेष्ठ विप्रगण! मेरा नाम सत्यव्रत है; मैं एक राजकुमार हूँ । मेरे सर्वविध सुख के लिये आप लोग मेरा यह कार्य सम्पन्न कर दें ॥ ३–६ ॥ यह सुनकर ब्राह्मणों ने उस राजकुमार से कहा — अपने गुरु से शापग्रस्त होकर इस समय तुम पिशाच बन गये हो, इसलिये वेदों पर अधिकार न रहने के कारण तुम यज्ञ करने के योग्य नहीं हो। तुम सभी लोकों में निन्द्य पैशाचिकता से ग्रस्त हो चुके हो ॥ ७-८ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] उनकी बात सुनकर राजा अत्यन्त दुःखित हुए । [ वे सोचने लगे —] मेरे जीवन को धिक्कार है, अब मैं वन में रहकर क्या करूँ ? पिता ने मेरा परित्याग कर दिया है, गुरु ने मुझे घोर शाप दे दिया है, राज्य से च्युत हो गया हूँ और पैशाचिकता से ग्रस्त हो चुका हूँ, तो ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ? ॥ ९-१० ॥ तत्पश्चात् उस राजकुमा ने लकड़ियों से बहुत बड़ी चिता तैयार करके उसमें प्रवेश करने का विचार करते हुए भगवती चण्डिका का स्मरण किया ॥ ११ ॥ भगवती महामाया का स्मरण करके उसने चिता प्रज्वलित की और स्नान करके उसमें प्रविष्ट होने के लिये दोनों हाथ जोड़कर चिता के सामने खड़ा हो गया ॥ १२ ॥ राजकुमार सत्यव्रत मरने हेतु उद्यत हैं — ऐसा जानकर भगवती जगदम्बा उनके सामने आकाश में प्रत्यक्ष स्थित हो गयीं । हे महाराज ! सिंह पर आरूढ़ वे देवी राजकुमार को दर्शन प्रदान करके मेघ के समान गम्भीर वाणी में उनसे कहने लगीं ॥ १३-१४ ॥ देवी बोलीं — हे साधो ! आप यह दुष्प्रयास क्यों कर रहे हैं ? इस तरह अग्नि में देहत्याग मत कीजिये। हे महाभाग ! आप स्वस्थचित्त हो जाइये । आपके वृद्ध पिता आपको राज्य सौंपकर तपस्या के लिये वन में जानेवाले हैं । हे वीर ! शोक का त्याग कीजिये। हे राजन् ! आपके पिता के मन्त्रीगण आपको ले जाने के लिये परसों आयेंगे। मेरी कृपा के प्रभाव से आपके पिताजी राजसिंहासन पर आपका अभिषेक करके कामना पर विजय प्राप्तकर ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थान करेंगे; यह सुनिश्चित है ॥ १५-१७१/२ ॥ व्यासजी बोले — राजकुमार से ऐसा कहकर देवी वहीं पर अन्तर्धान हो गयीं । तब राजकुमार सत्यव्रत ने चिता में जलकर मरने का विचार छोड़ दिया ॥ १८१/२ ॥ तत्पश्चात् महात्मा नारदजी ने अयोध्या में आकर आरम्भ से लेकर सत्यव्रत का सारा वृत्तान्त राजा अरुण से कह दिया ॥ १९१/२ ॥ अपने पुत्र की उस प्रकार की जलकर मरने की चेष्टा सुनकर राजा अत्यन्त दुःखीचित्त होकर तरह- तरह की बात सोचने लगे ॥ २०१/२ ॥ पुत्र के शोक में निमग्न धर्मात्मा राजा अरुण ने मन्त्रियों से कहा — आप लोग मेरे पुत्र के द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण चेष्टा के विषय में जान गये हैं। मैंने अपने बुद्धिमान् पुत्र सत्यव्रत का वन में त्याग कर दिया था। परमार्थ का ज्ञान रखने वाला वह पुत्र यद्यपि राज्य का अधिकारी था, फिर भी मेरी आज्ञा से वह तत्काल वन चला गया । मेरा वह क्षमाशील पुत्र धनहीन होकर अभी उसी वन में [देवी की] उपासना में रत होकर रह रहा है । वसिष्ठजी ने उसे शाप दे दिया है और पिशाचतुल्य बना दिया है ॥ २१-२३१/२ ॥ दुःख से सन्तप्त वह सत्यव्रत आज अग्नि में प्रवेश करने को तत्पर हो गया था, किंतु भगवती ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया। इस समय वह वहीं पर स्थित है | अतः आप लोग शीघ्र जाइये और मेरे उस महाबली ज्येष्ठ पुत्र को अपने वचनों से आश्वासन देकर तुरंत यहाँ ले आइये । प्रजापालन करने में समर्थ अपने औरस पुत्र का राज्याभिषेक करके मैं शान्त होकर वन में चला जाऊँगा । अब मैंने तपस्या के लिये निश्चय कर लिया है ॥ २४–२६१/२ ॥ ऐसा कहकर पुत्र प्रेम में प्रवृत्त मन वाले राजा अरुण ने सत्यव्रत को लाने के लिये अपने सभी मन्त्रियों को वहाँ भेज दिया ॥ २७१/२ ॥ वन में जाकर वे मन्त्री महात्मा राजकुमार सत्य- व्रत को आश्वासन देकर उन्हें सम्मानपूर्वक अयोध्या ले आये ॥ २८१/२ ॥ सत्यव्रत को अत्यन्त दुर्बल, मलिन वस्त्र धारण किये, बड़े-बड़े जटा-जूट वाला, भयंकर तथा चिन्ता से व्यग्र देखकर राजा [अरुण] सोचने लगे कि मैंने यह कैसा निष्ठुर कर्म कर डाला था, जो कि धर्म का वास्तविक स्वरूप जानते हुए भी मैंने राजपद के योग्य तथा अत्यन्त मेधावी पुत्र को निर्वासित कर दिया था ॥ २९-३०१/२ ॥ [हे राजन्!] इस प्रकार मन-ही-मन सोचकर महाराज [अरुण] — ने राजकुमार सत्यव्रत को वक्ष:स्थल से लगा लिया और उसे सम्यक् आश्वासन देकर अपने पास में ही स्थित आसन पर बैठा लिया। तत्पश्चात् नीतिशास्त्र के पारगामी विद्वान् राजा अरुण पास में बैठे हुए अपने उस पुत्र से प्रेमयुक्त गद्गद वाणी में कहने लगे —॥ ३१-३२१/२ ॥ राजा बोले — हे पुत्र ! तुम सदा धर्म में ही अपनी बुद्धि लगाना, विप्रों का सम्मान करना, न्यायपूर्वक प्राप्त धन ही ग्रहण करना, प्रजाओं की सर्वदा रक्षा करना, कभी असत्य भाषण मत करना, निन्दित मार्ग का अनुसरण मत करना, शिष्टजनों के आज्ञानुसार कार्य करना, तपस्वियों की पूजा करना, क्रूर लुटेरों का दमन करना और इन्द्रियों को अपने वश में रखना । हे पुत्र ! कार्यसिद्धि के लिये राजा को अपने मन्त्रियों के साथ सदा गुप्त मन्त्रणा करते रहना चाहिये । हे सुत ! सबके आत्मास्वरूप राजा को चाहिये कि छोटे-से-छोटे शत्रु की भी उपेक्षा न करे। शत्रु से मिले हुए अपने अत्यन्त विनम्र मन्त्री पर भी राजा को विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३७ ॥ सर्वत्र शत्रु तथा मित्र की गतिविधियों को जानने के लिये सर्वदा गुप्तचरों की नियुक्ति करनी चाहिये, धर्म में सदा बुद्धि लगाये रखनी चाहिये और प्रतिदिन दान देते रहना चाहिये। नीरस सम्भाषण नहीं करना चाहिये, दुष्टों की संगति का त्याग कर देना चाहिये, विविध यज्ञानुष्ठान करते रहना चाहिये और महर्षियों की सदा पूजा करनी चाहिये। स्त्री, नपुंसक तथा द्यूतपरायण व्यक्ति पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये और आखेट के प्रति अत्यन्त आदरबुद्धि कभी नहीं रखनी चाहिये ॥ ३८-४० ॥ द्यूत, मदिरा, अश्लील संगीत तथा वेश्याओं से स्वयं बचना चाहिये और अपनी प्रजाओं को भी इनसे बचाना चाहिये। ब्राह्ममुहूर्त में [ शयन से] सदा निश्चय ही उठ जाना चाहिये । तत्पश्चात् दीक्षित मनुष्य को स्नान आदि सभी नित्य नियमों से निवृत्त होकर भलीभाँति भक्तिपूर्वक पराशक्ति जगदम्बा की पूजा करनी चाहिये । हे पुत्र ! पराशक्ति जगदम्बा के चरणों की पूजा ही इस जन्म की सफलता है ॥ ४१-४३ ॥ एक बार भी भगवती जगदम्बा की महापूजा करके उनके चरणोदक का पान करने वाला मनुष्य फिर कभी माता गर्भ में नहीं जाता, यह सर्वथा निश्चित है ॥ ४४ ॥ सारा जगत् दृश्य है और महादेवी द्रष्टा तथा साक्षी हैं — इस प्रकार की भावना से युक्त होकर सदा भयमुक्त चित्त से रहना चाहिये ॥ ४५ ॥ [ हे पुत्र ! ] तुम प्रतिदिन नित्य-नियम का पालन करके सभा में जाना और द्विजों को बुलाकर उनसे धर्मशास्त्रसम्बन्धी निर्णय पूछना ॥ ४६ ॥ वेद-वेदान्त पारगामी आदरणीय विद्वानों की विधिवत् पूजा करके सुयोग्य पात्रों को गौ, भूमि तथा सुवर्ण आदि का सदा दान करना ॥ ४७ ॥ तुम कभी भी किसी मूर्ख ब्राह्मण की पूजा मत करना और मूर्ख व्यक्ति को कभी भी भोजन से अधिक कुछ भी मत देना । हे पुत्र ! तुम किसी भी परिस्थिति में लोभवश धर्म का उल्लंघन मत करना । इसके अतिरिक्त तुम्हें कभी भी विप्रों का अपमान नहीं करना चाहिये । पृथ्वी के देवतास्वरूप ब्राह्मणों का प्रयत्नपूर्वक सम्मान करना चाहिये । क्षत्रियों के एकमात्र आधार ब्राह्मण ही हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४८-५० ॥ जल से अग्नि की, ब्राह्मण से क्षत्रिय की और पत्थर से लोहे की उत्पत्ति हुई है। उनका सर्वत्रगामी तेज अपनी ही योनि में शान्त होता है । अत: ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा को विशेषरूप से विनम्रतापूर्वक दान के द्वारा ब्राह्मणों का सत्कार करना चाहिये । राजा को चाहिये कि वह धर्मशास्त्र के अनुसार दण्डनीति का पालन करे और न्याय से उपार्जित धन का निरन्तर संग्रह करे ॥ ५१–५३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘सत्यव्रत के लिये राजनीति के उपदेश का वर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe