May 7, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-13 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-त्रयोदशोऽध्यायः तेरहवाँ अध्याय राजर्षि विश्वामित्र का अपने आश्रम में आना और सत्यव्रत द्वारा किये गये उपकार को जानना त्रिशङ्कुशापोद्धाराय विश्वामित्रसान्त्वनवर्णनम् राजा [ जनमेजय ] बोले — [ हे व्यासजी ! ] राजा त्रिशंकु के आदेश से सचिवों ने हरिश्चन्द्र को राजा बना दिया, किंतु स्वयं त्रिशंकु ने उस चाण्डाल – देह से मुक्ति कैसे प्राप्त की? वे वनमें कहीं मर गये अथवा गंगा-तटपर जलमें डूब गये अथवा गुरु वसिष्ठने कृपा करके उन्हें शापसे मुक्त कर दिया । यह सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मेरे समक्ष कहिये; मैं राजा त्रिशंकुका चरित्र भली-भाँति सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके राजा त्रिशंकु का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ और वे वहीं जंगल में कल्याणकारिणी भगवती जगदम्बा का ध्यान करते हुए समय व्यतीत करने लगे ॥ ४ ॥ इस तरह कुछ समय बीतने के बाद कौशिक- मुनि एकाग्रचित्त होकर तपस्या पूर्ण करके अपनी पत्नी तथा पुत्रों आदि को देखने के लिये [ अपने आश्रम में] आये। वहाँ आकर अपने स्त्री- पुत्रादि को स्वस्थ देखकर वे परम हर्षित हुए। मेधावी ऋषि पूजा के लिये आगे स्थित अपनी भार्या से पूछा — हे सुनयने ! दुर्भिक्ष की स्थिति में तुमने समय कैसे व्यतीत किया ? तुमने अन्न के बिना इन बालकों को किस उपाय से पाला; यह मुझे बताओ ॥ ५–७ ॥ हे सुन्दरि ! मैं तो तपस्या में संलग्न था, इसलिये नहीं आ सका । हे प्रिये ! हे शोभने ! बिना धन के तुमने क्या व्यवस्था की ? ॥ ८ ॥ यहाँ पर भीषण अकालका समाचार सुनकर मैं अत्यधिक चिन्तित था, किंतु यह सोचकर नहीं आया कि धनहीन मैं [वहाँ जाकर ] करूँगा ही क्या ! ॥ ९ ॥ हे सुजघने ! वन में एक दिन मैं भी भूख से अत्यधिक विकल होकर चोर की भाँति एक चाण्डाल के घर में प्रविष्ट हुआ। वहाँ चाण्डाल को सोया हुआ देखकर भूख से अत्यन्त व्याकुल मैं रसोईघर खोजकर कुछ खाने के लिये उसमें पहुँच गया ॥ १०-११ ॥ बर्तन खोलकर भोजन प्राप्त करने के लिये मैंने ज्यों ही बर्तन में हाथ डाला, तभी उस चाण्डाल ने मुझे देख लिया। उसने आदरपूर्वक मुझसे पूछा — आप कौन हैं ? रात के समय मेरे घर में आप क्यों प्रविष्ट हुए हैं और मेरे बर्तन को क्यों खोल रहे हैं? आप अपना उद्देश्य बताइये ॥ १२-१३ ॥ हे सुन्दर केशोंवाली ! चाण्डाल के यह पूछने पर क्षुधा से अत्यधिक पीड़ित मैं गद्गद वाणी में उससे कहने लगा — हे महाभाग ! मैं एक तपस्वी ब्राह्मण हूँ। मैं भूख से विकल होकर चोरी के विचार से युक्त होकर यहाँ आया हूँ और इस बर्तन में कोई खाने की वस्तु देख रहा हूँ। हे महामते! चोरी के विचार से यहाँ आया हुआ मैं आपका अतिथि हूँ। इस समय मैं भूखा हूँ । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं आपके द्वारा भलीभाँति पकाये गये पदार्थ का भक्षण करूँ ॥ १४-१६ ॥ विश्वामित्र बोले — [ हे सुन्दरि ! ] मेरी बात सुनकर चाण्डाल ने मुझसे कहा — हे चारों वर्णों में अग्रगण्य ! इसे चाण्डाल का घर जानिये, अतः आप मेरे यहाँ भोजन मत कीजिये; क्योंकि एक तो मानव- योनि में जन्म पाना दुर्लभ है, उसमें भी द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) – के यहाँ बड़ा ही दुर्लभ है। द्विजों में भी ब्राह्मण – कुल में जन्म तो सर्वथा दुर्लभ है। क्या आप इसे नहीं जानते हैं ? उत्तम लोक की कामना करने वाले व्यक्ति को कभी भी दूषित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये। भगवान् मनु ने कर्मानुसार सात जातियों को अन्त्यज मानकर उन्हें अग्राह्य बतलाया है । हे विप्र ! मैं चाण्डाल हूँ, अतः अपने कर्म के अनुसार त्याज्य हूँ; इसमें कोई सन्देह नहीं है। हे द्विज! मैं अपना धर्म समझकर ही आपको भोजन करने से रोक रहा हूँ, न कि [ अपने पदार्थ के ] लोभ से । हे द्विजवर ! वर्णसंकरता का दोष आपको न लगे, केवल यही मेरा अभिप्राय है ॥ १७-२०१/२ ॥ विश्वामित्र बोले — हे धर्मज्ञ ! तुम सत्य कह रहे हो। हे अन्त्यज ! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त विशाल है, फिर भी मैं तुम्हें आपत्तिकाल में पालनीय धर्म का सूक्ष्म मार्ग बता रहा हूँ ॥ २१ ॥ हे मानद ! मनुष्य को चाहिये कि जिस किसी भी उपाय से शरीर की रक्षा करे । इसमें यदि कोई पाप हो जाय, तो बाद में पाप से मुक्ति के लिये प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये । आपत्तिकाल में किये गये पापकर्म के कारण दुर्गति नहीं होती, किंतु सामान्य समय में किये गये पाप के कारण दुर्गति अवश्य होती है ॥ २२-२३ ॥ भूख से मरने वाले को नरक होता है, इसमें सन्देह नहीं है । अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले को भूख मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये । हे अन्त्यज ! इसीलिये मैं भी चौर-कर्म से अपने देह की रक्षा कर रहा हूँ । विद्वानों ने कहा है कि अनावृष्टि के समय चोरी करने से जो पाप होता है, वह पाप उस मेघ को लगता है, जो पानी नहीं बरसाता है ॥ २४-२५१/२ ॥ विश्वामित्र बोले — हे प्रिये ! मेरे ऐसा यह वचन कहते ही आकाश से हाथी की सूँड़ की तरह मोटी धारवाली मनोभिलषित जलवृष्टि सहसा होने लगी । बिजली की चमक के साथ बरसते हुए मेघ को देखकर मैं अत्यन्त आनन्दित हुआ ॥ २६-२७ ॥ उसी समय उस चाण्डाल का घर छोड़कर मैं परम प्रसन्नतापूर्वक बाहर निकल पड़ा । हे सुन्दरि ! अब यह बताओ कि तुमने प्राणियों का विनाश करने वाले उस अत्यन्त भीषण समय को इस वन में किस प्रकार बिताया ? ॥ २८१/२ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] पति की यह बात सुनकर उस प्रियभाषिणी स्त्री ने पति से कहा — मुनिश्रेष्ठ ! मैंने जिस प्रकार उस अत्यन्त कष्टकारी समय को व्यतीत किया, उसे आप सुनिये। आपके चले जाने के बाद यहाँ अकाल पड़ गया था। मेरे सभी पुत्र अन्न के लिये बड़े दुःखित हुए ॥ २९-३०१/२ ॥ बालकों को भूखा देखकर घोर चिन्ता से ग्रस्त मैं नीवार (जंगली धान्य)- के लिये वन-वन घूमती रही । उस समय मुझे कुछ फल मिल गये । इस प्रकार नीवार अन्न के द्वारा मैंने कुछ महीने व्यतीत किये ॥ ३१-३२ ॥ कान्त ! उसके भी समाप्त हो जानेपर मैं मन-ही-मन पुनः सोचने लगी — ‘ इस वन में अब नीवारान्न भी नहीं मिल रहा है और इस अकाल में भिक्षा भी नहीं मिल सकती । वृक्षों पर फल नहीं रह गये और धरती में कन्दमूल भी नहीं रहे । भूख से पीड़ित बालक व्याकुल होकर बहुत रो रहे हैं । अब मैं क्या करूँ. कहाँ जाऊँ और भूख से तड़पते हुए इन बालकों से क्या कहूँ’ ॥ ३३-३४१/२ ॥ ऐसा सोचकर मैंने मन में यही निश्चय किया कि किसी धनी व्यक्ति के हाथ आज अपने एक पुत्र को बेचूँगी और उसका मूल्य लेकर उस द्रव्य से भूख से पीड़ित अपने बालकों का पालन करूँगीः क्योंकि इनके पालन-पोषण का कोई दूसरा उपाय नहीं रह गया है ॥ ३५-३६१/२ ॥ अपने मन में यह विचार करके मैंने इस पुत्र को बेचने का दृढ़ निश्चय कर लिया । हे महाभाग ! उस समय मेरा यह पुत्र व्याकुल होकर जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगा, किंतु मैं निर्लज्ज होकर अपने रोते-चिल्लाते इस पुत्र को लेकर घर से निकल पड़ी ॥ ३७-३८ ॥ उस समय राजर्षि सत्यव्रत ने मार्ग में मुझ अति व्याकुल चित्तवाली को देखकर पूछा कि यह बालक क्यों रो रहा है ? ॥ ३९ ॥ हे मुनिवर ! तब मैंने उनसे यह वचन कहा — हे राजन्! मैं इस बालक को आज बेचने के लिये ले जा रही हूँ ॥ ४० ॥ तब मेरी बात सुनकर राजा का हृदय दया से भर गया और उन्होंने मुझसे कहा —‘तुम इस बालक को लेकर अपने घर लौट जाओ। जब तक मुनि विश्वामित्र लौटकर आ नहीं जाते, तब तक तुम्हारे इन बालकों के भोजन के लिये सामग्री प्रतिदिन तुम्हारे यहाँ पहुँचा दिया करूँगा’ ॥ ४१-४२ ॥ तभी से दयालु राजा सत्यव्रत प्रतिदिन कुछ भोज्य-सामग्री इस पेड़ पर रखकर चले जाते थे ॥ ४३ ॥ हे कान्त ! उन्होंने ही संकट के सागर से इन बालकों की रक्षा की, किंतु मेरे ही कारण राजा सत्यव्रत को मुनि वसिष्ठ के शाप का भागी होना पड़ा ॥ ४४ ॥ किसी दिन राजा सत्यव्रत जंगल में कोई सामग्री नहीं पा सके। तब उन्होंने वसिष्ठजी की दूध देने वाली गाय मार डाली; इससे मुनि वसिष्ठ उनपर बहुत कुपित हुए ॥ ४५ ॥ कुपित महात्मा वसिष्ठ ने राजा का नाम ‘त्रिशंकु ‘ रख दिया और गोवध करने के कारण राजा को चाण्डाल बना दिया ॥ ४६ ॥ हे कौशिक ! उनके इसी कष्ट से मैं अत्यन्त दुःखित हूँ; क्योंकि मेरे ही कारण वे राजकुमार सत्यव्रत चाण्डाल हो गये हैं । इसलिये अब आपको जिस किसी भी उपाय से; यहाँतक कि अपनी उग्र तपस्या के प्रभाव से राजा की रक्षा अवश्य करनी चाहिये ॥ ४७-४८ ॥ व्यासजी बोले — हे शत्रु का दमन करने वाले [राजा जनमेजय]! अपनी पत्नी की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र उस दुःखित स्त्री को सान्त्वना देते हुए कहने लगे ॥ ४९ ॥ विश्वामित्र बोले — हे कमलनयने ! जिन्होंने तुम्हारा उपकार किया है और घोर वन में तुम्हारी रक्षा की है, उन राजा सत्यव्रत को मैं शापमुक्त अवश्य करूँगा। मैं अपनी योगविद्या तथा तपस्या के प्रभाव से उनका दुःख दूर कर दूँगा ॥ ५०१/२ ॥ परमतत्त्ववेत्ता विश्वामित्रजी अपनी भार्या को इस तरह आश्वस्त करके सोचने लगे कि राजा सत्यव्रत का दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है ? तब भलीभाँति विचार करके मुनि विश्वामित्र उस स्थान पर गये, जहाँ राजा सत्यव्रत ( त्रिशंकु ) दीन अवस्था को प्राप्त होकर चाण्डाल के रूप में एक कुटिया में रह रहे थे ॥ ५१-५२१/२ ॥ मुनि को आते देखकर राजा त्रिशंकु विस्मय में पड़ गये। वे तत्काल मुनि के चरणों पर दण्ड की भाँति गिर पड़े। तब भूमि पर पड़े हुए राजा को हाथ से पकड़कर द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्र ने उठाया और उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन कहा — ‘हे राजन् ! मेरे ही कारण वसिष्ठमुनि ने आपको शाप दिया है, अतः मैं आपकी सारी कामना पूर्ण करूँगा । अब आप बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ? ‘ ॥ ५३-५५१/२ ॥ राजा बोले — पूर्वकाल में मैंने यज्ञ कराने के लिये वसिष्ठजी से यह प्रार्थना की थी — हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं महान् यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः आप मुझसे यज्ञ सम्पन्न कराइये । हे विप्रेन्द्र ! आप मेरा यह अभीष्ट कार्य कीजिये, जिससे मैं स्वर्ग चला जाऊँ; मैं इसी मानव-देह से सुखों के निधान इन्द्रलोक जाना चाहता हूँ ॥ ५६-५७१/२ ॥ इस पर वसिष्ठमुनि ने क्रोधित होकर मुझसे कहा — अरे दुर्बुद्धि ! इस मानव शरीर से तुम्हारा स्वर्ग में वास कैसे हो सकता है ? ॥ ५८१/२ ॥ तब स्वर्ग की उत्कट लालसावाले मैंने भगवान् वसिष्ठ से पुनः कहा — हे निष्पाप ! तब मैं किसी अन्य को पुरोहित बनाकर वह श्रेष्ठ यज्ञ आरम्भ करूँगा। उसी समय उन्होंने मुझे यह शाप दे दिया ‘हे नीच ! तुम चाण्डाल हो जाओ’ ॥ ५९-६० ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने शाप पाने का सारा कारण आपसे कह दिया । अब एकमात्र आप ही मेरा दुःख दूर करने में समर्थ हैं ॥ ६१ ॥ कष्ट की पीड़ा से व्यथित राजा त्रिशंकु इतना कहकर चुप हो गये और विश्वामित्रजी भी उनके शाप को दूर करने का उपाय सोचने लगे ॥ ६२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘त्रिशंकु के शापोद्धार के लिये विश्वामित्र द्वारा सान्त्वना का वर्णन’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ Content is available only for registered users. 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