श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-15
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः
पन्द्रहवाँ अध्याय
प्रतिज्ञा पूर्ण न करने से वरुण का क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्र को जलोदरग्रस्त होने का शाप देना
हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिप्राप्तिवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ राजा जनमेजय !] राजा हरिश्चन्द्र के घर में पुत्र का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय सुन्दर ब्राह्मण का वेष धारण करके वरुणदेव वहाँ आ पहुँचे ॥ १ ॥ ‘आपका कल्याण हो’ — ऐसा कहकर उन्होंने राजा हरिश्चन्द्र से कहा— हे राजन् ! मैं वरुणदेव हूँ, मेरी बात सुनिये। हे नृप ! आपको पुत्र हो गया है, इसलिये अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ कीजिये। हे राजन् ! मेरे वरदान से अब आपकी सन्तानहीनता का दोष समाप्त हो चुका है, अतः आपने जो बात पहले कही है, उसे सत्य कीजिये ॥ २-३ ॥

वरुणदेव की बात सुनकर राजा चिन्तित हो उठे कि कमल के समान मुख वाले इस नवजात पुत्र का वध कैसे करूँ अर्थात् इसे बलिपशु बनाकर यज्ञ कैसे करूँ? किंतु स्वयं लोकपाल तथा पराक्रमी वरुणदेव विप्रवेष में आये हुए हैं। अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को देवताओं का अनादर कभी नहीं करना चाहिये। साथ ही, पुत्रस्नेह को दूर करना भी तो प्राणियों के लिये सर्वदा अत्यन्त दुष्कर कार्य है । अतः अब मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मुझे सन्तानजनित सुख प्राप्त हो ॥ ४-६ ॥

तब धैर्य धारण करके राजा हरिश्चन्द्र ने वरुणदेव को प्रणामकर उनकी पूजा की और वे विनम्रतापूर्वक मधुर तथा युक्तियुक्त वचन कहने लगे ॥ ७ ॥

राजा बोले — हे देवदेव! मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। हे करुणानिधान ! मैं वेदोक्त विधि-विधान से प्रचुर दक्षिणा वाला यज्ञ करूँगा, किंतु अभी यज्ञ न करने का कारण यह है कि पुत्र उत्पन्न होने के दस दिन बाद पिता शुद्ध होकर कर्मानुष्ठान के योग्य होता है और एक महीने में माता शुद्ध होती है । अतः जबतक पति-पत्नी दोनों शुद्ध नहीं हो जाते, तबतक यज्ञ कैसे होगा ? वरुणदेव ! आप तो सर्वज्ञ हैं और सनातन धर्म को भलीभाँति जानते हैं । हे वारीश ! आप मुझ पर दया कीजिये, हे परमेश्वर ! मुझे क्षमा कीजिये ॥ ८–१० ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्र के यह कहने पर वरुणदेव ने उनसे कहा हे पृथ्वीपते ! आपका कल्याण हो; अब मैं जा रहा हूँ और आप अपने कार्य सम्पन्न करें। नृपश्रेष्ठ ! अब मैं एक मास के अन्त में आऊँगा, तब आप अपने पुत्र का जातकर्म, नामकरण आदि संस्कार करने के पश्चात् ही भलीभाँति मेरा यज्ञ कीजियेगा ॥ ११-१२ ॥

जलाधिपति वरुणदेव मधुर वाणी में राजा हरिश्चन्द्र से ऐसा कहकर जब चले गये तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। वरुणदेव के चले जाने पर राजा ने वेदज्ञ ब्राह्मणों को घट-जैसे बड़े-बड़े थनवाली तथा स्वर्णाभूषणों से अलंकृत करोड़ों गायों और तिल के पर्वतों का दान किया ॥ १३-१४ ॥ अपने पुत्र का मुख देखकर राजा हरिश्चन्द्र परम आनन्दित हुए और उन्होंने विधिपूर्वक उसका नाम ‘रोहित’ रखा ॥ १५ ॥ तत्पश्चात् एक मास बीतने पर वरुणदेव ब्राह्मण का वेष धारणकर ‘शीघ्र यज्ञ करो’ —  ऐसा बार-बार कहते हुए पुनः राजा के घर आये ॥ १६ ॥ वरुणदेव को देखकर राजा हरिश्चन्द्र शोकसागर में
डूब गये । उन्हें प्रणाम तथा उनका अतिथिसत्कार करके राजा ने दोनों हाथ जोड़कर कहा हे देव! मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि आप मेरे यहाँ पधारे हुए हैं । हे प्रभो! आपने आज मेरे भवन को पवित्र कर दिया है। हे वारीश! मैं विधिपूर्वक आपका अभिलषित यज्ञ अवश्य करूँगा । वेदवेत्ताओं ने कहा है कि दन्तविहीन पशु यज्ञ के लिये श्रेष्ठ नहीं होता, अतः इस पुत्र के दाँत निकल आने के बाद मैं आपका महायज्ञ करूँगा ॥ १७–१९ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रके ऐसा कहनेपर वरुणदेव ‘ वैसा ही हो’ – यह कहकर वहाँसे लौट गये। इधर, राजा हरिश्चन्द्र आनन्दित होकर गृहस्थाश्रम में रहने लगे ॥ २० ॥ उसके बाद बालक को दाँत निकल आने की बात जानकर वरुणदेव ब्राह्मण का रूप धारणकर ‘अब मेरा कार्य कर दो’ – ऐसा बोलते हुए राजा के महल में पुनः पहुँचे ॥ २१ ॥  ब्राह्मण के वेष में जलाधिनाथ वरुण को आया देखकर राजा ने उन्हें प्रणाम किया और आसन, अर्घ्य, पाद्य आदि के द्वारा आदरपूर्वक उनकी पूजा की। तदनन्तर राजा ने उनकी स्तुति करके विनम्रतापूर्वक सिर झुकाकर कहा ‘मैं प्रचुर दान-दक्षिणा के साथ विधिपूर्वक आपका यज्ञ करूँगा; किंतु अभी तो इस बालक का चूडाकर्म- संस्कार भी नहीं हुआ है। मैंने वृद्धजनों के मुख से सुना है कि गर्भकालीन केशवाला बालक यज्ञ के लिये पशु बनाने के योग्य नहीं माना गया है । हे जलेश्वर ! आप सनातन विधि तो जानते ही हैं, अतः चूडाकरण तक की अवधि के लिये मुझे क्षमा कीजिये। मैं इस बालक के मुण्डन – संस्कार के पश्चात् आपका यज्ञ अवश्य करूँगा ॥ २२-२५ ॥

तब राजा का यह वचन सुनकर वरुणदेव ने उनसे कहा — हे राजन्! आप बार-बार यही कहते हुए मुझे धोखा दे रहे हैं ॥ २६ ॥ हे राजन्! इस समय आपके पास यज्ञ की सम्पूर्ण सामग्री तो विद्यमान है, किंतु पुत्रस्नेह में बँधे होने के कारण आप मुझे इस बार भी धोखा दे रहे हैं ॥ २७ ॥ अब इसका मुण्डन-संस्कार हो जाने के बाद भी यदि आप यज्ञ नहीं करेंगे, तो मैं कोपाविष्ट होकर  आपको भीषण शाप दे दूँगा । हे राजेन्द्र ! हे मानद ! आज तो मैं आपकी बात मानकर चला जा रहा हूँ, किंतु हे इक्ष्वाकुवंशज ! आप अपनी बात असत्य मत कीजियेगा ॥ २८-२९ ॥

ऐसा कहकर वरुणदेव राजा के भवन से तुरंत चले गये।  तब राजा हरिश्चन्द्र भी अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने राजमहल में आनन्द करने लगे ॥ ३० ॥ इसके बाद जब चूडाकरण के समय महान् उत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय वरुणदेव शीघ्रतापूर्वक राजा के महल में पुनः आ पहुँचे । महारानी शैव्या पुत्र को अपनी गोद में लेकर राजा के पास में बैठी थीं और ज्यों ही मुण्डन का कार्य आरम्भ हुआ, उसी समय साक्षात् अग्नि के समान तेजवाले विप्ररूपधारी श्रीमान् वरुणदेव ‘यज्ञकर्म करो’ – ऐसा स्पष्ट वचन बोलते हुए राजा के समीप पहुँच गये ॥ ३१-३३ ॥ उन्हें देखकर राजा हरिश्चन्द्र बहुत व्याकुल हो गये। राजा ने डरते हुए उन्हें नमस्कार किया और वे दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़े हो गये ॥ ३४ ॥

तत्पश्चात् वरुणदेव की विधिपूर्वक पूजा करके विनयशील राजा हरिश्चन्द्र ने उनसे कहा — हे स्वामिन्! मैं आज ही विधिपूर्वक आपका यज्ञकार्य करूँगा, किंतु हे विभो ! इस सम्बन्ध में मुझे आपसे कुछ कहना है, आप एकाग्रचित्त होकर उसे सुनें । हे स्वामिन्! मैं आपके समक्ष उसे अब कह रहा हूँ, यदि आप उचित समझें तो स्वीकार कर लें ॥ ३५-३६ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – ये तीनों वर्ण संस्कार-सम्पन्न हो जाने के बाद ही द्विजाति कहलाते हैं, अन्यथा ये शूद्र रहते हैं ऐसा वेदवेत्ताओं ने कहा है; इसलिये मेरा यह पुत्र अभी शूद्र के समान है । कोई बालक उपनयन-संस्कार से संम्पन्न हो जाने के पश्चात् ही यज्ञ-क्रिया के योग्य होता है ऐसा निर्णय वेदों में उल्लिखित है । क्षत्रियों का उपनयन संस्कार ग्यारहवें वर्ष, ब्राह्मणों का आठवें वर्ष और वैश्यों का बारहवें वर्ष में हो जाना बताया गया है ॥ ३७–३९ ॥ हे देवेश ! यदि आप मुझ दीन सेवक पर दया करें तो मैं इसका उपनयन संस्कार करने के पश्चात् इसे यज्ञ-पशु बनाकर आपका श्रेष्ठ यज्ञ करूँ ॥ ४० ॥ सभी शास्त्रों के विद्वान् तथा धर्म के ज्ञाता हे विभो ! आप लोकपाल हैं, यदि आप मेरी बात सत्य मानते हों, तो अपने भवन को लौट जाइये ॥ ४१ ॥

व्यासजी बोले — उनकी यह बात सुनकर दयालु वरुणदेव ‘ठीक है’   ऐसा कहकर वहाँ से तुरंत चले गये और राजा प्रसन्न मुखमण्डल वाले हो गये ॥ ४२ ॥ वरुणदेव के चले जाने पर राजा हरिश्चन्द्र परम आनन्दित हुए। इस प्रकार पुत्र सुख प्राप्त करके राजा को अपार हर्ष प्राप्त हुआ ॥ ४३ ॥ तदनन्तर राजा हरिश्चन्द्र अपने राज- कार्य में तत्पर हो गये । इस प्रकार समय बीतने के साथ उनका पुत्र दस वर्ष का हो गया ॥ ४४ ॥ तब राजा ने श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सचिवों की सम्मति के अनुसार अपने विभव के अनुरूप राजकुमार के उपनयन-संस्कार की सामग्री एकत्र की ॥ ४५ ॥ पुत्र का ग्यारहवाँ वर्ष लगते ही राजा ने व्रतबन्ध के विधान के अनुसार विधिवत् कार्य आरम्भ किया, किंतु उनके मन में चिन्ता के कारण बड़ी उद्विग्नता थी । जब राजकुमार का यज्ञोपवीत हो गया तथा इससे सम्बन्धित अन्य कार्य हो रहे थे, उसी समय वरुणदेव ब्राह्मण का वेष धारण करके वहाँ आ पहुँचे ॥ ४६-४७ ॥

उनके सामने खड़े हो गये और दोनों हाथ जोड़कर उन्हें देखते ही राजा हरिश्चन्द्र तुरंत प्रणामकर प्रसन्नतापूर्वक सुरश्रेष्ठ वरुणदेव से बोले  हे देव ! अब यज्ञोपवीत हो जाने के बाद मेरा पुत्र यज्ञपशु के योग्य हो गया है और अब आपकी कृपा से मेरा निःसन्तान रहने से होने वाली लोकनिन्दा से उत्पन्न शोक भी दूर हो चुका है ॥ ४८-४९ ॥ अब मैं चाहता हूँ कि प्रचुर दक्षिणावाला आपका श्रेष्ठ यज्ञ उपयुक्त अवसर पर कर डालूँ । हे धर्मज्ञ! आज मैं आपसे सत्य बात कह रहा हूँ, उसे सुन लीजिये। इस बालक के समावर्तन – संस्कार के पश्चात् मैं आपका अभिलषित यज्ञ करूँगा, मेरे ऊपर दया करके आप तब तक के लिये मुझे क्षमा करें ॥ ५०-५१ ॥

वरुण बोले — हे राजन् ! हे महामते ! अत्यधिक पुत्र-प्रेम में बँधे होने के कारण आप बार-बार कोई-न-कोई युक्तिसंगत बुद्धि का प्रयोग करके मुझे धोखा देते चले आ रहे हैं । हे महाराज ! आपकी बात मानकर आज तो मैं बिना कुछ कहे चला जा रहा हूँ, किंतु समावर्तन – कर्म के समय पुनः आऊँगा ॥ ५२-५३ ॥

हे राजा जनमेजय ! राजा हरिश्चन्द्र से यह कहकर तथा उनसे विदा लेकर वरुणदेव चले गये और राजा हर्षित होकर आगे का काम करने लगे ॥ ५४ ॥ परम प्रतिभासम्पन्न राजकुमार (रोहित) बार- बार वरुणदेव को आते देखकर और यज्ञ – सम्बन्धी प्रतिज्ञा जानकर चिन्तित हो उठे ॥ ५५ ॥ उन्होंने राजा के शोक का कारण इधर-उधर लोगों से पूछा । हे आयुष्मान् जनमेजय ! वरुणदेव के यज्ञ में होने वाले अपने वध की बात जानकर राजकुमार ने भाग जाने का निश्चय किया । तदनन्तर मन्त्रिकुमारों से परामर्श करने के बाद दृढ़ निश्चय करके उस नगर से निकलकर वे वन की ओर चल पड़े ॥ ५६-५७ ॥ पुत्र के चले जाने पर राजा बहुत दुःखी हुए और उन्होंने राजकुमार को खोजने के उद्देश्य से अपने दूतों को भेजा ॥ ५८ ॥ इस प्रकार कुछ समय बीतने के पश्चात् वे वरुणदेव शोक संतप्त राजा से ‘मेरा यज्ञ करो’ – ऐसा बोलते हुए उनके घर पहुँचे ॥ ५९ ॥

राजा ने उन्हें प्रणाम करके कहा —  हे देवदेव ! अब मैं क्या करूँ ? भय से व्याकुल होकर मेरा पुत्र न जाने कहाँ चला गया है ? ॥ ६० ॥ हे वरुणदेव! मैंने अपने दूतों से पर्वत की कन्दराओं तथा मुनियों के आश्रमों में उसे सर्वत्र खोजवाया, किंतु वह कहीं नहीं मिला । हे महाराज ! पुत्र के चले जाने पर अब आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ ? हे सर्वज्ञ! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, इसमें हर प्रकार से भाग्य का ही दोष है ॥ ६१-६२ ॥

व्यासजी बोले —  हे जनमेजय ! राजा की यह बात सुनकर वरुणदेव अत्यन्त कुपित हुए । राजा के द्वारा बार-बार धोखा दिये जाने के कारण उन्होंने क्रोधपूर्वक शाप दे दिया  ‘हे राजन् ! आपने तरह – तरह की बातों से मुझे सदा धोखा दिया है, इसलिये अत्यन्त भयंकर जलोदर रोग आपको पीड़ित करे ‘ ॥ ६३-६४ ॥

व्यासजी बोले —  हे राजन् ! तब वरुणदेव के कुपित होकर इस प्रकार का शाप देने से राजा हरिश्चन्द्र कष्टदायक जलोदर रोग से ग्रस्त हो गये ॥ ६५ ॥ इस प्रकार राजा को शाप देकर पाश धारण करनेवाले वरुणदेव अपने लोक को चले गये और राजा हरिश्चन्द्र उस महाव्याधि से ग्रस्त होकर महान् कष्ट में पड़ गये ॥ ६६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्र को जलोदर-व्याधिप्राप्तिवर्णन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

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