श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-16
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-षोडशोऽध्यायः
सोलहवाँ अध्याय
राजा हरिश्चन्द्र का शुनःशेप को स्तम्भ में बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
यज्ञपशुभूतस्य ब्राह्मणपुत्रस्य वधकरणाय विश्वामित्रनिषेधवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] वरुणदेव के चले जाने पर राजा हरिश्चन्द्र [ जलोदर ] रोग से अत्यन्त पीड़ित हुए; एक-पर-एक महान् कष्ट पाकर वे अति व्याकुल हो उठे ॥ १ ॥ हे राजन्! वन में स्थित राजकुमार रोहित ने अपने पिता के [जलोदर] रोग से पीड़ित होने की बात सुनकर स्नेह में बँधे होने के कारण [ अयोध्या ] लौट जाने का विचार किया ॥ २ ॥ एक वर्ष बीतने पर जब रोहित ने अपने पिता का आदरपूर्वक दर्शन करने के लिये अयोध्या जाने की इच्छा की तब यह जानकर इन्द्र उसके पास पहुँचे । शीघ्र ही ब्राह्मण का रूप धारण करके इन्द्र ने अपने पिता के दर्शनार्थ जाने को उद्यत राजकुमार को युक्तिपूर्वक रोका ॥ ३-४ ॥

इन्द्र बोले — हे राजपुत्र ! आप अत्यन्त दुष्कर राजनीति के विषय में नहीं जानते, इसीलिये मूर्खता को प्राप्त आपने अयोध्या जाने का व्यर्थ ही विचार किया है ॥ ५ ॥ हे महाभाग ! [ आपके वहाँ जाने पर ] आपके पिता वेदों के पारगामी ब्राह्मणों के द्वारा कराये गये यज्ञ में प्रज्वलित अग्नि में आपकी आहुति दे देंगे ॥ ६ ॥ हे तात! अपना प्राण सभी जीवों को अवश्य ही अत्यन्त प्रिय होता है। उसी की रक्षा के लिये पुत्र, स्त्री और धन आदि प्रिय लगते हैं ॥ ७ ॥ अपने शरीर की रक्षा के निमित्त आप – जैसे प्रिय पुत्र का अग्नि में हवन करवाकर वे रोग से मुक्त हो जायँगे । अतएव हे राजपुत्र ! इस समय आपको पिता के घर नहीं जाना चाहिये । पिता के मर जाने पर ही राज्य करने के लिये आप वहाँ जायँ ॥ ८-९ ॥

[हे राजन् ! ] इस प्रकार इन्द्र के मना कर देने पर राजकुमार रोहित उस वन में एक वर्ष तक रुके रह गये ॥ १० ॥ इसके बाद राजकुमार ने जब सुना कि मेरे पिता अब बहुत दुःखी हैं, तब उसने मर जाने का निश्चय करके उनके पास जाने का दृढ़ विचार कर लिया ॥ ११ ॥ तब इन्द्र ने पुनः ब्राह्मण का रूप धारण करके वहाँ आकर राजकुमार को अपनी तर्कसंगत बातों से बार- बार समझाकर उसे अयोध्या जाने से रोक दिया ॥ १२ ॥ इधर, कष्ट से अत्यधिक पीड़ित राजा हरिश्चन्द्र ने अपने पुरोहित वसिष्ठजी से इस रोग के नाश का निश्चित उपाय पूछा ॥ १३ ॥

इस पर ब्रह्मापुत्र वसिष्ठजी ने कहा — हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप धन के द्वारा खरीदे गये पुत्र से यज्ञ कीजिये; इससे आप शाप से मुक्त हो जायँगे ॥ १४ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! वेद के पारगामी ब्राह्मणों ने दस प्रकार के पुत्र बतलाये हैं। अतः आप अपने द्रव्य से क्रीत एक बालक को ले आकर उसे अपना पुत्र बना लीजिये। इससे वरुणदेव भी प्रसन्न होकर आपके लिये सुखकारी हो जायँगे । आपके राज्य का कोई-न-कोई द्विज धन के लोभ से अपना पुत्र बेच भी देगा ॥ १५-१६ ॥

महात्मा वसिष्ठजी की बात से परम प्रसन्नता को प्राप्त राजा हरिश्चन्द्र ने वैसा बालक ढूँढ़ने के उद्देश्य से अपने प्रधान अमात्य को भेज दिया ॥ १७ ॥ राजा हरिश्चन्द्र के राज्य में अजीगर्त नामक कोई ब्राह्मण रहता था। अति निर्धन उस ब्राह्मण के तीन पुत्र थे । पुत्र खरीदने के लिये गये हुए प्रधान सचिव ने उस दुर्बल ब्राह्मण से कहा — मैं आपको एक सौ गायें दूँगा; आप अपना पुत्र यज्ञ के लिये मुझे दे दीजिये । ‘शुनः पुच्छ’, ‘शुनःशेप’ तथा ‘शुनोलांगूल’ नामक जो आपके तीन पुत्र हैं, उनमें से कोई एक मुझे दे दीजिये और उसके बदले मैं आपको एक सौ गायें दे दूँगा । यह सुनकर भूख से अत्यधिक व्याकुल अजीगर्त ने उनमें से किसी एक पुत्र को बेच डालने का मन में निश्चय कर लिया ॥ १८-२१ ॥

ज्येष्ठ पुत्र पिण्डदान आदि कर्मों का अधिकारी होता है — ऐसा सोचकर अजीगर्त ने उसे नहीं दिया । कनिष्ठ पुत्र को ममता के कारण माता ने यह कहकर नहीं दिया कि यह मेरा है । अतः अजीगर्त ने एक सौ गायें लेकर अपने मँझले पुत्र शुनःशेप को बेच दिया । तब मन्त्री उसे राजा के पास ले गये और राजा ने उसे यज्ञ में बलिपशु बनाया ॥ २२-२३ ॥ यज्ञीय स्तम्भ में वध के निमित्त बाँधे गये उस बालक को रोते हुए, दुःखित, दीन, भय के मारे थर- थर काँपते हुए तथा अत्यधिक व्याकुल देखकर उस समय ऋषिगण भी चिल्ला उठे ॥ २४ ॥ तभी राजा हरिश्चन्द्र ने नरमेध यज्ञ में वध करने के लिये उस बालक को पशुरूप से शामित्र ( वधकर्ता) – को सौंप दिया, किंतु उसने आलम्भन के लिये उसपर शस्त्र नहीं चलाया । उस समय उसने यह भी कहा — ‘मैं दुःखित तथा करुण स्वर से बहुत विलाप करते हुए इस ब्राह्मणपुत्र को धन के लोभ में आकर नहीं मारूँगा’। ऐसा कहकर वह उस घृणित कर्म से विरत हो गया। तब राजा हरिश्चन्द्र ने सभासदों से पूछा —‘ हे विप्रगण ! अब क्या किया जाय ? ‘ ॥ २५–२७ ॥ उसी समय शुनःशेप के बड़े विचित्र ढंग से करुण- क्रन्दन करने पर सभा में चीखती-चिल्लाती जनता के बीच हाहाकार मच गया ॥ २८ ॥

तभी अजीगर्त उठकर उन नृपश्रेष्ठ से बोला — हे राजन् ! आप निश्चिन्त रहें, मैं स्वयं आपका यह कार्य करूँगा । उस ( वधकर्ता) – को दिये जानेवाले धन से दूना धन मुझे दीजिये, तो मैं इस बलिपशु का वध अवश्य कर दूँगा। धन-लोलुप होने के कारण मैं आज आपका यज्ञकार्य निश्चित रूप से पूर्ण कर दूँगा; जो दुःखी है अथवा धन का लोभी है, उसके गुणों में भी दोष आ जाते हैं ॥ २९-३०१/२

व्यासजी बोले — हे राजन् ! अजीगर्त की यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और उससे बोले कि मैं अभी एक सौ श्रेष्ठ गायें आपको दूँगा ॥ ३११/२

उनकी यह बात सुनकर अजीगर्त अपने पुत्र शुनःशेप का वध करने हेतु तैयार हो गया । लोभ के कारण उद्विग्न चित्तवाले अजीगर्त ने शामिता बनने का पूर्ण निश्चय कर लिया ॥ ३२१/२

उसे हथियार उठाकर अपने पुत्र को मारने हेतु उद्यत देखकर वहाँ उपस्थित सभासद्गण तथा सारी जनता दुःख से विकल होकर चीखने-चिल्लाने लगी तथा हाय-हाय करते हुए कहने लगी कि ब्राह्मण के रूप में यह पिशाच, महापापी तथा क्रूर कर्म करने वाला है; यह अपने कुल को कलंकित करता हुआ स्वयं अपने ही पुत्र का वध करने के लिये उद्यत है । हे चाण्डाल ! तुम्हें धिक्कार है, तुमने यह पापकर्म करने की इच्छा क्यों की? पुत्र का वध करने के बाद धन प्राप्त करके तुम कौन – सा सुख पा जाओगे ? वेदों में कहा गया है कि पुत्ररूप में अपनी आत्मा ही शरीर से जन्म लेती है, इसलिये हे पापबुद्धि ! तुम अपनी ही आत्मा का वध किसलिये करना चाहते हो ? । यज्ञस्थल में इस प्रकार का कोलाहल होनेपर विश्वामित्रजी दयार्द्र हो गये और वे राजा हरिश्चन्द्र के पास जाकर उनसे कहने लगे ॥ ३३-३७१/२

विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! अत्यधिक दुःखित होकर करुण क्रन्दन करते हुए इस शुनः- शेप को आप पाशमुक्त कर दीजिये। ऐसा करने से एक तो यज्ञ पूरा होगा और आपका रोग भी दूर हो जायगा ॥ ३८१/२

दया के समान कोई पुण्य नहीं है और हिंसा के समान कोई पाप नहीं है। यज्ञों में हिंसा करने का जो विधिवाद बना, उसका उद्देश्य जिह्वालोलुपों के जिह्वास्वाद की पूर्ति के माध्यम से उनमें यज्ञ करने की प्रवृत्ति बढ़ाना है, किंतु यथासम्भव हिंसा से विरत रहना ही शास्त्र का आशय है 1  ॥ ३९१/२

हे महाराज ! सब प्रकार से अपना कल्याण चाहनेवाले व्यक्ति को अपने शरीर की रक्षा के लिये दूसरे शरीर को विनष्ट नहीं करना चाहिये ॥ ४० ॥ जो सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव रखता है, जो कुछ भी प्राप्त हो जाय; उसी से सन्तोष करता और अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है, उसके ऊपर जगत्पति भगवान् श्रीविष्णु शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४११/२

हे नृपश्रेष्ठ! सभी प्राणियों में आत्मभावका चिन्तन करना चाहिये। जिस प्रकार अपने को देह प्रिय होती है, उसी प्रकार सभी जीवों को अपना शरीर प्रिय होता है । आप इस शुनःशेप द्विज का वध करके शरीर को रोगमुक्त करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो यह बालक सुख के आश्रयस्वरूप अपने देह को क्यों नहीं बचाना चाहेगा ॥ ४२-४३१/२

हे नृप ! इसके साथ आपका पूर्वजन्म का कोई वैर नहीं है, जो कि आप इस निरपराध द्विजपुत्र का वध करने के इच्छुक हैं । जो व्यक्ति सदा अपनी कामना की पूर्ति के लिये बिना वैरभाव के ही किसी प्राणी का वध करता है, दूसरी योनि में जन्म लेकर वही जीव अपने संहर्ता का वध करता है ॥ ४४-४५१/२

इस बालक का पिता अत्यन्त दुष्टात्मा, दुर्बुद्धि तथा पापाचारी है, जिसने धन के लोभ में अपने ही पुत्र को आपके हाथों बेच डाला ॥ ४६१/२

लोगों को यह इच्छा रखनी चाहिये कि मेरे बहुत से पुत्र हों, जिससे उनमें से कोई एक भी पुत्र गयातीर्थ जाय, अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नील वृषभ छोड़े ॥ ४७ ॥ [हे राजन्!] राज्य में जो कोई भी व्यक्ति पापकर्म करता है तो उसके पाप का छठाँ अंश राजा को भोगना पड़ता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है । अतः राजा को चाहिये कि पापकर्म करने के लिये उद्यत उस व्यक्ति को मना करे, तो फिर आपने पुत्र को बेचने के लिये तत्पर उस अजीगर्त को क्यों नहीं रोका ? ॥ ४८-४९१/२

हे राजन्! आप सूर्यवंश में उत्पन्न हुए हैं और महाराज त्रिशंकु के कल्याणकारी पुत्र हैं । आप आर्य होकर भी अनार्यों-जैसा कर्म करना चाहते हैं ? ॥ ५०१/२

हे राजन्! मेरी बात मानकर मुनिपुत्र शुनःशेप को बन्धनमुक्त कर देने से आपका देह अवश्य ही रोगमुक्त हो जायगा ॥ ५११/२

महर्षि वसिष्ठ के शाप के कारण आपके पिता चाण्डाल हो गये थे, तब मैंने उसी देह से उन्हें स्वर्गलोक पहुँचा दिया था । हे राजन् ! उसी उपकार को समझकर आप मेरी बात मान लीजिये और अत्यधिक विलाप करते हुए इस दीन तथा भयाकुल बालक को मुक्त कर दीजिये ॥ ५२-५३१/२

हे राजन्! आपके इस राजसूय यज्ञ में मैं आपसे मात्र इसकी प्राण-रक्षा की याचना कर रहा हूँ । क्या आप प्रार्थना-भंग से होने वाले दोष के विषय में नहीं जानते ? हे नृपश्रेष्ठ ! इस राजसूय यज्ञ में प्रार्थी को उसकी कामना के अनुकूल वस्तु दी जानी चाहिये । यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको पाप ही लगेगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५४-५५१/२

व्यासजी बोले — [ हे राजा जनमेजय ! ] विश्वामित्र की यह बात सुनकर राजाओं में श्रेष्ठ हरिश्चन्द्र ने मुनिवर विश्वामित्र से कहा — गाधिपुत्र ! मुने ! मैं जलोदर रोग से बहुत पीड़ित हूँ, इसलिये इस बालक को नहीं छोड़ सकता। हे कौशिक ! इसके अतिरिक्त आप दूसरी वस्तु माँग लीजिये और मेरे इस कार्य में किसी तरह की बाधा मत उत्पन्न कीजिये ॥ ५६-५८ ॥

राजा हरिश्चन्द्र की यह बात सुनकर तथा दुःखित ब्राह्मण – पुत्र शुनःशेप को देखकर मुनि विश्वामित्र अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ ५९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘यज्ञपशुभूत ब्राह्मण के पुत्र का वध करने के लिये विश्वामित्र का निषेध वर्णन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥

1.
लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।
व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥

(वेद विधि के रूप में ऐसे ही कर्मों के करने की आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती । )
संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्य की ओर प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सौत्रामणियज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छृंखल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा में स्थापन । वास्तव में उनकी ओर से लोगों को हटाना ही श्रुति को अभीष्ट है । ( श्रीमद्भा० ११ । ५ । ११)

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