श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-18
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः
अठारहवाँ अध्याय
विश्वामित्र का मायाशूकर के द्वारा हरिश्चन्द्र के उद्यान को नष्ट कराना
हरिश्चन्द्रद्वारा वृद्धब्राह्मणाय धनदानप्रतिज्ञावर्णनम्

व्यासजी बोले — राजन् ! किसी समय राजा हरिश्चन्द्र आखेट करने के लिये वन में गये हुए थे I उन्होंने वहाँ मनोहर नेत्रोंवाली रोती हुई एक सुन्दर युवती को देखा ॥ १ ॥

करुणामय महाराज हरिश्चन्द्र ने उस कामिनी से पूछा — कमलपत्र के समान विशाल नेत्रोंवाली हे वरानने! तुम क्यों रो रही हो, तुम्हें किसने कष्ट दिया है, तुम्हें कौन-सा अपार दुःख आ पड़ा है, इस निर्जन वन में रहने वाली तुम कौन हो और तुम्हारे पिता तथा पति कौन हैं ? यह सब मुझे शीघ्र बताओ ॥ २-३ ॥ हे कान्ते ! मेरे राज्य में तो राक्षस भी परायी स्त्री को कष्ट नहीं पहुँचाते । हे सुन्दरि ! जो व्यक्ति तुम्हें पीड़ित करता होगा, उसे मैं अभी मार डालूँगा । हे वरारोहे! तुम मुझे अपना दुःख बताओ और निश्चिन्त हो जाओ । हे कृशोदरि ! हे सुमध्यमे ! मेरे राज्य में दुराचारी व्यक्ति नहीं रह सकता ॥ ४-५ ॥

उनकी यह बात सुनकर वह स्त्री अपने मुखमण्डल के आँसू पोंछकर उन नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्र से कहने लगी ॥ ६ ॥

नारी बोली — हे राजन् ! मेरे लिये वन में रहकर जो घोर तपस्या कर रहे हैं, वे महामुनि विश्वामित्र मुझे बहुत कष्ट दे रहे हैं; उत्तम व्रत का पालन करने वाले हे राजन्! आपके राज्य में मैं इसी कारण से दुःखी हूँ । उन मुनि के द्वारा अत्यधिक सतायी जाने वाली मुझ स्त्री को आप ‘कमना’ नाम वाली जान लीजिये ॥ ७-८ ॥

राजा बोले — हे विशाल नयनोंवाली ! तुम प्रसन्नचित्त रहो, अब तुम्हें कष्ट नहीं होगा । तपस्या में तत्पर रहने वाले उन मुनि को मैं मना कर दूँगा ॥ ९ ॥

उस स्त्री को यह आश्वासन देकर पृथ्वीपति राजा हरिश्चन्द्र शीघ्र ही मुनि के पास गये और नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके उनसे बोले — हे स्वामिन्! आप ऐसी कठिन तपस्या से अपने शरीर को अत्यधिक पीड़ित क्यों कर रहे हैं ? हे महामते ! किस प्रयोजन से आप यह करने के लिये उद्यत हैं ? सच-सच बताइये ॥ १०-११ ॥ हे गाधितनय ! मैं आपकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा। अब इसी समय उठ जाइये और आगे तपस्या करने का विचार त्याग दीजिये। हे सर्वज्ञ ! मेरे राज्य में रहकर कभी किसी को भी अत्यन्त भीषण, लोक के लिये पीड़ाकारक तथा उग्र तप नहीं करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥

इस प्रकार विश्वामित्रजी को तपस्या से रोककर राजा हरिश्चन्द्र अपने भवन चले गये और उनके इस कृत्य मुनि विश्वामित्र भी मन-ही-मन कुपित होकर वहाँ से चल दिये ॥ १४ ॥ घर जाकर विश्वामित्रजी राजा हरिश्चन्द्र के अनुचित कृत्य, वसिष्ठ की कही हुई बात तथा तपस्या से विरत कर दिये जाने के विषय में सोचने लगे । वे कोपाविष्ट मन से बदला लेने के लिये तत्पर हो गये । इस प्रकार मन में बहुत प्रकार से सोचकर उन्होंने एक भयानक शरीरवाले दानव को सूअर के रूप में बनाकर उसे राजा के यहाँ भेजा ॥ १५-१६१/२

महाकाल के समान प्रतीत होने वाला तथा विशाल शरीरवाला वह सूअर अत्यन्त भयावह शब्द करता हुआ राजा हरिश्चन्द्र के उपवन में पहुँच गया। रक्षकों को भयभीत करते हुए, मालती की तथा कदम्बों की लता को एवं जूहीसमूहों को बार-बार रौंदते हुए और अपने दाँत से जमीन को खोदते हुए उस सूअर ने बड़े-बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ डाला; उसने चम्पक, केतकी, मल्लिका, कनेर तथा उशीर के सुन्दर तथा कोमल पौधों को बींध डाला तथा मुचुकुन्द, अशोक, मौलसिरी एवं तिलक आदि वृक्षों को उखाड़कर उस सूअर ने उपवन को विनष्ट कर दिया ॥ १७–२१ ॥ हाथों में शस्त्र लिये हुए उस उपवन की रखवाली करने वाले सभी रक्षक वहाँ से भाग चले और अत्यन्त भयभीत मालियों ने हाय-हाय की ध्वनि करते हुए चिल्लाना आरम्भ कर दिया ॥ २२ ॥ साक्षात् काल के समान तेजवाला वह सूअर जब बाणों से मारे जाने पर भी त्रस्त नहीं हुआ और रक्षकों को पीड़ित करता रहा, तब वे अत्यन्त भयाक्रान्त होकर राजा हरिश्चन्द्र की शरण में गये । भय से व्याकुल तथा थर-थर काँपते हुए वे रक्षकगण ‘रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ‘ – ऐसा उनसे कहने लगे ॥ २३-२४ ॥

तब भय से घबड़ाये हुए उन रक्षकों को समक्ष उपस्थित देखकर राजा ने उनसे पूछा — आप लोगों को क्या भय है और किसलिये आप सब यहाँ आये हुए हैं ? मुझे यह बताइये । हे रक्षको ! मैं देवताओं तथा राक्षसों – किसी से भी नहीं डरता । तुम्हें यह भय किससे उत्पन्न हुआ है, मेरे सामने उसे बताओ, मैं उस अभागे शत्रु को एक ही बाण से अभी मार डालता हूँ। जो पापबुद्धि तथा दुष्ट इस लोक में मेरे शत्रु के रूप में उत्पन्न हुआ हो, चाहे वह देवता हो या दानव, वह चाहे कहीं भी रहता हो, कैसे भी रूपवाला हो तथा कितना भी बलवान् हो, उसे मैं अपने तीक्ष्ण बाणों से मार डालूँगा ॥ २५-२८ ॥

मालाकार बोले — हे राजन् ! वह न देवता है, न दैत्य है, न यक्ष है और न तो किन्नर ही है । विशाल शरीरवाला एक सूअर उपवन में आया हुआ है। उसने अपने दाँत से अत्यन्त कोमल पुष्पमय वृक्षों को उखाड़ डाला है। अत्यन्त तीव्र गतिवाले उस सूअर ने सारे उपवन को तहस-नहस कर दिया है । हे महाराज ! बाणों, पत्थरों और लाठियों से हम लोगों के प्रहार करने पर भी वह भयभीत नहीं हुआ और हमें मारने के लिये दौड़ पड़ा ॥ २९–३१ ॥

व्यासजी बोले — उनकी यह बात सुनते ही राजा हरिश्चन्द्र कुपित हो उठे और उसी क्षण घोड़े पर सवार होकर उपवन की ओर शीघ्रतापूर्वक चल पड ॥ ३२ ॥ हाथी, घोड़े, रथ और पैदल चलने वाले सैनिकों से युक्त एक विशाल सेना के साथ वे उस श्रेष्ठ उपवन में पहुँच गये ॥ ३३ ॥ वहाँ उन्होंने एक विशाल शरीरवाले भयानक सूअर को घुरघुराते हुए देखा। उसके द्वारा उजाड़े गये उपवन को देखकर राजा कुपित हो उठे। फिर वे धनुष पर बाण चढ़ाकर तथा धनुष को खींचकर उस दुष्ट सूअर को मारने के लिये वेगपूर्वक आगे बढ़े ॥ ३४-३५ ॥ हाथ में धनुष लिये हुए कोपाविष्ट राजा हरिश्चन्द्र को देखकर वह सूअर अत्यन्त भयानक शब्द करता हुआ तुरंत उनके सामने आ गया ॥ ३६ ॥ उस विकृत मुखवाले सूअर को सामने आता हुआ देखकर राजा हरिश्चन्द्र ने उसे मार डालने की इच्छा से उस पर बाण छोड़ा ॥ ३७ ॥ तब उस बाण से अपने को बचाकर वह सूअर राजा को बड़े वेग से लाँघकर बलपूर्वक शीघ्रता के साथ वहाँ से निकल भागा ॥ ३८ ॥ उसे भागते हुए देखकर राजा हरिश्चन्द्र क्रोधित होकर धनुष खींचकर सावधानीपूर्वक उसपर तीक्ष्ण बाण छोड़ने लगे ॥ ३९ ॥ वह सूअर किसी क्षण दिखायी पड़ता था, दूसरे क्षण आँखों से ओझल हो जाता था और क्षणभर में ही अनेक प्रकार के शब्द करता हुआ राजा के पास पहुँच जाता था ॥ ४० ॥

तब राजा हरिश्चन्द्र वायु के समान तीव्रगामी अश्व पर सवार होकर और धनुष खींचकर अत्यन्त क्रोध के साथ उस सूअर का पीछा करने लगे । तत्पश्चात् उनकी सेना इधर-उधर उनके साथ दौड़ती हुई दूसरे वन में चली गयी और राजा उस भागते हुए सूअर का अकेले ही पीछा करते रहे ॥ ४१-४२ ॥ इस तरह राजा मध्याह्नकाल में एक निर्जन वन में जा पहुँचे। वे अत्यधिक भूख तथा प्यास से व्याकुल हो गये तथा उनका वाहन बहुत थक गया ॥ ४३ ॥ सूअर आँखों से ओझल हो चुका था, अतः वे चिन्ता से व्यग्र हो गये । उस घने जंगल में मार्गज्ञान न होने के कारण वे रास्ते से भटक भी गये; उनकी दशा बड़ी दयनीय हो गयी थी । वे सोचने लगे कि अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? इस वन में मेरा कोई सहायक भी नहीं है। अब अपना मार्ग भूल जाने के कारण मैं किधर जाऊँ ? ॥ ४४-४५ ॥

इस प्रकार उस निर्जन वन में सोचते हुए चिन्तातुर राजा हरिश्चन्द्र की दृष्टि एक स्वच्छ जलवाली नदी पर पड़ गयी ॥ ४६ ॥ उसे देखकर राजा बहुत हर्षित हुए । घोड़े से उतरकर उन्होंने उसे स्वादिष्ट जल पिलाकर स्वयं भी पीया । जल पी लेने पर राजा को बड़ी शान्ति मिली। अब वे अपने नगर जाने की इच्छा करने लगे, किंतु दिशाज्ञान न रहने से उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी ॥ ४७-४८ ॥ इतने में विश्वामित्रजी एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके वहाँ आ गये। उस श्रेष्ठ ब्राह्मण को देखकर राजा हरिश्चन्द्र ने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ ४९ ॥

प्रणाम करते हुए उन नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्र से विश्वामित्र कहने लगे — हे महाराज ! आपका कल्याण हो। आप यहाँ किसलिये आये हुए हैं ? हे राजन् ! इस निर्जन वन में अकेले आने का आपका क्या उद्देश्य है ? हे नृपश्रेष्ठ ! शान्तचित्त होकर अपने आगमन का सारा कारण बताइये ॥ ५०-५१ ॥

राजा बोले — विशाल शरीरवाला एक बलशाली सूअर मेरे पुष्पोद्यान में पहुँचकर वहाँ के कोमल पुष्पमय वृक्षों को रौंदने लगा । हे मुनिश्रेष्ठ ! उसी दुष्ट को रोकने के लिये हाथ में धनुष लेकर मैं सेनासहित अपने नगर से निकल पड़ा ॥ ५२-५३ ॥ अब वह पापी तथा मायावी सूअर वेगपूर्वक मेरी आँखों से ओझल होकर न जाने कहाँ चला गया! मैं भी उसके पीछे-पीछे यहाँ आ गया तथा मेरी सेना कहीं और निकल गयी ॥ ५४ ॥ सेना का साथ छूट जाने पर भूख तथा प्यास से व्याकुल होकर मैं यहाँ आ पहुँचा। हे मुने! मुझे अपने नगर के मार्ग का ज्ञान नहीं रहा और मेरी सेना किधर गयी – यह भी मैं नहीं जानता । हे विभो ! आप मुझे मार्ग दिखा दीजिये, जिससे मैं अपने नगर चला जाऊँ; मेरे सौभाग्य से आप इस निर्जन वन में पधारे हुए हैं ॥ ५५-५६ ॥ मैं अयोध्या का राजा हूँ और हरिश्चन्द्र नाम से विख्यात हूँ। मैं राजसूययज्ञ कर चुका हूँ और याचना करने वालों को उनकी हर अभिलषित वस्तु सर्वदा प्रदान करता हूँ। हे ब्रह्मन् ! हे द्विजश्रेष्ठ ! यदि आपको भी यज्ञ निमित्त धन की आवश्यकता हो तो अयोध्या आयें, मैं आपको प्रचुर धन प्रदान करूँगा ॥ ५७-५८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्र द्वारा वृद्ध ब्राह्मण के लिये धनदान की प्रतिज्ञा का वर्णन’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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