May 9, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-20 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-विंशोऽध्यायः बीसवाँ अध्याय हरिश्चन्द्र का दक्षिणा देने हेतु स्वयं, रानी और पुत्र को बेचने के लिये काशी जाना हरिश्चन्द्रोपाख्यानवर्णनम् हरिश्चन्द्र बोले — उत्तम व्रत का पालन करने वाले हे मुनिवर ! आप विषाद छोड़िये, मेरी प्रतिज्ञा है कि आपको बिना स्वर्ण दिये मैं भोजन नहीं करूँगा ॥ १ ॥ मैं सूर्यवंश में उत्पन्न एक क्षत्रिय राजा हूँ । मनुष्यों की सारी अभिलाषा पूर्ण करने वाला मैं राजसूययज्ञ सम्पन्न कर चुका हूँ ॥ २ ॥ हे स्वामिन्! इच्छानुसार दान दे करके मैं ‘नहीं’ ऐसा शब्द किस प्रकार उच्चारित कर सकता हूँ। हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपका ऋण अवश्य चुका दूँगा। आप निश्चिन्त रहें, मैं आपका मनोवांछित स्वर्ण आपको अवश्य दूँगा, किंतु जब तक मुझे धन उपलब्ध नहीं हो जाता, तबतक कुछ समय के लिये आप प्रतीक्षा करें ॥ ३-४ ॥ विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! अब आपको धनप्राप्ति कहाँ से होगी ? आपका राज्य, कोष, सेना तथा अर्थोपार्जन का समस्त साधन – यह सब [ आपके अधिकार से] चला गया। अतः हे राजन् ! धन के लिये आपको आशा करना व्यर्थ है । हे नृप ! इस स्थिति में मैं क्या करूँ? मैं धन के लोभ से आप – जैसे निर्धन व्यक्ति को पीड़ित भी कैसे करूँ ? इसलिये हे राजन् ! आप कह दीजिये — ‘ अब मैं नहीं दे सकूँगा ।’ तब मैं धनप्राप्ति की आशा त्यागकर यहाँ से इच्छानुसार चला जाऊँगा। हे राजेन्द्र ! ‘अब मेरे पास स्वर्ण नहीं है, तो आपको क्या दूँ’ – ऐसा बोल दीजिये और पत्नी तथा पुत्र के साथ अपने इच्छानुसार चले जाइये ॥ ५-८ ॥ व्यासजी बोले — [हे राजन्!] ब्राह्मण की यह बात सुनकर उस समय जा रहे राजा हरिश्चन्द्र ने मुनि को उत्तर दिया — हे ब्रह्मन् ! आप धैर्य रखिये, मैं आपको धन अवश्य दूँगा । हे द्विज ! अभी भी मेरा, मेरी पत्नी तथा मेरे पुत्र का शरीर स्वस्थ है; मैं उस शरीर को बेचकर आपका ऋण अवश्य चुका दूँगा । हे विप्रवर! हे प्रभो! आप वाराणसी पुरी में किसी ग्राहक का अन्वेषण कीजिये, मैं अपनी पत्नी तथा पुत्रसहित उसका दास बन जाऊँगा । हे मुने! हे भूधर ! उसके हाथों हमें बेचकर आप हमारे मूल्य से ढाई भार सोना ले लीजिये और सन्तुष्ट हो जाइये ॥ ९–१२ ॥ ऐसा कहकर राजा हरिश्चन्द्र अपनी भार्या तथा पुत्र के साथ उस काशीपुरी में गये, जहाँ साक्षात् भगवान् शिव अपनी प्रिया उमा के साथ विराजमान रहते हैं ॥ १३ ॥ मन को आह्लादित करने वाली उस दिव्य पुरी को देखकर उन्होंने कहा कि इस परम तेजोमयी काशीपुरी का दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो गया ॥ १४ ॥ तत्पश्चात् गंगातट पर आकर स्नान करके उन्होंने देवता आदि का तर्पण किया। इसके बाद देवताओं की पूजा से निवृत्त होकर वे चारों ओर घूमकर देखने लगे ॥ १५ ॥ राजा हरिश्चन्द्र उस दिव्य वाराणसीपुरी में प्रविष्ट होकर सोचने लगे कि यह पुरी मानवों के भोग की वस्तु नहीं है; क्योंकि यह भगवान् शिव की सम्पदा है। दुःख से अधीर होकर घबराये हुए राजा हरिश्चन्द्र अपनी भार्या के साथ पैदल ही चलते रहे। पुरी में प्रवेश हो जाने पर राजा आश्वस्त हो गये ॥ १६-१७ ॥ उसी समय उन्होंने दक्षिणा की अभिलाषा रखने वाले ब्राह्मणवेशधारी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र को देखा । उन महामुनि को सामने उपस्थित देखकर महाराज हरिश्चन्द्र विनयावनत हो गये और दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे — हे मुने! मेरे प्राण, पुत्र तथा प्रिय पत्नी – सब उपस्थित हैं । इनमें से जिससे भी आपकी कार्यसिद्धि हो सके, उसे आप शीघ्रतापूर्वक अभी ले लीजिये। साथ ही हे द्विजश्रेष्ठ ! हमसे आपका अन्य जो भी कार्य बन सकता हो, उसे भी आप बताने की कृपा करें ॥ १८-२० ॥ विश्वामित्र बोले — [हे राजन् ! ] आपका कल्याण हो। वह महीना पूर्ण हो गया, इसलिये यदि आपको अपने वचन का स्मरण हो तो पूर्व में की गयी प्रतिज्ञा की दक्षिणा चुका दीजिये ॥ २१ ॥ राजा बोले — ज्ञान और तप के बल से सम्पन्न हे ब्रह्मन्! आज अवश्य ही महीना पूर्ण हो गया, किंतु अभी दिन का आधा भाग अवशिष्ट है। अतः आप तब तक प्रतीक्षा करें, इसके बाद नहीं ॥ २२ ॥ विश्वामित्र बोले — हे महाराज ! ऐसा ही हो, मैं पुनः आऊँगा। किंतु यदि आपने आज दक्षिणा नहीं दी, तो मैं आपको शाप दे दूँगा ॥ २३ ॥ ऐसा कहकर जब विप्ररूप विश्वामित्र चले गये, तब राजा हरिश्चन्द्र सोचने लगे कि इन विप्रदेव के लिये जिस दक्षिणा की प्रतिज्ञा मैं कर चुका हूँ, उसे अब इन्हें कैसे दूँ? ॥ २४ ॥ इस समय कहाँ से मेरे धन सम्पन्न मित्र मिल जायँगे अथवा इतनी सम्पत्ति ही कहाँ से मिल जायगी । साथ ही किसी से धन लेना मेरे लिये दोषकारक है, अतः धन की याचना भी कैसे की जा सकती है ? धर्मशास्त्रों में राजाओं के लिये तीन प्रकार की ही सुनिश्चित वृत्तियाँ ( दान देना, विद्याध्ययन करना तथा यज्ञ करना) बतायी गयी हैं । यदि दक्षिणा दिये बिना ही प्राणत्याग कर देता हूँ तो ब्राह्मण का धन अपहरण करने के कारण मुझ अधम से भी अधम पापी को दूसरे जन्म में कीड़ा होना पड़ेगा अथवा मैं प्रेतयोनि में चला जाऊँगा । अतः अपने को बेच डालना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है ॥ २५–२७ ॥ सूतजी बोले — उस समय व्याकुल होकर नीचे की ओर मुख करके ऐसा सोचते हुए दयनीय दशा को प्राप्त राजा हरिश्चन्द्र से उनकी पत्नी अश्रु के कारण रुँधे कंठ से गद्गद वाणी में कहने लगीं — ॥ २८ ॥ हे महाराज ! आप चिन्ता छोड़िये और अपने धर्म का पालन कीजिये; क्योंकि सत्य से बहिष्कृत मनुष्य प्रेत के समान त्याज्य है ॥ २९ ॥ हे पुरुषव्याघ्र! अपने सत्य वचन का अनुपालनरूप जो धर्म है, उससे बढ़कर दूसरा कोई अन्य धर्म मनुष्य के लिये नहीं कहा गया है ॥ ३० ॥ जिस व्यक्ति का वचन मिथ्या हो जाय, उसके अग्निहोत्र, वेदाध्ययन, दान आदि सभी कृत्य निष्फल हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ जिस प्रकार धर्मशास्त्रों में पुण्यात्माओं के उद्धार के लिये सत्यपालन को विशेष कारण बताया गया है, उसी प्रकार दुराचारियों के पतन के लिये मिथ्या को परम हेतु कहा गया है ॥ ३२ ॥ सैकड़ों अश्वमेध तथा राजसूययज्ञ आदरपूर्वक करके भी मात्र एक बार मिथ्या बोल देने के कारण एक राजा को स्वर्ग से च्युत हो जाना पड़ा था ॥ ३३ ॥ राजा बोले — हे गजगामिनि ! वंश की वृद्धि करने वाला यह बालक पुत्र तो विद्यमान है ही, अतः तुम जो भी बात कहना चाहती हो, उसे कहो; मैं उसे मानने के लिये तैयार हूँ ॥ ३४ ॥ पत्नी बोली — हे राजन्! आपकी वाणी असत्य नहीं होनी चाहिये। स्त्रियाँ पुत्रप्रसव कर देने पर सफल हो जाती हैं, अतः आप मुझे बेचकर उस धन से विप्र की दक्षिणा चुका दें ॥ ३५ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजा जनमेजय !] पत्नी की यह बात सुनकर राजा मूर्च्छित हो गये, पुनः चेतना में आने के बाद वे बहुत दुःखी होकर इस प्रकार विलाप करने लगे — हे भद्रे ! यह मेरे लिये महान् दुःखप्रद है, जो तुम मुझसे ऐसा बोल रही हो। क्या तुम्हारे मुसकानयुक्त वचन मुझ पापी को विस्मृत हो गये हैं ? हे शुचिस्मिते! ऐसा बोलना तुम्हारे लिये भला कैसे ठीक है ? हे भामिनि! इस प्रकार की अप्रिय बात तुम क्यों बोल रही हो ? ॥ ३६-३८ ॥ स्त्री-विक्रय की बात से अधीरता को प्राप्त नृपतिश्रेष्ठ महाराज हरिश्चन्द्र यह कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े और मूर्च्छा से अत्यधिक व्याकुल हो गये ॥ ३९ ॥ राजा को मूर्च्छा के कारण भूमि पर पड़ा हुआ देखकर राजपुत्री अत्यन्त दुःखित हो गयीं और वे उनसे परम करुणामय वचन कहने लगीं — हे महाराज ! किसके अनिष्ट चिन्तन से यह संकट आ पड़ा है, जिसके परिणामस्वरूप शरणदाता होते हुए भी आप दरिद्र की भाँति पृथ्वी पर पड़े हैं। जिन्होंने करोड़ों की सम्पत्ति ब्राह्मणों को दान कर दी, वे ही पृथ्वीनाथ मेरे पति आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। हाय, महान् कष्ट है । हे दैव ! इन महाराज ने आपका क्या कर दिया, जिसके कारण आपने इन्द्र तथा उपेन्द्र की तुलना करने वाले इन नरेश को इस पापमयी दशा में पहुँचा दिया है ॥ ४०–४३ ॥ ऐसा कहकर अपने स्वामी के असहनीय महान् दुःख के भार से अत्यधिक सन्तप्त वे सुन्दर कटिप्रदेश वाली रानी भी मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं ॥ ४४ ॥ उस समय क्षुधा से पीड़ित बालक रोहित यह देखकर अत्यन्त दुःखित होकर यह वचन कहने लगा — हे तात ! हे तात! मुझे अन्न दीजिये, हे माता ! मुझे भोजन दीजिये । इस समय मुझे अत्यधिक भूख लगी है और मेरी जिह्वा का अग्रभाग तेजी से सूखा जा रहा है ॥ ४५-४६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्रोपाख्यानवर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ Content is available only for registered users. 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