May 10, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-22 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-द्वाविंशोऽध्यायः बाईसवाँ अध्याय राजा हरिश्चन्द्र का रानी और राजकुमार का विक्रय करना और विश्वामित्र को ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्र का और अधिक धन के लिये आग्रह करना हरिश्चन्द्रस्य पत्नीपुत्रविक्रयवर्णनम् व्यासजी बोले — हे राजन् ! अपनी धर्मपत्नी के द्वारा बार-बार प्रेरित किये जाने पर राजा हरिश्चन्द्र ने कहा — हे भद्रे ! मैं अत्यन्त निष्ठुर होकर तुम्हारे विक्रय की बात स्वीकार करता हूँ । यदि तुम्हारी वाणी ऐसा निष्ठुर वचन बोलने के लिये तत्पर है तो जिस काम को महान्-से-महान् क्रूर भी नहीं कर सकते, उसे मैं करूँगा ॥ १-२ ॥ ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्र शीघ्रतापूर्वक नगर में गये और वहाँ नाटक आदि दिखाये जाने वाले स्थान पर अपनी भार्या को प्रस्तुत करके आँसुओं से रुँधे हुए कण्ठ से उन्होंने कहा — हे नगरवासियो ! आप लोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनिये । आप लोगों में से किसी को भी यदि मेरी इस प्राणप्रिया भार्या से दासी का काम लेने की आवश्यकता हो तो वह शीघ्र बोले । मैं जितना धन चाहता हूँ, उतने में कोई भी इसे खरीद ले । इस पर वहाँ उपस्थित बहुत से विद्वान् पुरुषों ने पूछा — ‘अपनी पत्नी का विक्रय करने के लिये यहाँ आये हुए तुम कौन हो?’ ॥ ३-५१/२ ॥ राजा बोले — आप लोग मुझसे यह क्यों पूछते हैं — ‘तुम कौन हो ?’ मैं मनुष्य नहीं; बल्कि महान् क्रूर हूँ, अथवा यह समझिये कि एक भयानक राक्षस हूँ, तभी तो ऐसा पाप कर रहा हूँ ॥ ६१/२ ॥ व्यासजी बोले — उस शब्द को सुनकर विश्वामित्र एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा हरिश्चन्द्र के सामने अचानक आ गये और बोले — मैं धन देकर इस दासी को खरीदने के लिये तत्पर हूँ, अतः इसे मुझे दे दीजिये ॥ ७-८ ॥ मेरे पास बहुत धन है । मेरी पत्नी बहुत ही सुकुमार है, इसलिये वह गृहकार्य नहीं कर पाती, अतः इसे आप मुझे दे दीजिये। मैं इस दासी को स्वीकार तो कर लूँगा, किंतु मुझे इसके बदले आपको धन कितना देना होगा ? ॥ ९१/२ ॥ ब्राह्मण के इस प्रकार कहने पर राजा हरिश्चन्द्र का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया और वे कुछ भी नहीं बोले ॥ १०१/२ ॥ विप्र ने कहा — आपकी भार्या के कर्म, आयु, रूप और स्वभाव के अनुसार यह धन दे रहा हूँ, इसे स्वीकार कीजिये और स्त्री मुझे सौंप दें । धर्मशास्त्रों में स्त्री तथा पुरुष का जो मूल्य निर्दिष्ट है, वह इस प्रकार है — यदि स्त्री बत्तीसों लक्षणों से सम्पन्न, दक्ष, शीलवती और गुणों से युक्त हो तो उसका मूल्य एक करोड़ स्वर्णमुद्रा है और उसी प्रकार के पुरुष का मूल्य दस करोड़ स्वर्णमुद्रा होता है ॥ ११-१३ ॥ उस ब्राह्मण की यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र महान् दुःख से व्याकुल हो उठे और उनसे कुछ भी नहीं कह सके ॥ १४ ॥ तत्पश्चात् उस ब्राह्मण ने राजा के सामने वल्कल के ऊपर धन रखकर रानी के बालों को पकड़कर उन्हें खींचना आरम्भ कर दिया ॥ १५ ॥ रानी ने कहा — हे आर्य! जब तक मैं अपने पुत्र को भलीभाँति देख न लूँ तबतक के लिये आप मुझे छोड़ दीजिये, छोड़ दीजिये; क्योंकि हे विप्र ! फिर से इस पुत्र का दर्शन तो दुर्लभ ही हो जायगा ॥ १६ ॥ [ तत्पश्चात् रानी ने कहा —] हे पुत्र ! अब दासी बनी हुई अपनी इस माँ की ओर देखो । हे राजपुत्र ! तुम मेरा स्पर्श मत करो; क्योंकि अब मैं तुम्हारे स्पर्शके योग्य नहीं रह गयी हूँ ॥ १७ ॥ तदनन्तर [ब्राह्मण के द्वारा] खींची जाती हुई माता को सहसा देखकर उस बालक के नेत्रों में अश्रु भर आये और वह ‘माँ-माँ’ कहता हुआ उनकी ओर दौड़ा ॥ १८ ॥ कौवे के पंख के समान केशवाला वह राजकुमार जब हाथ से माता का वस्त्र पकड़कर गिरते हुए साथ चलने लगा, तब वह ब्राह्मण उस आये हुए बालक को क्रोधपूर्वक मारने लगा, फिर भी उस बालक ने ‘माँ-माँ’ कहते हुए अपनी माता को नहीं छोड़ा ॥ १९१/२ ॥ रानी बोलीं — हे नाथ! मुझ पर कृपा कीजिये और इस बालक को भी खरीद लीजिये; क्योंकि आपके द्वारा खरीदी गयी भी मैं इसके बिना आपका कार्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं रहूँगी । हे प्रभो ! मुझ मन्दभागिनी पर इस प्रकार की कृपा आप अवश्य कीजिये ॥ २०-२१ ॥ ब्राह्मण ने कहा — यह धन लीजिये और अपना पुत्र मुझे दे दीजिये । धर्मशास्त्रज्ञों ने स्त्री-पुरुष का मूल्य निर्धारित कर दिया है — जैसे सौ, हजार, लाख और करोड़ । उसी प्रकार अन्य विद्वानों ने शुभ लक्षणों से युक्त, कुशल तथा सुन्दर स्वभाववाली स्त्री का मूल्य एक करोड़ तथा वैसे ही गुणोंवाले पुरुष का मूल्य दस करोड़ बताया है ॥ २२-२३१/२ ॥ सूतजी बोले — तब ब्राह्मण ने उसी प्रकार बालक का मूल्य भी सामने रखे हुए वस्त्र पर फेंक दिया और फिर बालक को पकड़कर उसे माता के साथ ही बन्धन में बाँध दिया। इसके बाद वह ब्राह्मण उन्हें साथ लेकर हर्षपूर्वक शीघ्र ही अपने घर की ओर चल दिया ॥ २४-२५ ॥ उस समय अत्यन्त दयनीय अवस्था को प्राप्त रानी राजा हरिश्चन्द्र की प्रदक्षिणा करके दोनों घुटनों के सहारे झुककर उन्हें प्रणामकर स्थित हो गयी और नेत्रों में आँसू भरकर यह वचन बोली — यदि मैंने दान दिया हो, हवन किया हो तथा ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया हो तो उस पुण्य के प्रभाव से राजा हरिश्चन्द्र पुनः मुझे पतिरूपमें प्राप्त हो जायँ ॥ २६-२७ ॥ अपने प्राण से भी बढ़कर प्रिय रानी को चरणों पर पड़ी हुई देखकर ‘हाय, हाय’ – ऐसा कहते हुए व्याकुल इन्द्रियों वाले राजा हरिश्चन्द्र विलाप करने लगे । सत्य, शील और गुणों से सम्पन्न मेरी यह भार्या मुझसे अलग कैसे हो गयी ? वृक्ष की छाया भी उस वृक्ष को कभी नहीं छोड़ती ॥ २८-२९ ॥ इस प्रकार परस्पर घनिष्ठता प्रकट करने वाला यह वचन भार्या से कहकर राजा ने उस पुत्र से ऐसा कहा — मुझे छोड़कर तुम कहाँ जाओगे, फिर मैं किस दिशा में जाऊँगा और मेरा दुःख कौन दूर करेगा ? ॥ ३०१/२ ॥ हे द्विज ! राज्य का परित्याग करने और वनवास करने में मुझे वह दुःख नहीं होगा, जो पुत्र के वियोग से हो रहा है — ऐसा उस राजा ने कहा । [ तत्पश्चात् रानी को लक्ष्य करके राजा कहने लगे — ] इस लोक में पत्नियाँ सदा अपने उत्तम पति के सहयोग हेतु होती हैं, फिर भी हे कल्याणि! मैंने तुम्हारा परित्याग कर दिया है और तुम्हें दुःखी बना दिया है ॥ ३१-३२१/२ ॥ इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न तथा राज्य के सम्पूर्ण सुख- सुविधाओं से सम्पन्न मुझ जैसे पति को पाकर भी तुम दासी बन गयी हो। हे देवि ! विस्तृत पौराणिक आख्यानों के द्वारा इस महान् शोकरूपी सागर में डूब रहे मुझ दीन का उद्धार अब कौन करेगा ? ॥ ३३-३४१/२ ॥ सूतजी बोले — तदनन्तर राजर्षि हरिश्चन्द्र के सामने ही कोड़े से निष्ठुरतापूर्वक पीटते हुए वह विप्र श्रेष्ठ उन्हें ले जाने का प्रयत्न करने लगा ॥ ३५१/२ ॥ अपनी भार्या तथा पुत्र को ब्राह्मण के द्वारा ले जाते हुए देखकर वे राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त दुःख से व्याकुल होकर बार-बार उष्ण श्वास लेकर विलाप करने लगे — अबतक जिसे वायु, सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी के लोग देख नहीं सके थे, वही मेरी यह भार्या आज दासी बन गयी! हाथों की कोमल अँगुलियों वाला यह बालक, जो सूर्य-वंश में उत्पन्न है, आज बिक गया । मुझ दुर्बुद्धि को धिक्कार है । हा प्रिये ! हा बालक ! हा वत्स! मुझ अधम की दुर्नीति के कारण ही तुम सब इस दैवाधीन दशा को प्राप्त हुए हो, फिर भी मेरी मृत्यु नहीं हुई, अतः मुझे धिक्कार है ॥ ३६–३९१/२ ॥ व्यासजी बोले — उन दोनों को लेकर ऊँचे- ऊँचे वृक्ष, घर आदि को पार करते हुए वे ब्राह्मण इस तरह विलाप कर रहे राजा के सामने से शीघ्रतापूर्वक अन्तर्धान हो गये। इसी समय महान् तपस्वी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र अपने शिष्य के साथ वहाँ आ पहुँचे; उस समय वे कौशिकेन्द्र अत्यन्त निष्ठुर तथा क्रूर दृष्टिगत हो रहे थे ॥ ४०-४११/२ ॥ विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! हे महाबाहो ! यदि आपने सत्य को सदा स्वीकार किया है तो राजसूययज्ञ की जिस दक्षिणा का वचन आपने पहले दे रखा है, उसे अब दे दीजिये ॥ ४२१/२ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — हे राजर्षे ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे अनघ ! राजसूययज्ञ के अवसर पर पहले मैंने जिस दक्षिणा की प्रतिज्ञा की थी, यह अपनी दक्षिणा आप ग्रहण कीजिये ॥ ४३१/२ ॥ विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! दक्षिणा के निमित्त जो यह धन आप दे रहे हैं, उसे आपने कहाँ से प्राप्त किया है? आपने जिस तरह से यह धन अर्जित किया है, उसे मुझे साफ-साफ बताइये ॥ ४४१/२ ॥ राजा बोले — हे महाभाग ! हे अनघ ! अब यह सब बताने से क्या प्रयोजन; क्योंकि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले हे विप्र ! इसे सुनने से आपका शोक ही बढ़ेगा ॥ ४५१/२ ॥ ऋषि बोले — हे राजन् ! मैं दूषित धन कदापि ग्रहण नहीं करता, मुझे पवित्र धन दीजिये और जिस उपाय से द्रव्य प्राप्त हुआ हो, उसे यथार्थरूप से बता दीजिये ॥ ४६१/२ ॥ राजा बोले — हे विप्र ! मैंने अपनी उस साध्वी भार्या को एक करोड़ स्वर्णमुद्रा में और अपने रोहित नामक पुत्र को दस करोड़ स्वर्णमुद्रा में बेच दिया है। हे विप्र ! इस प्रकार मेरे पास एकत्र इन ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं को आप स्वीकार करें ॥ ४७-४८ ॥ सूतजी बोले — स्त्री और पुत्र को बेचने पर प्राप्त हुए धन को अल्प समझकर विश्वामित्र ने क्रोधित होकर शोकग्रस्त राजा हरिश्चन्द्र से कहा — ॥ ४९ ॥ ऋषि बोले — राजसूययज्ञ की इतनी ही दक्षिणा नहीं होती, अतः शीघ्र ही और धन का उपार्जन कीजिये, जिससे वह दक्षिणा पूर्ण हो सके । क्षत्रियधर्म का पालन करने से विमुख हे राजन् ! यदि आप मेरी दक्षिणा को इतने द्रव्य के ही तुल्य मानते हैं तो फिर मेरे परम तेज को शीघ्र ही देख लीजिये । अत्यन्त पवित्र अन्तःकरण वाले मुझ ब्राह्मण की कठोर तपस्या तथा मेरे विशुद्ध अध्ययन के प्रभाव को आप अभी देख लें ॥ ५०-५२ ॥ राजा बोले — हे भगवन्! मैं इसके अतिरिक्त और भी दक्षिणा दूँगा, किंतु कुछ समय तक प्रतीक्षा कीजिये। अभी-अभी मैंने अपनी पत्नी तथा अबोध पुत्र को बेचा है ॥ ५३ ॥ विश्वामित्र बोले — हे नराधिप ! दिन का चौथा प्रहर उपस्थित है; यही प्रतीक्षा का अन्तिम समय है। इसके बाद फिर आप मुझसे कुछ न कहियेगा ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्र का पत्नीपुत्रविक्रयवर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥ Content is available only for registered users. 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