श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-29
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-एकोनत्रिंशोऽध्यायः
उन्नतीसवाँ अध्याय
व्यासजी का राजा जनमेजय से भगवती की महिमा का वर्णन करना और उनसे उन्हीं की आराधना करने को कहना, भगवान् शंकर और विष्णु के अभिमान को देखकर गौरी तथा लक्ष्मी का अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णु का शक्तिहीन होना
भगवतीं समाराधयिषूणां देवानां तपःकरणवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे राजन् ! इस प्रकार मैंने यत्किंचित् सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं के उत्तम चरित्र का वर्णन किया । हे राजन् ! पराशक्ति भगवती की कृपा से उन राजाओं ने महती प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। आप यह निश्चितरूप से जान लीजिये कि उन पराशक्ति की कृपा से सब कुछ सिद्ध हो जाता है। जो-जो विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त तथा शक्तियुक्त पदार्थ हैं; उन सबको आप उन्हीं परम शक्तिमयी भगवती के अंश से ही उत्पन्न समझिये ॥ १–३ ॥

हे नृप ! ये तथा अन्य बहुत से पराशक्ति के उपासक राजागण संसाररूपी वृक्ष की जड़ काटने के लिये कुठार के समान हो चुके हैं। अतएव जिस प्रकार धान्य चाहने वाला व्यक्ति पुआल छोड़ देता है, उसी प्रकार अन्य व्यवसायों का पूर्णरूप से त्याग कर देना चाहिये और सम्पूर्ण प्रयत्न के साथ भुवनेश्वरी की उपासना करनी चाहिये ॥ ४-५ ॥ हे नृप ! वेदरूपी क्षीरसागर का मन्थन करके मैंने भगवती पराशक्ति के चरण-कमलरूपी रत्न को प्राप्त किया है, उससे मैं कृतार्थ हो गया हूँ ॥ ६ ॥ पंचब्रह्म के आसन पर कोई अन्य देवता स्थित नहीं है अर्थात् इन पंचदेवों के अतिरिक्त उनका अतिक्रमण करके उनके अधिष्ठाता के रूप में अपना प्रभाव स्थापित करने में कोई अन्य देवता समर्थ नहीं है, अतः ब्रह्म के रूप में मान्यता प्राप्त उन पंचब्रह्म को भगवती ने अपना आसन बना लिया अर्थात् उन पंचदेवों की अधिष्ठात्री शक्ति के रूप में वे अधिष्ठित हुईं। इन पाँचों से परे की वस्तु को वेद में ‘अव्यक्त’ कहा गया है । जिस अव्यक्त में यह सम्पूर्ण जगत् ओत-प्रोत है, वह श्रीभुवनेश्वरी ही हैं । हे राजेन्द्र ! उन भगवती के स्वरूप को जाने बिना मनुष्य मुक्त नहीं हो सकता ॥ ७-८१/२

जब मनुष्य आकाश को चर्म से आच्छादित कर लेंगे तब शिवा को न जानकर भी दुःख का अन्त होगा अर्थात् जैसे चर्म से आकाश का ढकना सम्भव नहीं है, वैसे ही शिवातत्त्व के ज्ञान के बिना दुःख का अन्त होना सम्भव नहीं है। अतः श्वेताश्वतर शाखाध्यायी मनीषियों ने श्रुति में ऐसा कहा है कि उन महापुरुषों ने अपने गुणों से व्यक्त न होने वाली दिव्यशक्ति सम्पन्न भगवती जगदम्बा का दर्शन ध्यानयोग द्वारा प्राप्त किया था ॥ ९-११ ॥ अतः जन्म सफल करने के निमित्त सभी आसक्तियों का परित्याग करके तथा अपने मन को हृदय में रोककर लज्जा, भय अथवा प्रेममय भक्ति के साथ किसी भी तरह से सम्यक् प्रयत्न करके उन भगवती में पूर्ण निष्ठा तथा तत्परता रखनी चाहिये — ऐसा वेदान्त का स्पष्ट उद्घोष है । जो मनुष्य जिस किसी भी बहाने सोते, बैठते अथवा चलते समय भगवतीका निरन्तर कीर्तन करता है, वह [ सांसारिक ] बन्धनसे निश्चितरूपसे छूट जाता है ॥ १२-१३१/२

अतः हे राजन्! आप विराट् सूक्ष्म रूपवाली, रूपवाली तथा अन्तर्यामिस्वरूपिणी महेश्वरी की उपासना कीजिये । इस प्रकार आप पहले सोपान – क्रम से उपासना करके पुनः अन्तःकरण शुद्ध हो जाने पर सांसारिक प्रपंच तथा उल्लासरहित सच्चिदानन्द, लक्ष्यार्थरूपिणी तथा ब्रह्मरूपिणी उन पराशक्ति भगवती की आराधना कीजिये। उन भगवती में चित्त को जो लीन कर देना है, वही उनका आराधन कहा गया है ॥ १४–१६१/२

हे राजन्! इस प्रकार मैंने सूर्य और चन्द्र-वंश में उत्पन्न, पराशक्ति के उपासक, धर्मपरायण तथा मनस्वी राजाओं के कीर्ति, धर्म, बुद्धि, उत्तम गति तथा पुण्य प्रदान करने वाले पावन चरित्र का वर्णन कर दिया, अब आप दूसरा कौन-सा प्रसंग सुनना चाहते हैं ? ॥ १७-१८१/२

जनमेजय बोले — हे मुने! पूर्व में मणिद्वीप- निवासिनी पराम्बा भगवती ने गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को उत्पन्न कर उन्हें क्रमशः शिव, विष्णु तथा पद्मयोनि ब्रह्मा को सौंप दिया था। साथ ही यह भी सुना गया है कि गौरी हिमालय तथा दक्ष प्रजापति की कन्या हैं और महालक्ष्मी क्षीरसमुद्र की कन्या हैं — ऐसा कहा गया है। मूलप्रकृति भगवती से उत्पन्न ये देवियाँ दूसरों की कन्याएँ कैसे हुईं ? महामुने ! यह असम्भव-सी बात प्रतीत होती है, इसमें मुझे सन्देह है। अतः सन्देहों का छेदन करने में पूर्ण तत्पर आप मेरे उस संशय को अपने ज्ञानरूपी खड्ग से काट दीजिये ॥ १९–२२ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, मैं आपको परम अद्भुत रहस्य बतलाता हूँ । आप-सदृश देवीभक्त के लिये भगवती का कोई भी रहस्य छिपाने योग्य नहीं है ॥ २३ ॥ जब पराम्बिका ने तीनों देवियाँ उन तीनों देवताओं को सौंप दीं, उसी समय से उन देवताओं ने सृष्टि के कार्य आरम्भ कर दिये ॥ २४ ॥

हे राजन् ! एक समय की बात है कि हालाहल नाम वाले अनेक महापराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुए और उन्होंने क्षणभर में तीनों लोकों को जीत लिया ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी के वरदान से अभिमान में चूर उन दैत्यों ने अपनी सेनाओं के साथ कैलास और वैकुण्ठ को घेर लिया ॥ २६ ॥ तब भगवान् शंकर और विष्णु उनके साथ युद्ध के लिये तत्पर हो गये और साठ हजार वर्षों तक उनके बीच अत्यन्त भीषण युद्ध होता रहा । देवता और दानव – दोनों सेनाओं में महान् हाहाकार मच गया। तब अन्त में उन दोनों ने बड़े प्रयत्न के साथ उन दैत्यों को मार डाला ॥ २७-२८ ॥

हे राजन् ! तत्पश्चात् वे शंकर तथा विष्णु अपने-अपने लोक को जाकर अपनी शक्तियों (गौरी तथा लक्ष्मी) – के समक्ष, जिनके बल-प्रभाव से वे उन दैत्यों को मार सके थे, अपने बल का अभिमान करने लगे ॥ २९ ॥ उन दोनों का यह अभिमान देखकर महालक्ष्मी तथा गौरी छद्मपूर्ण हास करने लगीं। तब उन दोनों देवियों की हँसी देखकर आदिमाया के प्रभाव से विमोहित वे दोनों देवता अत्यन्त कुपित हो उठे और अवहेलनापूर्वक अनुचित उत्तर देने लगे ॥ ३०-३१ ॥ तदनन्तर वे दोनों देवियाँ उसी क्षण उन दोनों ( शंकर तथा विष्णु ) – से पृथक् होकर अन्तर्धान हो गयीं, इससे हाहाकार मच गया ॥ ३२ ॥ उन दोनों शक्तियों के अपमान के कारण उस समय विष्णु तथा शंकर निस्तेज, शक्तिहीन, विक्षिप्त तथा चेतनारहित हो गये ॥ ३३ ॥ इस पर ब्रह्माजी चिन्ता से अधीर हो गये और सोचने लगे कि यह क्या हो गया ? देवताओं में प्रधान वे विष्णु तथा शिव अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ क्यों हो गये ? यह संकट अचानक किस कारण से उपस्थित हो गया ? क्या इस निरपराध जगत् का प्रलय हो जायगा ? मैं इसका कारण नहीं जान पा रहा हूँ, तो फिर इस स्थिति में इसका प्रतीकार कैसे किया जाय ॥ ३४-३५१/२

इसी महान् चिन्ता में निमग्न ब्रह्माजी ने नेत्र बन्द करके ध्यान लगाया और तब उन्होंने जाना कि पराशक्ति के प्रकोप से ही यह सब घटित हुआ है। हे नृपश्रेष्ठ ! यह जानते ही ब्रह्माजी सावधान हो गये । इसके अनन्तर विष्णु तथा शंकर का जो कार्य था, उसे तपोनिधि ब्रह्माजी अपनी शक्ति के प्रभाव से कुछ समय तक स्वयं करते रहे ॥ ३६-३८ ॥ तदनन्तर धर्मात्मा ब्रह्माजी ने उन विष्णु तथा शंकर के कल्याणार्थ अपने मनु आदि तथा सनक आदि पुत्रों का शीघ्र आह्वान किया। तपोनिधि ब्रह्माजी ने अपने समक्ष सिर झुकाये हुए उन कुमारों से कहा — मैं संसार के भार से युक्त हूँ । अतः कार्य में अत्यधिक आसक्त रहने के कारण मैं इस समय पराशक्ति जगदम्बा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने में समर्थ नहीं हूँ । उन पराशक्ति के प्रकोप के कारण विष्णु तथा शिव विक्षिप्त हो गये हैं, अतः आप लोग परम भक्ति से युक्त होकर अद्भुत तप करके उन पराशक्ति जगदम्बा को प्रसन्न कीजिये ॥ ३९—४२ ॥ हे मेरे पुत्रो ! जिस भी प्रकार से शिव तथा विष्णु पूर्व की भाँति हो जायँ और अपनी शक्तियों से सम्पन्न हो सकें, आपलोग वैसा प्रयत्न कीजिये; इससे आप लोगों का यश ही बढ़ेगा। जिस कुल में उन दोनों शक्तियों का जन्म होगा, वह कुल सम्पूर्ण जगत् को पवित्र कर देगा और स्वयं कृतार्थ हो जायगा ॥ ४३-४४ ॥

व्यासजी बोले — पितामह ब्रह्मा की बात सुनकर विशुद्ध अन्तःकरणवाले उनके दक्ष आदि सभी पुत्र भगवती जगदम्बा की आराधना करने की इच्छा से वन में चले गये ॥ ४५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘भगवती की समाराधना के इच्छुक देवताओं द्वारा तप करने का वर्णन’ नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.