श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-32
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-द्वात्रिंशोऽध्यायः
बतीसवाँ अध्याय
देवीगीता के प्रसंग में भगवती का हिमालय से माया तथा अपने स्वरूप का वर्णन
देव्या व्यष्टिसमष्टिरूपवर्णनम्

देवी बोलीं — सभी देवता मेरे द्वारा कहे जाने वाले वचन को सुनें, जिसके श्रवणमात्र से मनुष्य मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ १ ॥ हे पर्वतराज ! पूर्व में केवल मैं ही थी और कुछ भी नहीं था । उस समय मेरा रूप चित्, संवित् (ज्ञानस्वरूप ) और परब्रह्म नाम वाला था । उसके सम्बन्ध में कोई तर्क नहीं किया जा सकता, इदमित्थं रूप से उसका निर्देश नहीं किया जा सकता, उसकी कोई उपमा नहीं है तथा वह विकाररहित है ॥ २१/२

भगवती की कोई स्वत: सिद्ध शक्ति है, जो माया नाम से प्रसिद्ध है। वह शक्ति न सत् है, न असत् है और दोनों में विरोध होने के कारण वह सत्-असत् — उभयरूप भी नहीं है। सत्-असत् इन दोनों से विलक्षण वह माया कोई अन्य ही वस्तु है ॥ ३-४ ॥ जैसे अग्नि में उसकी उष्णता सदा रहती है, सूर्य में प्रकाश की किरण रहती है और चन्द्रमा में उसकी चन्द्रिका विद्यमान रहती है, उसी प्रकार यह माया निश्चितरूप से सदा मेरी सहचरी है ॥ ५ ॥ जैसे सुषुप्ति-अवस्था में व्यवहार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार प्रलयकाल में समस्त जीव, काल तथा जीवों के कर्म उन्हीं भगवती में अभेदरूप से विलीन हो जाते हैं ॥ ६ ॥ मैं अपनी उसी शक्ति के समायोग से बीजरूप को प्राप्त हुई अर्थात् मुझमें सृष्टि के कर्तृत्व का उदय हुआ। उस माया के अपने आधाररूपी आवरण के कारण मुझमें उसका कुछ दोष आ गया अर्थात् चैतन्यादि का तिरोधान हो गया ॥ ७ ॥

चैतन्य सम्बन्ध से मुझे संसार का निमित्तकारण कहा जाता है और मेरा परिणामरूप यह सृष्टिप्रपंच मुझसे ही उत्पन्न होता है तथा मुझमें ही विलीन होता है, अतः मुझे समवायिकारण कहा जाता है ॥ ८ ॥ कुछ लोग उस शक्ति को तप, कुछ लोग तम तथा दूसरे लोग उसे जड – ऐसा कहते हैं । इसी प्रकार कुछ लोग उसे ज्ञान, माया, प्रधान, प्रकृति, शक्ति तथा अजा कहते हैं और शैवशास्त्रके मनीषी उसे विमर्श भी कहते हैं। वेदतत्त्वार्थ को जाननेवाले अन्य पुरुष उसे अविद्या कहते हैं । इस प्रकार वेद आदिमें उस शक्तिके नानाविध नाम प्रतिपादित हैं ॥ ९-१०१/२

केवल दिखायी देने के कारण वह जड है और ज्ञान-प्राप्ति से नष्ट होने के कारण वह असत् है। चैतन्य दिखायी नहीं पड़ता और जो दिखायी पड़ता है, वह जड ही है । चैतन्य स्वयं प्रकाशस्वरूप है, वह दूसरे से प्रकाशित नहीं होता । वह अपने द्वारा भी प्रकाशित नहीं है; क्योंकि इससे अनवस्था का दोष आ जायगा। कर्मत्व और कर्तृत्व — ये दोनों विरुद्ध धर्म एक अधिकरण में नहीं रह सकते, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वह चैतन्य अपने द्वारा प्रकाशित होता है । प्रत्युत हे पर्वत ! दीपक की भाँति प्रकाशमान उसे सूर्य आदि दूसरों का प्रकाशक समझिये । अतएव मेरे ज्ञानरूप शरीर का नित्यत्व स्पष्टतः सिद्ध है ॥ ११–१४ ॥ जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में संवित् (ज्ञानस्वरूप स्वयं ) – का अभाव प्रतीत न होकर प्रत्युत तीनों अवस्थाओं का अभाव अनुभव में आता है, इस प्रकार कभी भी संवित् का अभाव अनुभव में नहीं आता है। अतः संवित् के अभाव का अनुभव न होने के कारण उसका नित्यत्व स्वतः सिद्ध है । यदि किसी को संवित् अभाव का अनुभव होता है तो जिस साक्षी के द्वारा उस संविद्रूप के अभाव का अनुभव होता है, वही संवित् का स्वरूप होगा। अतः उत्तम शास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों ने उसे नित्य कहा है । वह परम प्रेमास्पद है, अतः उसमें आनन्दरूपता भी है ॥ १५–१७ ॥

पूर्व में मेरा अभाव था, ऐसा नहीं; मैं तब भी थी और प्रेमरूप में सबकी आत्मा में स्थित थी । अन्य सभी वस्तुओं के मिथ्या होने के कारण मेरा उन वस्तुओं से सम्बन्ध न रहना स्वयं स्पष्ट है; अतः यह मेरे रूप की अपरिच्छिन्नता ( व्यापकता) भी कही गयी है। वह ज्ञान आत्मा का धर्म नहीं है, अन्यथा धर्मत्व होने से उसमें जडता आ सकती है। ज्ञान के किसी भी अंश में जडता और अनित्यता को न कभी देखा गया और न देखा जा सकता है। ज्ञानरूप चित् आत्मरूप चित् का धर्म नहीं है; क्योंकि आत्मरूप चित् और ज्ञानरूप चित् एक ही हैं और धर्मिधर्मीभाव एकत्र सम्भव नहीं है । अतः आत्मा सर्वदा ज्ञानरूप तथा सुखरूप है; वह सत्य, पूर्ण और असंग है तथा द्वैत-जाल से रहित है ॥ १८-२१ ॥ वही आत्मा काम अर्थात् इच्छा तथा कर्म अर्थात् अदृष्ट आदि के साथ युक्त होकर अपनी माया से पूर्व में किये गये अनुभवों के संस्कार, काल के द्वारा किये गये कर्म के परिपाक और तत्त्वों के अविवेक से सृष्टि करने की इच्छावाला हो जाता है । हे पर्वतराज हिमालय ! मैंने आपसे अबुद्धिपूर्वक ( शयन के अनन्तर परमात्मा की जो जागरणरूप अवस्था है वह बुद्धिपूर्वक नहीं है ) हुए इस सृष्टिक्रम का वर्णन किया है ॥ २२-२३ ॥ यह मैंने आपसे अपने जिस रूप के विषय में कहा है; वह अलौकिक, अव्याकृत ( प्रारम्भिक ), अव्यक्त ( सृष्टिका आदिकारण ) तथा मायाशबल ( माया से आवृत) भी है ॥ २४ ॥

समस्त शास्त्रों में इसे सभी कारणों का कारण; महत्, अहंकार आदि तत्त्वों का आदिकारण तथा सत्- चित्-आनन्दमय विग्रहवाला बताया गया है ॥ २५ ॥ उस रूप को सम्पूर्ण कर्मों का साक्षी, इच्छा – ज्ञान तथा क्रियाशक्ति का अधिष्ठान, ह्रींकार मन्त्र का वाच्य (अर्थ) और आदितत्त्व कहा गया है ॥ २६ ॥ उसी से शब्दतन्मात्रा वाला आकाश, स्पर्शतन्मात्रा वाला वायु और पुनः रूपतन्मात्रा वाला तेज उत्पन्न हुआ। इसके बाद रसात्मक जल तथा पुनः गन्धात्मक पृथ्वी की [क्रमशः ] उत्पत्ति हुई । आकाश शब्द नामक एक गुण से; वायु शब्द तथा स्पर्श — इन दो गुणों से और तेज शब्द, स्पर्श, रूप — इन तीन गुणों से युक्त हुए – ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । इसी प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस — ये चार गुण के कहे गये हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध — इन पाँच गुणों से युक्त पृथ्वी है ॥ २७–२९१/२

उन्हीं पृथ्वी आदि सूक्ष्म भूतों से महान् व्यापक सूत्र उत्पन्न हुआ, जिसे लिंग शब्द से कहा जाता है; वह सर्वात्मक कहा गया है। यही परमात्मा का सूक्ष्म शरीर है। जिसमें यह जगत् बीजरूप में स्थित है और जिससे लिंगदेह की उत्पत्ति हुई है, वह अव्यक्त कहा जाता है और वह परब्रह्म का कारण शरीर है; उसके विषय में पहले ही कहा जा चुका है ॥ ३०-३११/२

तदनन्तर उसी अव्यक्तशरीर (लिंगशरीर ) – से पंचीकरण प्रक्रिया के द्वारा पाँच स्थूल भूत उत्पन्न होते हैं। अब उस पंचीकरणप्रक्रिया का वर्णन किया जा रहा है। पूर्व में कहे गये पाँच भूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश ) – में प्रत्येक भूत के दो बराबर-बराबर भाग करके प्रत्येक भूत के प्रथम आधे भाग को पुनः चार भागों में विभक्त कर दे। इस प्रकार प्रथम भाग के विभक्त चतुर्थांश को अन्य चार भूतों के अवशिष्ट अर्धांश में संयोजित कर दे। इस प्रकार प्रत्येक भूत के अर्धांश में तदतिरिक्त चार भूतों के अंश का योग होने से पाँचों स्थूल भूतों का निर्माण हो जाता है । इस प्रकार पंचीकृतभूतरूपी कारण के द्वारा जो कार्य (सृष्टिप्रपंच) उत्पन्न हुआ, वही विराट् शरीर है और वही परमात्मा का स्थूल देह है । हे राजेन्द्र ! पंचभूतों में स्थित सत्त्वांशों के परस्पर मिलने से श्रोत्र आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा एक अन्त: करण की उत्पत्ति हुई, जो वृत्तिभेद चार प्रकार (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) – का हो जाता है ॥ ३२-३६ ॥ जब उसमें संकल्प-विकल्पवृत्ति का उदय होता है, तब उस अन्तःकरण को मन कहा जाता है । जब वह अन्तःकरण संशयरहित निश्चयात्मक वृत्ति से युक्त होता है, तब उसकी बुद्धि संज्ञा होती है । अनुसन्धान (चिन्तन)-वृत्ति के आने पर वही अन्त:करण चित्त कहा जाता है और अहंकृतिवृत्ति से संयुक्त होने पर वह अन्तःकरण अहंकारसंज्ञक हो जाता है ॥ ३७-३८ ॥ तदनन्तर उन पाँच भूतों के राजस अंशों से क्रमशः पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं। प्रत्येक राजस अंशों के मिलने से पाँच प्रकार के प्राण उत्पन्न हुए । प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि में, उदान कंठ में तथा व्यान सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हुआ । इस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, प्राण आदि पाँच वायु और बुद्धिसहित मन- — इन्हीं सत्रह अवयवों वाला मेरा सूक्ष्म शरीर है, जिसे लिंग शब्द से भी कहा जाता है ॥ ३९–४११/२

हे राजन्! जो प्रकृति कही गयी है, वह भी दो भेदों वाली बतायी गयी है। शुद्धसत्त्वप्रधान प्रकृति माया है तथा मलिनसत्त्वप्रधान प्रकृति अविद्या है। जो प्रकृति अपने आश्रित रहने वाले की रक्षा करती है अर्थात् आवरण या व्यामोह नहीं करती, उसे माया कहा जाता है। उस शुद्ध सत्त्वप्रधान माया में बिम्बरूप परमात्मा का जो प्रतिबिम्ब होता है, वही ईश्वर कहा गया है । वह ईश्वर अपने आश्रय अर्थात् व्यापक ब्रह्म को जानने वाला, परात्पर, सर्वज्ञ, सब कुछ करने वाला तथा समस्त प्राणियों के ऊपर कृपा करनेवाला है ॥ ४२–४४१/२

हे पर्वतराज हिमालय ! [मलिनसत्त्वप्रधान] अविद्या में जो परमात्मा का प्रतिबिम्ब है, वही जीव कहा जाता है और वही जीव अविद्या के द्वारा आनन्दांश का आवरण कर देने के कारण सभी दुःखों का आश्रय हो जाता है । माया-अविद्या के कारण ईश्वर और जीव- इन दोनों के तीन देह तथा देहत्रय के अभिमान के कारण तीन नाम कहे जाते हैं । कारणदेहाभिमानी जीव को प्राज्ञ, सूक्ष्मदेहाभिमानी को तैजस तथा स्थूलदेहाभिमानी को विश्व — इन तीन प्रकार वाला कहा गया है। इसी प्रकार ईश्वर भी ईश, सूत्र तथा विराट् नामों से कहा गया है। जीव को व्यष्टिरूप तथा परमेश्वर को समष्टिरूप कहा गया है। वे सर्वेश्वर मेरी मायाशक्ति से प्रेरित होकर जीवों पर कृपा करने की कामना से विविध भोगों से युक्त विश्वों की सृष्टि करते हैं । हे राजन् ! मेरी शक्ति के अधीन होकर वे ईश्वर रज्जु में सर्प की भाँति मुझ ब्रह्मरूपिणी में नित्य कल्पित हैं ॥ ४५–५० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘देवीगीता में देवी के व्यष्टि और समष्टिरूप का वर्णन’ नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥

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