श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-33
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः
तैंतीसवाँ अध्याय
भगवती का अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओं की स्तुति से प्रसन्न भगवती का पुनः सौम्यरूप धारण करना
श्रीदेवीविराड्‌रूपदर्शनसहितं देवकृततत्स्तववर्णनम्

देवी बोलीं — [ हे हिमालय ! ] यह सम्पूर्ण चराचर जगत् मेरी मायाशक्ति से ही उत्पन्न हुआ है। परमार्थदृष्टि से विचार करने पर वह माया भी मुझसे पृथक् नहीं है । व्यवहारदृष्टि से वह विद्या ही ‘माया’ इस नाम से प्रसिद्ध है । तत्त्वदृष्टि से भेद सम्बन्ध नहीं है, दोनों एक ही तत्त्व हैं ॥ १-२ ॥ हे गिरे ! मैं सम्पूर्ण जगत् का सृजनकर माया और कर्म आदि के साथ प्राणों को आगे करके उस जगत् के भीतर प्रवेश करती हूँ, अन्यथा संसार के सभी क्रिया- कलाप कैसे हो पाते ? इसी कारण से मैं ऐसा करती हूँ । माया के भेदानुसार मेरे विभिन्न कार्य होते हैं । जिस प्रकार आकाश एक होते हुए भी घटाकाश आदि अनेक नामों से व्यवहृत है, उसी प्रकार मैं एक होती हुई भी उपाधि-भेद से भिन्न हूँ ॥ ३-४१/२

जिस प्रकार उत्तम और निकृष्ट – सभी वस्तुओं को सदा प्रकाशित करता हुआ सूर्य कभी भी दूषित नहीं होता, उसी प्रकार मैं कभी उपाधियों के दोषों से लिप्त नहीं होती हूँ ॥ ५१/२

कुछ अज्ञानी मुझमें बुद्धि इत्यादि के कर्तृत्व का आरोप कर मुझे आत्मा तथा कर्म की संज्ञा देते हैं, किंतु विज्ञजन ऐसा नहीं करते। जिस प्रकार घटरूप उपाधि के द्वारा महाकाश का घटाकाश से भेद कल्पित होता है, उसी प्रकार [ईश्वर तथा जीव में वास्तविक भेद न होने पर भी] अज्ञानरूप उपाधि के द्वारा ही जीव का ईश्वर से भेद माया के द्वारा कल्पित है ॥ ६–८१/२

जैसे माया के प्रभाव से ही जीव अनेक प्रतीत होते हैं; जो वास्तव में अनेक नहीं हैं, वैसे ही माया के प्रभाव से ईश्वर की भी विविधता का भान होता है न कि अपने स्वभाववश ॥ ९१/२

भेद की प्रतीति अविद्या के कारण है ( वास्तविक विभिन्न जीवों के देह तथा इन्द्रिय के समूह में जैसे नहीं है), उसी प्रकार जीवों में भेद अविद्या के कारण है, इसमें दूसरे को हेतु नहीं बताया गया है । हे धराधर ! गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) – में उन गुणों के कार्यरूप वासना भेद से जो भिन्नता की प्रतीति करने वाली है, वही माया एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में भेद का हेतु है, कोई अन्य कभी नहीं ॥ १०- १११/२

हे धरणीधर! यह समग्र जगत् मुझमें ओतप्रोत है । मैं ईश्वर हूँ, मैं सूत्रात्मा हूँ तथा मैं ही विराट् आत्मा हूँ। मैं ही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र हूँ । गौरी, ब्राह्मी और वैष्णवी भी मैं ही हूँ ॥ १२-१३ ॥ मैं सूर्य हूँ, मैं ही चन्द्रमा हूँ और तारे भी मैं ही हूँ । पशु-पक्षी आदि भी मेरे ही स्वरूप हैं। चाण्डाल, तस्कर, व्याध, क्रूर कर्म करने वाला, सत्कर्म करनेवाला तथा महान् पुरुष — ये सब मैं ही हूँ । स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक के रूप में मैं ही हूँ; इसमें कोई संशय नहीं है ॥ १४-१५ ॥ जो कुछ भी वस्तु जहाँ कहीं भी देखने या सुनने में आती है — वह चाहे भीतर अथवा बाहर कहीं भी विद्यमान हो, उन सबको व्याप्तकर उनमें सर्वदा मैं ही स्थित रहती हूँ ॥ १६ ॥ चराचर कोई भी वस्तु मुझसे रहित नहीं है । यदि मुझसे शून्य कोई वस्तु मान ली जाय तो वह वन्ध्यापुत्र के समान असम्भव ही है ॥ १७ ॥ जिस प्रकार एक रस्सी भ्रमवश सर्प अथवा माला के रूप में प्रतीत होती है, उसी प्रकार मैं ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि रूप से प्रतीत होती हूँ; इसमें कोई संशय नहीं है। अधिष्ठान की सत्ता के अतिरिक्त कल्पित वस्तु की सत्ता नहीं होती । [ उसकी प्रतीति अधिष्ठान की सत्ता के कारण होती है ।] अतः मेरी सत्ता से ही वह जगत् सत्तावान् है, इसके अतिरिक्त दूसरी बात नहीं हो सकती ॥ १८-१९ ॥

हिमालय ने कहा — हे देवेश्वरि ! हे देवि ! यदि मुझ पर आपकी कृपा हो तो आपने अपने इस समष्ट्यात्मक विराट् रूप का जैसा वर्णन किया है, आपके उसी रूप को मैं देखना चाहता हूँ ॥ २० ॥

व्यासजी बोले — उन हिमालय की यह बात सुनकर विष्णुसहित सभी देवता प्रसन्नचित्त हो गये और उनकी बात का अनुमोदन करते हुए आनन्दित हो गये ॥ २१ ॥ तदनन्तर देवताओं की इच्छा जानकर भक्तों की कामना पूर्ण करने वाली तथा भक्तों के लिये कामधेनुतुल्य भगवती शिवा ने अपना रूप दिखा दिया। वे देवता महादेवी के उस परात्पर विराट्रूप का दर्शन करने लगे; जिसका मस्तक आकाश है, चन्द्रमा और सूर्य जिसके नेत्र हैं, दिशाएँ कान हैं और वेद वाणी है । वायु को उस रूप का प्राण कहा गया है। विश्व ही उसका हृदय कहा गया है और पृथ्वी उस रूप की जंघा कही गयी है ॥ २२-२४ ॥ पाताल उस रूप की नाभि, ज्योतिश्चक्र वक्ष:स्थल और महर्लोक ग्रीवा है । जनलोक को उसका मुख कहा गया है। सत्यलोक से नीचे रहने वाला तपोलोक उसका ललाट है। इन्द्र आदि उन महेश्वरी के बाहु हैं और शब्द श्रोत्र हैं ॥ २५-२६ ॥ नासत्य और दस्र (दोनों अश्विनीकुमार) उनकी नासिका हैं। विद्वान् लोगों ने गन्ध को उनकी घ्राणेन्द्रिय कहा है। अग्नि को मुख कहा गया है । दिन और रात उनके पक्ष्म ( बरौनी) हैं। ब्रह्मस्थान भौंहों का विस्तार है। जल को भगवती का तालु कहा गया है। रस जिह्वा कही गयी है और यम को उनकी दाढ़ें बताया गया है ॥ २७-२८ ॥ स्नेह की कलाएँ उस रूप के दाँत हैं, माया को उसका हास कहा गया है। सृष्टि उन महेश्वरी का कटाक्षपात और लज्जा उनका ऊपरी ओष्ठ है । लोभ उनका नीचे का ओष्ठ और अधर्ममार्ग उनका पृष्ठभाग है। जो पृथ्वीलोक में स्रष्टा कहे जाते हैं, वे प्रजापति ब्रह्मा उस विराट्रूप की जननेन्द्रिय हैं ॥ २९-३० ॥ समुद्र उन देवी महेश्वरी की कुक्षि और पर्वत उनकी अस्थियाँ हैं। नदियाँ उनकी नाडियाँ कही गयी हैं और वृक्ष उनके केश बताये गये हैं । कुमार, यौवन और बुढ़ापा ये अवस्थाएँ उनकी उत्तम गति हैं । मेघ उनके सिर के केश हैं । [ प्रात: और सायं ] दोनों सन्ध्याएँ उन ऐश्वर्यमयी देवी के दो वस्त्र हैं ॥ ३१-३२ ॥

हे राजन्! चन्द्रमा को श्रीजगदम्बा का मन कहा गया है । विष्णु को उनकी विज्ञानशक्ति और रुद्र को उनका अन्त:करण बताया गया है। अश्व आदि जातियाँ उन ऐश्वर्यशालिनी भगवती के कटिप्रदेश में स्थित हैं और अतल से लेकर पाताल तक के सभी महान् लोक उनके कटिप्रदेश के नीचे के भाग हैं ॥ ३३-३४ ॥ श्रेष्ठ देवताओं ने हजारों प्रकार की ज्वालाओं से युक्त, जीभ से बार- बार ओठ चाटते हुए, दाँत कट- कटाकर चीखने की ध्वनि करते हुए, आँखों से अग्नि उगलते हुए, अनेक प्रकार के आयुध धारण किये हुए, पराक्रमी, ब्राह्मण-क्षत्रिय ओदनरूप, हजार मस्तक, हजार नेत्र और हजार चरणों से सम्पन्न, करोड़ों सूर्यों के समान तेजयुक्त तथा करोड़ों बिजलियों के समान प्रभा से प्रदीप्त, भयंकर, महाभीषण तथा हृदय और नेत्रों के लिये सन्त्रासकारक ऐसे विराट्रूप का दर्शन किया । जब उन देवताओं ने इसे देखा तब वे हाहाकार करने लगे, उनके हृदय काँप उठे, उन्हें घोर मूर्च्छा आ गयी और उनकी यह स्मृति भी समाप्त हो गयी कि यही भगवती जगदम्बा हैं ॥ ३५–३९ ॥ उन महाविभु की चारों दिशाओं में जो वेद विराजमान थे, उन्होंने मूर्च्छित देवताओं को अत्यन्त घोर मूर्च्छा से चेतना प्रदान की। इसके बाद धैर्य धारणकर वे देवताश्रेष्ठ श्रुति प्राप्त करके प्रेमाश्रुओं से परिपूर्ण नेत्रों तथा रुँधे हुए कंठ से गद्गद वाणी में उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४०-४१ ॥

॥ देवा ऊचुः ॥
अपराधं क्षमस्वाम्ब पाहि दीनांस्त्वदुद्‌भवान् ॥ ४२ ॥
कोपं संहर देवेशि सभया रूपदर्शनात् ।
का ते स्तुतिः प्रकर्तव्या पामरैर्निर्जरैरिह ॥ ४३ ॥
स्वस्याप्यज्ञेय एवासौ यावान्यश्च स्वविक्रमः ।
तदर्वाग्जायमानानां कथं स विषयो भवेत् ॥ ४४ ॥
नमस्ते भुवनेशानि नमस्ते प्रणवात्मिके ।
सर्ववेदान्तसंसिद्धे नमो ह्रीङ्कारमूर्तये ॥ ४५ ॥
यस्मादग्निः समुत्पन्नो यस्मात्सूर्यश्च चन्द्रमाः ।
यस्मादोषधयः सर्वास्तस्मै सर्वात्मने नमः ॥ ४६ ॥
यस्माच्च देवाः सम्भूताः साध्याः पक्षिण एव च ।
पशवश्च मनुष्याश्च तस्मै सर्वात्मने नमः ॥ ४७ ॥
प्राणापानौ व्रीहियवौ तपः श्रद्धा ऋतं तथा ।
ब्रह्मचर्यं विधिश्चैव यस्मात्तस्मै नमो नमः ॥ ४८ ॥
सप्त प्राणार्चिषो यस्मात्समिधः सप्त एव च ।
होमाः सप्त तथा लोकास्तस्मै सर्वात्मने नमः ॥ ४९ ॥
यस्मात्समुद्रा गिरयः सिन्धवः प्रचरन्ति च ।
यस्मादोषधयः सर्वा रसास्तस्मै नमो नमः ॥ ५० ॥
यस्माद्यज्ञः समुद्‌भूतो दीक्षा यूपश्च दक्षिणाः ।
ऋचो यजूंषि सामानि तस्मै सर्वात्मने नमः ॥ ५१ ॥
नमः पुरस्तात्पृष्ठे च नमस्ते पार्श्वयोर्द्वयोः ।
अध ऊर्ध्वं चतुर्दिक्षु मातर्भूयो नमो नमः ॥ ५२ ॥

देवता बोले — हे अम्ब! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिये और अपने दीन सन्तानों की रक्षा कीजिये। हे देवेश्वरि ! आप अपना क्रोध शान्त कर लीजिये; क्योंकि हम लोग यह रूप देखकर भयभीत हो गये हैं । हम मन्दबुद्धि देवता यहाँ आपकी कौन- सी स्तुति कर सकते हैं ? आपका अपना जितना तथा जैसा पराक्रम है, उसे आप स्वयं भी नहीं जानतीं, तो फिर वह बाद में प्रादुर्भूत होने वाले हम देवताओं के ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है ? ॥ ४२–४४ ॥ भुवनेश्वरि ! आपको नमस्कार है। हे प्रणवात्मिके! आपको नमस्कार है । समस्त वेदान्तों से प्रमाणित तथा ह्रींकाररूप धारण करने वाली हे भगवति! आपको नमस्कार है ॥ ४५ ॥ जिनसे अग्नि उत्पन्न हुआ है, जिनसे सूर्य तथा चन्द्र आविर्भूत हुए हैं और जिनसे समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुई हैं, उन सर्वात्मा को नमस्कार है ॥ ४६ ॥ जिनसे सभी देवता, साध्यगण, पक्षी, पशु तथा मनुष्य उत्पन्न हुए हैं; उन सर्वात्मा को नमस्कार है ॥ ४७ ॥ जिनसे प्राण, अपान, व्रीहि (धान), यव, तप, श्रद्धा, सत्य, ब्रह्मचर्य और विधि का आविर्भाव हुआ है; उन सर्वात्मा को बार- बार नमस्कार है ॥ ४८ ॥ जिनसे सातों प्राण, सात अग्नियाँ, सात समिधाएँ, सात होम तथा सात लोक उत्पन्न हुए हैं; उन सर्वात्मा को नमस्कार है ॥ ४९ ॥ जिनसे समुद्र, पर्वत तथा सभी सिन्धु निकलते हैं और जिनसे सभी औषधियाँ तथा रस उद्भूत होते हैं, उन सर्वात्मा को बार – बार नमस्कार है ॥ ५० ॥ जिनसे यज्ञ, दीक्षा, यूप, दक्षिणाएँ, ऋचाएँ, यजुर्वेद तथा सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए हैं; उन सर्वात्मा को नमस्कार है ॥ ५१ ॥ हे माता ! आपको आगे पीछे, दोनों पार्श्वभाग, ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओं से बार- बार नमस्कार है ॥ ५२ ॥ हे देवेश्वरि! अब इस अलौकिक रूप को छिपा लीजिये और हमें उसी परम सुन्दर रूप का दर्शन कराइये ॥ ५३ ॥

व्यासजी बोले — देवताओं को भयभीत देखकर कृपासिन्धु जगदम्बा ने उस घोर रूप को छिपाकर और पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्रा से युक्त, समस्त कोमल अंगों वाले, करुणा से परिपूर्ण नेत्रों वाले एवं मन्द मन्द मुसकान-युक्त मुखकमल वाले मनोहर रूप का दर्शन करा दिया ॥ ५४-५५ ॥ तब भगवती का वह सुन्दर रूप देखकर वे देवता भयरहित हो गये और शान्तचित्त होकर हर्षयुक्त गद्गद वाणी से देवी को प्रणाम करने लगे ॥ ५६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘देवी द्वारा विराट्रूप दिखाना और देवताओं द्वारा की गयी उनकी स्तुति का वर्णन’ नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥

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