श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-02
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-द्वितीयोऽध्यायः
दूसरा अध्याय
ब्रह्माजी की नासिका से वराह के रूप में भगवान् श्रीहरि का प्रकट होना और पृथ्वी का उद्धार करना, ब्रह्माजी का उनकी स्तुति करना
धरण्युद्धारवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — हे परन्तप ! मनु एवं मरीचि आदि श्रेष्ठ मुनियों के द्वारा चारों ओर से घिरे हुए उन पद्मयोनि ब्रह्माजी के मन में अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न हो रहे थे । हे अनघ ! इस प्रकार ध्यान करते हुए उन ब्रह्माजी की नासिका के अग्रभाग से अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला एक वराह-शिशु सहसा प्रकट हो गया ॥ १-२ ॥ हे नारद! उन ब्रह्माजी के देखते-देखते वह वराह-शिशु आकाश में स्थित होकर क्षणभर में बढ़कर एक विशालकाय हाथी के आकार का हो गया। वह एक महान् आश्चर्यजनक घटना थी ॥ ३ ॥ हे नारद! उस समय मरीचि आदि प्रधान विप्रवरों तथा सनक आदि ऋषियों के साथ बैठे ब्रह्माजी वह वराहरूप देखकर मन-ही-मन विचार करने लगे कि सूकर के व्याज से यह कौन-सा दिव्य प्राणी मेरी नासिका से निकलकर मेरे सम्मुख उपस्थित हो गया। यह तो महान् आश्चर्य है । अभी-अभी अँगूठे के पोर के बराबर दिखायी पड़ने वाला यह क्षणभर में ही पर्वतराज के सदृश हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वयं यज्ञरूप भगवान् विष्णु ही मेरे मन को खिन्न करते हुए इस रूप में प्रकट हुए हों ॥ ४-६ ॥

परमात्मा ब्रह्माजी ऐसा सोच ही रहे थे कि उसी समय पर्वत के समान आकृति वाले वाराहरूपधारी उन भगवान् ने गर्जना की ॥ ७ ॥ उन्होंने अपने गर्जनमात्र से समस्त दिशाओं को निनादित करते हुए ब्रह्माजी तथा वहाँ उपस्थित उत्तम ब्राह्मणों के समुदाय को हर्षित कर दिया ॥ ८ ॥ अपने खेद को नष्ट करने वाली घुरघुराहट की ध्वनि सुनकर जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोक में निवास करने वाले उन श्रेष्ठ देवताओं और विप्रवरों ने छन्दोबद्ध उत्तम स्तोत्रों तथा ऋक्, साम और अथर्ववेद से सम्भूत पवित्र सूक्तों से आदिपुरुष की स्तुति प्रारम्भ कर दी ॥ ९-१० ॥ उनकी स्तुति सुनकर ऐश्वर्यसम्पन्न वाराहरूप भगवान् श्रीहरि अपनी कृपादृष्टिमात्र से उन्हें अनुगृहीत करके जल में प्रविष्ट हो गये ॥ ११ ॥ जल में प्रविष्ट होते हुए उन भगवान् ‌की सटा के आघात से अत्यन्त पीड़ित समुद्र ने उनसे कहा — शरणागतों के दुःख दूर करने वाले हे देव! मेरी रक्षा कीजिये ॥ १२ ॥

समुद्र द्वारा कथित यह वचन सुनकर सर्वसमर्थ भगवान् श्रीहरि जलचर जीवों को इधर-उधर हटाते हुए अथाह जल में चले गये ॥ १३ ॥ इधर-उधर भ्रमण करते हुए, पृथ्वी को खोजते हुए उन सर्वेश्वर ने धीरे-धीरे सूँघ – सूँघकर अन्त में सबको धारण करने वाली उस पृथ्वी को पा लिया ॥ १४ ॥ उस समय अगाध जल के भीतर प्रविष्ट तथा सभी प्राणियों को आश्रय देने वाली उस पृथ्वी को देवदेवेश्वर श्रीहरि ने अपने दाढ़ों पर उठा लिया ॥ १५ ॥ उस पृथ्वी को अपने दाढ़ पर रखे हुए यज्ञेश्वर तथा यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कोई दिग्गज कमलिनी को [ अपने दाँत पर ] उठाये हो ॥ १६ ॥ अपने दाढ़ पर पृथ्वी को उठाये हुए उन देवेश्वर को देखकर स्वराट् मनुसहित देवाधिदेव ब्रह्मा उनकी स्तुति करने लगे ॥ १७ ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥
जितं ते पुण्डरीकाक्ष भक्तानामार्तिनाशन ।
खर्वीकृतसुराधार सर्वकामफलप्रद ॥ १८ ॥
इयं च धरणी देव शोभते वसुधा तव ।
पद्मिनीव सुपत्राढ्या मतङ्गजकरोद्धृता ॥ १९ ॥
इदं च ते शरीरं वै शोभते भूमिसङ्गमात् ।
उद्धृताम्बुजशुण्डाग्रकरीन्द्रतनुसन्निभम् ॥ २० ॥
नमो नमस्ते देवेश सृष्टिसंहारकारक ।
दानवानां विनाशाय कृतनानाकृते प्रभो ॥ २१ ॥
अग्रतश्च नमस्तेऽस्तु पृष्ठतश्च नमो नमः ।
सर्वामराधारभूत बृहद्धाम नमोऽस्तु ते ॥ २२ ॥
त्वयाहं च प्रजासर्गे नियुक्त: शक्तिबृंहितः ।
त्वदाज्ञावशतः सर्गं करोमि विकरोमि च ॥ २३ ॥
त्वत्सहायेन देवेशा अमराश्च पुरा हरे ।
सुधां विभेजिरे सर्वे यथाकालं यथाबलम् ॥ २४ ॥
इन्द्रस्त्रिलोकीसाम्राज्यं लब्धवांस्तन्निदेशत: ।
भुनक्ति लक्ष्मीं बहुलां सुरसंघप्रपूजित: ॥ २५ ॥
वह्निः पावकतां लब्ध्वा जाठरादिविभेदतः ।
देवासुरमनुष्याणां करोत्याप्यायनं तथा ॥ २६ ॥
धर्मराजोऽथ पितॄणामधिपः सर्वकर्मदृक् ।
कर्मणां फलदातासौ त्वन्नियोगादधीश्वरः ॥ २७ ॥
नैर्ऋतो रक्षसामीशो यक्षो विघ्नविनाशन: ।
सर्वेषां प्राणिनां कर्मसाक्षी त्वत्तः प्रजायते ॥ २८ ॥
वरुणो यादसामीशो लोकपालो जलाधिपः ।
त्वदाज्ञाबलमाश्रित्य लोकपालत्वमागतः ॥ २९ ॥
वायुर्गन्धवह: सर्वभूतप्राणनकारणम् ।
जातस्तव निदेशेन लोकपालो जगद्‌गुरुः ॥ ३० ॥
कुबेरः किन्नरादीनां यक्षाणां जीवनाश्रयः ।
त्वदाज्ञान्तर्गतः सर्वलोकपेषु च मान्यभूः ॥ ३१ ॥
ईशान: सर्वरुद्राणामीश्वरान्तकरः प्रभुः ।
जातो लोकेशवन्द्योऽसौ सर्वदेवाधिपालकः ॥ ३२ ॥
नमस्तुभ्यं भगवते जगदीशाय कुर्महे ।
यस्यांशभागाः सर्वे हि जाता देवाः सहस्रशः ॥ ३३ ॥

ब्रह्माजी बोले — भक्तों के कष्ट दूर करने वाले, देवताओं के आवास स्वर्ग को तिरस्कृत करने वाले तथा समस्त मनोभिलषित फल प्रदान करने वाले हे कमलनयन ! आपकी जय हो ॥ १८ ॥ हे देव ! आपके दाढ़ पर स्थित यह पृथ्वी उसी भाँति सुशोभित हो रही है, जैसे सुन्दर पत्रों से युक्त कमलिनी किसी मतवाले हाथी की सूँड़ पर विराजमान हो ॥ १९ ॥ पृथ्वी के साथ आपका यह शरीर कमल को उखाड़कर उसे अपनी सूँड़ के अग्रभाग पर धारण किये गजराज शरीर की भाँति शोभायमान हो रहा है ॥ २० ॥ सृष्टि तथा संहार करने वाले और दानवों के विनाश के लिये अनेकविध रूप धारण करनेवाले हे देवेश्वर! हे प्रभो! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ २१ ॥ सभी देवताओं के आधारभूत ! आपको आगे से नमस्कार है, आपको पीछे से बार-बार नमस्कार है । हे बृहद्धाम! आपको नमस्कार है ॥ २२ ॥ मैं आपके द्वारा शक्तिशाली बनाकर प्रजा- सृष्टि कार्य में नियुक्त किया गया हूँ । आपकी आज्ञा के वश में होकर ही मैं सृष्टि करता हूँ और उसे बिगाड़ता हूँ ॥ २३ ॥ हे हरे ! आपकी सहायता से ही पूर्व काल में देवेश्वर तथा देवता बल तथा काल के अनुसार अमृत के विभाजन में सफल हुए थे ॥ २४ ॥ आपके ही निर्देश से इन्द्र त्रिलोकी का साम्राज्य प्राप्त कर सके हैं, देवसमुदाय से भलीभाँति पूजित होकर विपुल वैभव का उपभोग करते हैं और अग्निदेव दाहकता का गुण पाकर जठराग्नि आदि के भेद से देवताओं, असुरों और मनुष्यों की तृप्ति करते हैं ॥ २५-२६ ॥ आपके ही नियोग से धर्मराज पितरों के अधिपति, समस्त कर्मों के साक्षी, कर्मों का फल देने वाले तथा अधीश्वर बने हुए हैं ॥ २७ ॥ विघ्नों को दूर करने वाले, सभी प्राणियों के कर्मों के साक्षी और राक्षसों के ईश्वर यक्षरूप नैर्ऋत भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ॥ २८ ॥ आपकी ही आज्ञा का आश्रय लेकर लोकपाल वरुण ने जलचर जीवों के स्वामी, जलाधिपति और लोकपाल का पद प्राप्त किया है ॥ २९ ॥ गन्ध प्रवाहित करने वाले तथा सभी प्राणियों में प्राण – संचार करने वाले वायु आपकी ही आज्ञा से लोकपाल और जगद्गुरु हो सके हैं ॥ ३० ॥ किन्नरों और यक्षों के जीवन के आधारस्वरूप कुबेर आपकी आज्ञा के वशवर्ती रहकर ही समस्त लोकपालों में सम्मान प्राप्त करते हैं ॥ ३१ ॥ सभी देवताओं का अन्त करने वाले, सभी देवों के अधिपालक तथा तीनों लोकों के ईश्वर के भी वन्दनीय भगवान् ईशान आपकी ही आज्ञा से सभी रुद्रों में प्रधान हो गये हैं ॥ ३२ ॥ आप जगदीश्वर परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं, जिनके अंशमात्र से हजारों देवता उत्पन्न हुए हैं ॥ ३३ ॥

नारदजी बोले — इस प्रकार विश्व की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी के द्वारा स्तुत होने पर आदिपुरुष भगवान् श्रीहरि अपनी लीला प्रदर्शित करते हुए उन पर अनुग्रह करने के लिये तत्पर हो गये ॥ ३४ ॥ भगवान् श्रीहरि ने उस समय वहाँ आये हुए महान् असुर तथा भयंकर दैत्य हिरण्याक्ष को, जिसने उनका मार्ग रोक रखा था, अपनी गदा से मार डाला ॥ ३५ ॥ तत्पश्चात् उसके रक्तपंक से लिप्त अंगों वाले आदिपुरुष भगवान् श्रीहरि ने पृथ्वी को अपने दाढ़ से उठाकर लीलापूर्वक उसे जल के ऊपर स्थापित कर दिया। इसके बाद वे लोकनाथेश्वर भगवान् अपने धाम को चले गये। जो मनुष्य पृथ्वी के उद्धार से सम्बन्धित इस परम विचित्र तथा उत्तम भगवच्चरित को सुनेगा और पढ़ेगा, वह सभी पापों से मुक्त होकर वैष्णवपद प्राप्त करेगा ॥ ३६–३८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध ‘धरण्युद्धारवर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

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