May 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-07 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः सातवाँ अध्याय सुमेरुपर्वत का वर्णन तथा गंगावतरण का आख्यान भुवनकोशवर्णने पर्वतनदीवर्षादिवर्णनम् श्रीनारायण बोले — हे नारद! सुमेरुगिरि के पूर्व में अठारह हजार योजन लम्बाई तथा दो हजार योजन चौड़ाई तथा ऊँचाई वाले दो पर्वत हैं । वे दोनों श्रेष्ठ पर्वत जठर और देवकूट हैं । सुमेरु के पश्चिम में भी दो पर्वत हैं; उनमें पहला पवमान और दूसरा पारियात्र नाम से विख्यात है । वे दोनों पर्वत जठर तथा देवकूट के ही समान ऊँचाई तथा विस्तार वाले कहे गये हैं । सुमेरु के दक्षिण में कैलास और करवीर नाम से विख्यात दो पर्वत हैं; ये दोनों विशाल पर्वतराज पहले के ही समान लम्बाई तथा चौड़ाई वाले हैं । इसी प्रकार सुमेरु के उत्तर में त्रिशृंग और मकर नामक दो पर्वत स्थित हैं। सूर्य की भाँति सदा प्रकाश करता हुआ यह सुवर्णमय सुमेरुपर्वत इन्हीं आठों पर्वतश्रेष्ठों से चारों तरफसे घिरा हुआ है ॥ १–५ ॥ इस सुमेरुपर्वत के शिखर पर ठीक मध्य में पद्मयोनि ब्रह्माजी की पुरी है । यह दस हजार योजन के विस्तार में विराजमान है ॥ ६ ॥ तत्त्वज्ञानी विद्वान् महात्मागण सम-चौकोर इस स्वर्णमयी पुरी के विषय में कहते हैं कि उस पुरी के चारों ओर आठ लोकपालों की श्रेष्ठ पुरियाँ प्रसिद्ध हैं सुवर्णमयी वे पुरियाँ दिशा तथा रूप के अनुसार स्थापित हैं । ढाई हजार योजन के विस्तार में इनकी रचना की गयी है ॥ ७-८१/२ ॥ इस प्रकार सुमेरुपर्वत पर ब्रह्मा तथा इन्द्र, अग्नि आदि लोकपालों की क्रमशः मनोवती, अमरावती, तेजोवती, संयमनी, कृष्णांगना, श्रद्धावती, गन्धवती, महोदया और यशोवती – ये नौ पुरियाँ प्रतिष्ठित हैं ॥ ९-१०१/२ ॥ हे नारद! यज्ञमूर्ति सर्वव्यापी भगवान् विष्णु के बायें पैर के अँगूठे के नख से आघात के कारण ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग में हुए छिद्र के मध्य से गंगा प्रकट हुईं और हे विभो ! वे स्वर्ग के शिखर पर आकर रुक गयीं । सम्पूर्ण प्राणियों के पापों का नाश करने वाले जल से परिपूर्ण ये गंगा संसार में साक्षात् विष्णुपदी के नाम से प्रसिद्ध हैं ॥ ११-१३१/२ ॥ हजार युग का अत्यन्त दीर्घ समय बीतने पर सम्पूर्ण देवनदियों की स्वामिनी वे भगवती गंगा स्वर्ग के शिखर पर जहाँ आयी थीं, वह स्थान तीनों लोक में ‘विष्णुपद’ नाम से विख्यात है । यह वही स्थान है, जहाँ उत्तानपाद के पुत्र परम पवित्र ध्रुव रहते हैं । भगवान् के दोनों चरणकमलों के पवित्र पराग धारण किये हुए वे परम पुण्यात्मा राजर्षि ध्रुव अचल पदवी का आश्रय लेकर आज भी वहीं पर विराजमान हैं ॥ १४–१६१/२ ॥ गंगा के प्रवाह को जानने वाले तथा सभी प्राणियों के हित की कामना करने वाले उदारहृदय सप्तर्षि भी वहीं रहते हैं और उनकी प्रदक्षिणा किया करते हैं ॥ १७१/२ ॥ आत्यन्तिकी सिद्धि (मोक्ष) – स्वरूपिणी ये गंगा तपस्या करने वाले पुरुषों को सिद्धि देने वाली हैं – ऐसा समझकर सिर पर जटाजूट धारण करने वाले वे सिद्धगण उनमें निरन्तर स्नान करते रहते हैं ॥ १८१/२ ॥ तत्पश्चात् वे गंगा विष्णुपद से चलकर हजारों- करोड़ों विमानों से व्याप्त देवमार्ग पर अवतरित होती हुईं चन्द्रमण्डल को आप्लावित करके ब्रह्मलोक में पहुँचीं। हे नारद! वहाँ ब्रह्मलोक में वे देवी गंगा चार भागों में विभक्त होकर चार नामों से चारों दिशाओं में प्रवाहित हुईं और अन्त में वे नद तथा नदियों के स्वामी समुद्र मिल गयीं ॥ १९–२११/२ ॥ सीता, चतुः (चक्षु), अलकनन्दा और भद्रा — इन चार नामों से वे प्रसिद्ध हैं । उनमें से सभी पापों का शमन करने वाली सीता नाम से विख्यात गंगा ब्रह्मलोक से उतरकर केसर नामक पर्वतों के शिखर से गिरती हुईं गन्धमादन पर्वत के शिखर पर गिरीं और वहाँ से भद्राश्ववर्ष के बीच से होती हुई पूर्व दिशा में चली गयीं। इसके बाद देवताओं से पूजित वे देवनदी गंगा क्षारोदधि में जाकर मिल गयीं ॥ २२–२४१/२ ॥ तदनन्तर चक्षु नाम वाली दूसरी गंगा माल्यवान् पर्वत के शिखर से निकलीं और अत्यन्त वेग के साथ बहती हुई केतुमालवर्ष में आ गयीं । पुनः देववन्द्या वे देवनदी गंगा पश्चिम दिशा में आ गयीं और अन्त में सागर में समाविष्ट हो गयीं ॥ २५-२६१/२ ॥ हे नारद! तीसरी वह पुण्यमयी धारा अलकनन्दा नाम से विख्यात है । वह ब्रह्मलोक के दक्षिण से होकर बहुत-से वनों और पर्वत-शिखरों को पार करके पर्वतश्रेष्ठ हेमकूट पर पहुँची । यहाँ से भी निकलकर वह अत्यन्त वेग के साथ बहती हुई भारतवर्ष में आ गयी। इसके बाद नदियों में श्रेष्ठ अलकनन्दा नामक वह तीसरी नदी दक्षिण समुद्र में मिल गयी, जिसमें स्नान के लिये प्रस्थान करने वाले मनुष्यों को पग-पग पर राजसूय तथा अश्वमेध आदि का फल भी दुर्लभ नहीं है ॥ २७–३० ॥ तदनन्तर भद्रा नामक चौथी धारा शृंगवान् पर्वत से निकली। तीनों लोकों को पवित्र करने वाली यह गंगा उत्तर कुरुप्रदेशों को भलीभाँति तृप्त करती हुई अन्त में समुद्र में मिल गयी ॥ ३१-३२ ॥ हे नारद! अन्य बहुत से नद और नदियाँ प्रत्येक वर्ष में हैं । प्रायः ये सभी मेरु और मन्दारपर्वत से ही निकले हुए हैं ॥ ३३ ॥ उन नौ वर्षों में भारतवर्ष कर्मक्षेत्र कहा गया है अन्य आठ वर्ष पृथ्वी पर रहते हुए भी स्वर्ग – भोग प्रदान करनेवाले हैं। हे नारद! ये वर्ष स्वर्ग में रहने वाले पुरुषों के शेष पुण्यों को भोगने के स्थान हैं । देवताओं के समान स्वरूप तथा वज्रतुल्य अंगों वाले उन पुरुषों की आयु दस हजार वर्ष होती है। दस हजार हाथियों के बल से सम्पन्न वे पुरुष स्त्रियों से समन्वित, यथेच्छ कामक्रीडा से सन्तुष्ट तथा सुखी रहते हैं । वहाँ की स्त्रियाँ अपनी आयु समाप्त होने के एक वर्ष पूर्व तक गर्भ धारण करती हैं। वहाँ पर सदा त्रेतायुग के समान समय विद्यमान रहता है ॥ ३४-३७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘भुवनकोश वर्णन में पर्वतनदीवर्षादिवर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Content is available only for registered users. 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