May 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-09 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-नवमोऽध्यायः नौवाँ अध्याय हरिवर्ष में प्रह्लाद के द्वारा नृसिंहरूप की आराधना, केतुमालवर्ष में श्रीलक्ष्मीजी के द्वारा कामदेवरूप की तथा रम्यकवर्ष में मनुजी के द्वारा मत्स्यरूप की स्तुति-उपासना भुवनकोशवर्णने हरिवर्षकेतुमालरम्यकवर्षवर्णनम् श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] पापों का नाश करने वाले, योग से युक्त आत्मा वाले तथा भक्तों पर अनुग्रह करने वाले भगवान् नृसिंह हरिवर्ष में प्रतिष्ठित हैं ॥ १ ॥ भगवान् के गुण- तत्त्वों को जानने वाले परम भागवत असुर प्रह्लाद उनके दयामयरूप का दर्शन करते हुए भक्तिभाव से युक्त होकर उनकी स्तुति करते हैं ॥ २ ॥ प्रह्लाद बोले — तेजों के भी तेज ॐ कारस्वरूप भगवान् नरसिंह को बार-बार नमस्कार है। हे वज्रदंष्ट्र ! आप मेरे सामने प्रकट होइये, प्रकट होइये, मेरे कर्मविषयों को जला डालिये, जला डालिये और मेरे अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट कीजिये, ॐ स्वाहा, मुझे अभय दीजिये तथा मेरे अन्तःकरण में प्रतिष्ठित होइये । ॐ क्ष्रौं । हे प्रभो! अखिल जगत् का कल्याण हो, दुष्टलोग शुद्ध भावना से युक्त हों, सभी प्राणी अपने मन में एक दूसरे के कल्याण का चिन्तन करें, हम सबका मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो और हमारी मति निष्कामभाव से युक्त होकर भगवान् श्रीहरि में प्रविष्ट हो ॥ ३ ॥ [हे भगवन्!] घर, स्त्री, पुत्र, धन और बन्धु-बान्धवों में हमारी आसक्ति न हो और यदि हो तो भगवान् के प्रियजनों में हो । जो संयमी पुरुष केवल प्राण-रक्षा के योग्य आहार से सन्तुष्ट रहता है, वह शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है, किंतु इन्द्रियप्रिय व्यक्ति वैसा नहीं कर पाता ॥ ४ ॥ जिन भगवद्भक्तों के संग से भगवान् के तीर्थतुल्य चरित्र सुनने को मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति-वैभव के सूचक हैं तथा जिनका बार-बार सेवन करने वालों के कानों के मार्ग से भगवान् हृदय में प्रवेश करके उनके सभी प्रकार के मानसिक तथा दैहिक कष्टों को हर लेते हैं – उन भगवद्भक्तों का संग कौन नहीं करना चाहेगा ? ॥ ५ ॥ भगवान् में जिस पुरुष की निष्काम भक्ति होती है, उसके हृदय में देवता, धर्म, ज्ञान आदि सभी गुणोंसहित निवास करते हैं, किंतु अनेक मनोरथों से युक्त होकर बाहरी विषय – सुख की ओर दौड़ने वाले भगवद्भक्तिरहित मनुष्य में महान् गुण कहाँ से हो सकते हैं ? ॥ ६ ॥ जैसे मछलियों को जल अत्यन्त प्रिय है, उसी प्रकार साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही सभी देहधारियों की आत्मा हैं। उनका त्याग करके यदि कोई महत्त्वाभिमानी घर में आसक्त रहता है तो उस दशा में दम्पतियों का महत्त्व केवल उनकी आयु को लेकर माना जाता है, गुणों की दृष्टि से कदापि नहीं ॥ ७ ॥ अतएव तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, मान, कामना, मरणरूप संसारचक्र का वहन करने वाले गृह का परित्याग भय, दीनता, मानसिक सन्ताप के मूल और जन्म-करके भगवान् नृसिंह के चरण का आश्रय लेने वालों को भय कहाँ!॥ ८ ॥ [ हे नारद! ] इस प्रकार वे दैत्यपति प्रह्लाद पापरूपी हाथियों के लिये सिंहस्वरूप तथा हृदयकमल में निवास करने वाले भगवान् नृसिंह की भक्तिपूर्वक निरन्तर स्तुति करते रहते हैं ॥ ९ ॥ केतुमालवर्ष में भगवान् श्रीहरि कामदेव का रूप धारण करके प्रतिष्ठित हैं । उस वर्ष के अधीश्वरों के लिये वे सर्वदा पूजनीय हैं ॥ १० ॥ इस वर्ष की अधीश्वरी तथा महान् लोगों को सम्मान देने वाली समुद्रतनया लक्ष्मीजी इस स्तोत्रसमूह से निरन्तर उनकी उपासना करती हैं ॥ ११ ॥ रमा बोलीं — इन्द्रियों के स्वामी, सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं से लक्षित आत्मा वाले, ज्ञान-क्रिया-संकल्पशक्ति आदि चित्त के धर्मों तथा उनके विषयों के अधिपति, सोलह कलाओं से सम्पन्न, वेदोक्त कर्मों से प्राप्त होने वाले, अन्नमय, अमृतमय, सर्वमय, महनीय, ओजवान् बलशाली तथा कान्तियुक्त भगवान् कामदेव को ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ॐ – इन बीजमन्त्रों के साथ सब ओर से नमस्कार है । [हे प्रभो!] स्त्रियाँ अनेक प्रकार के व्रतों द्वारा आप हृषीकेश्वर की आराधना करके लोक में अन्य पति की इच्छा किया करती हैं; किंतु वे पति उनके प्रिय पुत्र, धन और आयु की रक्षा नहीं कर पाते हैं; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र होते हैं ॥ १२ ॥ [हे परमात्मन्!] पति तो वह होता है, जो स्वयं किसी से भयभीत न रहकर भयग्रस्त जन की भलीभाँति रक्षा करता है । वैसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एक से अधिक पति माने जायँ तो उन्हें परस्पर भय की सम्भावना रहती है। अतः आप अपनी प्राप्ति से बढ़कर और कोई लाभ नहीं मानते ॥ १३ ॥ हे भगवन्! जो स्त्री आपके चरणकमलों के पूजन की कामना करती है और अन्य वस्तु की अभिलाषा नहीं करती, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; किंतु जो किसी एक कामना को लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं और जब भोग पश्चात् वह वस्तु नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे दुःखित होना पड़ता है ॥ १४ ॥ अजित ! इन्द्रियसुख पाने का विचार रखने वाले ब्रह्मा, रुद्र, देव तथा दानव आदि मेरी प्राप्ति के लिये कठिन तप करते हैं; किंतु आपके चरणकमलों की उपासना करने वाले के अतिरिक्त अन्य कोई भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकते; क्योंकि मेरा हृदय सदा आपमें ही लगा रहता है ॥ १५ ॥ हे अच्युत! आप अपने जिस वन्दनीय करकमल को भक्तों के मस्तक पर रखते हैं, उसे मेरे भी सिर पर रखिये। हे वरेण्य ! आप मुझे केवल श्रीवत्सरूप से अपने वक्ष:स्थल पर ही धारण करते हैं । माया से की हुई आप परमेश्वर की लीला को जानने में भला कौन समर्थ है? ॥ १६ ॥ [ हे नारद!] इस प्रकार [केतुमालवर्षमें ] लक्ष्मीजी तथा इस वर्ष के अन्य प्रजापति आदि प्रमुख अधीश्वर भी कामनासिद्धि के लिये कामदेव-रूपधारी लोकबन्धुस्वरूपी श्रीहरि की स्तुति करते हैं ॥ १७ ॥ रम्यक नामक वर्ष में मनुजी भगवान् श्रीहरि की देवदानवपूजित सर्वश्रेष्ठ मत्स्यमूर्ति की निरन्तर इस सत्त्वमय, प्रकार स्तुति करते रहते हैं ॥ १८ ॥ मनुजी बोले — सबसे प्रधान, प्राणसूत्रात्मा, ओजस्वी तथा बलयुक्त ॐकारस्वरूप भगवान् महामत्स्य को बार- बार नमस्कार है । संचरण करते हैं। आपके रूप को ब्रह्मा आदि आप सभी प्राणियों के भीतर और बाहर सभी लोकपाल भी नहीं देख सकते । वेद ही आपका महान् शब्द है। वे ईश्वर आप ही हैं । ब्राह्मण आदि विधिनिषेधात्मकरूप डोरी से इस जगत् को अपने अधीन करके उसे उसी प्रकार नचाते हैं, जैसे कोई नट कठपुतली को नचाता है ॥ १९ ॥ आपके प्रति ईर्ष्याभाव से भरे हुए लोकपाल आपको छोड़कर अलग-अलग तथा मिलकर भी मनुष्य, पशु, नाग आदि जंगम तथा स्थावर प्राणियों की रक्षा करने का प्रयत्न करते हुए भी रक्षा नहीं कर सके ॥ २० ॥ हे अजन्मा प्रभो ! जब ऊँची लहरों से युक्त प्रलयकालीन समुद्र विद्यमान था, तब आप औषधियों और लताओं की निधिस्वरूप पृथ्वी तथा मुझको लेकर उस समुद्र में उत्साहपूर्वक क्रीडा कर रहे थे; जगत् के समस्त प्राणसमुदाय के नियन्ता आप भगवान् मत्स्य को नमस्कार है ॥ २१ ॥ इस प्रकार राजाओं में श्रेष्ठ मनुजी सभी संशयों को समूल समाप्त कर देने वाले मत्स्यरूप में अवतीर्ण देवेश्वर भगवान् श्रीहरि की स्तुति करते हैं ॥ २२ ॥ भगवान् के ध्यानयोग के द्वारा अपने सम्पूर्ण पापों को नष्ट कर चुके तथा महाभागवतों में श्रेष्ठ मनुजी भक्तिपूर्वक भगवान् की उपासना करते हुए यहाँ प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ २३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘भुवनकोशवर्णन में हरिवर्ष-केतुमाल- रम्यकवर्षवर्णन’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ Content is available only for registered users. 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